कहानी समकालीनः सूरज-शैल अग्रवाल


‘मौसम माने रखता है । सूरज निकल आए तो त्योहार-सा महसूस होता है। अंजुरी भर-भर सोखते हैं लोग धूप को यहाँ। ‘
‘ और मन भी। मौसम मन के भी तो होते हैं…धूप छाँव या अच्छे-बुरे, सब हमारी जरूरतों के अनुसार। सच्चाई तो यह कि न तो सूरज उगता है और ना ही डूबता ही है कभी। हम ही घूमते रहते हैं इसके इर्द-गिर्द।‘

सब कुछ नया ही तो था कोमल के लिए-नए मित्र, नया घर, नया देश, और पलवल बदलती जीवन की धूप-छाँव और बातें व उनके संदर्भ तक।…

बिस्तर पर नाइटी और पजामा सूट रखकर ब्रश करने बाथरूम में जा ही रही थी कि टोक दी गई,

‘ तुम लोग क्या अभी भी रात में नाइटी और पजामा सूट पहनकर ही सोते हो?’

‘हाँ। और आप लोग?‘ कोमल आश्चर्य में थी ।

‘शादी-शुदा जोड़े ऐसे ही सोते हैं यहाँ पर तो। हम भी…। कपड़ों की क्या जरूरत पति-पत्नी के बीच!’

सू के चेहरे पर एक भोंडी हँसी थी और कोमल पूरी तरह से असमंजस में कि क्या कहे अश्लील-सा मोड़ लेते इस प्रसंग पर? कुछ न सूझा तो, ‘मुझे तो नींद ही न आए। रात भर उकड़ूँ ही बैठी रह जाऊँ।’ कहती, तेजी से बाथ-रूम में जा छुपी। कोमल वाकई में असहज थी, घर की साज-सज्जा से लेकर गृह-स्वामिनी तक, हर चीज से । बात-बात पर सलाह -मशवरा, मानो एक दौड़-सी लगी हुई थी।
हर बात में यहाँ तो…और हम भी, मानो इंग्लैंड के बारे में कुछ जानती ही नहीं थी वह।

माना पाँच साल हो गए इन्हें यहाँ रहते हुए, परन्तु छह महीने तो उसे भी हो ही गए हैं!

सू जल्दी-जल्दी यहाँ का सब कुछ अपना लेना चाहती थी । और पुराना सब कुछ बदल देना, बस चले तो चमड़ी, सूरत, सभी कुछ। मानो बलिया से इंगलैंड तक का यह सफर अभी तक पूरा ही नहीं हुआ था उसका।

सुनीता की जगह सू नाम भाता , पर अक्सर ही लोग अभी भी सुनीता ही कहते।

‘सू कहो । छोटा-सा यह नाम बोलने में भी आसान है और स्मार्ट भी है।’ तुरंत सही करती सू।

‘यू मीन सू,सू?’

पर दो बार कहने से तो नाम का पूरा अर्थ ही बदल गया।

‘छी। सू-सू नहीं, सिर्फ़ सू।’

मानो कुछ छींटें उसपर भी पड़ ही गई थीं और तुरंत ही साफ़ करना ज़रूरी था।
परन्तु कोमल और भी गंभीर ही होती चली गई,
‘इतना भी क्या पैरों में बिछना…देश बदला है, अस्मिता और पहचान को यूँ लथेड़ने की क्या जरूरत ।’

परन्तु भारत से तो ब्रिटेन की सू का कोई लेना-देना ही नहीं था अब!

‘छूटा सो छूटा । गर्मी, गर्दा और गरीबी के अलावा कुछ नहीं भारत में।’

भारत से जुड़ी हर चीज को तेज़ी से हटाती जा रही थी वह घर से भी और मन से भी।

‘ मेरे तो चौके में भी ज़्यादातर बेक्ड बीन्स और पास्ता या फिर फिश एंड चिप्स जैसा ही कुछ पकता हैं। रोटी-सब्जी तो तुम्हारी तरह का कोई पक्का हिन्दुस्तानी आ जाए, तभी बनाते हैं हम। वह भी अगर दो बार खा लें तो बीमार पड़ जाते हैं।’

दो बार दोहराई थी यह बात उसने पिछले दो घंटे में।

‘ ज्यादा परेशान न हों लंच को लेकर। जो भी पकेगा, हम वही शौक और स्वाद से खा लेंगे। सिर्फ गरम-गरम दाल चावल भी बड़े शौक से खाते हैं हम तो।’

‘सिर्फ दाल-चावल…यह तो गरीबों का खाना है। सिर्फ यह कैसे परोस सकती हूँ मैं अपने मेहमानों के आगे!’

‘क्यों नहीं?’

‘सिर्फ़ ग़रीबों का ही नहीं, पूरे भारत का खाना है। चटनी, दही, पापड़ के साथ तो कहने ही क्या स्वाद और तृप्ति दोनों के ही!’

पर सू असमंजस में ही दिखी । जबाव दिए बगैर ही वापस अपने कमरे में चली गई।

सू की हर बात कोमल को अचंभित कर रही थी। अंदर छुपी कुंठाओं की कई-कई परतें खोल रही थी। और सू भी परेशान थी यह सोच-सोचकर कि उसकी और कोमल की सोच में इतनी दूरियाँ कैसे?

एक बुनियादी फर्क था दोनों की रुचि और सोच में। शिक्षा और संस्कार में भी।

कोमल के लम्बे बाल सलीके से जूड़े में बंधे थे और उसकी लम्बी गर्दन को और भी नाजुक कोण दे रहे थे। फिर साड़ी बिन्दी देखकर तो लगता ही नहीं था कि भारत छूटा भी है उससे। अपनी भारतीय पहचान पर गर्व था उसे।

दूसरी तरफ पंख नुची मुर्गी की तरह बेहद छोटे बालों वाली और मिनी स्कर्ट के साथ कसे और उतने ही छोटे ब्लाउज व गहरी लाल लिपिस्टिक लगाए खड़ी सू के व्यक्तित्व में सब कुछ भटका हुआ, असहज और मदद मांगता-सा ही दिखता। मानो वह ख़ुद से अपनी पहचान से खुश नहीं थी। जो नहीं था.वही पाने को बेताब थी।

कोमल से उसकी यह बेचैनी देखी नहीं जा रही थी। अंग्रेज तो नहीं, पूरी बार-वेटर-सी जरूर दिख रही थी वह अपने इस असफल प्रयास में ।
फूहड़ कसे कपड़े भारी वक्षों को और भी उभार दे रहे थे और आंखों के नीचे पड़े गहरे काले धब्बे, उसके अनियंत्रित जीवन शैली की लगातार चुगली किए जा रहे थे।

कोमल का मन किया सँभाल ले सब आगे बढ़कर । कहे-‘ माँ कहती थी- आँख पर पट्टी बांधकर नहीं भागते। ठोकर लग सकती है।’
कमरे में भरी सिगरेट और जिन की मिली-जुली महक बेचैन करने लगी थी। ताजी हवा के लिए खिड़की खोली ही, कि फैंसी सिगार मुँह में दबाए जिन और टौनिक के दो पैग बना लाई सू।

एक और सिगार भी ट्रे में रखा दिखा उसे।

ट्रे कोमल के सामने रखते ही चहककर बोली,’ पी कर तो देखो। दूसरी दुनिया में न पहुँच जाओ, तो कहना।’

‘पर इतनी जल्दी दुनिया छोड़ने का कोई इरादा नहीं मेरा।’ कोमल ने सारे मनसूबों पर एक हलके से मजाक से ही पानी फेर दिया।
प्यार से उसे पेट सहलाते देख तो सू भी पूछे बिना न रह सकी, ‘कब आ रहा है नन्हा मेहमान?’

‘अभी तो वक्त है पांच-छह महीने का।’ कोमल ने लजाते-शरमाते बताया।

‘अरे वाह ! फिर तो साथ-साथ ही खुशखबरी देंगे हम दोनों।’

‘अच्छा आप भी…’

सू और कोमल दोनों ही खिलखिलाकर साथ-साथ हँस रही थीं अब ।

अगले पल ही सू की निगाह वापस ट्रे में रखे गिलासों पर जा अटकी,

‘ मजाक किनारे, सारा तनाव, सारी थकान मिट जाएगी। सभी पीते हैं यहाँ पर। हम भी।…एक सिप तो लो।’

सू के इस हम भी…की कोमल भी आदी हो चली थी अब तो ।

‘ मुझे तो कोई तनाव नहीं। नींद भी झट से आ जाती है। हमारे यहाँ तो रात को सोने के पहले अनुलोम-विलोम किया जाता है। सभी करते हैं परिवार में। हम भी…।’

सू के ही अंदाज में जब कोमल के मुँह से ‘हम भी’ निकला तो दोनों की झरनों जैसी हँसी खिल-खिलकर फैल गई।
और अनजाने ही सही, निशाना भी सही जगह पर ही लगा था।

‘ बहुत जिद्दी हो। कैसे यहाँ के वातावरण में रच-बस पाओगी ? समझदार तो वही,जो वक़्त के साथ बदले। जैसा देस, वैसा ही भेस रखे।’

‘जिन्दगी पल-पल चुनाव मांगती है और यह व्यक्ति का हक है कि वह अपने लिए क्या चुनता है। ‘

कोमल की आंखें अब अतीत के गलियारे में घूम रही थीं। माँ किसी भी बात को मना नहीं करती थीं, परन्तु उनका हर वाक्य भाई-बहनों को याद रहता। सचेत करता रहता। बदलाव भी तो अंदर से ही आता है एक अहसास और लगाव बनकर। तभी तो चीजें बदल पाती हैं। बाहर का दबाव तो सिर्फ मोड़ता और तोड़ता है।

बार-बार ‘श’ को ‘स’ बोलने वाली सू तो निश्चय हीं बदली नहीं थी। संवरी नहीं थी। ना ही टूटी-बिखरी ही थी अभी इस प्रकरण में। हाँ, थोड़ी भ्रमित अवश्य दिखी कोमल को।

एक धारणा जरूर मन में घर गई थी- जैसा देश,वैसा वेश… वह भी कहावत को ठीक से समझे बगैर।

पर सूरजमुखी भला कैसे गुलाब बन सकता है? हाँ, एक ही क्यारी में खिल अवश्य सकता है गुलाब के साथ!

कोमल ने गौर से देखा तो सामने एक अनपढ़ और अनगढ़ खड़ी थी, अपने सारे भ्रमों के साथ। वैसे भ्रम तो सभी पालते हैं। वह खुद भी। पोषक जो हैं अहम् के। और अहम् की खाद पर ही तो फलते-फूलते हैं सभी।

‘ औरों से क्या बात कर पाती होगी, पर! और अगर कर भी ले तो क्या समझ भी पाते होंगे वह इसे? यह तो ख़ुद नहीं जानती कि क्या है इसकी चाह और क्या है इसकी सोच?’

मीन-मेख निकालने की आदत तो नहीं थी , पर भटकों का हाथ पकड़ना भी नहीं भूल पाती है कभी कोमल।

‘धूप कड़ी हो तो जीवन की मृग-मरीचिका तो भटकाती ही है। और एक बार भटक जाओ तो भटकते ही रह जाता है इनसान। तुरपाई भी तो वक्त पर ही सही, वरना बखिया उधड़ते भी तो देर नहीं लगती। माँ कहा करती थीं दो तरह के लोग होते हैं दुनिया में। एक वह जो ठोकर लगने के पहले ही संभल जाते हैं, और दूसरे वह जो ठोकर खाने के बाद भी नहीं संभलते। बार-बार चोट खाना उनकी आदत में शामिल हो जाता है।’

कोमल को एकटक अपनी तरफ देखते देखकर सू एक बार फिर से हँस पड़ी,’अच्छा बाबा तुम जीतीं और मैं हारी।’

दोनों गिलास उठाकर वापस चल दी सू। और तब कोमल ने देखा कि चलते समय उसकी थुलथुल जांघें आपस में टकरा रही थीं और थके पैर घिसटते से उठते थे। बिल्कुल आकाश में मुंह लटकाए अंधेरे चांद की तरह ही।

समझ में नहीं आया कि बादलों का दोष था या फिर खुद उस चांद का!

जाने क्यों उसे बचपन की सहेली नीरा याद आ गई , जिसे मोटी कहकर जब भी कोई चिढ़ाता, तो वह रोती-सी आकर उस के कन्धे से टिक जाती थी। परन्तु मीठा फिर भी न छूटता था उससे।

वक्त की कितनी दूरियाँ नाप ली हैं जिन्दगी ने।

यह भी तो अकेली ही है। इसे भी तो चाहिए एक सहेली गले लगाने को!

अब सू पर कोमल को दया आ रही थी। दौड़कर जाती सू को गले लगा लिया। यही नहीं गाल पर गुड-नाइट का चुंबन भी दिया । फिर मुस्कराती बोली- ‘सुबह मिलते हैं।’

‘हाँ,हाँ। सुबह मिलते हैं स्वीटी। गुडनाइट।’

सू के चेहरे पर भी अब स्नेहिल मुस्कान थी।

‘इतनी भी बुरी नहीं है यह सू। लिफाफे से कभी चिठ्ठी को नहीं पढ़ना चाहिए। ‘

सोने की कोशिश में बिस्तर पर लेटी कोमल सोचे ही जा रही थी, ‘बेवजह ही बहक जाते हैं कई। खुद ही बीच मझधार में जा खड़े होते हैं। पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि आँखें बन्द कर ली जाएँ! अगर यह उसकी बहन होती , मित्र होती तो क्या वह इसे इस बहाव से बाहर खींच लाने की कोशिश भी न करती! डूब जाने देती !’

बेचैन सोच को शांत करने के लिए कोमल ने फिर से करवट बदली। फिर भी मन में चल रही बहस चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

‘तुरंत अंग्रेज बनने की इस बेताबी को और इन ऊट-पटांग बातों का भ्रम मिटाने की एक कोशिश तो कर ही सकती है वह !’

चिढ़ अब पश्चाताप फिर करुणा में बदलती जा रही थी। कुछ करने को उकसाने लगी थी। परन्तु सच्चाई तो यह थी कि बहन या मित्र तो दूर की बात, वह तो उसे ठीक से जानती तक नहीं थी।
‘प्रतीति बिनु प्रीत कहाँ और कैसी!’ उलझी कोमल और-और उलझती ही जा रही थी।

‘अपनी- अपनी पसंद है , अपनी-अपनी जिन्दगी है , चाहे जैसे जिएँ ! पूरी दुनिया को सिर पर लेकर तो नहीं ही घूमा जा सकता है! फिर संस्कृति और संस्कार  एक दिन में तो नहीं आते। हर एक की अपनी-अपनी पात्रता और अपना-अपना विवेक है ! क्या बचाया जाए और क्या छोड़ा जाए, यह फैसला भी तो। एक रात ही तो रहेगी वह यहाँ। बेकार ही ज्यादा सोचे जा रही है वह। पता नहीं फिर मुलाकात होगी भी या नहीं!’
अपने ही विचारों की मृग-मरीचिका में भटकती कोमल रात भर जगी पड़ी रही। उसे क्या पता था कि प्रारब्ध हँस रहा है उस पर।

सुबह उठी तो देखा सू सामने तैयार खड़ी थी, वह भी बिना नहाए-धोए ही, पूरे मेक अप के साथ; होठों पर वही गहरी लाल लिपिस्टिक और मैच करता पलकों पर लाल गुलाबी आइ-शैडो।

‘कहीं जा रही हो क्या?’पूछने पर कहा-‘ नहीं तो। तुम्हे शायद पता नहीं, यहाँ सब रात में ही नहाते हैं। और सुबह तैयार होकर ही नीचे आते हैं। हम भी…।’

‘ उन्हें तो काम पर जाने की जल्दी रहती है,परन्तु तुम क्यों इतनी हड़बड़ी में रहती हो? क्यों चौबीसों घंटे के तनाव और दबाव से खुद को मुक्त नहीं कर पातीं? जिन्दगी घड़ी की सूई तो नहीं। इतवार के दिन तो गौड भी आराम करता है।’ पूछना और बताना तो बहुत कुछ चाहती थी कोमल, परन्तु संकोच-वश कुछ पूछ या कह नहीं पाई। और भी आश्चर्य तो तब हुआ जब नाश्ते की टेबल पर बेटी लीपि जिसे अब सू लिली पुकारती थी, बिल्कुल मां की तरह ही तैयार होकर ही नीचे आई थी।

‘यही नियम हो शायद परिवार का! परन्तु घर के अंदर इतने कड़े अनुशासन की क्या जरूरत! घर भी तो मां की गोदी की तरह ही होना चाहिए। चैन और आराम से भरपूर। दरवाजा बन्द तो कायनात अपनी और इनसान खुद उसका बादशाह! ‘ तंद्रा तोड़ती और सिर से पैर तक तौलती सू तभी बोली,

‘ नाश्ते के बाद तुम भी तैयार हो जाओ। सलीका और सजे-धजे रहना भी औरत के जीवन की अहम् जरूरत होती है।‘

‘ पर तैयार हूँ मैं तो!‘ कोमल ने जब कहा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

‘ यह भी कोई तैयार होना है, वह भी तुम्हारी उम्र में…कोई मेकअप नहीं? कोई जेवर नहीं! क्या हमेशा साड़ी ही पहनती हो? सही है, हिन्दुस्तानी कपड़े सस्ते हैं और यह सब कितने मंहगे! ‘

अब वह कोमल को अपने डिजाइनर लेबल दिखा रही थी। उसकी घाट-चोला की साड़ी भी तो काफी मंहगी ही थी! कोमल के संस्कारों ने होठ सिले ही रखे । कुछ नहीं बोली वह उस फूहड़ प्रदर्शन पर। अलबत्ता मुस्कराती हुई उठी और सू का मन रखने को कमरे में जाकर कढ़े-कढ़ाए बाल फिर से काढ़ आई। मौइस्चराइजर और लिपिस्टिक के अलावा कुछ नहीं लगाती थी इसलिए पांच मिनट में वापस भी आ गई।

वहाँ शरद और शांतनु दोनों के बीच गपशप चल रही थी। बहस गरम थी । बिना उसकी तरफ देखे ही, एक कुरसी उसके लिए भी खींच दी गई। मुद्दा था -जैसा देश वैसा भेष, यह मान्यता कितनी जरूरी है और कहाँ तक? क्या कहलाना पसंद करते हो आप ब्रिटिश या फिर अभी भी हिन्दुस्तानी ही?

‘मुझे तो लगता है, जब किसी को अपनाओ तो पूरा-का पूरा अपनाओ, बिना किसी हिचकिचाहट के। ‘

आमलेट बनाती सू किचन से ही बातचीत का पूरा रस ले रही थी और उसकी सोच में बस सफेद और काला ही था, सिलेटी का तो कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था।

शरद ने कोमल को चुप बैठे देखकर एक प्रश्न उसकी तरफ भी उछाल ही दिया,

‘और आपकी क्या राय है, कोमल ?’

कोमल भी अब और चुप न रह सकी, मुद्दा उसके मन के बेहद करीब था और शाम से वह विचलित भी थी।

‘आप ही बताएँ, यदि आप अपना पासपोर्ट न दिखाएँ, तो लोग आपको क्या समझेंगे? यह चमड़ी और नाक-नक्श, क्या पर्याप्त नहीं ये बतलाने को कि हम भारतीय या एशियन हैं? फिर यह द्वन्द क्यों? किसी अन्य देश की नागरिकता भले ही ले लें। बाहर से भले ही बदल भी जाएँ, परन्तु अंदरूनी बदलाव में पीढ़ियों का वक्त लग जाता है। किसी भी चीज के पीछे बदहवास भागने वाले को ही तो ठोकर लगती है। फिर गुलाब को किसी भी नाम से पुकार लो, वह गुलाब ही रहेगा न? बदलेगा तो नहीं।

मेरी सोच है कि जो अच्छा लगे, वही खाओ, पहनो। वैसे ही रहो जैसा मन करे।

फिर अपना घर तो अपना ही घर है, चाहे देश में हो या परदेश में।

हाँ, अगर कहीं यूनिफौर्म की दरकार है तो बात दूसरी है। वैसे अपनाए देश और समाज की मर्यादा का भी ध्यान रखना, सम्मान करना,गुणी संस्कारों को घरोहर मानकर अगली पीढ़ी को सौंपना, हर जिम्मेदार नागरिक का फर्ज भी है और विवेक भी।’

‘और इस अच्छे-बुरे का निर्णय कौन लेगा?’
शांतनु ने तुरंत ही भरपूर चुटकी ली पत्नी की। उन्हे भी बहस में मजा आने लगा था अब।

‘ हमारा अन्तर्मन, हमारा विवेक।’
कहती कोमल उठकर सू का हाथ बटाने चौके में चली गई। दोनों ही गर्भवती थीं । मिल-जुल कर चौके का काम झट से निपट गया। फिर शहर घूमते, खाते-पीते पूरा दिन कैसे निकल गया-पता ही नहीं चला।

शाम को जब चलने का वक्त आया तो सू ने गले लगाकर कहा-’ आती रहना कोमल, हम भी आएंगे। यहाँ परदेश में मित्र ही तो सब कुछ हैं, मित्र भी और रिश्तेदार भी। ‘

कोमल का गला भर आया। समझ गई कि लाख कोशिशों के बावजूद भी सू के अंदर की सुनीता मरी नहीं थी, जिन्दा थी अभी।
फिर तो धीरे-धीरे पहचान भी बढ़ी और आना-जाना भी। और शायद प्यार भी।
वक्त के साथ दोनों के घर बेटियाँ ही आई।

हमउम्र जब मिलतीं तो बड़े प्यार से खेलतीं। परन्तु कोमल ने महसूस किया कि चौदह वर्ष की लिली ही बहुत जल्दी बड़ी हो चुकी थी।
घर में होती तो पूरी गृहिणी दिखती, और बाहर भी बेफिक्र और आजाद किशोरी नहीं, पूरी युवती।

बारह वर्ष की उम्र से ही धकेलकर माँ ने बाहर भेजना शुरु कर दिया था -’ सभी जाते हैं घूमने यहाँ पर अपने-अपने मित्रों के साथ । तुम भी जाओ। घर-घुस्सू बच्चे मुझे कतई पसंद नहीं।’

दो संस्कृतियों का बोझ उठाती लिली अक्सर लड़खड़ा जाती। पर हाथ पकड़ने वाला सहारा देने वाला कोई नहीं था उसके आसपास। माँ-बाप भी नहीं।

शाम होते ही घर से बाहर कर दी जाती। फिर लम्बी सड़कें होतीं और उनसे जूझती लिली। कभी कुछ दोस्त मिल भी जाते। परन्तु अक्सर कोई नहीं। अकेली-अकेली ही बड़ी हो रही थी लिली। यही आदत भी पड़ चुकी थी उसकी। जितना गहरा मेकअप करती, उतनी ही डरी और नर्वस दिखती कोमल को वह। नन्ही, नाजुक उम्र में भी चेहरे पर रंगमंच सा मेकअप और हाथ में बड़ा सा पर्स लेकर जब लिली निकलती तो अपनी उम्र से दुगनी बड़ी दिखती।

हो भी रही थी शायद!

हिम्मत करके कोमल ने कह ही दिया-’ किशोरावस्था में बच्चों को मां-बाप का साथ और सहारा चाहिए, सू। थोड़ा वक्त तुम और शरद लिली को भी दिया करो।’

‘ घर का पूरा काम, ऊपर से रोजलिन का दिन-भर का काम, वक्त ही नहीं मिलता मुझे तो। उलटा लिली से भी अपने कामकाज में हाथ बटवाती हूँ मैं तो। सीख भी जाएगी और मुझे भी मदद मिल जाती है। रही बात शरद की, तो उन्हें तो मुझसे भी बात करने की फुरसत नहीं। इतना व्यस्त रखते हैं खुद को।‘

‘वह सब तो ठीक है। पर जब तुम्हारे साथ हो, तो बात किया करो। मन टटोलती रहा करो। उनकी जरूरतों को समझो।’
कोमल ने फिर से समझाना चाहा।

ऐसे मौकों पर कोमल की आँखों में अक्सर खुद अपनी मां की ममतामयी छवि घूमने लग जाती। उन्ही से तो सीखा है उसने यह धैर्य और प्यार भरा जीने का तरीका। अब मार्ग-दर्शन दे रहा है कोमल को, खुद अपनी बेटी के लालन- पालने में। जी भरकर प्यार करती है कोमल लाडली को। जानती जो है जिन्दगी ज्यादा वक्त नहीं देती।

आत्म-विश्वास से भरपूर बढ़ रही थी महक और यही तो वह चाहती थी सहेली सू की दोनों बेटियों के लिए भी वह। जब मित्र मान ही लिया है, तो उसकी आँखें भी तो खोलनी ही होंगी उसे।

परन्तु यदि कोमल अपने सिद्धातों में विश्वास करती थी, तो सू भी अपने विचारों को उससे अधिक ही सही जानने और मानने वालों में सी थी। दोनों की सोच में कछुए और जिर्राफ जैसा फर्क था। और वक्त भी तो तेजी से भागा जा रहा था।

फिर एक दिन अचानक ही सू का फोन आ गया। बोलने के बजाय लगातार रोए ही जा रही थी वह फोन पर ।

’ क्या हुआ? ‘ कोमल बारबार पूछ रही थी परन्तु सिवाय सिसकियों के कोई जबाव नहीं मिल रहा था उसे।

‘ पहले दो घूंट पानी पी लो। फिर आराम से बैठकर बताओ। बिना पूरी बात जाने-समझे मैं तुम्हारी मदद कैसे कर पाऊंगी !‘
कोमल पूरी तरह से भावुक हो चली थी । सहेली का दुख देखा नहीं जा रहा था।

‘ कैसे बताऊं, मुंह काला कर दिया हमारा । किसी के आगे जाने लायक तक नहीं रहे हम तो!‘
बिना बताए ही कोमल को बात अब कुछ-कुछ समझ में आने लगी थी ।

‘ क्या पेट से है, लिली?‘

‘ हाँ, वह भी कालू के साथ। चुनना ही था तो कोई गोरा चुनती, कम-से-कम औलाद तो सुंदर होती!‘

बात सुनकर कोमल को इतने गंभीर वातावरण में भी हंसी आ गई। सू का गोरों के प्रति यह अतिशय आकर्षण उसे गंभीर से गंभीर वातावरण में भी कुछ और सोचने या समझने नहीं देता था। और तब कोमल ने लगाम अपने हाथ में ले ली।

‘ क्या करता है लड़का?’

‘ पुलिस कौन्स्टेबल है! बाप बस ड्राइवर।’

‘ उससे क्या फर्क पड़ता है। अगर रिश्ते को लेकर गंभीर हो लिली और उसका प्रेमी तो खुशी-खुशी शादी कर दो दोनों की।‘  सहेली को सही सलाह देना कोमल अपना फर्ज मानती थी।

‘ उस कालू के साथ? मेरे जीते जी तो हरगिज ही नहीं !‘

‘ तो फिर रोओ बैठकर। ‘ चिंतित कोमल ने फोन रख दिया।
महीने भर बाद ही लिली और औलिवर की शादी का न्योता मिल गया था।

कोमल और शांतनु गए भी थे।

शादी बड़ी ही सादगी से हुई थी और वर-बधू,दोनों ही बहुत खुश भी दिख रहे थे ।

सात महीने बाद जब लिली ग्रेस और पति के साथ मिलने आई तो कुछ पाउंड नवजात बच्ची को देकर सू और शरद ने विदा कर दिया था उन्हें , वह भी भविष्य में घर न आने की निष्ठुर चेतावनी देते हुए।

एक बेटी और थी अब उनके घर में और वह लिली के परिवार का काला साया उस पर नहीं पड़ने देना चाहते थे।
टूटी-बिखरी लिली ने भी बात बहुत गहराई से अपने मन पर ली। उसके बाद माँ बाप को कभी अपनी शकल नहीं दिखाई।
सू के भी सारे रंग-ढ़ग भी बदल चुके थे।

लिली को तो खो चुकी थी, पर रोजलिन को नहीं खोना चाहती थी वह। पाश्चात्य संस्कृति के साथ भारतीय संस्कार और विवेक के साथ बड़ा कर रही थी वह अब छोटी बेटी को। पूरा वक्त देती। अब न तो अंधी दौड़ ही थी और ना ही अंधी नकल ही। इतवार की इतवार मंदिर, और कभी-कभी तो हिन्दुस्तानी कपड़े भी पहन कर। बेटी की बर जरूरत का पूरा ध्यान रखती । मित्रों के साथ रोजलिन को कभी अकेला न जाने देती। कहीं जाती बेटी, तो माँ संग होती। स्कूल के साथी तक मजाक बनाने लगे थे ओवर-प्रोटेक्टिव इंडियन मदर का। परन्तु सू को बुरा नहीं लगता था अब कुछ भी।

दूध का जला तो छाछ भी फूंक-फूंककर पीएगा ही।

परन्तु इसका असर रोजलिन पर बिल्कुल ही उलटा हुआ। कुंठाओं ने और कठोर बना दिया उसे। वक्त से पहले ही बूढ़ी दिखने लगी। लड़कों से भयभीत रहती। पचास की होने आई अभी तक घर नहीं बसाया। सू इसी गम में बीमार रहने लगी है। अब तो कोमल को भी समझ में नहीं आता , कैसे और क्या समझाए , क्या सलाह दे! कहते हैं कुछ लोग ठोकर खाकर ही संभलते हैं। पर कुछ की चोट इतनी गहरी भी तो होती है कि संभलने की बजाय पूरी तरह से टूट जाते हैं।

काश्,सू को बहुत पहले ही वह समझा पाती कि संतुलन कितना जरूरी है जीवन में, सही गलत का विवेक भी कितना जरूरी है! न तो लगाम को इतना कसना ही चाहिए कि दम घोट दे घोड़ी का और ना ही इतना ढीला ही कि घोड़ी बेकाबू हो जाए। काश् सुनीता उसे बचपन में ही मिल गई होती!

बहुत सारे अफसोस से भरे प्रश्न थे कोमल के मन में, जिनका अब कोई अर्थ भी नहीं था।

पानी पर लिखी होती है जिन्दगी, संभलो नहीं तो दूर तक बहा ले जाती है।

फिर किसके वश में है बीते वक्त को वापस ला पाना!
अब ये अफसोस से भरे प्रश्न व्यर्थ थे। अर्थ खो चुके थे…का बरखा जब कृषि सुखानी।
एकाकी रोजलिन नन सा जीवन व्यतीत कर रही है। लिली को ढंढने की बहुत कोशिश की है सू ने, पर पता ही नहीं चला-कहाँ है, किस शहर में है , किस देश में रह रही है? जिन्दा भी है या नहीं !

किसके वश में है बीते वक्त को लौटा पाना। सू, लिली और रोजलिन की मदद कर पाना!
फिर त्रिया हठ के बारे में किसने नहीं सुना ! औरतों का मन बदल पाना आसान भी तो नहीं।
चाहे कितना ही मित्र माने और जाने, किसी मदद को कभी समझा या स्वीकारा ही नहीं उसने। और अब तो पक्षाघात की शिकार होने के बाद से मुश्किल से ही कुछ कर पाती थी सू।

कुछ भी तो नहीं कर पाई है वह उनके लिए…जाना तो होगा ही, रिश्तेदार कहो या मित्र और कौन है ही उसका!
कोमल को लगा कृष्ण सामने खड़े हैं। वही ‘संभवामि युगे-युगे’ वाले कृष्ण, मित्र के सारथी कृष्ण!
पहला मौका मिलते ही कोमल सू के घर में थी और उसका सामान बांध रही थी।

‘ अब और अकेला नहीं रहने दूंगी मैं तुम्हें। चलो, शायद जगह बदलने से मन भी बदल जाए!’

‘पर, कहाँ पर?’

‘मेरे घर, मेरे साथ। अपने ही तो अपनों के काम आते हैं। हमारे भारत में तो सुख-दुख में किसी को अकेला नहीं छोड़ा जाता। या तो आकर साथ रहते हैं, या फिर अपने साथ ले जाते हैं। यही करते आए हैं सभी। और हम भी …’

उस दूसरी ‘हम भी’ को सुनते ही दोनों सहेलियाँ खुलकर हंस पड़ीं। और तब सारे भ्रम के बादल जाने कहाँ चले गए। कमरे में अब खुलकर धूप बिखरी पड़ी थी और चमकीला सूरज नम पलकों पर सपने-ही-सपने बिखेर रहा था ।…


शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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