अपनी बात/ दिसंबर-जनवरी 2015

अपनी बात

baatदिक्कतें हैं और आती रहेंगीं। तकनीकि की, तो कभी स्वास्थ की। फिर भी लेखनी का अभियान जारी है और रहेगा। हाँ यह बात दूसरी है कि जबतक समस्याएँ नहीं सुलझतीं, प्रति माह की जगह  दो माह पर आपकी पत्रिका ‘लेखनी’ हाथों में आएगी। संभवतः न चाहते हुए भी, नहीं जानती कबतक यह क्रम रहे। परिवार में सर्व सम्मति से यही निर्णय लिया गया है। समझाया गया है-कि जी है तो जहान है। ठीक ही तो है। उम्मीद है आप इस परिवर्तन को भी उसी आत्मीयता से स्वीकारेंगे, जैसे आपने लेखनी की इस नई रूप-सज्जा को स्वीकारा है। पाठकों को यह आश्वासन अवश्य देती हूँ, कि स्वास्थ्य कैसा भी हो, कोशिश पूरी रहेगी कि पत्रिका के स्तर में गिरावट न आए ।

निर्णय में स्वजनों का  गिरते स्वास्थ के प्रति भय शामिल है जानती हूँ, और लम्बे समय तक काम के तनाव से बचाना चाहते हैं मुझे, परन्तु लिखना पढ़ना तो मेरे लिए स्वयं एक संजीवनी है। प्रार्थना हैं कि उम्मीद पर खरी उतरती यह नई व्यवस्था सभी के लिए हितकर सिद्ध  होगी और लेखनी और भी सुचारु और दृढ़ होती चली जाएगी!

हाँ, कौतुक इस बात का अवश्य है कि क्या था वह जिसने इसबार ‘भय’  को ही लेखनी का मुख्य विषय चुनने के लिए मजबूर किया। क्या आसपास की सामाजिक और राजनैतिक आँधी और खूनी खबरें मन को विचलित कर रही थीं या फिर व्यक्तिगत कारण और परेशानी ही इसकी वजह थे। खैर…वजह जो भी हो, भय को कब कोई नष्ट कर पाया है। हाँ, इसे दबा और छुपा अवश्य दिया जाता है। पहले मानव का आत्म संरक्षण के लिए हाथ में पत्थर उठाने से लेकर उसे नुकीला करके औजार के रूप में प्रयोग करने तक –विकास के उस ऐतिहासिक पल से लेकर आज तक एक से एक अजीबोगरीब मिसाइल और हथियार अविष्कृत किए गए हैं और नए-नए ग्रह और उपग्रहों की तलाश अनवरत् जारी है।

आधिपत्य और अतिक्रमण के ये नए-नए तरीके, मानव के आत्म-सुरक्षा के अपराजेय भय को ही तो प्रतिलक्षित करते हैं । सृजन की इच्छा हो या विनाश का ताण्डव –प्रेम के साथ-साथ भय का भी उतना ही हाथ है जीवन की सतत् प्रक्रिया और प्रणाली में।

भय भी एक उर्जा ही है और हम सभी जानते हैं कि कोई भी उर्जा नष्ट नहीं होती, मात्र रूप बदल लेती है। मानव इतिहास के आदि काल से ही इस उर्जा का भी सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही रूपों में उपयोग हुआ हैं । इसी के बूते पर अनगिनित नीड़ों के साथ-साथ ही कई-कई सभ्यताएं भी बनी हैं और बिगड़ी भी गई हैं। एक तरफ मानव चंद्रमा और मंगलग्रह तक जा पहुँचा है, वहाँ बसने और फसल उपजाने के उपक्रम कर रहा है, पूरी की पूरी बसी बसाई बिरादरी मिनटों में साफ भी कर दी गई है, क्योंकि कभी किसी धर्म विशेष से खतरा महसूस हुआ है तो कहीं किसी विचार विशेष से।

मानव की यह निरंतर अस्मिता की तलाश और विकास की प्यास नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है। आसान से आसान और अति आरामदेह जीवन शैली ने उसे बेहद स्वार्थी और असहिष्णु बना दिया है, परन्तु इस हद तक क्रुद्ध और खतरनाक वह पहले कभी नजर नहीं आया था। संभव है कि संचार के इस पारदर्शी युग में त्वरित फैलती खबरें इसका कारण हों, जिसके तहत प्रायः सफेद-काला तुरंत ही सभी की आँखों के आगे आ जाता है परन्तु अब इस पारदर्शिता को हम किस तरह से उपयोग में लाते हैं यह हमारे अपने विवेक की भी एक बड़ी परीक्षा ही नहीं, कड़ी चुनौती है।  याद रखना होगा कि जीवन सिर्फ जीना नहीं है। जीतना और आधिपत्य भी नहीं, यह भी कि समय रहते रोक-बचाव भी जरूरी है , क्योंकि- ‘का बरखा जब कृषि सुखानी। ‘

माना कि सभ्यता के हर युग के अपने-अपने भय रहे हैं, और पूर्णतः भयहीन समाज तो आदर्श रामराज्य में भी नहीं था। राक्षसों ने खूब उपद्रव किए थे तब भी। पर आज के इस युग में तो मानो चारो तरफ अर्थहीन भय का ही  साम्राज्य पसक चुका  है। जिसे मौका मिलता है वही स्वार्थ और भृष्टाचारों का मुकुट लगाए खुदको सिंहासनासीन कर लेता है। सहिष्णुता और करुणा, सेवाभाव आदि पिछड़ों के लिए जाने जाते हैं। आत्ममुग्ध ही नहीं, अंधे हो चुके हैं अधिकांश। फलतः दुर्घटनाओं और अपराधों का क्रूर युग बन चुका है यह। अब हमें घृणित कुत्सित व्यवहार चौंकाते नहीं। कुंठित संवेदनाओं के साथ हम एक-से-एक बेहूदी खबरें पढ़ते है और अखबार चुपचाप किनारे रख देते हैं। घर से निकले तो शाम को सुरक्षित लौटेंगे या नहीं, भरोसा नहीं। कोई भी सुरक्षित नहीं, फिर भी सब चुप हैं।

पहले लोगों के हाथों से रुपए पैसे छीन लिए जाते थे पर अब आदमी छिन जाते हैं, एक दो नहीं, पूरे के पूरे बस और जहाज भर-भरके। हजारों की संख्या में सीमा और अन्य विवादों में गाजर मूली की तरह काट दिए जाते हैं या उड़ा दिए जाते हैं और कोई रोकने में सफल नहीं। मनमानी दानवता जारी है चारो तरफ।

समझ में नहीं आता यह कैसी सभ्यता और संस्कृति की तरफ उन्मुख हैं हम और क्या हासिल करने की कोशिश की जा रही है  इन कुत्सित तरीकों से?  ये व्यक्तिगत बहस-वार्ता या बड़े-बड़े राजनैतिक और धार्मिक सम्मेलन, ये किताबें, आख्यान और खुली खबरें,  कौन जाने किस दिशा में समाज और सभ्यता को ढकेलें ! हदें भी तो अब समझ और नैतिकता पर नहीं, ज़िद और ताकत के हथियारों से उकेरी और तय की जाने लगी है, चाहे जीवन हो, समुदाय हो या फिर राष्ट्र विशेष ही क्यों नहीं! अधिकांश समस्याओं का हल बिना सोचे-समझे अपराधी प्रवृत्तियों और अनैतिक तरीकों से छीन-झपटकर ही निपटाया जा रहा है।  आँख के बदले आँख ही नहीं सिर तक उड़ा दिए जाते हैं अब तो। जिधर देखो समाज और परंपरागत ताने-बाने, सब उलझे-उलझे नजर आने लगे हैं। कहीं पति जो रक्षक माना जाता है, के साथ हनीमून पर गई पत्नी की लाश मिलती है, तो कहीं बिलखते मां बाप को नवजात शिशु का शरीर, वह भी उसके अपने ही घर के गटर में पड़ा हुआ!

अब स्वार्थ सिद्धि के लिए निर्दोषों को बन्धक बनाया जा सकता है और सहायता का सामान पहुंचाने वाले स्वयंसेवक को ही बलि का बकरा ! मानो धर्म ही नहीं मानवता की भी परिभाषा बदल दी गई है आज और लीपि हर जगह एक ही नजर आती है-स्वार्थ-सिद्धि व अंधा स्व-प्रचार।

दूसरे के दुख और आंसू कैसे दिखें इस अंधे युग में, गूंगा बहरा समाज तो वैसे ही कुछ कहने-सुनने में असमर्थ और कायर है! हत्या, अपहरण, बलात्कार, लूटपाट और भांति-भांति के निर्मम अत्याचार और खबरों ने मानो मानवीय सवेदना तक को कुंठित कर दिया है । माना कि आज विश्व की जनसंख्या बहुत बढ़ चुकी है पर आदमी और जानवरों का फर्क इस हद तक तो नहीं ही समाप्त होना चाहिए कि आदमी या जानवर कौन हलाल हो रहा है, फर्क ही न पड़े हमें।

नव वर्ष में लेखनी का यह अंक भय और उत्तेजना के लिए नहीं, वक्त की पीर को समझने और निर्मूलन के उपायों को ढूँढने का एक प्रयास है। उम्मीद है कुछ और नहीं तो सोचने पर तो विवश करेगा ही हमें। सद्विवेक की रौशनी की तरफ मोड़ना- मानस व समाज में भरोसे की कामना और अलख को जलाए रखना- जागरूकता- साहित्य और शिक्षा के यही अहम् उद्देश्य हैं सदा से ।…

उग्र और परेशान करने वाले इस असह्य वातावरण में भी चाह और प्रार्थना यही है कि नया वर्ष उजाले में अंधेरे का पड़ाव नहीं, अधेरों से उजालों की ही सार्थक यात्रा हो और विश्व के कोने-कोने में भूख कुंठा और अविवेक व अत्याचार की जंजीरें टूटें,  विशेषकर भूखे, नंगे और पीड़ितों के लिए, निरर्थक लड़ाईयों में फंसे बेघरों के लिए ।

भांतिभांति के अत्याचारों और भेदभावों से पीड़ित और जीवन की विषमताओं और भयों से जूझते असहाय व निराश इन्सान को भी कम-से-कम उम्मीद की किरण तो दिखती ही रहनी चाहिए ।

अन्य वर्षों की तरह वर्ष 2014 भी बहारों के साथ-साथ पतझर का मौसम भी लेकर आय़ा । हमने बहुत कुछ खोया। ब्रिटेन में विशेषतः हमारे साह्त्यिक परिवार में प्रिय और वरिष्ठ लेखक और बड़े भाई जैसे सतेन्द्र श्रीवास्तव जी और वेद मोहला जी का छिनना दुखद क्षति थी।

2015 आशा और विश्वास की नई कोपलें लेकर आए इस विश्वास के साथ हम आपसे अब मार्च के महीने में लेखनी का नया अंक लेकर मिलेंगे। उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि तबतक चारो तरफ छाया कोहरा छटेगा, बर्फ पिघलेगी और मौसम पलटेगा। तबतक अपना ध्यान रखिएगा। आने वाला वर्ष सभी के जीवन में विवेक, विश्वास और खुशी लाए, लेखनी पत्रिका की तरफ से वर्ष 2015 की अशेष शुभकामनाएँ, मित्र।

140314-152609                         -शैल अग्रवाल

 

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: Content is protected !!