कहानी समकालीनः एक बटे तीन-हंसा दीप

आज माँ की संपत्ति का बँटवारा हो गया।
जमीन-जायदाद का बँटवारा सदा ही होता रहा है, कोई नयी बात नहीं। नयी बात यह है कि यहाँ एक बटे चार नहीं, एक बटे तीन हुआ। माँ के चार बेटों की सूची से मेरा नाम हट गया। शायद उसी दिन से हट गया था जिस दिन मैंने देश छोड़ा था। फर्क बस इतना ही है कि मुझे इस बात का पता आज चला। विदेश में बस जाने के कारण मैं उस वसीयत में कहीं नहीं था। शायद देश छोड़ने के बाद मैं माँ का बेटा भी नहीं रह गया था। माँ के रहते तो मैं उन तीनों से अधिक लाड़ला रहा, जो माँ की गोद में मेरे बाद आए थे। जल्दी ही मैंने दूर आसमान में छलांग लगा ली थी। उड़ते समय अपनी जड़ों को उखाड़ कर साथ ले आया था। खुद तो जड़ों से जुड़ा रहा पर उस जमीन से कट गया जहाँ से ये जड़ें जुड़ी थीं। जब वहाँ जड़ें ही नहीं रहीं तो कैसा बेटा, कैसा भाई, कैसी वसीयत! इसीलिये मेरा नाम काट दिया गया था।
यह समाचार मेरे लिए पीड़ादायी नहीं होना चाहिए था, पर बहुत पीड़ा हुई। पैसों की पीड़ा हो, न हो, यह पीड़ा जरूर थी कि मेरा नाम माँ के बेटों की सूची में ही नहीं था। खून का रिश्ता दूरियों ने लील लिया था। लाल रंग का खून आसमानों की उड़ान के बाद इस कदर धुंधलाया कि अपना रंग ही नहीं, वजूद भी खो बैठा। अपने देश से विदेश आते समय कई बार आँखें भीगी होंगी लेकिन जिस तरह आज भीगी हैं, उसकी चोट गहरे तक साल रही है। अपने हिस्से को बाँटने के बारे में मेरी योजना थी। मैंने सोच कर रखा था कि अपने हिस्से को मैं भाइयों व उनके बच्चों में कितना बाँटूँगा। माँ के नाम से कहाँ-कहाँ अस्पताल में दान करूँगा, गरीबों के लिये मदद भेजूँगा। लेकिन छोटे भाइयों ने मुझे यह जहमत उठाने का मौका ही नहीं दिया। वे जानते होंगे कि यह लोगों में बाँटकर दानवीर बन जाएगा। गरीबों की दुआएँ अकेला ले लेगा। इससे तो अच्छा है कि हमारी ही दुआएँ लग जाए। हम भी तो गरीब हैं।
मेरी सोच निरंतर एक दिशा से दूसरी दिशा में पैंडूलम की तरह डोल रही है। अपनों के मन का परायापन साल रहा है। एक बटे तीन में, तीन का यह अंक मुझे दंश की तरह चुभ रहा है। एक करोड़ पचास लाख का मकान सीधे-सीधे तीन भाइयों के खाते में पचास लाख के अंक का सीधा-सरल गणित समझा गया। अंक गणित हो, बीज गणित हो या रेखा गणित, रिश्तों को झुठलाना हर गणित के, हर अंक ने सीख लिया है अब। खनखनाते अंकों के सामने कोई भी अंक, कोई भी गणित टिक नहीं पाता। रिश्तों के यू-टर्न शायद इन अंकों की ही साजिश है!
माँ को गए अभी छ: महीने ही हुए। 30 मार्च 2020 का वह दिन, जब कोविड19 काल शुरू ही हुआ था। सारी उड़ानें रद्द कर दी गयी थीं। भारत में लॉकडाउन का पालन कोई नहीं कर रहा था। माँ की मृत्यु पर रिश्तेदारों की छोटी-सी भीड़ थी। सबसे बड़ा बेटा, सबसे दूर, विदेश में बैठा अपनी माँ को ऑनलाइन विदा दे रहा था। माँ इतने साल नहीं गयी पर कोरोना के आते ही चली गयी। शायद जानती थी कि कुछ दिन और रुकी तो उसके पास कोई आकर भी खड़ा नहीं होगा। अभी कम से कम चार कंधे तो मिल जाएँगे। मैं जा नहीं पाया। अपनी माँ के अंतिम संस्कार में नहीं जा पाया। उसी माँ के अंतिम संस्कार में जो मेरे गुण गाते नहीं थकती थी। उसी माँ को मैंने विदाई दी, आकाश में तरंगों के द्वारा। उस तरंग से जो मेरे अंदर उठती, मन की लहरों को लेकर वहाँ पहुँचती, उस अग्नि की लौ के साथ एकाकार होती और माँ से मेरी मुलाकात करवा देती।
आवाज आती- “ना ना, दु:खी मत हो बेटा। तू तो दूर होकर भी बहुत पास है मेरे।”
और मैं माँ के इस अथाह प्यार की गहराई को महसूस कर खुद को समझा लेता। अपनी मजबूरी जाहिर कर देता। और वह समझ जाती हमेशा की तरह- “आगे बढ़ने के लिये बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है। तू तो आगे बढ़, परिवार का नाम रोशन कर।”
“तेरी कभी कोई चिंता नहीं रही मुझे, चिंता तो इन नालायकों की है।”
“तू मेरी, यहाँ की चिंता बिल्कुल मत कर, मैं हूँ यहाँ।”
अपने काबिल बेटे की काबिलियत का नाज माँ के शब्दों में होता- “जिस कोख से तेरे जैसा हीरा जन्मा, उसी कोख से इन नालायकों ने भी जन्म लिया।”
इन शब्दों की मजबूती कुछ ऐसी थी कि मैंने कभी न माँ की चिंता की, न भाइयों की। किसी बात की अगर चिंता की तो अपने कैरियर की। आगे बढ़ता रहा। देश जाना कम होता गया। माँ को दिलासा देता रहा। माँ की आशीर्वादों की झड़ी अपने माथे पर बरसते देख खो गया अपनी जिंदगी में।
सबसे छोटे भाई के जन्म के बाद ही पिताजी हमें छोड़कर साधु बन गए थे। कहते थे- “मैं वैराग्य ले रहा हूँ। आत्मा का कल्याण करना है।”
कहने वाले कहते रहे – “इतने साल बीवी के साथ बच्चों को पैदा करते हुए वैराग्य कभी आड़े नहीं आया होगा!”
“चार छोटे बच्चों को देखते हुए लोगों का वैराग्य हो तो भी चला जाता है। इन महाशय को अब आया है।”
वैराग्य की धुन में कहाँ चले गए किसी को कुछ पता नहीं चला। माँ क्या करती! वह तो जैसे समय को स्वीकार करने के लिये ही बनी थी। पहचानती थी अपनी विवशता को। शिकायत करती भी तो किससे? वह जो वैरागी बन गया उससे, या वह जो ब्याह कर लाया उससे! चार पुत्रों की सौगात दी और अकेले छोड़ कर चला गया। अकेले कैसे आत्मा का कल्याण करेगा! कहाँ जाएगा, साधुओं के बीच रहकर, क्या कभी अतीत को भूल पाएगा!
जितने मुँह उतनी बातें, कोई कहता- “किसी ने कुछ कर दिया शायद।”
“ऊपर की हवा लग गयी। तभी तो एकाएक वैराग्य हो गया।”
ऊपर की हवा में कई आत्माएँ नजर आतीं जो बाबू को अपनी और खींचतीं दिखायी देतीं। लगता वे मृतात्माएँ खींच कर ले गयीं बाबू को और हम जिंदा चार बच्चे व उनकी पत्नी नहीं खींच पाए। बाबू-मंथन की दौड़ में हम हार गए। माँ रोती हुई किस्मत को कोसती नहीं रही। डट कर सामना किया। सब कुछ सँभालकर बच्चों की परवरिश की। मुझे पढ़ाया-लिखाया। मुझसे छोटों को भी पढ़ाने की बहुत कोशिश की। वे नकल करके जैसे-तैसे पास होते रहे किंतु नौवीं-दसवीं तक आते-आते वह भी छोड़ दिया। हम सब बड़े होते गए। बगैर माँ-बाप के बच्चे भी बड़े हो जाते हैं। हमारे साथ तो माँ थी जो बाप बनकर सिर पर हाथ रखती और माँ के आँचल का सुख भी देती।
हमारी माली हालत बुरी नहीं थी, ठीक-ठाक थी। न भी होती तो माँ भूखे रहकर हमें खिलाती। शुरू के दो-चार महीने जमा पूँजी से काम चलता रहा। उसके बाद तो माँ ने मेहनत करके अपनी दुकान अच्छी तरह संभाल ली थी। पहले से भी अच्छी चलने लगी थी। रहने के लिये तो पुश्तैनी हवेली थी ही। बस रोज का खर्च चलाने की जुगाड़ ही करनी थी।
एक जमाना था जब हम चारों बड़े होते तंदुरुस्त भाइयों को देखकर माँ को इतनी खुशियाँ मिलती थीं कि उसे आगत भविष्य का वह झूला दिखाई देता जिस पर वह झूल रही होती और बेटे-बहुएँ, पोते-पोतियाँ सब झुला रहे होते। आसपास सेवक-सेविकाएँ होते जो सेठानी माँ की सेवा में तैयार खड़े होते। तब तो पूत के पैर पालने में थे। पालने से निकलकर वे ही पैर अपने पैरों पर खड़े हुए। आँखें अपना सपना देखने लगीं। मैं विदेश आ गया और शेष तीनों जैसे-तैसे अपना खर्च चलाते रहे। सबके अपने सपने थे। उन सपनों में माँ कहीं नहीं होती। अगर कुछ होता तो माँ का बड़ा घर। जिसके चार टुकड़ों में एक टुकड़ा बहुत प्यारा लगता। वही अपना लगता, अपना सपना लगता।
वह जर्जर पुश्तैनी मकान गाँव के नगरीकरण में प्रवेश के आसार के साथ करोड़ों की संपत्ति में बदल गया था। घर, घर था ही नहीं, कबाड़खाना था। न जाने कितने बरसों की बगैर काम की चीजें पड़ी हुई थीं जो एक बार घर में आयीं तो बस आ गयीं। कभी उन्हें फेंकने या धूल झाड़ने की जरूरत महसूस नहीं होती। मानो किसी भी चीज ने घर में कदम रखा तो अब वह घर का हिस्सा है। घर से बाहर जा नहीं सकता। बेजुबान चीजें तो घर में रहीं पर जुबान वाले चले गए। जिनसे घर, घर था वे पिता तो गए ही थे, घर के बेटे भी एक-एक करके चले गए थे। जिन्हें माँ नहीं रोक सकती थी, नहीं रोका, पर इन चीजों को घर में रोकती रही।
कभी फुरसत में सहला कर देखती होगी। उनसे बातें करती होगी। याद करती होगी वे दिन जब घर हरा-भरा था। तब चीजें नहीं घर के लोग बोलते थे। अब वह दायित्व इन चीजों ने ले लिया था जो यदा-कदा माँ को स्मृतियों से रूबरू करवा देती थीं। बड़े घर में, छोटे-से कद की माँ का कोई एक कमरा नहीं था। चारों ओर, जहाँ मन किया बैठ जाया करती थी। जहाँ मन किया दोपहर की झपकी ले लिया करती थी। कमरे थे ही कहाँ घर में। बड़े हाल के हाल थे। तब छोटे कमरों का चलन ही नहीं होता था शायद। घर में जितने बड़े-बड़े हाल हों उतना ही घर अच्छा माना जाता था। और उन बड़े हालनुमा कमरों में हर चीज बेतरतीब रखी होती थी। ऐसी कि जिस चीज की जरूरत पड़े वह आँख उठाते ही मिल जाए। किसी ने कभी कुछ जमाने की या बदलने की कोशिश नहीं की। अपने काम की चीज दिखी तो माँ से पूछ कर ले ली।
सालों हो गए थे। देखरेख नहीं हो रही थी। सफेद चूने से पुती दीवारों के पोपड़े खिर-खिर खिरते जा रहे थे। जहाँ-तहाँ छिपकलियों की घनी बस्ती दिखाई देती। कभी-कभी चूहे भी दिखाई देते। इतनी तेज दौड़ लगाते फिर भी साफ दिखाई दे जाते। कमरे की लंबाई इतनी थी कि एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचते चूहों का आकार-प्रकार सब कुछ दिखाई दे जाता। ऊपर की छत ऐसी हो गयी थी जैसे कभी भी गिर सकती है। हर चरमराती दीवार के पीछे माँ की मजबूत आँखें थीं जिन पर आज तक कोई नजर नहीं डाल पाया था। उनके तीनों नालायक बेटे भी नहीं। जाने कितने सालों से माँ के जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जितनी उनकी बेचैनी बढ़ती उतनी माँ की जीने की चाह बढ़ जाती। तीनों भाई यदा-कदा माँ के घर जाते और ताने दे आते- “भाई तो रोज फोन करता होगा। रोज बातें करता होगा।”
“सारी आशीषें तो भाई को दे ही दी होंगी। कुछ बच गयीं हो तो मुझे भी दे दो।”
माँ की आदत हो गयी थी यह सब सुनने की। किसी दिन कोई आकर बगैर ताना दिए चक्कर लगा कर जाता तो पोते-पोतियों से धीरे से पूछती- “तेरे पापा की तबीयत तो ठीक है न!”
अगले दिन फिर कोई न कोई आता, ताना मार कर जाता तब माँ को लगता- “सब ठीक-ठाक है।” मझला, छोटा, मुन्ना सबके सब जैसे एक ही मिट्टी के बने थे। जिस दिन यह देखने की इच्छा से जाते कि माँ ने बिस्तर पकड़ लिया उस दिन माँ के किचन से खुशबू आ रही होती। कभी शुद्ध घी का हलवा बनाने की तो कभी आमपाक (आम की बर्फी) की। खाने के शौक ने उन्हें जिंदा रखा था शायद। या यों कहें कि खाने के शौक से माँ सक्रिय रहती और नब्बे साल की उम्र तक भी खूब मीठा खाकर, मीठी ही रहती। आखिरकार चली गयी। कब तक रुकती। बेटों के बालों की सफेदी कहने लगी थी कि हम थक गए लेकिन यह माँ है, कभी नहीं थकती। आज भी अपनी रोटी खुद बनाकर खाती है।
घूमते-घामते पोते-पोतियाँ देख आते कि दादी क्या कर रही है। उनसे कुछ सूखे मेवे लेकर खा लेते। काजू-किशमिश खाने या ताजी मिठाई खाने की ललक दादी के घर के चक्कर लगवा लेती। समझ नहीं पाते कि दादी अकेली क्यों रहती है। उन्हें तो दादी बहुत अच्छी लगती थीं। दादी भी उनसे उनके घर की सारी बातें उगलवा लेतीं- “तेरी मम्मी ने क्या कहा? फिर तेरे पापा ने क्या कहा, ज्यादा लड़ाई तो नहीं हुई?”
“मिठाई खानी है कि नहीं। चल जल्दी से बता दे।” बच्चे सब उगल देते। अपना पक्ष भी रख देते। जली रोटी खानी पड़ी, या फिर मम्मी-पापा दोनों ने बहुत डाँटा। माँ मुस्कुराती रहती। सीसीटीवी कैमरों के बगैर सबके घर की तस्वीर माँ के सामने होती। सब कुछ जानते-समझते ही माँ वसीयत बना कर नहीं गयी थी। शायद जानती थी कि तीनों भाइयों के रहते ऐसे किसी कागज के टुकड़े का कोई महत्व नहीं। उनमें इतनी ताकत थी कि माँ के हाथों से कुछ भी लिखवा कर कभी भी उसे प्रमाणित करवा लें। सालों पुराने घर का सामान तो उनके आँखें मूँदते ही गायब हो गया था। बचा था पुश्तैनी मकान। जिसकी कीमत करोड़ों में थी। चार बेटों, बहुओं पोते-पोतियों सबके होते हुए सालों से माँ अकेली रह रही थी। आखिरी में छोटे की शादी से उम्मीद थी कि वह टिकेगा माँ के पास। कुछ दिनों में वह भी बाहर निकल गया यह कहते हुए- “मैं तो अपने भाइयों का अनुकरण कर रहा हूँ।”
मेरे दिमाग से वह वसीयत जा ही नहीं रही थी जिसमें मैं कहीं नहीं था। अपनी माँ का बेटा तो था। शायद उन तीनों से अधिक था जो मेरे बाद आए थे माँ के पास। मेरी कुर्सी के ऊपर वाले शेल्फ में है माँ की तस्वीर। उस मुस्कुराहट के साथ जो मेरे हर काम से और चौड़ी हो जाती थी। हम चार भाइयों के नाम क्रम के अनुसार ही पुकारे जाते घर में। बड़ा, मझला, छोटा और मुन्ना। बड़ा मैं था। सिर्फ उम्र में बड़ा नहीं था, हर जगह बड़ा था। घर की दीवारों में, माँ के नेह में और आगे आसमान की ऊँचाइयों को नापने तक में। माँ का कद भी मैंने बड़ा किया था। माँ की हसरतों को बहुत ऊँचाइयाँ दी थीं मैंने। एयरपोर्ट से किराए की कार लेकर जब गाँव पहुँचता तो भीड़ लग जाती मेरे आसपास। एक रौनक-सी होती घर में। ऐसा लगता कि कोई जलसा है। विदेश से बेटा आया है। मेरे स्वागत में घर उत्सव मनाता। मिलने-जुलने वालों की होड़ लगी रहती। हर किसी को उपहार की लालसा होती। माँ कहती- “थोड़ा-थोड़ा सबको दिया कर। कोई कभी जिले से बाहर नहीं गया और देख, तू विदेश से आया है। उम्मीद तो करते हैं न!”
“मेरे लिये कुछ मत लाया कर, पर इन सबको दिया कर।”
तीनों छोटे भाई ताना देते – “माँ का बड़ा बेटा आया है, अब देखना, क्या-क्या माल निकलेगा।”
“तू भी न माँ, सबसे ज्यादा उसको प्यार करती है जो चला जाता है तुझे छोड़कर।”
माँ के पास जवाब तैयार रहता- “तो तुम पहले आ जाते, तुम्हें ही करती। मैंने ही भेजा है उसे आगे बढ़ने के लिए। बाबू तो चले गए थे। तुम्हारा ध्यान भी तो उसी ने रखा। वही तो पढ़ता भी था, तुम सबको पढ़ाता भी था।”
“पढ़ाता नहीं था। इस बहाने सब को डंडे मारने की आजादी मिल गयी थी उसे।”
मैं सब कुछ सुनता पर प्रतिवाद नहीं करता। अक्खड़पन से कितना भी टकराओ चोट ही लगती। माँ के इस अतिरिक्त प्यार का खूब फायदा उठाया मैंने। कभी माँ को साथ ले जाने की बात नहीं की। डरता था कि कहीं माँ ने हाँ कर दी तो! वहाँ रहेगी कैसे! मेरी इटालियन बीवी कैसे रहेगी उसके साथ! कैसे रहेगी उस माहौल में जहाँ आसपास वाले एक दूसरे को जानते भी नहीं! मन में यह धारणा बना ली थी कि माँ अपनी जमीन को कभी नहीं छोड़ेगी। किसी हाल में मैं उसे नहीं ले जाना चाहता था। वहाँ ले जाकर माँ का मन दुखाना नहीं चाहता था। अकेलेपन का बोझ उठाना उसके लिए आसान न होता।
यहाँ आता हूँ तो छोटी-छोटी बातें उसे कितनी खुशी देती हैं। हरे चने के छोड़ भून कर दाने निकाल कर देती थी। “पढ़ा-लिखा है, कहीं सूट-बूट खराब न हो जाए।” भुट्टे के दाने भी निकाल कर देती थी- “हाथ गंदे मत कर।” मेरे कपड़े धोने के लिये धोबन काकी को कभी नहीं देती। कहती- “कीमती कपड़े हैं। मैं हल्के हाथों से धोऊँगी।” मेरे वे कपड़े धोते हुए शायद माँ को अपने नन्हें की याद आती होगी जिसके छोटे-छोटे कपड़े धोकर अपार सुख का अनुभव किया होगा। तब तो बाबू भी थे। एक हरा-भरा घर था। इधर माँ के पेट में एक के बाद एक बेटे आते रहे उधर बाबू दूर होते रहे।
बड़ी संतान को बड़ा मान मिलता ही है। फिर इसने तो सम्मान दिया है पूरे गाँव को। माँ का गर्वीला चेहरा जितना दमकता उतना भाइयों का चेहरा बुझता रहता। धीरे-धीरे सबकी बहुएँ आयीं। माँ को दिए जाने वाले ताने अब तीन गुना और बढ़ गए थे।
याद है मुझे अच्छी तरह, एक बार जब मझले की बहू ने मिर्च ज्यादा डाल दी थी। गले में अटक गयी थी। इधर मैं खाँस रहा था उधर माँ की जैसे जान निकल रही थी। किचन में जाकर डाँट रही थी- “इतनी मिर्च डालते हो। तुम्हें पता नहीं चलता कि उससे खायी नहीं जाती।”
“दूर से आता है तुम लोगों से मिलने के लिये। तुम ठीक से उसके लिये खाना भी नहीं बना पाते।” ऐसे तमाम लम्हे बड़े के लिये तो सम्मानजनक होते किंतु तीनों भाई व उनकी पत्नियाँ कुढ़ती रहतीं।
“बड़े तो नाम के हैं। सँभालना तो इन्हें था, सँभाल हम रहे हैं। छोटे होकर भी अपना फर्ज अदा कर रहे हैं।”
“प्यार तो बहुत आता है बड़े बेटे पर। कर लो, आज हैं कल चले जाएँगे।”
ऐसी सैकड़ों कड़वी बातें मेरे जेहन में गूँजती रहीं। आज ‘एक बटे तीन’ के साथ उन सब बातों का बदला ले लिया गया। वह चौथा जो माँ के लिये पहला था, कहीं नहीं रहा था अब।
माँ की सूरत याद आती कि अगर उनके रहते किसी ने मेरा हिस्सा ले लिया होता तो क्या हालत होती उसकी। जब भी दूध तपा कर मावा-मिठाई बनती तो मेरे हिस्से की ताले में रखी जाती क्योंकि मैं पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहता।
बीते दिनों की इस जुगाली के चलते कई बार फोन तक हाथ गया कि तीनों भाइयों को चीख-चीख कर पूछूँ- “मैं कहाँ हूँ इस बँटवारे में?” लेकिन हिम्मत जवाब दे जाती। ऊपर रखी माँ की तस्वीर दिखती जो कहती- “मैंने तो तुम्हें बहुत दिया बेटा। पहली ममता तुम्हीं पर बरसी। तुमने ही तो मुझे मातृत्व सुख का अहसास कराया। मैं तो हूँ तुम्हारे साथ।”
“उन्हें पैसों की जरूरत है। वे पढ़े-लिखे नहीं।”
“नासमझ हैं। तुम अपनी समझ से बना लोगे पैसा।”
“वो तुम्हारे छोटे भाई हैं। बँटवारा तो तब रोज होता था जब तुम्हें ज्यादा प्यार मिलता था। तब उन्होंने भी सवाल किए थे। न उन्हें जवाब दे पायी, न तुम्हें।”
“एक रत्ती भर, तोला या माशा, कुछ तो ज्यादा था तुम्हारे लिये।”
माँ का वह हाथ जो बड़े बेटे के सिर पर पहले रखा जाता था। वह हाथ जो बड़े बेटे के विदेश गमन पर हज़ारों मील दूर से आशीर्वाद दे जाता था। वह हाथ जो बड़े बेटे के नाम से ही चेहरे की आभा को दोगुनी कर देता था। वही हाथ आज भी मेरे सिर पर है। उस हाथ के स्पर्श को मेरा बाल रहित गंजा सिर महसूस करता है- “आज सभी भाई समान खुश हैं तो तुम उनकी खुशी में साथ दो। आज सबको अपना जायज हक मिल गया है।”
बँटवारा संपत्ति का हुआ था। मेरे पास जो बरसों से था वह तो आज भी सुरक्षित है। मेरा हिस्सा, पूरा, एक बटे एक। मैंने ऊपर देखा, माँ की तस्वीर में आज उसके चेहरे पर कुछ ज्यादा ही मुस्कुराहट थी। भाइयों को फोन तो मैंने फिर भी लगाया मगर यह कहने के लिए कि तुम्हारे इस निर्णय से मैं बहुत खुश हूँ।
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