कविता आज और अभीः नारी मन-1


औरतें

औरतें बेजुबां पैदा होने लगी थीं
बेजुबां समाज की तकती राह
बेजुबां औरत
किसी दिन शायद
जमाना जुबां बख्शे

जमाना बीतता या
जुबां बन्द रही,
महरूम रही
आवाज से

सिसकी और चीत्कार भी
दफन हो गए,

एक दिन
औरत के पास कुछ भी न बचा
जिसपर चीत्कार करे।
और, कोई परहेज भी न बची
कि दफन हो जाए जुबां
फिर से किसी सिसकी में।

-सुनील कुमार

जानना ज़रूरी है

जब वक्त कम रह जाए
तो जानना ज़रूरी है कि
क्या ज़रूरी है
सिर्फ़ चाहिए के बदले चाहना
पहचानना कि कहां हैं हाथ में हाथ दिए
दोनों मुखामुख मुस्करा रहे हैं कहां
फ़िर इन्हें यों सराहना
जैसे बला की गर्मी में घूंट भरते
मुंह में आई बर्फ़ की डली ।

-इन्दु जैन

स्त्री

कच्चे भुट्टे के दानों सी बिखरी
तुम्हारी वह उजली हँसी
लोगों की याद का हिस्सा बन चुकी है
अपनी खुशबू के साथ।

वक्त ने चाहे
तुम्हारे होंठ सिल दिए हों
तुम्हारी हँसी के हस्ताक्षर अब भी
जिन्दगी की किताब के
पिछले पन्नों में बन्द हैं।

अगले पन्नों पर
“खामोशी” लिखते हुए
चाहे फ़िलहाल
तुम्हें पीछे देखने की इजाजत न हो

समय का सूरज
जरूर लौटा लायेगा
तुम्हारे हिस्से की धूप
एक – न – एक दिन।

शायद तब,जब सुलगती उंगलियों से
तुम आखिरी पन्नों पर
आग उगल रही होगी

क्योंकि आग , खामोशी, धूप और खिलखिलाहट
औरत की जिन्दगी का सारा जोड़- घटाव है
जिसका उत्तर कभी भी शून्य नहीं आता!
इला प्रसाद

तुम्हारे भीतर

एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार

एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश
और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार

एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए
तुम्हारी देह नहीं गई बेकार

एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा
रोशनी दिखी इधर-उधर

एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर ।

मंगलेश्वर डबराल

तुम्हारा प्यार
(एक पहाड़ी लोकगीत से प्रेरित)

तुम्हारा प्यार लड्डुओं का थाल है
जिसे मैं खा जाना चाहता हूँ

तुम्हारा प्यार एक लाल रूमाल है
जिसे मैं झंडे-सा फहराना चाहता हूँ

तुम्हारा प्यार एक पेड़ है
जिसकी हरी ओट से मैं तारॊं को देखता हूँ

तुम्हारा प्यार एक झील है
जहाँ मैं तैरता हूँ और डूब रहता हूँ

तुम्हारा प्यार पूरा गाँव है
जहाँ मैं होता हूँ ।

मंगलेश्वर डबराल

ताकतवर औरतें

मैंने कभी नहीं सोचा था
सपनों के जादूगर के बारे में
मेरे सपनों में तमाम दुनिया थी

मेरे सपनों में
कोई राजकुमार भी नहीं था
जो मुझे
परियों के देश ले जाता

मेरे सपनों में थीं
तमाम-तमाम ताकतवर औरतें
पुरुषों को पैदा करने वाली

तमाम-तमाम ताकतवर औरतें

सीधे खड़ी हुई
आगे बढ़ती हुई

तमाम-तमाम हमलों को

सहती हुई
हमलों के विरोध में खड़ी

तमाम-तमाम ताकतवर औरतें
मेरे सपनों में थीं।

-शीला सिद्धांतकर

बूढी औरत का एकांत

बूढी औरत को
पानी भी रेत की तरह दिखाई देता है
कभी-कभी वह ठंडी सांस छोड़ती है
तो याद करती है
बचपन में उसे रेत
पानी की तरह दिखाई देती थी ।

-शुभा

औरतों की जेब क्यों नहीं होती

यह कुसूर सिर्फ़ उनके पहनावे से जुड़ा हुआ नहीं है
न ही इतना भर कहने से काम चलने वाला कि क्योंकि वे औरतें हैं

जवाब भले दिखता किसी के पास न हो मगर
इस बारे में सोचना ज़रूरी है
जल्दी सोचो!
क्या किया जाए

दिनों-दिन बदलते ज़माने की तेज़ रफ़्तार के दौर में
जब पेन मोबाइल आई-कार्ड लाइसेंस
और पर्स रखने की ज़रूरत आ पड़ी है

जब-जब रोज़मर्रा के काम निपटाने
वे घरों से बाहर निकलने लगी हैं तब
अलस्सुबह छोड़ने आती हैं बस स्टॉप पर बच्चों को
तालीम के हथियार की धार तेज़ करने के वास्ते तब

जाना चाहती हैं सजकर बाहर
संवरती हुई दुनिया को देखने के लिए तब

उम्मीद की जाती है उनसे कि
घर के तमाम कामों को समय पर समेटने के बाद भी
दिखें बाहर के मोर्चे पर भी बदस्तूर तैनात
वह भी बिना जेब में हाथ डाले

और ऐसे वक्त में भी उनसे वही पुरातन उम्मीद कि
वे खोंसे रहें चाबियां या तो कटीली कमर में
या फ़िर वक्षों के बीचों-बीच फंसाकर
निभाती चलती रहें पुरखों के जमाने से चले आ रहे जंग लगे दस्तूर

दिल पे हाथ रखो और बताओ
ऐसे में क्या यह सिर्फ़ आधुनिक दर्जियों और
जेबकतरों का दायित्व है कि वे सोचें कि
औरतों की जेब क्यों नहीं होती ?

या फिर इस बारे में
हमें भी कुछ करने की ज़रूरत है ।

-राग तैलंग

उलझन

समय की आँच पर
चढ़ा मन का पतीला
कालिख से लिपा-पुता
उबलता-उफनता

खुरच डाली हैं मैंने
वे जली-भुनी तहें
पोंछा है इसे अपने
हाथों से रगड़-रगड़

पर कैसे परोसूँ
प्यार की रसोई
शब्दों की मिठाई
नेह का जल…

वह जली महक
तो जाती नहीं
तन-से-मन-से।
-शैल अग्रवाल

पृथ्वी
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
भूचाल बेलते हैं घर
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी
और मैं
अपने ही वजूद की आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती
खुद को ही गूँधती हुई बार-बार
खुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
-अनामिका

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