ग़ज़लः आलम खुर्शीद

देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से

हर कमरे से धूप, हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से

दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से

अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम हम ने सीखा इक जापानी से

हमेशा दिल में रहता है , कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता , उसे खोया नहीं जाता

कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिन को सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिन को कभी धोया नहीं जाता

अजब सी गूँज उठती है दरों-दीवार से हर दम
ये ख़्वाबों का खराबा है , यहाँ सोया नहीं जाता

बहुत हँसने की आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता

ज़रा सोचें ! ये दुनिया किस क़दर बे-रंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख्वाब ही बोया नहीं जाता

न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अह्ले-दिल से दिल का बोझ भी धोया नहीं जाता

एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था

एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहजादा देखा करता था

सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था

उड़ जाता था रूप बदलकर चिड़ियों के
जंगल, सेहरा, दरिया देखा करता था

हीरे जैसा लगता था इक-इक कंकर
हर मिट्टी में सोना देखा करता था

कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानो में
हर सेहरा में दरिया देखा करता था

हर जानिब हरियाली थी, ख़ुशहाली थी
हर चेहरे को हँसता देखा करता था

बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था

आँख खुली तो सारे मंज़र ग़ायब हैं
बंद आँखों से क्या-क्या देखा करता था

आलम खुर्शीद

11 जुलाई 1959, जन्म स्थान आरा, बिहार
कुछ प्रमुख कृतियाँ
नये मौसम की तलाश (1988), ज़हरे गुल (1998), ख्यालाबाद (2003), एक दरिया ख़्वाब में (2005), कारे ज़ियाँ (2008)
विविध
जोश मलीहाबादी अवार्ड (1999), बिहार उर्दू अकादेमी अवार्ड ( दो बार 1995 और 1998 में)

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