मैं जिस कमरे में सोई हुई थी, उसकी खिड़की के शीशे पर होती थपथपाहट से मैं जाग गई और चौंक कर उठ बैठी, कौन होगा? यह देखने के लिए मैंने उठकर बल्ब रौशन किया और अपनी बहन समिया की पलंग के पास खिड़की से गर्दन बाहर निकाल कर देखा।
‘सायरन’ उसने काँपती हुई आवाज़ से कहा।
पलभर के लिए मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि वह क्या कहना चाहती है फिर एकाएक मेरी समझ में सब कुछ आ गया। फैसला करते देर न लगी कि अब यह जगह हमें फ़ौरन ही छोड़नी होगी। मैंने जल्दी से कपड़े बदले। कपड़ा बदलते हुए मैंने चारों तरफ़ हसरतभरी अलविदाई नज़र डाली। उन सारी चीज़ों पर जो बचपन से बेहद अच्छी लगती थीं। और उन्हें संभाल कर रखने में हर तरह की कोशिश करती रही जो अब मेरे वजूद का एक अहम हिस्सा बन चुकी थीं।
चारों तरफ़ रखी हर चीज़ मेरी अपनी थी। मगर इस वक़्त ? इस वक़्त फकत एक चादर और तकिया के अलावा सब कुछ छोड़ कर जा रही थी। बल्कि भागने पर मजबूर थी। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरे दिल से एक गहरी आह चीख बन कर निकल पड़ेगी। सायरन की आवाज़ गोली की तड़तड़ाहट और दूरी कहीं बरसते बमों का शोर जिसे मैं साफ़ सुन सकती थी।
भागने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। इसलिए भागने से पहले मैंने लपक कर सोने डोर में बँधे कुरान को मय जुजदान के उठाया, क्योंकि वह मेरी माँ की आख़िरी निशानी थी। उस यादगार को मैंने गले में लटकाया और कमरे की बत्ती बुझा कर तेज़ी से बाहर निकली।
बाहर निकलते ही पल भर के लिए मेरे दिल में ख्याल आया कि घर के दरवाज़े पर ताला लगा दूँ। फिर मुझे ख़्याल गुज़रा कि कुछ देर बाद तो यह घर भी मेरा नहीं रह जायेगा। इस हक़ीक़त को क़ुबूल करने के बाद भी घर का मोह मुझे टीसन दे रहा था। फिर जाने क्या सोचकर मैंने दरवाज़े पर ताला लगा दिया। चाबी घुमाते हुए मुझे महसूस हुआ जैसे मैंने अपने घर का दरवाज़ा ही नहीं बल्कि फिलिस्तीन का दरवाज़ा बन्द कर रही हूँ। दरवाज़े के ठंडे पल्लों पर कुछ देर अपने गाल सटा कर खड़ी रही फिर सिसक कर रो पड़ी, तभी मेरे पीछे से क़दमों की चाप मुझे आती सुनाई पड़ी। पीछे मुड़कर देखा तो नन्हे से वसीम को खड़ा पाया। उसकी मासूम निगाहों में हैरत और परेशानी साफ़ तौर झलकती नज़र आ रही थी। मैं कुछ कह न सकी सिवाए इसके कि उसे गोद में उठा, उसके गाल चूम लिए और सीने से लगा लिया और महसूस किया कि जब तक हम एक दूसरे के साथ हैं घर में छोड़ी गई चीज़ों का कोई गम नहीं है। मैंने उसके मासूम चेहरे पर नज़र डाली । उसे कहाँ पता था कि उसे नामालूम भविष्य की तरफ़ धकेला जा रहा है?
बाहर अंधेरे में खड़े लोग हमारी ही राह देख रहे थे। सभी अपनी सारी जमा पूँजी छोड़कर निकल पड़े थे और साथ में एक चादर और तकिया लिए हुए थे। घोड़ी की पीठ पर ज़ीन कसी हुई थी। उस पर खाने पीने का थोड़ा बहुत सामान और मेरे दोनों छोटे भतीजों के कपड़ों की पोटलियाँ लाद दी हुई थीं।
“सब अपनी अपनी चीज़ें ख़ुद उठाकर आगे बढ़े। घोड़ी पर इससे ज़्यादा भर न लादा जाए।” मेरे वालिद ने आहिस्ता आवाज़ में कहा और चारों तरफ़ अपनी नज़रें घुमाई।
“और मैं बाबा?” वसीम ने अपनी तोतली जबान में पूछा। उसने भी कुछ न कुछ हाथ में लेकर चलने की हठ की। वसीम की माँ ने उसे समझाया कि वह जिस लकड़ी के साथ घोड़ा–गाड़ी का खेल खेलता था। उस लकड़ी को घोड़ा बनाकर चले मगर उसने अपने छोटे भाई ओसामा की दूध की बोतल लेकर चलने की ज़िद बाँध ली।
“वही नहीं मिलेगी। तुम्हारे हाथों से गिर कर बोतल टूट जायेगी।” वसीम की माँ ने उसे समझाया। अगर बोतल टूट गई तो ओसामा को बगैर दूध के रहना पड़ेगा, इतना भी नहीं समझते हो तुम?” लेकिन वसीम ज़िद करता रहा और आख़िर में रोने लगा।
“अरे अरे बहादुर बच्चे, इस तरह रोते हैं भला?”
यह कहते हुए उसके पापा ने उसे गोद में उठा लिया फिर भी वसीम का मचलना कम न हुआ। आख़िर उसे दूध की बोतल देनी ही पड़ी। दूसरी बोतल घोड़ी की पीठ पर लदे हुए सामान में बँधी हुई थी।
इस सारी स्थिति में मेरे मस्तमौला जवान भाई कमाल की हिम्मत और हौसले को डगमगा दिया था। उसे गाँव की सुरक्षा के लिए दूसरे जवानों के साथ वही ठहरना था।
“अब तुम लोग यहाँ से निकल जाओ…खुदाहाफिज़!” उसने रुंधी आवाज़ से कहा।
हम में से किसी के क़दम नहीं उठ रहे थे। हमारी यह हालत देखकर उसने ज़रा सख़्त और ऊँची आवाज़ से कहा , “मैं कह रहा हूँ न कि तुम सब यहाँ लौटोगे। अपनी यह सरज़मीन हम किसी को रौंदने नहीं देंगे… समझो मेरी बात…जाओ।”
इतनी देर में समिया भी ऊपर की मंज़िल से किताबों की एक गठरी लेकर सहमी सी आ गई।
“मैं नहीं छोड़ सकती।” उसने माफ़ी भरे स्वर में अपनी मज़बूरी जताई। “यह बेकार की बातों का वक़्त नहीं है।” मैंने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया ताकि वक़्त की बचत हो और जल्द से जल्द निकला जा सके।
“अब वक़्त बर्बाद न करो” मैंने शंकित स्वर में इधर–उधर ताकते हुए कहा – “वह लोग आ रहे हैं, उनके क़दमों की आहट साफ़ सुनाई पड़ रही है।”
रात की फैली गोद के अंधेरे में हम चल पड़े। किसी के सर पर सामान से भरी गठठरी तो नहीं थी । हर एक के हाथ में सिर्फ़ एक चादर और तकिया था। सब लोग ख़ामोशी से दक्षिण की तरफ़ बढ़ने लगे जिस ओर मिस्र की चौकियाँ थीं। देखते–देखते नौ इंसानों का हमारा खानदान बेघरबार और बेसहारा सा हो गया था। हमारे जमे पैर उठ नहीं रहे थे और दिल पर भारी बोझ महसूस हो रहा था।
जाने क्यों हमें अंदर ही अंदर महसूस हो रहा था जैसे कि यह ज़मीन अब हमारी नहीं रह गई थी। नज़र झुकाए, टूटी कमर से लड़खड़ाते, घसिटते बेमन से हम आगे बढ़ रहे थे। उन तमाम लोगों का हम बोझ बोझ ढो रहे थे जिन्हें सदियों से आज तक बेघरबार बनाया गया था।
हमारी तरह के बेघरबार हुए लोगों की आवाज़ हमें साफ़ सुनाई दे रही थी। हमारे पड़ोस के सब लोग अपना अपना घरबार छोड़ कर निकल पड़े थे। हर परिवार ने रौशनी के लिए अपने हाथों में लालटेनें पकड़ रखी थीं। अंधेरे में वह कंदीले साफ़ नज़र आ रही थीं और गिनी जा सकती थीं और इसी से बेघरबार हुए लोगों की तादाद भी मालूम हो सकती थी ।
रात के अंधेरे में हम एक वीरान इलाक़े से गुज़र रहे थे। एकाएक सन्नाटे को चीरती मेरी छोटी बहन हुदा की वहशतनाक चीख सुनाई पड़ी और हम सब काँप उठे। आग बरसाते एक गोले ने हमारी आंखों को चलाचौंध कर दिया। एक भयानक धमाका हुआ और आग का फुव्वारा जैसे आसमान की तरफ़ उछला और हमें अपने चेहरे झुलस जाने का अहसास हुआ।
क्या हो रहा था यह सब? इससे पहले की हमारी समझ में कुछ आता कि नन्हा समीर फटी हुई आवाज़ में चीख उठा, “वसीम!”
इस आवाज़ को सुनकर हम सब घबराकर दौड़े और उसके जलते कपड़ों को बुझाना शुरू कर दिया। बाबा ने फ़ौरन उसे गोद में उठा लिया । वह इतनी बुरी तरह से ज़ख्मी हो गया था कि अब उसका बचना मुश्किल था। वह चीख रहा था और माँ को पुकार रहा था।
तभी समिया घबराई हुई आवाज़ से बोल उठी, “इस तरफ़ कहीं आग लगी है ऐसा लगता है।”
हम सब बेतहाशा भागने लगे। बाबा ने अपने बूढ़े हाथों में वसीम को उठा रखा था। वह इस हमले का पहला शिकार था। जंग में मर मिटने वाला पहला सिपाही !
भागते–भागते हम एक पहाड़ी पर चढ़ गए। वहाँ हमें लगा कि हम सुरक्षित हैं। हमको सब से ज़्यादा फ़िक्र छोटे वसीम की थी! उसकी हालत जानने के लिए हम बाबा को घेरे खड़े थे। बाबा की गोद में वह आख़िरी सांसें ले रहा था। उसकी दोनों मासूम आँखें खुली हुई थीं। गालों पर आँसू की लकीरें बह रही थीं। उसके मुन्ने होंठ हिल रहे थे जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रहा हो मगर बावजूद कोशिश के गले से आवाज़ निकलती न थी। उसकी निगाहें घूमती–घूमती आख़िर में अपनी माँ पर जाकर रुक गईं। माँ ने आँसू भरी आँखों से कहा “बोलने की कोशिश मत करो मेरे जिगर के टुकड़े।” इतना कह उसका ख़ुद का गला भर आया और वह सिसक सिसक कर रोने लगी।
वसीम एकाएक बाबा की गोद में मचला और उछल कर अपने दोनों हाथ बड़ी कोशिश से फैला कर हमें हैरत में डाल दिया।
“देखो माँ, मैंने यह बोतल नहीं छोड़ी है।” उसने बड़ी मुश्किल से कहा। उसके हाथों में छोटे भाई ओसामा की दूध की बोतल थी ।
उसी के साथ उसे ज़ोर से हिचकी आई और उसका बदन ढीला पड़ने लगा। उसकी मासूम आँखें हमेशा के लिए बन्द हो गईं। बाबा ने बेक़रार होकर उसे सीने से लगाया और हम एक साथ ऊँची आवाज़ में रो पड़े।
अपने हाथों से बाबा ने एक छोटी सी क़ब्र खोदी। कुरान की आयतें पढ़ीं। नमाज़ अदा की और अपने पोते को वहीं दफ़ना दिया।
चारों तरफ़ से गोलियाँ चलने और बमबारी की आवाज़ें आ रही थीं। समिया हाथ में कंदील थामे सब को रास्ता दिखाती हुई आगे चल रही थी।
मैंने आख़िरी बार पीछे मुड़कर देखा। पहाड़ी पर बेशुमार कंदीले जलती हुई दिखाई दे रही थीं।
अरबी से अनुवादः नासिरा शर्मा
हमारे समय की प्रसिद्ध साहित्यकारा व अनुवादक
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