छूने से बिखर जाऊँगाः आलोक कुमार सातपुते


( एक लघुकथाकार का सुसाइडल नोट )
(यह आलेख लगभग सात साल पहले भारत में हिंदी लघुकथाओं की दुर्दशा से घोर, बल्कि घनघोर निराश होकर मेरे द्वारा लिखा गया था। चूंकि मेरे पास प्रकृति प्रदत्त भाषा सीखने की ललक रही, सो मैंने बचपन से लेकर अब तक बहुत सी भाषाएँ सीख लीं हैं,परिणाम-स्वरुप मेरा एक तरह से सार्क के दूसरे देशों की तरफ रचनात्मक पलायन हो चुका है।मुझे बहुत अच्छा रिस्पांस भी मिल रहा है, और मैं दूने उत्साह से अपने काम में लग गया हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि पलायन के कारणों पर आधारित मेरा यह आलेख आज भी प्रासंगिक है।)

कुछ दिनों पूर्व मेरे पास रूद्रप्रयाग से एक लघुकथा पाठक का फोन आया कि आप उद्देश्यपरक लघुकथाएं लिखते रहें हैं, लेकिन विगत कुछ वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं पढने को नहीं मिल रही हैं, आखिर बात क्या है ? उसके इस प्रश्न को पहले तो मैं टाल-मटोल करना चाहा, फिर उसके कुरेदने पर मैंने अपनी प्राथमिकताएं बदल जाने का हवाला देते हुए गोलमोल उत्तर देना चाहा। मेरे इस उत्तर से न तो वह सन्तुष्ट हुआ और न ही मैं। आखिरकार मेरे मन का गुबार फूट पड़ा और मैं उसके समक्ष परत-दर-परत खुलता चला गया। मैंने सर्वप्रथम उससे कहा कि हिन्दी में खालिस पाठक बचे ही कहा हैं। आज जो लेखक हैं, सिर्फ़ वे ही पाठक हैं। पिछले बीस वर्षों से लगातार लघुकथा लेखन करने और प्रायः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के प्रकाशन के उपरान्त भी मुझे याद नहीं पडता है कि किसी खालिस पाठक (जो लेखक ना हो) का कभी पत्र या फोन आया हो। पत्र या फोन आता भी है तो पाठक कम लेखक(ज़्यादा) का ही । पहले तो वे मेरी लघुकथाओं पर कसीदे पढेंगे, फिर आहिस्ता से कहेंगे मैं भी एक लेखक/कवि हूँ, और जिस पत्र-पत्रिका में आपकी रचनाएं छपी हैं, उसी अंक में मेरी भी रचनाएं छपी हैं, जिन पर आपके कमेण्ट्स अपेक्षित हैं। मतलब ये कि चूंकि मैंने आपकी रचनाओं की तारीफ़ की है, सो आपका भी यह नैतिक दायित्व बनता है कि आप भी मेरी रचनाओं की तारीफ करें। और फिर रचनाएं स्तरीय हों या न हों तारीफ़ करनी ही पड़ती है।
यह तो थी लेखकों-पाठकों की बात। आम आदमी को तो साहित्य से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। विगत दिनों एक मजेदार घटना घटी। मैं अपने आफ़िस में बैठा मगन होकर काम कर रहा था कि मेरे पास मेरा एक सहकर्मी आया और कहने लगा कि मैंने पेपर में आपका नाम पढ़ा, सो बात करने चला आया। मैंने सोचा कि इसने किसी अख़बार में मेरी रचनाएं पढी़ होंगी और इसी सिलसिले में मुझसे बात करने आया है। मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा तो उसने मुझसे पूछा-पहले आप मुझे यह बताएं कि आपका नाम आलोक सातपुते है, या अशोक सातपुते ? मैंने उसे बताया आलोक सातपुते। इस पर उसने कहा अरे नहीं, मैंने पेपर में अशोक सातपुते पढ़ा है। मैंने उससे कहा-हां, कभी-कभी आलोक की जगह पर अशोक भी प्रिण्ट हो जाता है। इस पर उसने मुझे गहरी नज़रों से घूरते हुए पूछा कि क्या हाल-फिलहाल आप नासिक गये हैं? मैने कहा-नहीं, नहीं तो। इस पर उसने फिर पूछा-आपके रिश्तेदार तो होंगे ही नासिक में? मैंने उसे उत्तर दिया नहीं भाई, हमारे सारे रिश्तेदार यहीं रहते हैं। मेरे इस उत्तर पर वह ‘कोई बात नहीं है‘ कहता हुआ मायूस सा लौटने लगा। अब मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी। मैंने उनका हाथ पकड़कर रोका और पूछा कि आखिर बात क्या है। इस पर उसने जो उत्तर दिया उससे मेरा सारा लेखकीय वज़ूद ही भरभराकर ढह गया। उसने कहा कि मैंने पेपर में नासिक की एक ख़बर पढ़ी है कि वहां अशोक सातपुते नामक एक व्यक्ति को रेप के केस में गिरफ़्तार किया गया है।
बीस वर्षों तक सतत् लेखन और लगातार प्रकाशन का कम से कम ये सिला तो अपेक्षित नहीं था। यह प्रसंग एक आम आदमी की कुण्ठित मानसिकता की ओर ईशारा है। वह सिर्फ़ आपराधिक साहित्य व समाचार ही पढ़ता है और उसी के साथ अपने आपको सहज पाता है। ऐसा साहित्य उसकी कुण्ठा को संतुष्ट करता है।
हां तो मैंने रूद्रप्रयाग वाले पाठक से आगे कहा- दरअसल इन दिनों लघुकथाओं की बहुत सी फैक्ट्रियां खुल गई हैं, सो मुझे अपना लघुकथाओं का कुटीर उद्योग बन्द करना पडा। इस पर उसने कहा कि थोड़ा खुलासा करके बताएं, तो बेहतर होगा। इस पर मैंने अपने एक लघुकथाकार मित्र का सन्दर्भ देते हुए उसे बताया कि हमारे ये मित्र लघुकथाओं की फैक्ट्री खोल कर बैठे हैं। वे रात में सोने से पहले अगले दिन का लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं कि सुबह उठकर कम से कम बीस लघुकथाएं लिखनी ही है। इस तरह वे बीस से लेकर पचास तक लघुकथाएं रोज लिख रहे हैं, और धड़ाधड़ छप भी रहे हैं। वे पूरी तरह योजनाबद्ध होकर लघुकथाएं लिखते हैं, जबकि मैं अस्त-व्यस्त सा जीवन जीने वाला प्राणी पांच-छः महीनों में बमुश्किल एक-आध ही लघुकथा ही लिख पाता हूं। ऐसे में मैं मुक़ाबले में भला कहां ठहरता हूं। मेरे इस उत्तर पर उस पाठक ने मुझसे आश्चर्य के साथ पूछा-अच्छा, आपको एक लघु-कथा लिखने में पांच-छः महीने लग जाते हैं। ये तो बहुत ज़्यादा है। आमतौर पर हम किसी आब्ज़र्वेशन को तुरन्त अपनी डायरी में नोट कर लेते हैं कि हम कहीं बाद में भूल न जायें और एक लघुकथा बनते-बनते रह जाये। यह डर हमेशा ही बना रहता है। उस पाठक के इस उत्तर से मैं यह समझ गया कि यह भी एक ख़ालिस पाठक न होकर लेखक भी है। खैर बात निकली थी तो दूर तलक तो जानी ही थी। मैंने उससे कहा कि मैं अपने आब्ज़र्वेशन्स के प्रति कभी भी असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नहीं रहता हूं। यदि मेरे आब्ज़र्वेशन में दम होगा तो वह मेरे दिमाग़ में बार-बार हलचल मचाता रहेगा, और बाहर आने को मचलता रहेगा। ऐसी स्थिति निर्मित होने पर मैं सबसे पहले उसे डपटकर यह कहकर चुप कराता हूँ कि पहले अपने आपको सामाजिक सरोकारों के तराजू पर तौल तो लो। इस पैमाने पर ख़रा उतरने के बाद मैं अपने उस आब्ज़र्वेशन से कहता हूं कि चलो अब लघुकथा की शक्ल लो। धीरे-धीरे मेरे दिमाग़ में लघुकथा शक्ल लेने लगती है। अब मैं इसमें पिरोये गये शब्दों के वज़न को तौलता हूं और कोशिश करता हूं कि लघुकथा में सर्वाधिक वज़नदार शब्द ही आयें, फिर चाहे वे शब्द उर्दू फ़ारसी, अंग्रेज़ी या छत्तीसगढ़ी के ही क्यों न हों। यहाँ पर मैं अपने हिन्दी मोह को पूरी तरह त्याग देता हूँ। संक्षेप में कहा जाये तो मैं अपनी लघुकथाओं से बातें करता हूं, उसके शब्दों को सहलाता हूं। यह सब कुछ मेरे दिमाग़ में ही चल रहा होता है और अन्त में जब सब कुछ असहनीय हो जाता है और लगने लगता है कि लघुकथा दिमाग़ फाड़कर बाहर आ ही जायेगी, तब- “आता माझी सटकली” कहता हुआ मैं शब्दों को काग़ज़ में उतारने लगता हूं। इन सारी प्रक्रियाओं में पांच-छः महीने तो लग ही जाते हैं। यदि मेरा आब्जर्बेशन कमज़ोर होता है तो वह लघुकथा की शक्ल लेने से पहले ही दम तोड़ देता है, जिसका मुझे तनिक भी ग़म नहीं होता है। मेरा यही मानना है कि ये दुनिया कमज़ोर लोगों के लिये बनी ही नहीं हैं।
मैं यह नहीं जानता कि मेरी बातें उसे कितनी समझ में आई, लेकिन वह इतना तो वह समझ ही गया कि मैं एक उलझा हुआ कैरेक्टर हूं और फ़िलहाल लघुकथाएं नहीं लिख रहा हूं। अनजान सा बनते हुए उसने फिर पूछा-मतलब आपने लघुकथा लेखन छोड़ दिया है? मैंने उसे स्पष्ट करते हुए कहा-हां यार। मैंने सक्रिय लघुकथा लेखन से संन्यास ले लिया है। और चूंकि संन्यासी अपने-आपको भौतिक जगत से मरा हुआ समझतें हैं, सो मैं भी लघुकथा जगत से मर चुका हूं। मेरा यह मानना है कि रचनाएं ही किसी रचनाकार की पहचान होती हैं, और रचनाकर्म ही उसका जीवन होता है, ऐसे मे रचना-कर्म त्याग देना भी एक क़िस्म का सुसाईड ही है। उससे इस तरह बात करते-करते अचानक मेरे मन में सुसाइडल नोट लिखने का विचार आया।
मैंने सारिका के दौर से लघुकथाएं पढ़नी शुरू की थी और पाया कि गम्भीर व सोद्देश्य लघुकथा लेखन करने वाले लघुकथाकार यक-ब-यक ग़ायब हो जाते हैं। दर-असल वे भी मेरी तरह ही सुसाईड करते हैं, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि वे सुसाइडल नोट नहीं छोड पाते हैं। लघुकथाकारों द्वारा सुसाईड करने का यह सिलसिला अनवरत जारी है। हम इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करते हैं, तो पाते हैं कि इससे संबंधित कई चौंकाने वाले तथ्य हमारे सामने नग्न होकर खडे़ हुए हैं।
वर्तमान में अख़बारों से साहित्यिक पृष्ठ गायब होते जा रहे हैं। कुछ अख़बारों ने अपने-आपको सामाजिक सराकरों के प्रति प्रतिबद्ध दर्शाने के लिये औपचारिकता वश ज़रूर साहित्यिक पृष्ठों को जीवित रखा हुआ है, पर उसका आकार दिन-प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है, और यह तयशुदा बात है कि विज्ञापनों की मरीचिका में फंसकर एक दिन वह भी दम तोड़ देगा। दर-असल आज अख़बारों के सम्पादक, सम्पादक न होकर एक प्रबंधक की भूमिका में हैं। वे अख़बारों के आर्थिक हितों का ही पोषण करते हैं सामाजिक सरोकारों से इनका कोई सरोकार नहीं रह गया है। कभी-कभी तो इस बात पर भी संदेह होने लगता है कि अख़बारों के ये प्रबंधक पेड न्यूज़ की ही भांति साहित्यिक पृष्ठों को भी तो ’पेड’ नहीं बना रहे हैं।
मुझे याद पडता है कि कुछ साल पहले तक मुझे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से लघुकथा के मानदेय के रूप में एक सन्तोषप्रद राशि प्राप्त होती थी। यहां पर राशि उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती थी, बल्कि मानदेय के चेक के साथ सम्पादक का हस्ताक्षरयुक्त पत्र मन में संतोष उपजाता था। वर्तमान में तो इन अख़बारों के ये प्रबंधक यही प्रयास करते हैं कि उन्हें कुछ भी देना न पड़े और रचनाओं की फैक्ट्रियों से उन्हे फ्री में माल सप्लाई होता रहे। और ये खुजली वाले साहित्यकार, जो सिर्फ़ नाम छप जाये सोचकर, न सिर्फ़ अपनी रचनाएं फ्री में सप्लाई करते हैं, बल्कि खर्चा-पानी देकर छपवाने के लिये भी तत्पर रहते हैं।
मैं कभी-कभार सोचता हूं कि यदि हमारे पास संसाधन उपलब्ध न हों तो साहित्य सृजन तो एक बड़ा ही खर्चीला शौक है। न्यूनतम दस रूपये प्रति पृष्ठ की दर से रचना टाईप कराना और कम से कम पांच रूपये के लिफाफे में उन्हें भेजना और फिर भी रचनाओं के प्रकाशन के प्रति आश्वस्त न होना, आदि बातें यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि साहित्य सृजन इन्हीं के द्वारा किया जा सकता है, जिनके पेट भरे हुए हैं, और ऐसा व्यक्ति जिसका पेट भरा हुआ हो वह चिन्तन न करके सिर्फ भजन ही कर सकता हैं । यहाँ पर पेट भरे हुए व्यक्ति से आशय वैचारिक रूप से तृप्त व्यक्ति से हैं “यदास्थितिवादी” से है।
इस समय लघुकथा लेखन एवम् प्रकाशन के क्षेत्र में कई लघुकथा माफिया सक्रिय हैं। इन माफियाओं के बीच ’डॅान’ बनने की होड़ लगी हुई हैं। ये गैंगवार करते और कराते रहते हैं। कुछ ने तो बाकायदा खुद को स्वय-भू डान घेषित कर रखा है। ऐसे लघुकथा डान, जिन्हें ग्यारह मुल्कों की पुलिस भले ही न खोजे, पर ग्यारह मुल्को के मंचों पर लघुकथा पढ़ लेने की हैसियत रखते हैं। दो-तीन वर्षों पूर्व मेरे पास एक समालोचक का फोन आया था। उसने मेरी लघुकथओं की जी-भरकर तारीफ की और लघुकथा जगत के सबसे बडे़ स्वयं-भू डान के साथ मेरा नाम जोड़ते हुए कहा कि सार्थक लघुकथा लेखन को तो आप् दो ही लोगों ने जीवित रखा है। मुझे इतने बडे डान के समक्ष रखे जाने पर थोड़ी देर के लिये गौरव की अनुभूति जरूर हुई थी, पर उस डान की डानगिरी के खौफ़ से अनुभूति तुरंत ही छू भी हो गई।
मैं जब भी हिन्दू पंचांग कैलेण्डर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे भारत वर्ष में रोज ही कोई ना कोई त्योहार होता है। ये त्योहार हमारे उत्सवजीवी होने के प्रतीक होते हैं। हमारे यहाँ एक नया ही उत्सव “लघुकथा उत्सव” मनाने की तैयारी करने लगते हैं। वे इसे कार्निवाल की शक्ल में मनाते हैं। वे सारे देश के छंटे हूए…सारी चुने हुए लघुकथाकारों को चुन-चुन कर मारते हैं…सारी चुन-चुन कर पत्र लिखते हैं, ताकि उनके आयोजन के सफल होने में कोई शुबहा ना रह जाये। इन आयोजनों से लघुकथाओं का कुछ भला ना हो, आयोजकों का जनसम्पर्क तगड़ा हो जाता है, जिसे धीरे-धीरे भुनाया जाता है। मैं इन कार्निवालों के आयोजकों व लघु-कथाकारों को शत्-शत् नमन करता हूँ, इस दुःख के साथ छाती पीटते हुए कि हाय! मैं क्यों ऐसा नहीं बन पाया। दर-असल मेरा यह मानना है कि उत्सव का विरोध ही सृजन है। यही प्रगतिशीलता है। उत्सवजीवी होना अर्थात वैचारिक रूप से अकर्मण्य हो जाना है।
मेरी एक लघुकथाकार महिला मित्र हैं। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि वे अपनी लघु-कथाओं को फोटोयुक्त परिचय-पत्र के साथ प्रकाशन हेतु भेजती हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में उनकी लघुकथाओं के साथ फोटो भी छपती रहती हैं। उनके पास कई राज्यों से ऐसे पाठकों और लेखकों के फोन आते है, जो पहले तो उनकी रचनाओं पर कसीदे पढ़ते हैं, फिर धीरे-धीरे उनकी खूबसूरती पर कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। यद्यपि वे शादी शुदा है, तदापि उन्हें कुंवारी जानकर कुछ लोग शादी का प्रस्ताव भी देने लगते हैं, गोया कि लघुकथाएँ ना हुई, शादी का क्लासीफाईड विज्ञापन हो गई । कुछ पाठक अपनी पुरूष सुलभ कमीनगी पर उतारू होकर अपने-अपने राज्यों के पर्यटन स्थलों की जानकारी देते हुए अकेले आने का प्रस्ताव देने लगते हैं। इस तरह की घटनाएँ हासिल आया शून्य का अहसास दिलाती हैं।
इन दिनों परिवारों में घुटन एवम् टूटन की इन्तेहां हो गई है, ऐसे में पारिवारिक विषयों पर सास-ससुर, ननद-भौजाई, देवर-भाभी आदि सम्बन्धों पर आधारित लघुकथाएं खूब लिखीं जा रही हैं। इन लघुकथाओं को पढ़कर बडी ही कोफ़्त होती है। इस किस्म की लघुकथाएँ कतई उद्वेलित नहीं करती हैं। वास्तव में ये लघुकथाएँ किसी बडी कहानी की संक्षेपिका ही होती हैं, जो प्रायः रोज ही घटने वाली साधारण सी घटनाएँ ही होती हैं। नितांत ही औचित्यहीन, सरोकार रहित…।

अरे यह क्या! मैं तो सुसाईडल ’नोट’ लिखने चला था, पर ये तो सिर्फ नोट न रहकर पूरा एक आर्टिकल ही बन गया! सुसाइडल आर्टिकल। पर हान इसकी थीम ’नोट’ ही है। अन्त में मैं यही कहना चाहूँगा कि लघुकथा लेखन कर्म त्यागने जैसे मेरे इस आत्मघाती कदम के लिये कोई और जिम्मेदार नहीं, बल्कि मैं खुद ही हूँ, जो कभी लघुकथाओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं कर सका, अखबारों के प्रबन्धक छाप सम्पादकों को मुफ़्त में सप्लाई नहीं कर सका, अपने अन्दर लघुकथा माफियाओं के गुण विकसित नहीं कर पाया, ना ही डान बनने की महत्वाकांक्षा ही पाल सका। इन सबके अलावे कार्निवाली उत्सवजीवी लघुकथाकार भी तो नहीं बन सका मैं…।
अब इससे पहले कि मेरा आत्मघाती विचार बदलने लगे, मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूँ…अलविदा।
चलते-चलते (किसी शायर का शेर)
नाखुदा को खुदा कहा है तो फिर,
डूब जाओ खुदा-खुदा ना करो।

(आलोक कुमार सातपुते)
एलआईजी-832 सेक्टर-05
हाऊसिंग बोर्ड कालोनी सड्ढू रायपुर भारत

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