हिन्दी को लेकर न तो शोक सभा की जरूरत है , न कोप भवन में जाकर बैठने कीःडॉ. वर्तिका नन्दा

hindiहिंदी सांस में है, पानी में, पहाड़ में, खेत में, सेल्फी में, शहर में, देहात में। इसलिए जाहिर है कि हिंदी की धमक मीडिया में भी है।

90 के दशक में जब निजी मीडिया भारत में दस्तक दे रहा था, मुझे देश के पहले निजी चैनलज़ी टीवी का हिस्सा बनने का मौका मिला। दिल्ली के साउथ एकस्टेंशन के जे ब्लॉक की एक गली के 27 नंबर रिहायशी मकान में जी टीवी का दफ्तर तब यह नहीं जानता था कि यहां एक ऐसा इतिहास रचा जा रहा है जिसे दुनिया हमेशा याद रखेगी। इस मकान में देश के पहले हिंग्लिश न्यूज बुलेटिन के प्रसारण ने हिंदी के समाज को खुशी और नाखुशी दोनों ही दी। हिंदी के कई पुरजोर समर्थकों को लगा कि हिंदी और अंग्रेजी की मिलावट का यह प्रसारण भाषा की गरिमा को ही चौपट कर डालेगा जबकि दूसरे हिस्से का कहना था कि इससे हिंदी का फैलाव बढ़ेगा।

समय ने एक करवट ली। बुलेटिनों की भाषा तय हो गई। हिंगलिश का झमेला खत्म हुआ। 1996 में जब मैं एनडीटीवी का हिस्सा बनी, तब वह खबरों की भाषा की उधेड़बुन के बीच मीडिया और जनता के बीच पुल बनने के रास्ते खोज रहा था। तय हुआ कि एक ही चैनल पर हिंदी और अंग्रेजी के अलग-अलग बुलेटिन दिए जाएं। यह परंपरा दूरदर्शन की स्थापित परंपरा से अलग थी क्योंकि यहां कलेवर अलग था और मकसद भी। यह बदलाव जनसेवा माध्यम की तरह जनता के लिए ही नहीं था, यह बाजार के लिए था और बाजार से चाहिए था पैसा ।

लेकिन इस आर्थिक जरूरत के बावजूद निजी चैनलों की हिंदी ने कहानी को नए सिरे से लिख ही दिया। आज उन पन्नों को एक साथ समेट कर पढ़ने पर लगता है कि हिंदी को लेकर न तो शोक सभा करने की जरूरत है और न ही उसके भविष्य को लेकर कोप भवन में जा बैठने की।

हिंदी अपने उछाल पर है। अगर मीडिया मे हिंदी की स्थिति डगमगा रही है तो यही बात काफी हद तक अंग्रेजी और बाकी भारतीय भाषाओं के लिए भी कही जा सकती है। इसलिए एतिहात की जरूरत वहां भी है। हिंदी के साथ सौभाग्य इस बात का भी है कि इतरा कर चलने के बावजूद हिंदी खुद को संवारने और निखारने के प्रयास में लगातार लगी रहती है। वह न्यूज रूम में उस नोंक-झोंक का हिस्सा हमेशा रही जहां बहस यह थी कि शब्द लाइब्रेरी हो या वाचनालय। खाना हो या व्यंजन। पानी हो या जल। शब्दकोष की हिंदी और आम जनता की हिंदी के बीच मीडिया की हिंदी ने जनता की नब्ज को टटोलते हुए अपनी जगह बनाने की हिम्मत और साफगोई दिखाई है। इस कोशिश में बेशक उसने कई ऐसे कारनामे और कारगुजारियां कर दिखाईं कि उन पर कभी हंसी आई तो कभी बेहद अफसोस हुआ। पर जरा मीडिया में हिंदी की यात्रा पर भी तो गौर फरमाइए।

जब निजी चैनलों पर खबर के प्लेटफॉर्म पर हिंदी उतरी तो अंग्रेजी वालों ने उसे देवनागरी की बजाय रोमन में लिखना ही मुनासिब समझा। जाहिर है कि आसानी चुनने के इस फेर में हिंदी की अनाड़ी फुटबॉल खेली जाने लगी। भाषा की स्लेट हिलने लगी और टेलीप्रांप्टर से जो शब्द पढ़े जाने लगे, वे अक्सर गलतियों से भरपूर रहे। हिंदी को लिखने और पढ़ने वालों में बड़ी तादाद उन्हीं की थी जो हिंदी वाले नहीं थे। अंग्रेजी के मीडिया मालिक इस मुगालते के साथ आगे बढ़ रहे थे कि हिंदी वही सजेगी जिसे अंग्रेजी वाले सजाएंगे। माना यह भी गया कि हिंदी वाले खालिस और क्लिष्ठ हिंदी लिखेंगे। उनकी लिखी भाषा बाजार में बिक ही नहीं सकती। इसलिए अंग्रेजीदां स्कूलों में पढ़े युवकों से ही घिसटती-भटकती हिंदी बुलवा कर काम चलाया जाए। दर्शक अंग्रेजी वालों को हिंदी बोलता देख खुश ही होगा (मजे की बात यह कि ऐसी छूट हिंदी वालों को भी दी जाए, इसकी तब कल्पना तक नहीं की गई)।

कहानी बाजार की थी। करो वही जो बाजार को भाए। लेकिन बाजार भी खालिस की ही मांग करता रहा। कुछ दिनों तक तो प्राइवेट मीडिया की बचकानी और कई बार बेहद गंभीर गलतियों को जनता और विश्लेषक यह कह कर माफ करते रहे कि नए बच्चे से गलतियां हो ही जाती हैं। बाद में बच्चा बड़ा हुआ तो गलतियों को इस तरह नजर अंदाज करना आसान भी न रहा।

अब फिर एक नई करवट की बारी आई। हिंदी वाले हिंदी देखें। अंग्रेजी वाले अंग्रेजी। चैनलों का विभाजन सीधे तौर पर होने लगा। इधर बाजार ने भी हिंदी की पताका फहरा दी। कथित टीआरपी हफ्ते दर हफ्ते यह ऐलान करने लगी कि हिंदी के चैनल सबसे ज्यादा देखे जाते हैं। हिंदी के मुहावरे, उसकी लचक, उसकी मस्ती पसंद की जाती है। हिंदी का रिपोर्ट कार्ड हफ्तों और महीनों में टॉप पर रहा। अब हिंदी चैनलों ने अंग्रेजी से लिए उधार के एंकरों की बजाय अपने प्रोडक्ट खुद तय करने शुरू कर दिए।

हर हिंदी चैनल ने अपने ब्रांड एंबेसेडर बना लिए और उनके नाम पर तिजोरियां भरनी भी शुरू कर दीं। हिंदी अखबारों और हिंदी में पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थानों में ऐसे लोगों के लिए हांक लगाई जाने लगी जो हिंदी बेल्ट के अनुसार खबर तैयार करें। इस दौर में हिंदी की अशुद्धियों को भी खूब नजरअंदाज किया गया। कई ऐसे पत्रकार टीवी के लिए चुन लिए गए जिनका श और स हमेशा गलत डिब्बे में ही जाकर गिरता रहा। चूंकि मालिकों को हिंदी ज्यादा समझ में नहीं आती थी, कई फैसले हड़बड़ी में लिए गए। नतीजतन अब भी टीवी चैनलों पर कई ऐसे पुराने पत्रकार मौजूद हैं जिनकी वर्तनी आज भी सुधर नहीं सकी है और भविष्य में उसके सुधरने के कोई आसार भी नहीं हैं। इसलिए हिंदी का जो कथित अशुद्ध चेहरा टीवी पर दिखता है, उसके लिए मौजूदा पीढ़ी को ही जिम्मेदार ठहराना उन्हें ठगने जैसा ही होगा।

लेकिन अभी एक बदलाव और भी बाकी था। नए दौर ने पाया कि अंग्रेजी की दुकान अब हिंदी की तरफ आना चाह रही है। हवा उलटी दिशा में बहने लगी। अगर हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी में ओबी करने की कोशिश में लगे थे तो अंग्रेजी के पत्रकार भी इससे पीछे नहीं रहे। अब उनके लिए हिंदी एक जरूरत बन गई। इसकी एक बड़ी मिसाल 2004 में देखी जब एनडीटीवी के मालिक प्रणव रॉय ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जमाली का हिंदी में इंटरव्यू किया। एक और मौके पर वे राजनीति के हास्य कलाकार लालू यादव से भी हिंदी में बोलते देखे गए। उधर प्रभु चावला, एम.जे.अकबर और वीर सांघवी भी हिंदी में बोलने लगे।

लेकिन हिंदी का असर सिर्फ न्यूज रूम की स्टाइल बुक और खबर की दुनिया को संचालित करने वाले मालिकों और खबरों को जमा कर लाने वाले पत्रकारों पर ही नहीं पड़ा। हिंदी ने राजनीतिक गलियारे में जमकर धमाचौकड़ी मचाई। हिंदी न बोल पाने वाली सोनिया गांधी हिंदी में लंबे भाषण देने लगीं। जयललिता ने भी हिंदी में अपना हाथ आजमा लिया। राजनीतिक अखाड़ों में हिंदी की पाठशाला खुलने लगी। हिंदी का ककहरा सीखना राजनीति के टेस्ट में पास होने की पहली शर्त बनने लगा। नतीजतन बड़े नेता टीवी चैनलों को अंग्रेजी में बाइट देने के बाद खुद ही हिंदी में भी बाइट देने का आमंत्रण देने लगे। एनडीटीवी ने कुछ साल पहले जब राजनीतिक हंसी के तौर पर – ‘गुस्ताखी माफनाम के एक कार्यक्रम की शुरुआत की तो एक बड़े नेता ने इस बात पर कड़ा ऐतराज जताया कि उन पर कार्टून क्यों नहीं बनाए जा रहे। हिंदी चैनल में दिखना नेताओं के लिए च्यवनप्राश का काम करने लगा। वे जान गए कि संसद से सड़क तक पहुंचना होगा तो हिंदी का हाथ थामना ही होगा। हिंदी न आना या उसे बोल पाने में अक्षमता जाहिर करना फैशन की बात नहीं है। फैशन में रहना हो तो भी हिंदी चाहिए और वोट बटोरने हों तो भी।

हाल यहां तक पहुंचा कि 2014 के चुनाव सोशल मीडिया के मैदान पर लड़े गए। वादों-विवादों-अपवादों की कहानी की बड़ा हिस्सा भी हिंदी में ही कहा गया। आज भी हिंदी के सभी प्रमुख न्यूज चैनल नेताओं पर राजनीतिक कार्टून और टिप्पणियां हिंदी में देकर खूब तालियां बटोर रहे हैं।

हिंदी असल में ऊर्जा की भाषा है। हिंदी गति है, वीर गति नहीं। बहस का केंद्र यह रखने की जरूरत नहीं है कि मीडिया ने हिंदी को क्या दिया। यहां कोई बहस है ही नहीं। बात यहां यह सोच कर मुस्कुराने की है कि हिंदी ने मीडिया को क्या दिया। खबरों के केंद्र से लेकर न्यूज एंटरटेंमेंट चैनल, रेडियो, प्रिंट, फिल्म, नाटक से लेकर हर विधा में हिंदी ने अपने को कायम कर लिया है। अब विश्व हिंदी सम्मेलनों में हिंदी की चिंता से ज्यादा जोर इस पर हो कि हिंदी वाले कुछ और सकारात्मक कैसे हों। छोटे गुट टूटें और हिंदी बने पूरी तरह से ग्लोकल। तिनके तिनके जोड़ कर हिंदी अब हिमालय हो चुकी है। इसलिए हिंदी के चेहरे पर इस समय उत्सव की-सी जो चमक और दमक है, उसे लेकर मुंह मीठा करना तो बनता ही है क्योंकि हिंदी हैतो मीडिया है। हिंदी हैतो हम हैं।

(लेखिका गांव की सेल्फीनाम की पत्रिका की संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष हैं)

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