कहानी समकालीनः मुझे द्रौपदी नहीं बनना !-डॉ. इन्दु झुनझुनवाला

उसकी कमल-सी आँखों से गुलाबी गालों पर फिसलते हुए वे आँसू की लड़ियाँ बिल्कुल मोतियों की माला सी लगातार गुँथती प्रतीत हो रही थी, गोल भरा-भरा श्वेत चेहरा दर्द से और भी सफेद दिख रहा था, पथराया हुआ-सा।

बड़ी मुश्किल से मैं उससे बात कर पाई, जितना भी टुटा-फुटा वो रोते सुबकते बोल पाई, समस्या कहीं भाषा की भी थी, मेरे लिए नया देश था, भाषा भी नई, पहाड़ी इलाका था, और मेरी गाडी के नीचे आकर मरने की उसकी कोशिश ?

किस तरह ब्रेक लगाया ड्राइवर ने, मैं तो वहाँ गई थी, भाग-दौड़ की शहरी जिन्दगी से थोड़ा सुकून के लिए, पर वहाँ भी एक कहानी मेरा इन्तजार कर रही थी, मुझे पता नहीं था!

जो उसने बताया सुनकर सिहरन होने लगी बदन में और कहीं अन्तर्मन भी पूरी तरह हिल-सा गया। पर पूरी बात कैसे जान पाऊँगी, भाषा तो बाधा पहुँचा ही रही थी, फिर सुबकते हुए बोलने से उसके शब्द भी गड़बड़ हो रहे थे।

तभी याद आया मेरे एक डॉक्टर दोस्त यहीं रहते हैं, उसे मदद के लिए बुलाया मैंने। डॉ नरेन आए, उन्होंने देखा उसे, फिर उसकी टूटी-फुटी बातों से ही एक कहानी बनती गई और वो लड़की, मैं सुनकर हतप्रभ रह गई, क्या ऐसा भी होता है, हो सकता हो???

यकीन नहीं हो रहा था, पुरूषों की ऐसी सोच पर!

क्या औरत खिलौना है या एक औजार भर, एक निर्जीव वस्तु? जिसे अपने या समाज के लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए, हृदयविहीन, आत्माविहीन एक निर्जीव शरीर, स्त्री नाम है इसका? पता नही मन में धृणा-सी होने लगी, ढेरों सवाल के साथ।

नरेन पूछ रहा था और वो बोलती जा रही थी, मैं स्तब्ध कल्पना कर रही थी, एक लड़की, नाम का क्या, कमल नयन वाली लड़की, कमला? अच्छा है उपयुक्त भी, कीचड़ में फँसी भी तो है, उसकी कहानी में डूब सी गई मैं, एकाकर हो गई,

कमला ने बताया-
गाँव से पहली बार शहर में आई, पढ़ने के लिए, कॉलेज के कैम्पस में कदम रखा, तो लगा ढेरो नज़रे घूर रही हैं मुझे, मैं अपने में सिकुडती चली गई, तभी एक कोने में मुझसा कोई सिकुडा-सा बैठा दिखा, पता नहीं उन आँखों में क्या था, बढ चली मैं उस ओर, बैठी उसके पास, तो जैसे हमदोनों ने ही राहत की साँस ली।

वो भी सुदूर गाँव से पहली बार शहर आया था मेरी तरह ही पढ़ने के लिए।

धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गहराती चली गई, पढ़ने में हमदोनों ही अव्वल थे। बस अब हमें मानों किसी की आवश्यकता नहीं थी, पढाई करते-करते कब हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला।

ग्रेजुएट की डिग्री हमारे हाथों में थी और अब वापस अपने घर जाना था, तब हमने महसूस किया कि हम अकेले नहीं रह सकते! पर माधव, उसके घर-परिवार के बारें में तो मैं कुछ भी नहीं जानती, फिर उसकी जाति का भी पता नहीं, उसके गाँव का नाम भी पहले कभी नहीं सुना।

पापा से क्या कहूँगी, फिर मेरे पापा कट्टर ब्राह्मण, मुझे भेजने के पहले उन्होंने कितना समझाया था, माधव तो शाकाहारी भी नहीं! नहीं पापा बिल्कुल भी नहीं मानेंगे, पर मैं, मेरा मन, इन तीन सालों में तो मेरी पूरी दुनिया ही माधव के ईर्द-गिर्द धूमने लगी थी, उसके बिना रहने की कल्पना?

क्या करूँ, माधव भी मुझे अपने गाँव ले जाना चाहता है, वो वही अपने परिवार के साथ रहना चाहता है, फिर मुझे भी परिवार में रहना अच्छा लगता है, पर बिना पापा की इजाजत के !

बहुत हिम्मत की पापा से बात कह पाऊँ, बहुत प्यार करते थे पापा मुझे, तभी तो मेरी जिद्द मानकर मुझे शहर भेजा था पढ़ने के लिए, पर अपने सिद्धांतों के बहुत पक्के, उन्हें प्रेम विवाह नहीं समझ आएगा।

मैंने सुना था एकबार बडी दीदी के विवाह की बात पर, उन्होंने माँ से कहा था, “विवाह दो व्यक्तियों का नहीं दो परिवार का मेल है। सामाजिक विकास भी इसमें स्थान पाता है, अतः कभी भी परिवार के संस्कार, नियम और समाज की व्यवस्था सभी को जाँचना परखना आवश्यक होता है”, पापा ने ऐसा क्यूँ कहा था, मुझे समझ नहीं आया था,

पर मैंने तो सिर्फ माधव को जाना है उसके परिवार और समाज से मुझे क्या? कभी पूछा तक नहीं, अब पूछूँगी तो विश्वास टूटेगा उसका, ये मैं कैसे होने दूँगी, पर पापा उनसे मैं भी बहुत प्यार करती हूँ, उनका दिल भी नहीं दुखाना चाहती, इसी उधेडबुन में दस दिन कब बीत गए, माधव ने अपने साथ मेरी टिकट बुक करा दी थी अपने गाँव की मुझसे पूछा भी नहीं। जब उसने कहा चलने के लिए, तब मैंने कहा, एकबार पापा से बात करनी है, तुमसे मिलवाना भी है, उनसे बिना इजाजत लिए मैं कैसे गाँव जाऊँगी?

अरे, तुमने मुझे जान लिया ना? फिर पापा नहीं माने तो? एकबार हमदोनों शादी कर लेंगे फिर पापा से मिलने जाएँगे तब वो मना नहीं कर पाएँगे। देखो मैंने भी तो अपने माता पिता से नहीं पूछा है।

पता नहीं क्यों मुझे सही लग रही थी लेकिन उसकी बात पर फिर भी विवेक नहीं मान रहा था, तभी उसने कहा, “क्या पापा से पूछकर तुमने प्यार किया मुझसे। सही तो कह रहा था पर ये तो मुझे भी पता नहीं चला कब उससे प्यार करने लगा मन।

“एक बात और है कमला, लड़की को तो विवाह के बाद जाना ही होता है, जीवनभर माँ-बाप उसके साथ नहीं रहते, साथ तो ससुराल वाले ही होते हैं, फिर इतना सोचने की क्या बात है, एक बार गाँव चलकर विवाह कर लेते हैं, फिर मैं तुम्हारे साथ चलूँगा, तुम्हारे माँ पापा से मिलने।

प्यार और विश्वास की डोरी में बंधी चली गई उसके साथ, उसके गाँव, लगा माधव इतना सुन्दर पढा लिखा समझदार है, पापा खुश होंगे उससे मिलकर, क्या कमी है माधव में!

आज सोचती हूँ कितनी कच्ची थी मैं, बड़ों की बातें तब पुरानपंथी वाली लगी थी, विवाह तो दो व्यक्तियों के बीच का मेल है, इसमें परिवार और समाज का क्या काम।

गाँव पहुँची, उसके परिवार ने बहुत प्यार से मुझे अपनाया, बस एक खालीपन दिखा तो माधव की माँ की आँखों में, जो मुझे देखकर भर आती थीं बार-बार, मैंने सोचा ये अपनेपन का अतिरेक है, नहीं समझ पाई थी तब, वो खालीपन, आँसुओं से ही भरता था बस, और वे आँसू उसकी किन विवशता की दास्तान कह रही थी,

आज समझ पाई हूँ, जब सब कुछ लुट गया है मेरा, वो तो जी पाई, पर मैं? मैं नहीं जी सकती इन हालतों में, आखिर कोई कैसे जी सकता है, मेरी समझ से परे है! मैं तो बस मरना चाहती हूँ, पर???

पहाड़ की तलहट्टी में छोटा-सा गाँव। रीति-रिवाज अलग, पर अच्छा लगा, नृत्य -संगीत और लोक गीतों से सजा-सँवरा आँगन, बीच में जलती आग और उसके चारों नृत्य करते गाँव के पुरूष और उनके बीच एकाध स्त्रियाँ भी।

थोड़ा अजीब लगा था, पुरूष ही अधिक थे, माधव के घर में भी तीन और छोटे भाई थे, एक पिता और एक चाचा बस। मुझे लगा तीन छोटे भाई मिल गए मुझे, जो लगभग बराबर के से ही लग रहे थे। माधव ने घुमाया मुझे पूरा गाँव, दूर-दूर तक फैले खेत, उनपर लदे फलों-फूलों से। ये सारे खेत हमारे है, गाँव में सबसे अधिक जमीन हमारी ही है। मैं थोड़े दिनों में फिर शहर जाऊँगा कृषि में डिप्लोमा लेने। तुम यही रहना, सभी के साथ, तुम्हें मेरी कमी नहीं खलेगी, मेरे भाई सभी तुम्हारा बहुत ख्याल रखेंगे।

शादी हो गई, बस माला पहनाई एक-दूसरे को मन्दिर में जाकर ईश्वर को नमन किया और विवाहिता बन गई मैं माधव की।

वो रात मेरे लिए सबसे मदभरी रात थी, चाँदनी रात में छत पर माधव के साथ फूलों से सजे बिस्तर पर, कब रात से भोर हो गई, पता ही नहीं चला, बीत गए पूरे सात दिन, मेरे जीवन के सबसे प्यारे दिन, दिनभर झीलों -झरनों में घूमते देवरों के साथ हँसी ठिठोली करते कब रात आती और माधव की बाँहों में रात बीत जाती।

सातवें दिन माधव की माँ ने पूछा, “बेटी, आपके माता-पिता कहाँ है?”

अरे मैं तो बिल्कुल भूल गई, पापा की बरबस याद आ गई और ना जाने क्यूँ दिल बेचैन हो गया, मैंने माधव से कहा, अब चलो पापा के पास जाना है मिलने।

उस दिन हम अपने गाँव पहुँचे। घर में डरते-डरते कदम रखा, पापा सामने ही खड़े मिले, देखते ही सहम गई, फिर पापा के पैर छूए, पापा ने देखा मुझे और मेरे साथ एक युवक को, बिना बताए ही वो सब समझ गए।

माँ से कहा,” इस अन्दर ले जाओ।”

माधव ने भी मेरे साथ कदम उठाए तो पापा ने कहा, “तुम रूको।”

माधव रूक गए। पापा उन्हें लेकर बाहर बैठक में चले गए। करीब आधे धंटे के बाद पापा ने मुझे बुलाया, हमदोनों को साथ बैठाकर खिलाया, मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई।

लेकिन खाने के बाद पापा ने एक ही बात कही, “बेटी, तुमने मेरा विश्वास तोड़ा है, माधव हमारी बिरादरी का नहीं, कोई बात नहीं, पर जिस गाँव से है, उसके संस्कार और रीति-रिवाज से मैं वाकिफ नहीं। बेटियाँ पराई ही होती हैं, पर मैं अब तुम्हें इस घर का हिस्सा नहीं मान पाऊँगा। तेरी छोटी बहन की शादी भी अब कठिन होगी।

तुमने विवाह कर लिया है, जाओ और अपने नए परिवार के साथ खुश रहो। आज से वही तुम्हार घर है। सुखी रहो, यही प्रार्थना करता हूँ।” भरी आँखों से सिर पर हाथ रखा और अन्दर चले गए।

वे डाँटते-डपटते, मैं क्षमा माँगकर उनके गले लगती, वो अवसर ही नहीं मिला मुझे, इतना परायापन, पहली बार उसदिन बहुत रोई मैं माधव के कंधे पर सिर रखकर रास्ते भर, मुझे पहली बार लगा कि मैंने कोई बड़ा अपराध किया है, अपने माँ-पिता जी का दिल ही नहीं दुखाया, जीवनभर के लिए उन्हें खो दिया, जिन्होंने मेरे लिए ना जाने बचपन से अबतक कितने दर्द सहे होंगे, सपने बुने होंगे, मेरी हर खुशी और दुःख में जो मेरे साथ रहे, आज वही मेरे अपने नहीं रहे, माधव के लिए मैंने उन्हें छोड़ दिया, बहुत बड़ी कीमत चुकाई है मैंने प्यार में, पर अब, लगा स्टेशन से लौटकर जाऊँ वापस पापा के पैरों में गिरकर कहूँ, पापा, मैं आपकी गुड़िया, मुझे क्षमा कर दें, आपके बिना नही जी पाऊँगी, पर माधव ने रोक लिया और मुझे ढेलकर जबरदस्ती ट्रेन में बैठा दिया, और में बेबस उस चिरपरिचित स्टेशन से दूर होती नज़रों से दैखती रही, जहाँ पापा की गोद में अक्सर आती थी, कभी बुआ को लेने, कभी चाचा को छोडने और अन्तिम बार कालेज जाने के लिए।

पापा की भीगी आँखों में तब बिछुड़ने का दर्द था, पर आज, आज पापा की आँखें दर्द के साथ एक तडप, एक कसक और उसके साथ एक बेगानापन भी, मुझे वे आँखें, आज, डूबती जा रही थी मैं उनके दर्द में, दरवाजे के पीछे से माँ की बेबस सिसकियाँ! ना टीका चन्दन, न कोई वंदन, बस दरवाजे के बाहर कदम रखते ही दरवाजों का झटके से बंद होना, जैसे मेरी खुशियों के दरवाजे भी बन्द हो गए हो, पर अब, अब पछतावत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।

पूरी रात ट्रेन का सफ़र अनमना दु:खी कटा, ट्रेन की आवाज सुनती रही सुबकती रही। भोर की रोशनी हुई तो उठ बैठी, देखा तो ताज्जुब हुआ, सामने की सीट पर माधव गहरी नींद सो रहा था, मेरे एक आँसू पर भी जो परेशान हो जाता था, आज उसे फर्क नहीं पड़ रहा। फिर लगा, वो बेचारा क्या कर सकता है, उसके ससुराल में उसका अपमान नहीं हुआ, पर स्वागत भी तो नहीं हुआ।

माँ ने अन्दर एक चुनरी अवश्य सिर पर रखी और अपने हाथ के दो कंगन मुझे पहनाए दिए थे चुपचाप। कंगन देखे तो दो बूँद माँ के लिए निकल आए फिर से, और वो बूँदें तडप कर फिसली कंगन से नीचे, और माँ के दिल की तडप जैसे मेरे दिल की चीर गई और मैं फफककर जोर से रो पड़ी, माधल घबराकर उठ बैठा, आस पास के सभी लोग मुझे दया भरी नज़रों से देखने लगे थे। माधव ने आगे बढकर मुझे सहलाया तभी स्टेशन आ गया और गाड़ी रुकी एक हाथ में अटैची और एक हाथ से, उसने मुझे लगभग जबरदस्ती उठाया और ट्रेन से नीचे उतार लिया।

वहाँ से एक धोडागाडी में बैठाया और हम उसके गाँव पहुँच गए। अबतक मैं सच को स्वीकार करने की हिम्मत जुटाने लगी थी। पर जैसे ही माधव के घर पहुँची उसकी माँ के गले लगकर जोर से रोना आ गया, उसकी माँ की आँखे भी भीग गई, पर उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा, जैसे उन्हें सब पता हो।

धीरे-धीरे मैं किसी तरह भूलने की कोशिश करने लगी, कब महीना बीत गया, पता नहीं चला, ।

एक दिन माधव ने कहा मुझे अब कल शहर जाना है कोर्स के लिए, आज की रात बस मैं हूँ तुम्हारे लिए, कल से मेरे भाई तुम्हारी देखभाल करेंगे। उसके भाईयों से भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी, मुझे धे अपने छोटे भाई लगते थे। पर माधव का जाना, अकेलेपन के डर से मैं माधव से लिपट कर रोने लगी, तब माधव ने कहा, तुम फिक्र मत करो, हमारे परिवार में तुझे मेरी कमी बिल्कुल नहीं लगगी, फिर कुछ महीनों की हो तो बात, मैं वापस आ जाऊँगा। एक-एक भाई एक एक महीने तुम्हारा मन लगाएँगे।

मैं कुछ समझी नहीं, पर उस समय तो मुझे बस माधव से अलग होने का दर्द ही नहीं सम्भल रहा था।

माधव चला गया शहर।

वो रात, ??? खाना खाकर जब मैंने कमरे में कदम रखा तो चकित रह गई, कमरा सजा था पहली रात की भाँति, लगा मुझे खुश रखने के लिए सजाया है, पर अगले ही क्षण जो हुआ, उसकी तो मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी, माधव का भाई अन्दर आया और दरवाजा बन्द करके मेरे पास आकार मेरा हाथ पकड़कर मुझे बिस्तर पर बैठाकर मेरे चेहरे पर झुक गया, जब तक मैं कुछ सोच पाती उसके होठ मेरे होठों को मसल रहे थे और हाथ मेरे शरीर पर साँप की तरह लोटने लगे, मैं भीतर तक सिहर कर झटके से उसे धक्का देकर खडी हो गई, अभी भी मुझे ये एक बुरा सपना ही तो लग रहा था, मैंने घुटती आवाज में बस इतना ही कहा, ये क्या??

उसके भाई ने कहा,” क्या आपको भैया ने नहीं बताया एक-एक महीने अब हम भाई मिलकर आपका ध्यान रखेंगे और वे सारे सुख देंगे जो भाई ने दिया!

मैं अवाक्, हतप्रभ, पता नहीं क्या हुआ, मैंने तेजी से दरवाजा खोला और दौड़कर माधव की माँ के कमरे की दौड़ी, वहाँ दरवाजे पर ही मेरे कदम ठिठक गए, अन्दर का दृश्य अविश्वसनीय था, माँ के साथ चाचा जी।

मुझे जोर से चक्कर आने लगा तभी किसी ने मुझे सम्भाला, तब तक मैं अचेत-सी हो गई थी, ।

सुबह जब आँख खुली तो रात की बात याद आई, झटके से उठ कर बैठी तो देखा साथ में वो सो रहा था, मेरे कपडें, अस्त-व्यस्त।

घबराकर बिस्तर से उठने की कोशिश की, तो बदन के पोर-पोर में दर्द, ये सब क्या हो गया, माधव ने किस दलदल में फँसाया है मुझे, क्या उसे पता है, क्या उसके नहीं होने से ये मेरा फायदा उठा रहे हैं, मन हुआ, पुलिस स्टेशन जाऊँ, नहीं पहले माधव को फोन करती हूँ, माधव को फोन किया, कमरे से बाहर नहीं आ पाई, पर उसका फोन ही नहीं लग रहा, अब क्या करूँ, माधव की माँ, नहीं अब कुछ नहीं, अब सीधे पुलिस में जाऊँ, तभी बच पाऊँगी इन दरिन्दों से, कमरे से बाहर निकली तो सास दरवाजे पर खड़ी थी, जैसे मेरा ही इन्तजार कर रही हो, उन्होंने बोला, पुलिस स्टेशन जा रही हो न, जानती हूँ, आज से 30 साल पहले भी यही हुआ था इस घर में, बस फर्क इतना ही था कि तुम्हारी जगह मैं थी, ।

इस गाँव की रीत है, एक पत्नी के सारे भाईयों में बँटती है, जिससे जमीन का, घर का बटँवारा नहीं करना पडता, ये बात माधव ने तुझे नहीं बताया, मुझे भी इसके पिता ने नहीं बताया था, आज तक भोग रही हूँ मैं, इस घर में दोनों भाईयों के बीच।

तुम्हें देखकर इसलिए रोई थी मैं पहले दिन, पर जैसे मुझे मेरे पिता ने छोड़ दिया था, कोई रास्ता नहीं बचा था। यहाँ पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती, गई थी मैं भी वहाँ!!

पता नहीं मुझे क्या हुआ, मैंने कहा आप मर सकती थी ना?

हाँ, उदास विंहसती-सी हँसी में वो बोली, दो बार कोशिश की थी, पर बच गई न जाने कैसे? भागने की कोशिश भी बेकार है, इस गाँव से बाहर कोई नहीं जाने देगा तुझे।

क्या आप अपने बेटों को नहीं समझा सकती, हम स्त्रियाँ कोई खिलौना नहीं, न ही उनकी स्वार्थ पूर्ति का साधन भर हैं, फिर आपके पुत्र तो पढ़े-लिखे हैं, फिर भी!!

बेटी, इस गाँव की बेटियों को तो पता है और उन्हें बाहर भी नहीं भेजा जाता, अतः उनके लिए ये एक जीवन शैली है ।

पर हमारे लिए द्रौपदी बनना इतना सहज नहीं, बल्कि सच कहूँ तो मुझे मेरे ही शरीर से अब धिन आती है, पहले इसके एक चाचा और थे, जो वास्तव में मुझसे प्यार करने लगे थे, मेरा दर्द समझने लगे, तब उनकी बगावत को दबाने के लिए उन्हें गाँव से बाहर कर दिया गया।

मैं पत्थर-सी स्तब्ध, कल रात जिस रूप में देखा, उसका सच उससे भी वीभत्स, ये कैसा समाज और कौन सी रीति???

माधव, मुझसे प्यार करता था, या बस एक शरीर समझकर ले आया अपने इस नर्क में, इतना बड़ा धोखा, छल, विश्वासधात, अब कहाँ जाऊँ मैं?

आज पहलीबार पापा की कही बात के मायने समझ में आए, विवाह दो परिवार का मेल है, समाज के लिए, सिर्फ दो व्यक्तियों का नहीं, ।

पर अब मेरे लिए कोई राह नहीं, आखिर करूँ क्या, आत्महत्या, नहीं मैं कायर नहीं, तो फिर?
रात पास आने लगी और मैं एक कोने में सिमटने लगी, सोचा अँधेरा गहरा जाए तो इन दरिन्दों से बचकर भागने का प्रयास तो कर ही सकती हूँ, मौत से पहले नहीं मरना मुझे, खिड़की खुली थी चुपके से काली चादर में लिपेटा खुद को और बिना सोंचे समझे भागती चली गई , जैसे मेरे पीछे भूत पड़े हो!! आपकी गाड़ी कब मेरे सामने आई मुझे पता ही नहीं चला!!

कमला इतना कहते-कहते फिर से सुबकने लगी, तब मुझे होश आया कि मैं उसकी कहानी सुन रही थी।

कहानी ने मन विचलित कर दिया, मैं तो इस गाँव में कुछ काम से आई थी, रात एक काला साया भागते हुए मेरी गाड़ी से टकरा कर बेहोश हो गया।

उसे गेस्ट हाउस में लेकर आई, नब्ज देखा, ढीक चल रही थी, पानी के छींटे मारे तो उठ बैठी, अजनबी चेहरों को देखा तो फफक पडी पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं, डर से काँप रही थी, रात अधिक होने लगी तब अपने दोस्त डा नरेन को बुलाया, उसने एक इंजेक्शन दिया हाथों पैरों और सिर से बहते धाव पर पट्टियाँ बाँधी और उसे बताया कि हम शहर से आए हैं तब कहीं तसल्ली हुई उसे और पूरी रात उसकी कहानी में बीत गई,

खिड़की के बाहर हल्का उजाला भोर होने का संकेत दे रहा था, उसने गाँव का जो नाम बताया वो वहाँ से दस किलोमीटर दूर था, यानि कमला बदहवास दौडती रही दस किलोमीटर पथरीली पंगडंडियों पर स्वयं को बचाने, और इस 21 वीं सदी का एक हिस्सा पूरी दुनिया को दिखलाने, बिना ठोकरों की परवाह किए, सिर्फ़ इसलिए कि अब कोई कमला नहीं फँसेगी इस जाल में !

डॉ. इन्दु झुनझुनवाला

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