यादेंः तिजोरी-देवी नागरानी

वक्तानुसार विचारधारा भी न जाने किन-किन दिशाओं की ओर खिंची चली जाती है और जब लौटती है तो अपने साथ नए अनुभव के नवांकुर ले आती है.
आज जाने क्यों बरसों पहले की बात याद आ गई, उस घर की बात, जहां शायद अब यादों के सूने पालने ही झूलते होंगे. जब मैं तीस साल पहले न्यू जर्सी में आ बसी, तब लोग यहाँ पूछा करते थे- ‘वहां आपके घर की रखवाली कौन करता है?
‘एक बड़ा सा गोदरेज का ताला’ मैं मुस्कराकर कह देती.
और सच बात तो यह है कि वतन से दूर यहां प्रवासी मुल्क में जब बस जाना होता है, तो अपना वह पुराना घर बस यादों का एक भंडार बन जाता है, जो रफ्ता रफ्ता इन कथाओं-लघुकथाओं में शब्दों का भंडार बनकर रह जाता है. शायद यही हमारी विरासत है.
हाँ, तो याद आई घर के भीतर रखी एक गोदरेज की अलमारी की, जिसके भीतर एक तिजोरी, चाबी के साथ होती थी, जहां अपना कीमती सामान, ज़ेवर, कुछ चाँदी का सामान, धनराशि और महत्वपूर्ण कागज़ात रखकर चाबी घुमा लिया करते थे-ताला मतलब महफूज़ियत.
आज मात्र दिवस है-बेटी का फोन आया.
-माँ कैसी हो?
-‘मैं बिलुल ठीक हूँ’
-मात्र दिवस की शुभकामनाएं माँ.
-तुम्हें भी शुभकामनयें व् दुआएं है. कहकर मैं हंस पड़ी.
सुनकर शायद वह हैरान थी कि माँ को आज क्या हो गया है?
– क्या हुआ माँ?
-अरे कुछ नहीं…बस उस अलमारी की याद आ गई.
-कौन सी अलमारी… क्या कह रही हो?
– अरे वही पुरानी गोदरेज की अलमारी जो मुंबई वाले घर में थी, जिसमें अपना कीमती सामान, जेवर, चांदी के सिक्के, व् चीज़ें रखते थे.
-हाँ, तो….! किस बात पर हंस रही हो ?
-अरे लगता है आज मैं खुद ही एक तिजोरी में बंद हो गई हूँ. और तो और उसका ताला भी मैं खुद ही भीतर से बंद कर लेती हूँ, और महफूजियत से उस ताले के भीतर दो माह से बैठी हूँ, एकांत में…सुकून से. सब कुछ करते हुए लगता है कुछ नहीं कर रही हूँ, कभी लगता है मैं वो सब कुछ कर रही हूँ, जो पहले कभी नहीं किया.
-वह क्या है माँ? क्या कोई कहानी का प्लॉट बनाया है?
-नहीं नहीं बस यूं ही, अकस्मात यह ख्याल आ गया और अब लगता है इस पर ही कुछ लिख डालूं.
-अच्छा माँ ‘हैप्पी मदरस डे टू यू’. तुम अब बैठ कर लिखो मैं रात को बात करती हूँ.
-‘अच्छा’ कह कर दोनों ओर से फोन बंद हो गया और मैं सच में कलम लेकर इस तिजोरी के बारे में लिखने लगी हूँ.
‘हाँ अब मैं कितनी अनमोल हो गई हूँ, इतनी कीमती कि अपने घर नाम के इस कमरे रूपी ‘तिजोरी’ में पिछले दो माह से बंद हूँ (4 मार्च से आज तक आज 11 मई तक, और आगे अल्लाह जाने कब तक…)
अब विचार का विस्तार जानना चाहता है कि मैं अपनी हिफाज़त कर रही हूँ या वह शक्तिमान कर रहा है जिसकी शान में मेरी क़लम भी कह उठी है-
तू ही एक मेरा हबीब है
तू ही लाजवाब तबीब है

साहित्य में अनेक दर्ज कहानी किस्सों में पढ़ा करती हूँ कि औरत अपने ही मन में एक ऐसा कोना खाली रखती है जहां वह जब चाहे अपनी मर्जी से आ-जा सकती है.
आज लगता है वह सच भी है और अनुभव भी किया जा सकता है. सच इसलिए कि मेरे तन की भीतरी सुरंग से होती हुई एक गुफ़ा है जो तिजोरी से कम नहीं. वहां ‘मैं’ रहती हूँ और अब इस एकांत के दौर में अपनी मर्ज़ी से अपने मन को घसीट कर वहां ले जाती हूँ, ताकि वह उस ‘मालिक’ से मिलने का उचित प्रयास करता रहे. मौका मिला है, अपने अकेलेपन को एकांत में तब्दील करना, अपने इर्द-गिर्द एक महफूज कवच बना लेना, जो सुरक्षा कवच बन जाए. क्योंकि गीता में भी यह सच दर्शाया गया है कि-
“अकेलापन संसार की सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत बड़ा वरदान…..
अकेलेपन में छटपटाहट है, एकांत में आराम…
अकेलेपन में घबराहट है, एकांत में शांति…
“ आई मिलन की बरिया”
यह अकेलेपन से एकांत की ओर की यात्रा है जिसमें रास्ता भी हम हैं, राही भी हम हैं और मंजिल भी हम ही हैं जब तक सांसों में संचार है.”
और इसी सोच के आधार स्तंभ का सहारा लेकर इस सफर पर वह अनुभव प्राप्त करने का यह सुनहरा अवसर प्रकृति ने प्रदान किया है. नए सिरे से खुद से परिचित होने का और एकांत का आनंद लेने का. इस यात्रा में कुदरत अपना काम कर रही है और हम अपना.
विश्व भर का हर प्राणी जो इस दौर से गुजर रहा है वह इस यात्रा में अकेलेपन को एकांत के आनंद से भरने को तत्पर है. हर एक की अपनी अपनी मांग है, अपनी अपनी इच्छा व् लगन से हर एक वह हासिल करता है जो वह पाने का इच्छुक है.
आज ‘मात्र दिवस’ है और विश्व की हर माँ का आशीर्वाद देश के सभी बच्चों की मंगलकामना के शुभ संकल्प से प्रज्वलित है.

देवी नागरानी
11th, may 2020

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