1.
कहाँ है निजता!
गूगल से मिलकर देखो
हर सवाल का जवाब है,
दुनियां तो पूरी ही अब,
इक खुली किताब है!
कोई गली रास्ता या नुक्कड़
जो चाहें ढूढो अगर
जी.पी.एस.तुम्हारे पास है!
अँतरिक्ष से जो चित्र खींचे,
उनसे कहीं भी झाँको
किसीके घर में झांकने से,
निजता कहाँ रह गई…..
हर सड़क चौराहे पर कैमरे लगे हैं
निजता कहाँ रही…..
ये तो कल की बात है!
किसी के ई मेल या बैंक अकांउंट
को हैक करना मामूली सी बात है,
पास वर्ड बदलते रहो
बस कहने की बात है!
अब सब कुछ आधार से जोड़ कर,
निजता की बात करना,
फ़िज़ूल बात है
ज़रा ज़रा से कैमरे
बटन में लगाओ
पैन मे लगाओ
तस्वीर में छुपाओ
और झांकलो कहीं भी
निजता की बात करना,
ये तो बस जुमला है
या मज़ाक है!
2.
अख़बार
सुबह की चाय और अखबार का
साथ है कितना पुराना!
एक के बिना अधूरा दूसरा,
ये हमने है जाना या
हम से पुरानों ने ही जाना।
चौबीस घंटे से पहले,
ये हो जाता है पुराना।
पुराने अख़बारों की पर्तों का,
हर घर मे होता है,
कहीं न कहीं कोई ठिकाना।
कभी किसी पुराने अखबार को,
खींच कर निकालना फिर,
साफ़ सफ़ाई कर के
किसी अलमारी में बिछाना।
सफ़र में जाते समय
उस मे जूते लपेटना,
कभी बच्चों की किताबों पर
उसको चढ़ाना।
हमने तो इसे रोटी के डिब्बों,
में भी लगाते देखा था।
अब सुना है,
इसकी स्याही ज़हरीली होती है,
ज़हरीली तो होगी ही
ख़ून और बलात्कार
के रंग मे रंगी होती है।
हैरान हूं कि ये लाल नहीं,
अब भी काली होती है!
भर गया ऊपर तक जब,
अख़बारों का ठिकाना,
रद्दीवाले को बेचा,
दस रु किलो!
लो कुछ वापिस आ गया।
इस अख़बार में कभी
चना जोर-गरम मिलता था,
पकौड़े भी मिलते थे,
खोलने पर किसी खोये की,
तस्वीर भी मिलते देखी थी,
ये श्याम श्वेत फिल्मों
का था ज़माना ।
अब अख़बार की थैलियां नही बनती
जिन से कोई ग़रीब,
चार पैसे कमा कर,
चने खाता था।
आज अख़बार के तिकोन में
दालें नहीं बिकती,
न मसाले ही बिकते है।
आज पैकेजिंग का है ज़माना,
चिप्स, नमकीन, दालें,
बना बनाया भोजन और दूध-दही
अब पौलीथीन की थैलियों में मिलता है…..
इंसान ने क्या चीज़ बनाई थी
पौलीथीन….
वो बन गया, एक सैलाब……………
रोकने से अब नहीं रुक रहा….
पॉलिथीन उड़ रहा है
हवा में… तैर रहा …नदी में…. समंदर में………..
आज का अख़बार अब देख लूं ज़रा
नहीं तो हो, न जाये पुराना।
– बीनू भटनागर
1.
मुझे अपना जैसा बनाने के नाम पर
मेरा स्वत्व छिन कर ले गये
बेड़ियां उतारने के बहाने
कुछ नई बेड़ियां जोड़ गये
भोली मैं
अपनी खुशी की दुनियां में
फुदकती रही चहकती रही
अपने केशों को मर्दों की तरह
छोटा कर
जीती रही एक छलावा
पुरूषाये वस्त्र पहन कर
देती रही अपने को
एक भुलावा
भूल गई
घर के साथ दोहरा शोषण
हो रहा आफिस के काम पर
तडा़क सा किया तलाकित
अधिकार देने के नाम पर
ताकि तुम मुझे
सिंगल मदर या
अविवाहित माँ के रूप में
छोड़ कर
मुझसे अपनी नजर मुड़ा सको
नन्हा गुल मुझे सौप कर
गुलछर्रे उड़ा सको।
मैं जिन्दा थी
केवल रिश्तों के नाम पर
फूल पत्तियों से लदी
अपनी जड़ से विहिन
पर व्यक्तित्व देने के बहाने
नोचते रहे पत्तियों को मेरी शाखों से
चिपकाते रहे
ब्यूटीसेलुन के लोशन से
नकली फूल मेरी देह पर
प्रतियोगी मापदंड बना कर
निहारते रहे अपनी आंखो से।
वस्त्रों के आवरण पर आवरण
मुझे ओढ़ा दिये थे
स्वामी होने की भावना से
आदिम पुरूष ने
कि कोई मुझे
झपट न ले
बनाये थे काराग्रह मेरे चारो और
मै नाईटक्लब की बाला सी
देखती रह गई
जब तुमने एक एक भारी आवरण को उतार कर
मुझे हल्का किया बादलों सा
पर उतारते उतारते
यह क्या किया तुमने
उतार ली मेरी चमड़ी तक
कभी फैशन के नाम पर
कभी स्वतन्त्रता के नाम पर
और अभागी मै
वस्तु थी
बच्चे की पैदाईश के लिये
वस्तु रह गई
दुनियां की नुमाइश के लिये।
2.
मै स्वतन्त्र हूँ
अपनी मर्जी का मालिक
गीता पढ़ुं या नमाज़
कहाँ का कैसा समाज
जो डाले मुझ पर दबाव
यह मैं और मेरा स्वभाव ।
मुझे है सड़ीगली प्रथाओं से परहेज़
यह बात अलग
कि खुद अपनी इच्छा से
बेटी के लिये दे रहा दहेज
बड़े आये तुम हड्डी में कबाब
कैसा और कौन सा दबाब
अपना घर फूँक कर
पितरों की शांति के लिये
बुलाता पन्डितों की फौज
शान से करवाता मृत्युभोज
भाड़ मे जाय समाज-सुधार
मेरा स्टेटस, मेरा अहम
मैं जो करूं मेरी मर्जी ।
हाँ मर्जी गई भाड़ में
जब जीन्स पहने कोई ग्रामीणबाला
तो करदो उसका मुँह काला
रचाये ब्याह उँचे कुल में
नीचे कुल की छोरी
या विधवा बने फिर से दुल्हन
हमारा करेगी मानमर्दन
तो काट कर रख देगें गर्दन
रहे अपनी मर्जी से अकेली
पति के नाम पर आँसू बहाकर
या अब लो जीवनमरण का प्रश्न
कोई अपनी इच्छा से
होना चाहे सती
तो धर लेगें मौन
दबाव देने वाले हम कौन
उसके प्राण उसकी मर्जी ।
भीतर का आतंकवादी
भावनाओं का करता ब्लैकमेल
और चिल्लाता
मुझे किसी ने बहकाया नहीं
फँसाया नहीं
गुमराह नहीं किया
मजहब के लिये मैं करता आत्मबलिदान
दुनिया, समाज
और यह परिवेश क्या करें ?
जो मै करता वह मेरी मर्जी ।
-हरिहर झा
1.
आधुनिक माँ माँ ही नहीं
व्यस्त कारोबारी माँ है
और एक से अधिक बच्चे
अनावश्यक लफड़े हैं
पढ़-लिखकर भी इन्ही में
व्यर्थ जिन्दगी गुजारनी नहीं
बात पैसों से भी ज्यादा समय की
और भागमभाग भरी इस जिन्दगी में
सफल और व्यस्त महिला के पास
समय ही तो कतई नही
क्लब, मनोरंजन , पति, घर और नौकरी
कितने मोर्चे कितने मुद्दे जूझने को
अंतरात्मा आदि शब्द
पुराने और दकियानूसी
शब्द ये पीछे घसीटते
आगे बढ़ती जिन्दगी को
पहला बेटा तब तो ठीक
दूसरे की जरूरत ही नहीं
वरना दूसरा न आने देगी
जबतक कि बेटा न हो,
2
मुक्तक
बदलते रंग देखे बदलती दुनिया के
रिश्ते भी अब अटैचियों जैसे
जरूरत पर ही इस्तेमाल होंगे
वरना धूल खाएँ अटारियों चढ़े
*
कुत्ता पालना आसान बजाय पति के
वो नियंत्रण और संरक्षण अनचाहा
दिन-रात की सेवा सुश्रुषा
शादी नहीं करनी माँ मुझे
बेफिक्र और मस्त जीवन है मेरा
समझाया था कमाऊ बेटी ने मुझे…
*
पैसे की खनक सुनाई देती थी उन्हे भी
जिन तक कोई आवाज आती-जाती नहीं
बदलती दुनिया के पर ये बदलते सिक्के
कागजी नोट और प्लास्टिक के कार्ड जैसे
न बजते न खनकते कर लेते हैं बस सौदे
*
बढ़ती आबादी नियमित बजट
अस्सी का मरीज जाने लगे तो
रिसैसिटेट मत करना
सख्त हिदायत अब अस्पतालों में
डॉक्टर और नर्सों को…
*
पति-पत्नी और बच्चे
बूढ़े मां-बाप को
घर पर छोड़ राम भरोसे
चले गए घूमने जाने कहाँ अकेले
हफ्ते भर का खाना फ्रिज में पड़ा
और चौका ताले से बन्द
उनकी बेबसी पर हंसता…
*
गरीबों को हक नहीं जीने का, बम से उड़ा दो
कौन करे बूढ़ों की सेवा वृद्धाश्रम में भिजवा दो
सब अनचाहा हटा-बढ़ा ही देती है दुनिया
टूटी मेज-कुर्सी, मां-बाप और मुनिया
*
होठों पर आ बैठती हो कभी हंसी बन
आँखों में कभी आँसू-सी तैर जाती हो
जिन्दगी क्यों पूछती हो सवाल इतने
जब खुद ही जवाब ढूँढ लाती हो!
शैल अग्रवाल
महानगर की शरद पूर्णिमा :
हमारे महानगर में भी
कहीं किसी छत के ऊपर
उगा होगा चाँद ,
शरद पूर्णिमा का .
वैसा ही श्वेत शांत दूधिया ,
जैसा उगता था कुछ साल पहले तक.
पर जबसे उगने लगी हैं यहाँ
आकाश को चुनौती देती
ऊंची ऊंची इमारतें ,
तबसे चाँद छिप गया है कहीं ,
जैसे छिप जाते हैं,
चोर सिपाही खेलते बच्चे
दरवाजों, मेज़, कुर्सियों के पीछे .
अब हम चाँद देखते हैं
टीवी के स्क्रीन पर ,
और फिर ,आधी रात से पहले ही
चुपचाप सो जाते हैं।
हमें कोई एहसास नहीं छूता
शरद पूर्णिमा का,क्योंकि ,
हम अगर खीर बनाए भी तो
चांदनी कहाँ है हमारे पास
उसे ठंडा करने को.
-संजीव निगम
पनघट सूने हो गए
पनघट सूने हो गये
जब से दिये हैं पलटे माहौल ने समाज को
अब नहाती है गुसलखाने में नारियाँ
और पनघट सूने हो गये।
चल पड़ते हैं नल सुबहो-शाम
और चल नहीं पाती सिर पर घड़ा
लिए सुन्दरी तब से वो रस्ते ही
सूने हो गये।
धूल मिट्टी से सनी कई ओखलियाँ
कई चक्कियाँ सिसकती हैं चूड़ियों
की खनक को, वो क्या जाने कितने
आँगन पायल की झंकार को तरसते
सूने हो गये।
शुरु हुआ है सिलसिला जब से
ज्मीन को हड़पने का, चोटियों को
क्या पता कितने घर हैं सूने हो गये।
-शबनम शर्मा