मुहावरा कहानीः मन चंगा तो-शैल अग्रवाल

जी भर और बातबात में मुहावरे थे उनके पास…जीभ ततैया, दिमाग कम्प्यूटर, पर जिन्दगी जैसे बिना दूल्हे की बरात या बिना पगड़ी का मुखिया।
झट ‘पंचर टायर’ हो जातीं वह, अगर दो-तीन दिन भी अफवाहों की हवा न मिले तो, ‘फुस्स गुब्बारे-सी’ बेमतलब छत पर तो कभी बगीचे में डांय-डांय डोलने लग जातीं, छज्जे दालान झांकती, दूसरों के मुंह का कौर और अंतड़ियाँ गिनने लग जातीं। वैसे तो टीबी सीरियल और फेसबुकिया व ट्विटरी बातें भी थीं मनोरंजन के लिए। किसी ताक-झांक की जरूरत नहीं थी । इंद्रजाल का मोह और महिमा अपरंपार है। सब लाइव ब्रौडकास्ट, वह भी चौबीसों घंटे का देख लो। पर जब आम के आम और गुठलियों के दाम चाहिएँ, बिना आतिशबाजी और फुलझड़ी के धमाका चाहिए , तो हाथ पर हाथ धरे भी तो नहीं बैठा जाता। अंगूर खट्टे कहने वाली नहीं, वह तो फटे दूध से रसगुल्ले बनाने और खाने वालों में से थीं।
देखते ही जान गई थीं कि दाल में कुछ काला है। अरे, कुछ क्यों, पूरी दाल ही काली दिख रही थी अब तो। इश्क और मुश्क छुपाए तो नहीं छुपते । पानी से भरे बताशे चटपटे हों तो पेट भले ही भर जाए पर नीयत तो नहीं भरतीस ना। अमेरिका और इंगलैंड तो नहीं कि पड़ोसी जिए या मरे खबर ही नहीं। सरे आम तोता मैना गुटरगूँ करते देखे थे, बहाना अब चाहे पढ़ने का हो या औफिस के काम का। बात जलेबी की तरह सीधी तो थी पर तह तक पहुँचना पूरी टेढ़ी खीर। पर यह सास भी तो कभी बहू थी ही। आकाश में छेद ही नहीं, थेगड़ी तक लगाना आता था उन्हे।
टाट की थैली में मखमल का पैबंद नहीं सोहता। मेरी बेटी होती तो धान सा कूटती। मैले कपड़े सी फींच फटकार कर सुखा आती। कहाँ जाट कुम्हार और कहां बनिए बामन! मन में गांठ बांध ली थी।
पर पराए चूल्हे पर रोटी कैसे सेकें ? दिमाग घनचक्कर सा घूम रहा था।
मुझे क्या पड़ी , जो पराया दुखड़ा रोऊँ , अपने नैना खोऊँ, मां बाप जानें । पल्ला झाड़कर उठने को हुईं तो ध्यान आया कि पर ना कतरे तो बापदादा की पगड़ी उझाल देगी यह लड़की तो। पूरे मोहल्ले की नाक कटते देर नहीं। अरे, किसने बोई खेती और किसने ओटी कपास। तेल देखो, तेल की धार देखो। लेना एक न देना दो, काजी जी दुबले क्यों शहर के अंदेशे से। लेने के कहीं देने न पड़ जाएँ! कहीं ऐसा तो नहीं कि ज्यादा उलटू-पलटूँ और अपनी ही जांघ उघाड़ लूँ। तिल का ताड़ तो नहीं बना रही, मैं। हथेली पर सरसों तो नहीं उगा रही, मैं।
अंडे फूटे भी नहीं और मुर्गी गिनने लगी हूँ मैं शायद । सूत न कपास और कोरिया का लठ्ठ्रम लठ्ठा। जिसकी जैसी करनी, उसकी वैसी भरनी। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद नहीं करते। वो क्या जाने पीर पराई, जिसकी फटे न बिबाई ? रायता फैलाना तो आसान, समेटने में कमर टेढ़ी हो जाएगी। इतने से ही डर गई तो मंसूबों के किले कैसे फतह होगे। खानदान की हेकड़ी न निकाल दी तो मैं भी झांसी की रानी नहीं। बिना पंख के बहुत उड़ ली छुकरिया। फिर बिना आग के धुंआ कहाँ?
पर मैं ही क्यों अंधे के आगे रोऊँ और अपने नैना खोऊँ।
ऐंठ के मारै पैंठ को जावे है पूरा खानदान, इसलिए। मजाल कि नाक पर मक्खी तक वैठ जाए। फिर हमारे मुंह मैं भी दही तो नहीं जमा पड़ा। हेकड़ी तो निकालनी ही पड़ेगी। जुबां दी है तो बोलूंगी भी। एक मझली पूरे तलाब को गंदा कर दे। फिर घर-घर बहू-बेटियाँ हैं। माना अपने-अपने हमाम में हम सब नंगे हैं ही पर देखकर कौन मरी मक्खी निगल सके! समय पर करो रोकथाम, ज्यादा ना बिगड़ेंगे काम। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलै है। ये बाल धूप में तो सफेद ना किए। उड़ती चिड़िया के पर पहचानूँ। यह तो पता करना ही होगा कि ऊंट अब किस करबट बैठता है?
अभी वो मन ही मन आगे की रणनीति बना ही रही थीं कि शेफाली और समीर आ गए।
दादी आशीर्वाद दो, घर बसा लिया है हमने। भगवान के बाद दूसरा आशीर्वाद आपका। मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है न आप लोगों को ।
मुहल्ले भर की दादी को काटो तेो खून नहीं। मुर्दे सी सुन्न। जैसे खूँखार भेड़ियों में घिरी हिरणी। पलपल पहले के सारे मंसूबे कपूर से काफुर। कांच की परी तूफान में उड़ रही थी । गनीमत थी कि बिल्ली थैली से बाहर ना निकली थी। जो अंगूठी में जड़ गया वही तो नगीना, वही इज्जत और शान। उबले दूध पर रोने का वक्त नहीं यह। का बरखा जब कृषि सुखानी। काल करे सो आज कर, वरना इस कीचड़ में तो ऐसी झपाझप मचेगी कि धोए न धुलेगी। भले ही वायरलेस और फाइव जी का कनेक्शन हो पर वायरस आते देर नहीं लगती। शादी कर ली है, वरना आजकल तो बिना शादी के ही मैरिज.कौम खुले पड़े है चारो तरफ। सूअर का बाल है अब तो रिश्तों की आँख में। पटी तो पटी, वरना छुट्टा छुट्टी। यह भी तो बुरा नहीं। एक हाथ में भाला तलवार और दूसरे में चकला बेलन, दुधारु तलवार शादी से तो बेहतर ही है यह भी कि मनमाफिक साथी चुनो। फिर खून हमेशा गाढ़ा पानी से, अपने तो बस अपने इनपर कैसा शक-शुबहा। घर और दिमाग दोनों के कपाट तुरंत खुल गए थे उनके।
बांहों में भरकर बोलीं, किशमिश झुआरे सा क्यों मुँह सूखा हुआ है तुम्हारा। गए जमाने की बात है जात पांत। हाथी के दांत खाने के और और दिखाने के और होते हैं। राजा और प्रजा के लिए कहीं एक कानून नहीं। चालाक कोयल के अंड़े कौए के घोंसले में पलते हैं। अब तो जैसी सेज, वैसी नींद। आराम से पैर पसार लो अपने। मन चंगा तो कठौती में गंगा। जिसने की शरम उसके फूटे करम। संभाल लूंगी मैं सब। बूढ़े पेड़ तो होवैं ही हैं दरकती मिट्टी को जड़ों से बांधे रखने को। देवी -देवता और पुरखों का हाथ रहे सिर पर। कड़ुवे नीम से बड़े हो जाओ। खूब फलो फूलो और सदा हरे भरे रहो।
चाय की प्याली में उठा तूफान शांत हो चुका था। हो भी क्यों न – उनका मन कह रहा था-कर भला तो हो भला!

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com

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