राग रंगः कश्मीर में शिवरात्रिः डॉ. शिबेन कृष्ण रैना

हमारा देश सांस्कृतिक दृष्टि से एक समृद्ध देश है। इसकी वैविध्यपूर्ण संस्कृति हमारे विभिन्न त्योहारों और पर्वों में झलकती है।यहाँ होली, दीवाली, दशहरा, पोंगल, महाशिवरात्रि, क्रिसमस, ईद इत्यादि अनेक त्योहार मनाए जाते हैं।भारतवासी ये त्योहार पूर्ण उत्साह और धूमधाम से मनाते हैं। हमारे इन सभी त्योहारों और पर्वों में महाशिवरात्रि का त्यौहार विशेष महत्व रखता है। हिन्दू-कैलेंडर के अनुसार यह त्योहार प्रतिवर्ष फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि भगवान शिव पर आस्था रखने वाले भक्तजनों के लिए एक बहुत बड़ा दिन होता है। महाशिवरात्रि न केवल भारत में, अपितु नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी मनाई जाती है।
कश्मीर में शिवरात्रि को ‘हेरथ’ कहते हैं और यह त्योहार वहाँ के सभी त्योहारों में अपना एक विशेष महत्व रखता है।मनाने की विधि भी तनिक भिन्न और अनूठी है।घाटी से पंडितों के निर्वासन के बावजूद कश्मीरी पंडित, जो जहां भी हैं, पूर्ण उत्साह,आस्था और श्रद्धा के साथ इस पर्व को मनाते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ‘हेरथ’ शब्द संस्कृत शब्द हर-रात्रि यानी शिवरात्रि से निकला है। एक मान्यता यह भी है कि यह फारसी शब्द हैरत का अपभ्रंश है। कहते हैं, कश्मीर घाटी में पठान शासन-काल के दौरान कश्मीर के तत्कालीन तानाशाह पठान गवर्नर जब्बार खान ने कश्मीरी पंडितों को फरवरी में यह पर्व मनाने से मना कर दिया था। अलबत्ता उसने यह पर्व जून-जुलाई में मनाने की अनुमति दी थी। खान को पता था कि इस पर्व का हिमपात के साथ जुड़ाव है। शिवरात्रि पर जो गीत गाया जाता है, उसमें भी शिव-उमा की शादी के समय सुनहले हिमाच्छादित पर्वतों की खूबसूरती का वर्णन किया जाता है। इसलिए उसने जानबूझकर इसे गर्मी के मौसम में मनाने की अनुमति दी लेकिन गवर्नर समेत सभी लोग उस समय हैरत में पड़ गये जब उस वर्ष कश्मीर में जुलाई में भी भारी बर्फबारी हो गयी। तभी से इस पर्व को कश्मीरी में हैरत यानी ‘हेरथ’ कहते हैं।(आगे इस कहानी को और विस्तार से समझाया गया है।)
एक और जनश्रुति भी प्रचलित है कि एक दिन दक्ष प्रजापति ने महायज्ञ रचाया। इस यज्ञ में शंकर को नहीं बुलाया गया। शंकर की पत्नी सती से अपने पति का यह अपमान सहा न गया।वह हवन-कुण्ड में कूद गयी। तब शिव ने पुनर्विवाह न करने का निश्चय किया।उधर, सती ने हिमालय के पर्वतों में एक बार फिर जन्म लिया। वयस्क होने पर उसने शंकर को पाने के लिए घोर तपस्या की। बहुत समय व्यतीत हो जाने के पश्चात शंकर ने हिमालय-पुत्री पार्वती को तपस्या में और निमग्न रखना उचित नहीं नहीं समझा। वे उस जंगल में गये जहां पार्वती तपस्या कर रही थी। ज्योंही उन्होंने जंगल में प्रवेश किया और पार्वती को देखा तो उनके मुंह से सहसा निकल पड़ा : ‘हे रते!’ पार्वती ने जब यह सुना, तो उसने आनंदित होकर आँखें खोलीं और उसकी पहली नजर पास में रखे हुए हुए कलश पर पड़ी जिनसे कुछ ‘बटु’(ब्रह्मचारी) पैदा हुए। ये ‘बटु’ बाद में वटुकनाथ भैरव कहलाये, जिनकी पूजा शिवरात्रि के दिन होती है। शिवरात्रि के लिए कश्मीरी शब्द ‘हेरथ’ ‘हे रते!’ शब्द का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है।
कश्मीर में प्रायः हर कश्मीरी पंडित के घर में एक पूजागृह हुआ करता था जिसे ‘ठोकुर कुठ’(ठाकुर-द्वारा) कहा जाता था। शिवरात्रि की पूजा यहीं पर होती है।शिवरात्रि से कई दिन पहले पूरे घर की साफ-सफाई करके पूजास्थल पर शिव और पार्वती के दो बड़े कलश समेत बटुक भैरवनाथ और पूरे शिव परिवार समेत करीब दस कलशों की स्थापना की जाती है। पहले कुम्हार खास तौर पर इस पूजा के लिए मिट्टी के कलश बनाते थे लेकिन अब पीतल या अन्य धातुओं के कलश रखे जाते हैं। फूल मालाओं से सजे कलश के अंदर पानी में अखरोट रखे जाते हैं।अखरोट को चार वेदों का प्रतीक माना जाता है। कश्मीर में हेरथ अर्थात् शिवरात्रि का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णपक्ष की द्वादशी/त्रयोदशी को मनाया जाता है जबकि शेष भारत में अगले दिन यानी चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मनाई जाती है। कश्मीरी विद्वान अगनिशेखर के अनुसार “कश्मीर की शैवी परंपरा में शिवरात्रि के अवसर पर प्रमुख रूप से ‘वटुक भैरव’ की ही पूजा होती है। वटुक भैरव के साथ-साथ शक्ति और अन्य भैरवों की पूजा त्रयोदशी से विसर्जन तक चार-पाँच दिनों तक नियमित रूप से चलती है। फाल्गुन मास की इन विशेष तिथियों का शिव के ‘हर’ रूप से जोड़कर नाम लिया जाता है। जैसे ‘हुर्य ओकदोह’ यानी हर-संबंधी प्रतिपदा, ‘हुर्य द्वितीया, हुर्य तृतीया इसी तरह हर तिथि के साथ ‘हुर्य’ उपसर्ग लगता है। त्रयोदशी के दिन निश्चित मुहूर्त पर विशेष कर प्रदोषकाल अर्थात् सन्ध्या के समय वटुक भैरव की विस्तृत पूजा शुरू की जाती है। पूरे भारत में महाशिवरात्रि पर प्रमुखता से देवी-पुत्र वटुकनाथ भैरव की पूजा शायद कश्मीरी पंडित ही करते होंगे।“ अगनिशेखरजी आगे कहते हैं: “कश्मीर के स्थानीय दुर्लभ ग्रंथ ‘नीलमतपुराण’ में फाल्गुन मास में शिवरात्रि मनाए जाने के नियम, पदार्थ और विधि के बारे में जानकारी मिलती है। शिवरात्रि के अवसर पर उपवास, पूजा और भक्तिपूर्वक रात्रि-जागरण में गीत, नृत्य व संगीत से इसे भरपूर उत्सव की तरह मनाने के स्पष्ट निर्देश हैं। एक जगह (श्लोक ५३१-५३३) तो यहाँ तक लिखा है कि भले ही सालभर आप अपनी इच्छानुसार महादेव शंकर की पूजा करें या न करें, फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी को उनकी पूजा अवश्य करें:
”तस्मिन् मासे ध्रुवं पूज्यो देवः चतुर्दशीम्” (श्लोक ५३२)”

चूँकि वटुकनाथ जल कुम्भ से प्रकट हुए थे इसलिए यहां महाशिवरात्रि के दिन जलकुम्भ (मिट्टी का कलशरूपी बर्तन, जिस में अखरोट तथा अन्य सूखे मेवे डाले जाते हैं) की पूजा होती है। साथ ही वटुकनाथ के अन्य सहकारी भैरव (जिन को कश्मीरी में ‘सनिवारी’ कहते है) की पूजा भी शास्त्रोक्त विधि के अनुसार की जाती हैं। सनिवारि का शाब्दिक अर्थ है सात भैरव बताया जाता है जो जलकुंभ के आमने-सामने मिट्टी के छोटे-छोटे सात बर्तनों के रूप में रखे जाते हैं। पूजा-स्थल पर वटुक भैरव का मांगलिक कलश सजता है। पूजा के दौरान इस वटुकराज भैरव के कलश में जल, अखरोट, मिश्री, दूध और फूल चढाए जाते हैं। फिर ”रामगोड” (शिव ही का रूप) छोटे घड़े को स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वैष्णव ऋषियों के रूप में एक पात्र ‘डुलिज’ तथा दीया और रतनदीप आदि कई पात्र अपने-अपने निश्चित स्थान पर रखे जाते हैं। प्रत्येक पात्र को गेंदे की फूलमालाओं से, सिन्दूर के तिलक से, मौली और बेलपत्र से सश्रद्धा सजाया जाता है। शिवरात्रि अर्थात त्रयोदशी या द्वादशी-त्रियोदशी से अमावस्या तक प्रतिदिन वटुकनाथ भैरव और इनके अन्य सहकारी भैरवों की पूजा पूरी श्रद्धा के साथ की जाती है।सभी पात्रों का जल नियमित रूप से बदला जाता है। अमावस्या के दिन वटुक-भैरव के कलश को वितस्ता के किनारे पर ले जाकर पूजा में चढ़ाई गयी सामग्री का विसर्जन किया जाता है। इस के बाद कलश रूपी बर्तन/गगरी को गृहस्वामी अपने घर लाते हैं। घर के पहले से बंद दरवाजे को खटखटाया जाता है। दरवाजे के भीतर(गृहस्वामिनी) और बाहर वाले(गृहस्वामी) व्यक्ति के बीच यह वार्तालाप होता है :

कौन हैं ?
मैं हूं रामब्रोर।
क्या ले कर आये हो?
अन्न, धन और रोजगार।
साक्षी कौन है?
भैरवरूप वटुकनाथ।

इसके बाद दरवाजे को खोला जाता है। घर के सभी सदस्य प्रसन्न होकर कलश में डाले गये अखरोटों को तोड़ कर प्रसादस्वरूप खाते हैं। बाद में अपने सगे-सम्बन्धियों को नैवेदय-स्वरूप ये अखरोट बांटे जाते हैं। विशेषकर विवाहिता बहनों और बेटियों को अनिवार्य रूप से अखरोट प्रसाद के तौर पर भेजे जाते हैं।
पूर्व में कहा जा चुका है कि महाशिवरात्रि को कश्मीरी में ‘हेरथ’ कहते हैं। हेरथ के अगले दिन एक अनुष्ठान और होता है जिसे ‘सलाम’ कहते हैं।‘सलाम’ का प्रयोजन अथवा इस रीति की क्या पृष्ठभूमि है?यह जानना ज़रूरी है।
1817 के आसपास जबारखान नाम का एक अफगान कश्मीर का हुक्मरान हुआ करता था।एक दिन इस हुक्मरान का मनचला बेटा कश्ती पर सवार होकर जेहलम नदी की सैर कर रहा था।एक घाट पर उसने देखा कि कुछ बालाएँ खड़ी हैं जिन में से एक सुंदर-बाला मिट्टी से अपने हाथ धो रही थी। कश्ती पर सवार अफगान हुकुमरान के साहबजादे ने मन में सोचा कि यदि मैं मिट्टी होता तो मुझे इस बाला के कोमल शरीर को छूने का मौक़ा मिलता। साहबजादा लडकी को घूरते हुए धीरे-धीरे आगे निकल गया।लड़की ने फब्ती कसी “तुझे कोढ हो!” प्रभु की कृपा से ऐसा ही हुआ।खानजादे को कोढ़ की बीमारी लगी।वैद्य-हकीम कोढ़ को ठीक करने में असमर्थ रहे।जबारखान को जब पता चला कि उस का बेटा कन्या के अपवचन/शाप से पीड़ित हुआ है तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और उस कन्या को दरबार में पेश किया गया।डर के मारे कन्या ने साहबजादे की करतूत/बुरी नजर के बारे मे जानकारी दी।कन्या को कत्ल करने का हुक्म जारी किया गया।कन्या ने निवेदन किया कि यदि मेरे ‘पुलहोर’(घास की जूती) को जला कर उस की राख को कोढ़ पर मला जाय तो निश्चित ही कुष्ठ-रोग ठीक हो जाएगा।कन्या के कहने पर ऐसा ही किया गया तो खान के बेटे का कोढ़ ठीक हो गया।कन्या से जब इस वाक्-सिद्धि के बारे में पूछा गया तो उत्तर मिला कि जब ‘हेरथ’ के दौरान बर्फ से मन्त्र-पूजा की जाती है तो वाक्-सिद्धि प्राप्त होजाती है।जबारखान ने कश्मीरी पंडितओ की इस मंत्र-शक्ति को समूल नष्ट करने की ठान ली तथा हेरथ/महाशिवरात्रि को आषाढ़-मास में मनाने का फरमान जारी कर दिया क्योंकि इस महीने में न तो हिमपात ही होगा और न कोई मन्त्र-सिद्धि ही होगी।आदेश का कठोरतापूर्वक पालन कराया गया।
कश्मीरी पंडितों को विवश होकर आषाढ़ मास की कृष्ण-त्रयोदशी की रात्रि को हेरथ/महाशिवरात्रि की पूजा करनी पड़ी।सभी शिवभक्तों के मन-प्राण अवसादग्रस्त और व्यथित थे।सजल नेत्रों से शिव/आशुतोष का भजन-पूजन कर रहे थे।उधर, भैरव और उनके स्वामी देवाधिदेव महादेव अपने भक्तों की सुध लेने के लिए प्रयासरत थे।प्रभु की लीला देखिए! सारी रात हिमपात हुआ।प्रातःकाल लोग बर्फ देखकर आश्चर्यचकित हुए।बर्फ गिर रही थी और थमने का नाम न्हीं ले रही थी। चहुँ ओर तबाही का दृश्य था।फसल से भरपूर खेत-खलिहान बर्फ में समो गये थे जिन्हें देख-देख जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।जबारखान को लोग कोसने लगे।मारे खौफ और अकुलाहट के अफगान शासक जबारखां अपने दरबारियों से इस दैवी आपदा/त्रासदी का समाधान ढूंढने के लिए मशविरा करने लगा।तय किया गया कि तुरंत भगवान् शिव के पास जाकर माफी मांगी जाए जो इस समय पंडित-घरों में विराजमान हैं। पंडितों/हिन्दुओं के घर जा-जाकर शासक जबार खां ने ‘सलाम’ किया तथा अपने किये की माफी मांगी। शेष मुसलमानों ने भी ऐसा ही करते हुए पण्डित घरों के द्वार पर जा-जाकर भगवान् शिव एवं पार्वती-माता को सलाम करते हुए माफी मांगी।कहते हैं, कुछ देर के बाद ही बर्फ का गिरना बन्द हो गया। तबसे ‘हेरथ’ के दूसरे दिन पण्डितों के घर जाकर गैर-हिन्दुओं द्वारा ‘सलाम’ करने की प्रथा/रीति जारी है।अब तो पंडित भी एक-दूसरे को इस दिन ‘सलाम’ कहकर अभिवादन करते हैं।
जबारखां की इस क्रूरता पर ताना कसते हुए आज भी कश्मीर में ये उक्ति प्रचलित है:-“वुछतोन यि जबार जंद्ह, हारस ति कोरुन वन्द्ह” अर्थात ‘इस जबार फटीचर की औकात देखो,आषाढ़ में भी(प्रभु ने)जाड़ा कर दिया।‘
अंत में अग्निशेखरजी की इन पंक्तियों को उद्धृत करना अनुचित न होगा: “शिवरात्रि, वास्तव में, कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा पर्व है। यह पर्व इनके दार्शनिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक डीएनए/धरोहर का बहुमूल्य हिस्सा है। पारंपरिक दृष्टि से वे इसे विषम से विषमतर स्थिति में भी मनाते आए हैं और आज भी उसी श्रद्धानत भाव से मनाते हैं। इसे वे ‘रीथ पालुन” कहते हैं अर्थात् घर में चाहे किसी की मृत्यु तक भी क्यों न हो जाए, वे अविच्छिन्न रूप से इस रीति का पालन करेंगे ही करेंगे। ‘वटुक/गगरी’ भरेंगे ही क्योंकि ‘हेरथ’ सृष्टि के कल्याण की रात्रि है। शिव और शक्ति के सम्मिलन की रात्रि है। दोनों के विवाह की रात्रि है।“
आशा की जानी चाहिए कि इस बार की शिवरात्रि कश्मीरी पंडितों के लिए सुख-समृद्धि का नूतन संदेश लेकर आएगी।

डॉ. शिबेन कृष्ण रैना
अलवर, राजस्थान

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