फाग (होली)
-शैल अग्रवाल
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कई-कई नाम मिलते हैं इस पर्व के; होलाका, फागुनोत्सव, चैत्रोत्सव, फागु मधुत्सव, कामोत्सव, मदनोत्सव, काममहोत्सव, सिरापंचमी, यात्रामहोत्सव, मदनद्वादशी, मदनत्रयोदशी, अनंगोत्सव आदि। यदि हम इन नामों पर गौर करें तो पता चल जाएगा कि इस उत्सव की रूपरेखा क्या थी और भारत के विभिन्न भागों में आज भी है।
माघ की शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) से आरंभ यह उत्सव अब भी कई-कई जगह होली तक मनाया जाता है। उत्तर भारत में आजभी बसंत पंचमी के दिन से ही होली आरंभ हो जाती है। सुबह सरस्वती पूजन और शाम को गुलाल उड़ाकर इसी दिन से होली की शुरुआत आज भी कई जगह एक प्रचलित प्रथा है और वह भी रात को मिलबैठकर होली और धमार गाते हुए लोगबाग एकदूसरे को गुलाल लगाते हैं। होली का नाम लेते ही ब्रज की होली सबसे पहले ध्यान में आती है जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यूँ तो राजस्थान में हाथियों की पीठपर बैठकर राजसी ठाट-बाट से खेली गयी होली भी प्रसिद्ध हो चुकी है और बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी इसे देखने और हिस्सा लेने आने लगे हैं। परन्तु ब्रज ,जो ‘कान्हा बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ ‘फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर’ और ‘उड़त गुलाल लाल भए बदरा’ जैसे गीतों की मस्ती से झूम उठता है, वहाँ की होली की झटा आज भी अनूठी है , तभी तो कहा जाता है कि- सब जग होरी, जा बृज होरा।
ब्रज की लठ्ठमार होली ही नहीं, कोमल फूलों से राधाकृष्ण का नयनाभिराम श्रंगार भी दर्शनीय है जिससे ब्रज के हर मन्दिर का कोना-कोना सज और महक उठता है। मन्दिरों में एक से एक सुन्दर फूलों के श्रंगार होते हैं और होली के गीत-संगीत के साथसाथ कई जगहों पर फूल डोल के मेले भी लगाए जाते हैं। यहाँ आज भी रंगों के साथ साथ मुख्यतः फूलों से ही होली खेलने का रिवाज है, जिसमें टेसू और गुलाब के साथसाथ, केतकी, चम्पा, बेला और चमेली का प्रयोग अधिक किया जाता है। फूल…जिनकी महक मन को और रंग त्वचा को निखारने और कोमल करने में मदद करते हैं। इस दौरान ब्रज में होली और रसिया जैसे मीठी छेड़छाड़ वाले गानों की ही नहीं, धुलंडी से लेकर कृष्ण दशमी तक जगह जगह चरकुला नृत्य, ङुक्का नृत्य, बेब नृत्य, तख्त नृत्य, चोचर नृत्य एवं झूला आदि मनोहारी नृत्य भी देखे जा सकते हैं।… ब्रज की बरसाने और दाऊ जी की होली देखने आजभी बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं और मन्दिर के परिसर के कोने कोने से गूंजती आवाज में उनकी भी मस्ती में डूबी आवाज गूंजने लग जाती हैं —‘ आज बिरज में होरी है रसिया/ होरी है रसिया, बरजोरी है रसिया।’
भारत ही नहीं विश्व के कई विभिन्न भागों में भी थोड़े बहुत फर्क के साथ वसंत ऋतु का उत्सव पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। बड़ी सख्या में एकत्रित होकर लोग एक दूसरे को रंगों और खुशबुओं में भिंगोते-डुबोते हैं और आनन्द मनाते हैं। फ्रान्स, इटली आदि के साथ यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के कुछ देशों में ‘मार्डीग्रास’ नामका एक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें युवक, युवती कई-कई टन टमाटरों से एक दूसरे को रंग देते हैं और हंसी खुशी के माहौल में तरह तरह की झांकियों और नाच-गाने के साथ कार्निवाल के रूप में पूरा दिन गुजार दिया जाता हैं।
रक्षाबन्धन की अवधारणा यदि विप्र और सुकुमार वर्ण के संरक्षण हेतु कभी की गई होगी, तो दशहरा शौर्य प्रदर्शन यानी क्षत्रियों के लिए रचा गया था। दीपावली व्यापारियों की संतुष्टि के लिए थी तो होली आम जनता यानी शूद्रों का बेबाक त्योहार था, जिसमें नाच-गाना, मांस-मदिरा ही नहीं, गाली-गलौज तक का भी खुलकर प्रयोग हुआ करता था। पूर्णतः कुंठाहीन और स्वच्छंद था यह त्योहार और हफ्ते-हफ्ते या पूरे पखवाड़े चला करता था । छोटे-बड़े, दोस्त-दुश्मन, सभी खुल कर गले मिलते, और जी भरकर एक-दूसरे के साथ छेड़छाड़ करते।
मध्यकाल के आते-आते यह रजवाड़ों और मन्दिरों में भी जगह पा चुका था यह और आज भी राजा-रजवाड़े और ज्ञानी-ध्यानी ही नहीं, जनसाधारण के भी हृदय के बेहद करीब है यह पर्व, जिसमें अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े, सभी खुलकर हिस्सा लेते हैं। इक्कीसवीं सदी तक आते आते तो अब सौहाद्र और भाईचारे का प्रतीक बन चुका है भारत में होली का त्योहार…जिसमें कट्टर विरोधी सांप्रदायिक और राजनैतिक संस्थाओं व नेताओं और जान-साधारण को एक ही मंच और एक ही परिसर में हंसते-गाते, गुलाल का टीका लगाते लगवाते देखा जा सकता है। राजनेता से लेकर अभिनेता तक, सभी के यहां इसे धूमधाम से मनाने की परंपरा-सी चल पड़ी है। ब्रिज और राजस्थान में बहुत ही धूमधाम से और विविध श्रृंगार और गीत-संगीत के साथ मनाई जाती है होली..मुख्य़तः मन्दिरों और सामाजिक संस्थानों में। युवा वर्ग के साथ-साथ, विदेशी पर्यटकों तक को लुभाने लगे हैं ये होली के आयोजन और राग-रंग। विदेशियों के मन में इनके प्रति आकर्षण दिन-प्रतिदिन और और बढ़ता ही जा रहा है। कुछ वासन्ती मौसम की मादकता और कुछ नित नए तरीके से रंग खेलने की प्रथाएं आज इसे सबका ही प्रिय त्योहार बना बैठी है। इस त्योहार में सामूहिक जुलूस, नाच-गाने आदि की बहुलता…मौज-मस्ती के माहौल के साथ-साथ एक हर्षोल्लास भरी उन्मुक्तता रहती है।
भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में होली के समकक्ष या समरूप, होली जैसे ही त्योहार मनाए जाते हैं।
घाना का होमोवो
अफ्रीकी देश घाना में होली की तरह होमोवो मनाया जाता है। ड्रम की तेज आवाज पर रात में लोग खूब नाचते-गाते हैं। वहाँ की महत्वपूर्ण फसल शकरकंद और उबले अँडे से एक खास डिश तैयार की जाती है, जिसे लोग बड़े चाव से खाते हैं। इस दिन गाँव के मुखिया से आशीर्वाद लिया जाता है। चमकीले रंग का खास परिधान भी लोग पहनते हैं।
चीन में मून फेस्टिवल
चाइनीज कैलेंडर के अनुसार, आठवें महीने के पंद्रहवें दिन चीन में मनाया जाता है मून फेस्टिवल। चावल और गेहूँ की अच्छी फसल होने पर यह त्योहार मनाया जाता है। इस समय पूरा चंद्रमा दिखाई देता है। चीनी किवदंती के अनुसार इस दिन चंद्रमा का बर्थडे होता है। कथा के अनुसार चांग ओ नामक महिला उड़कर चंद्रमा तक पहुँच गई थी, जो आज भी पूरे चांद में दिखाई देती है। इस दिन लोग पूरे परिवारके साथ फुल मून देखते हैं, जो अच्छे भाग्य और मधुर संबंध का प्रतीक माना जाता है।
कोरिया का चू सुक
कोरिया में नई फसल को सेलिब्रेट करने के लिए चू सुक मनाया जाता है। यह आठवें महीने के पंद्रहवें दिन मनाया जाता है। इस दिन एक दूसरे को मुबारकबाद देने के लिए लोग विशेष भोज का आयोजन करते हैं। जिसमें परिजनों को चावल, तिल और अखरोट से बना केक परोसा जाता है। औरतें घेरा बनाकर नाचती-गाती हैं।
स्पेन में ला टोमेटिना
स्पेन के वेलेंसियन शहर में हर साल टमाटर उत्सव मनाया जाता है। इसमें भाग लेने वाले लोग एक-दूसरे पर टमाटर, पानी के गुब्बारे और गुलाल फेंकते हैं। यह अगस्त में अंतिम बुधवार को मनाया जाता है।
कैलिफोर्निया का ग्रेप स्टैम्प फेस्टिवल
अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में अंगूर की अच्छी पैदावार की खुशी मनाने के लिए ‘ ग्रेप स्टॉम्प फेस्टिवल ‘ मनाया जाता है। दो बड़े पीपों में कई टन अंगूर डाला जाता है। आसपास इटैलियन म्यूजिक बजाया जाता है। इस दौरान डांस, प्ले कौम्प्टीशन और कई प्रकार के व्यंजनों की भी व्यवस्था होती है। इसके बाद बच्चे, बूढ़े और जवान सभी हंसते-गाते हुए पैरों से अंगूर मसलते हैं।
थाइलैंड का सॉनाक्रन
थाइलेड में हर वर्ष 13 अप्रैल को सॉनाक्रन मनाया जाता है। यह उत्सव लगातार तीन दिन तक चलता है। सॉनाक्रन का मतलब स्थान बदलना होता है। दरअसल इसी दिन सूर्य अपनी स्थिति बदलता है। यह वाटर फेस्टिवल भी कहलाता है, क्योंकि यहाँ पर मान्यता है कि पानी बैड लक को धो देता है। इस दिन परिवार के सभी लोग एक जगह एकत्रित होते हैं। माता-पिता और घर के बुजुर्गों के हाथों पर सुगंधित पानी छिड़का जाता है और उन्हें उपहार भी दिया जाते हैं। बड़े-बुजुर्ग छोटों को समृद्धशाली होने का आशीर्वाद देते हैं। दोपहर में भगवान बुद्ध की मूर्ति को स्नान कराया जाता है और फिर सभी लोग एक दूसरे पर पानी फेंककर खुशियां मनाते हैं।
अमेरिका में हेलोइन व होबो
अमेरिका में 31 अक्टूबर को हैलोइन नामक रंगों का त्योहार पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके अलावा एक अन्य त्योहार होबो भी मनाया जाता है। इसमें लोग अजब-गजब पोशाक पहनकर होबो बनते हैं। किसी के पतलून की एक टांग गायब होती है तो कोई शर्ट का बटन पीछे की ओर लगाए होता है। किसी के एक पैर में जूता होता है तो दूसरे में चप्पल। चेहरे पर इस तरह रंग पोता जाता है कि घर वाले भी पहचान नहीं पाते। होबो लोगोंकी सभा में जो सबसे ज्यादा बेहूदगी करता है, उसे विजेता मानकर ताज पहनाया जाता है।
पोलैंड में आरशिना
पोलैंड के लोग होली की तरह आरशिना नामक त्योहार मनाते हैं। इसमें लोग टोलियां बनाकर एक-दूसरे पर फूलों से बने रंग डालते हैं और गले मिलते हैं।
इटली का बेलियाकोनोन्स
अन्न की देवी को खुश करने और खेती की उन्नति के लिए होली की ही तरह इटली के लोग बेलिया कोनोन्स नामक त्योहार मनाते हैं। भारत की तरह यहां भी लोग शाम को लकड़ियां जलाते हैं, अग्नि के आगे नाचते-कूदते हैं और आतिशबाजी करते हैं। इस दिन छोटे-बड़े सभी एक-दूसरे पर सुगंधित जल छिड़कते हैं और घास के बने आभूषण भेंट करते हैं।
कुछ अन्य देशों में भी होली जैसे त्योहार मनाए जाते हैं। भारत के पड़ोसी देश म्यांमार देश में तेच्या नाम से रंगों का त्योहार चार दिन तक मनाया जाता है। मिश्र में फलिका नाम से मार्च महीने में लोग होली जैसा त्योहार सेलिब्रेट करते हैं। यूनान में मेपोल नामक त्योहार में एक खंभा गाड़कर उसके आसपास लकड़ियां रख दी जाती हैं और उसमें आग लगा दी जाती है। लोग अपने देवता डायनोसिस की पूजा करते हैं। रूस में 31 मार्च को हास्य पर्व मनाया जाता है और महामूर्ख सम्मेलन भी आयोजित किया जाता है। फ्रांस में 13 अप्रैल को होली की तरह हुड़दंग मनाते और लोगों को रंग गुलाल लगाते हैं। जैसे त्योहार मनाने के अन्दाज भिन्न और व्यक्तिगत होते हैं , वैसे ही भावनाएँ और अभिव्यक्ति के भी।
शैल अग्रवाल
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बनारस की होली
बनारस की होली शिव-पार्वती के उल्लास में डूबी है और उनके मिलन का उत्सव मनाती रंग और भंग में डूबी होली रंगभरनी एकादशी से ही शुरु हो जाती है। कहते हैं शादी के बाद भोलेनाथ अपनी ससुराल में ही टिक गए थे और इसी दिन पार्वती को लेकर अपने घर काशी वापस लौटे थे। शिव-पार्वती के मिलन के अद्भुत उल्लास में डूबा बनारस ही अकेला ऐसा शहर है जहाँ विवाह ही नहीं, शिव पार्वती का गौना भी बड़े धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है। शिव रात्रि के 15 दिन बाद रंगभरनी एकादशी को पूरे साज-सिंगार और बाजे-गाजे के साथ चांदी के सिंहासन में बिठाकर शिव जी गौरा को गौना कराके प्रति वर्ष अपने घर लाते हैं। उल्लास इतना कि जहाँ से भी यह सवारी निकलती है वही गली और सड़क गुलाल और फूलों से भर जाती है। ढोल तांसों की आवाज से गूंजता शहर झूम उठता है, शिव और उनके गण बने साधु-संतों के संग खुद नाचता-गाता। पूरे शरीर पर भभूत लगाए, मुंडमाला पहने, नंग-धड़ंग और गले में सांप लपेटे नाचते-गाते ये साधु कईयों को भद्दे और डरावने प्रतीत हो सकते हैं पर शिव के गण तो सदैव अपनी ही धूनी में रमते हैं। उन्होंने कब बाह्य-जगत की परवाह की है और इसी दिन से शुरु हो जाता है यहाँ पर होली का त्योहार व पखवाड़ा भी। शिवप्रिया के कान की मणि जहाँपर गिरी थी वह मणिकर्णिका घाट आज भी मुक्ति के लिए, शवों के भस्मीभूत होने के लिए सर्वाधिक पवित्र स्थल माना जाता है। रात भर अघोरी इसी मणिकर्णिका घाट पर चिता की राख से होली खेलते हैं और चौबीसों घंटे का खुला शमशान एक अनोखे अनहद नाद से गूंज उठता है। भोग लगाने, प्रसाद पाने हिम्मती भक्त और कलाकार दूर दूर से आकर सम्मिलित होते हैं। मृतकों के साथ हठ योग, कर्णसिद्धि आदि तांत्रिक साधना के साथ-साथ रात भर आदम गोश्त और मदिरा का भोग और चरस, गांजा अफीम आदि अन्य व्यसन रातभर चलते हैं। अघोरी सिद्धि की रात मानते हैं इसे, जब शिव-पार्वती का मिलन होता है।
शैल अग्रवाल
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कानपुर की होलीः श्याम सुन्दर चौधरी
कई प्रमुख भारतीय त्योहारों की तरह भाईचारा और आपसी सद्भावना को जिन्दा रखने का एक प्रयास होली भी है। होलिका का अपने भतीजे प्रहलाद को लेकर आग में बैठना और फिर चमात्कारिक रूप से उसका खुद का जल कर मर जाना यद्यपि इसका प्रीरंभिक बिन्दु है लेकिन उसके बाद यह त्योहार कालचक्र के साथ विभिन्न प्रान्तों और शहरों में अपने-अपने ढंग से मनाया जाने लगा जिसमें उस स्थान विशेष की कुछ परम्परायें, घटनाएं जुड़ती चली गयीं। ऐसा ही एक शहर है कानपुर। गंगा किनारे स्थित उत्तर भारत के इस औद्योगिक नगर की होली यहां के लोगों की मस्ती, जिन्दादिली और जुनून की हद तक जाकर किसी भी त्योहार को मनाना दर्शाती है।
प्राचीन किवदन्ती के अनुसार यहां के गांव के जमींदार के घर पर होली के पन्द्रह दिन पहले गांव वाले इकट्ठा होते थे और ढोल मंजीरा आदि लेकर होली का आगमन गीत फाग गाते थे और जिस दिन होली जलने वाली होती थी उस दिन फाग गाने वालों का जुलूस जमींदार के घर से उठकर उस स्थल पर जाता जहां होली जलाने के लिए बसंत पंचमी के दिन से ही लकड़ियां इकट्ठी करके रखी रहती थीं।
जुलूस के पहुंचने तक पुरोहित पूजा की तैयारी कर चुके होते हैं और फिर लोग पूजा के बाद आग जलाकर उसमें गन्ना और गेहूं की बालियां जलाते थे। ऐसा करके वो ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वो होली जलाकर होलिका रूपी बुराई का नाश कर रहे हैं, अतः ईश्वर इस बार फसल की कटाई के बाद उन्हें हर तरह से समृद्ध करे। दूसरी ओर घर की महिलाएं, किशोरियां तथा युवतियां रात को देर तक जागकर गुझिया और भिन्न भिन्न पकवान का आयोजन करती थीं। अगले दिन एक-दूसरे के ऊपर रंग डाला जाता था।
उन्ही दिनों यह भी सोचा गया कि कोई ऐसी व्यवस्था की जाए कि होली के बाद सभी लोग एक जगह एकत्र हों और तमाम आपसी कटुता आदि को भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलें तथा अपने रिश्तों को एक मजबूत शुरुआत दें, इसके लिए होली के पांच-छह दिन पड़ने वाले अनुराधा नक्षत्र का ही चयन किया गया। चूँकि शास्त्रों में यह नक्षत्र मानव जीवन के लिए कल्याणकारी माना गया है इसलिए गांव के प्रतिष्ठित और साधारण बड़े बुजुर्गों ने फैसला किया कि इस एक दिन मेले का आयोजन किया जाए जिसमें लोग होली मिलन के साथ-साथ खरीददारी भी कर सकें। इसलिए शहर के सरसैया घाट नामक तट को चुना गया।
तत्कालीन ब्रिटिश प्रसाशन को होली के हफ्ते भर बाद फिर से दिन भर रंग खेलना और भीड़ जुटाकर मले का आनन्द लेना उचित नहीं लगा इसलिए आदश दिया गया कि होली के दूसरे दिन ही मेले का आयोजन कर लिया जाये लेकिन बात तो अनुराधा नक्षत्र में मेले के आयोजन की थी और इसके पीछे यहां के लोगों की आस्था भी जुड़ी हुई थी। फलतः ऐसी ही एक होली में जब स्वयं शासन द्वारा ठीक एक दिन बाद मेले का आयोजन किया गया तो लोगों ने सामूहिक रूप से इस मेले का बहिष्कार कर दिया, कोई भी वहाँ नहीं पहुँचा और इसके बाद अनुराधा नक्षत्र वाले दिन जमकर रंग खेलने के बाद लोग नहा धोकर नये नये कपड़ों में सजधज कर घरों से निकलने लगे और देखते ही देखते सरसैया घाट पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जिसे काफी कोशिशों के बावजूद ब्रिटिश प्रशासन रोकने में सफल नहीं हो सका। तब से आजतक होली के बाद अनुराधा नक्षत्र वाले दिन इस मेले की परम्परा चली आ रही है। लोग चूंकि उस दिन नहा धोकर बिल्कुल नये और उजले कपड़ों में मेले का आनंद लेते थे इसलिए इसे उजरा मेला भी कहा जाता रहा है। इस मेले की नींव हटिया (नगर का प्रमुख बर्तन बाजार) के व्यापारियों द्वारा रखी गयी थी।
सबसे खास बात यह है कि इन व्यापारियों के अधीन काम करने वाले कर्मचारी और श्रमिक जो होली से मेला तक अपने गांव फसल की कटाई के लिए जाते थे उन्हें उस पूरे सप्ताह की तनख्वाह कानपुर के व्यापारियों द्वारा दी जाने की एक सुखद परंपरा थी। कानपुर नगर का लगभग डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास है और यह परंपरा भी तभी से लागू है। हटिया नामक इस स्थान से कोई कोरा बचकर नहीं जा सकता है। हौज में रंग खोलकर रखा जाता है, जो भी कोरा दिखा उसे पकड़कर एक बार गर्दन तक डुबोकर निकाल दिया जाता है। इसके बाद वह व्यक्ति कहीं भी जाने को स्वतंत्र है।
कानपुर जिले के अंतर्गत लगने वाले एक क्षेत्र विशेष का नाम है अहिरवाँ। यहां होली के बाद पँचमी के दिन होली मनायी जाती है, यानी एक ही जिले में दो भिन्न-भिन्न दिनों में यह त्योहार मनाया जाता है इससे अनोखी मिसाल और क्या हो सकती है। इसकी वजह है इस गाँव के जमीदार को ब्रटिश प्रशासन की किसी बात का विरोध करने पर होली के दिन ही गिरफ्तार कर दिया गया था और पंचमी वाले दिन छोड़ा गया था। इस घटना से क्षुब्ध गाँव वालों ने ठीक त्योहार के दिन होली न मनाकर पंचमी वाले दिन ही मनाने का निर्णय लिया। तब से अहिरवाँ नामक इस स्थान पर इसी परंपरा का पालन किया जा रहा है।
लेकिन धीरे-धीरेनगर की होली को कुछ शरारती और असामाजिक तत्वों ने विकृत करने की कोशिश की है। खतरनाक से खतरनाक पेंट किसी के भी चेहरे पर लगा देना, कीचड़ और मशीन की कालिख से होली खेलना जैसी घटनाएं नगर के समृद्ध होली के इतिहास को कलंकित तो करती ही हैं साथ ही गुण्डा किस्म के लोगों ने इसी आपसी वैमनस्य का प्रतिशोध लेने का भी उचित अवसर मान रखा है।
इस मौके पर होने वाली हिंसक घटनाओं के चलते पिछले कुछ वर्षों से प्रशासन को सख्त कदम उठाने पड़े हैं। अब वो पुरानों दिनों जैसी होली तो नहीं है, फिर भी लोग तमाम बन्धनों के बीच भी अच्छी से अच्छी तरह त्योहार मनाने की कोशिश करते हैं। हालांकि किसी भी त्योहार में हर एक की भावना होनी चाहिए कि हर दूसरा आदमी भी अच्छी तरह त्योहार का आनन्द लूटे तब शायद पुलिस या प्रशासन की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
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होली के रंग देश से परदेश तकः गोवर्धन यादव
यदि किसी सर्वसाधारण या आम व्यक्ति से यह प्रश्न पूछा जाए कि “होलिकोत्सव” क्या होता है ? तो उसे जवाब देने में विंलम्ब नहीं लगेगा और वह तत्काल उत्तर भी दे देगा. वह कह उठेगा-“ भाई मेरे ! यह भी कोई प्रश्न पूछने जैसी बात है. होलिकोत्सव का माने हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, मौज-मस्ती ही तो है. यहाँ उसकी मौज-मस्ती के माने कुछ और ही है. मतलब जमकर नशापत्ती की जाएगी. अश्लीलता का पिशाच इस दिन नंगा होकर नाचेगा. रही हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद की बात, तो आजकल वह कहीं पर भी परिलक्षित नहीं होता. अब एक प्रश्न फ़िर उपस्थित होता है कि वास्तव में होलिकोत्सव है क्या? इसे समझने के लिए हमें वैदिक काल में झांकना होगा.
हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, मौज-मस्ती और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक “होलिकोत्सव” वास्तव में एक यज्ञ है, जिसका मूलस्वरुप आज लगभग विस्मृत हो चुका है. इस आयोजन में प्रचलित हँसी-ठिठोली, गायन-वादन, हुडदंग और कबीर इत्यादि के उद्भव और विकास को समझने के लिए हमें उस वैदिक सोमयज्ञ के मूलस्वरुप को समझना पडॆगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व के मूल में निहित है.
वैदिक काल में ”सोमलता” प्रचुरता से उपलब्ध हो जाती थी. इसका रस निचोडकर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे गए. यह सोमलता कालान्तर में लुप्त हो गयी और इस तरह यह प्रविधि बंद हो गयी. ब्राह्मणग्रन्थों में इसके अनेक विकल्प दिये गये हैं, जिसमें “पूतीक” और अर्जुनवृक्ष मुख्य है. अर्जुनवृक्ष को हृदय के लिए अत्यन्त शक्तिप्रद माना गया है. आयुर्वेद में इसके छाल की हृदयरोगों के निवारण के संदर्भ में विशेष प्रशंसा की गयी है.इनका रस “ सोमरस” इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारक होता था कि उसका पानकर वैदिक ऋषियों को अमरता-जैसी आनन्द की अनुभूति होती थी।
इन सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे-एकाह-अहीन-और सत्रयाग..अन्तिम दिन में किए जाने वाले व्रत को “महाव्रत”के नाम से जाना जाता था. महाव्रत के अनुष्ठान के दिन वर्ष भर यज्ञानुष्ठान में ऋषिगण अपना मनोविनोद करते थे. ऎसे आमोद-प्रमोदपूर्ण कृत्य जिसका प्रयोजन आनन्द और उल्लास का वातावरण निर्मित करना होता था, होलीकोत्सव इसी महाव्रत की परम्परा का संवाहक है. होली में जलायी जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का प्रतीक है..यज्ञवेदी में गूलर की टहनी गाडी जाती थी,क्योंकि गूलर का फ़ल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है. यह फ़ल इतना मीठा होता है कि फ़ल पकते ही इसमें कीडॆ पडने लगते हैं. गूलर का एक नाम और है-उदुम्बरवृक्ष. इसकी टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती थी. इसके नीचे बैठकर वेदपाठी अपनी-अपनी शाखा के मन्त्रों का पाठ करते थे. सामवेद गायकों की चार श्रेणियाँ थी- उग्दाता-प्रस्तोता-प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य. यज्ञवेदी के चारों तरफ़ उदुम्बर काष्ठ से बानी वेदी पर बैठकर गान किया जाता था और जल से भरे घडॆ लिए हुए स्त्रियाँ “इदम्मधु…इदम्मधु( यह मधु है…मधुर है) कहती हुईं यज्ञवेदी के चारों ओर नृत्य किया करती थीं.
इस नृत्य के समानान्तर अन्य स्त्रियाँ और पुरुष वीणावादन करते थे. उस समय वीणाओं के अनेक प्रकार मिलते थे. इनमें अपघाटिला, काण्डमयी, पिच्छोदरा, बाण इत्यादि मुख्य वीणाएँ थीं. “शततंत्री” नाम से विदित होता है कि कुछ वीणाएँ सौ-सौ तारों वाली भी थीं. इन्हीं शततन्त्रीका –जैसे वीणाओं से सन्तूर का विकास हुआ. कल्पसूत्रों में महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी मिलते हैं. ये हैं-अलाबु, वक्रा( समतन्त्रीका-वेत्रवीणा),कापिशीष्र्णी, पिशीलवीणा (शुर्पा) इत्यादि. शारदीय वीणा भी होती थी,जिससे आगे चलकर आज के सरोद का विकास हुआ.
होली में हँसीँ-ठिठोली का मूल “अभिगर-अपगर-संवाद”नामक ग्रंथ में मिलता है. भाषकारों के अनुसार “अभिगर” ब्राह्मण का वाचक है और “अपगर” शूद्रों का. ये दोनो एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करते थे और विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलते थे.
महाव्रत के दिन घर-घर में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते थे. राष्ट्ररक्षा के लिए जनमानस को सजग बने रहने की शिक्षा देने के लिए इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रधारी-कवचधारी राजपुरुष तथा सैनिक परिक्रमा भी करते थे.
उत्सवों और पर्वों का आरम्भ अत्यन्त लघुरुप में होता है, फ़िर उसमें निरन्तर विकास होता जाता है. सामाजिक अवश्यकताएँ इनके विकास में विशेष भूमिका का निर्वहन करती हैं. यही कारण है कि होली जो मूलतः एक वैदिक सोमयज्ञ के अनुष्ठान से प्रारम्भ हुआ, आगे चलकर भक्त प्रल्हाद और उसकी बुआ होलिका के आख्यान से जुड गया. मदनोत्सव तथा वसन्तोत्सव का समावेश भी इसी क्रम में आया.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एक पुरुषार्थ के रुप में प्रतिष्ठित है और इसे वेदों ने भी स्वीकार किया है. नृत्य- संगीत, हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद ,आनन्द-उल्लास इसी तृतीय पुरुषार्थ के नानाविध अंग हैं. होलिकोत्सव के रुप में हिन्दू-समाज ने मनोरंजन को स्थान देने के लिए तृतीय पुरुषार्थ के स्वरुप और लोकोपयोगी स्वरुप को धर्म के आधार पर मान्यता प्रदान की है.
होली हमारी सांस्कृतिक- भावनात्मक एकता का प्रतीक है. ऋतुराज वसन्त के आगमन से, जब समग्र प्रकृति आनन्द से सराबोर होकर, राग-रंग में मगन हो उठती है और जब वनस्पति नए-नए पल्लव-परिधानों के पुष्पों से अपना शृंगार करती है तथा मंद-मंद मलय समीर के मृदु स्पर्ष से रोमांचित होकर मस्ती मे झूमने लगती है, तब राग-रंजित सृष्टि के समस्त प्राणी, उस नई भंगिमा में प्रकट होने वाली सौंदर्य प्रकृति-नटी के प्रफ़ुल्ल यौवन के आकर्षण में बंधकर गुनगुनाने लगता है, तब मनुष्य कैसे अछुता रह सकता है.? एक अव्यक्त संगीत झंकृत होने लगता है. मुक्ति के इस उत्सव में, उसकी सारी सीमाएं टूट जाती है. वर्ग भेद,-जातिभेद से परे, मानवीय एकता और प्रेम की अभिव्यक्ति का यह पर्व, सबको रंग-गुलाल में डूबॊ जाता है.
सुगंध से बौराया पवन, मंद-मंद बहने लगता है और सारी सृष्टि पुलकित होकर उल्लास, नई उमंग और उत्साह में झूम उठती है. नगर में, गाँव-गाँव में, डगर-डगर पर मस्ती की धूम मचाता हुआ, रंगों की पिचकारी लिए अलबेला फ़ागुन निकल पडा है होली खेलने. कहीं उषा, दिन के माथे पर रॊली लगा रही है, तो कहीं आकाश में संध्या, निशा के ऊपर गुलाल और सितारे बरसा रही है. बडी मधुर और प्रेम-सौहार्द्र की भावनाओं की प्रतीक है होली. रंगों की सतरंगी दुनिया के बीच मानवता की अनूठी झलक दिखाई देती है इस दिन. भारत की इस सम्मोहक परंपरा को, अन्य देशों में भी, अपने-अपने ढंग से सहजने की कोशिश की है. इसके नाम भी अलग-अलग देशों में अलग-अलग हो गए हैं, परंतु उल्लास की मूल भावना एक समान है.
प्राचीन रोम में “साटर ने लिया” के नाम से होली की ही भाँति एक उत्सव मनाया जाता है. इसे अप्रैल माह में पूरे सात दिनों तक मनाया जाता है. रोम में “रेडिका” नाम से एक त्योहार माह मई में मनाया जाता है. इसमें किसी ऊँचे स्थान पर काफ़ी लकडियाँ इकठ्ठी कर ली जाती है और उन्हें जलाया जाता है. इसके बाद लोग झूम-झूमकर नाचते-गाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं.
इटलीवासियों की मान्यता के अनुसार, यह समस्त कार्य, अन्न की देवी ”फ़्लोरा” को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है.
यूनान——पश्चिमी दर्शन के पितामह कहे जाने वाले सुकरात की जन्मभूमि यूनान में भी लगभग इसी प्रकार का समारोह “पोल” नाम के उत्सव में होता है. यहाँ पर भी लकडियाँ इकठ्ठीकर जलाई जाती है. इसके बाद लोग झूम-झूमकर नाचते-गाते हैं. यहाँ पर यह उत्सव यूनानी देवता “टायनोसियस” की पूजा के अवसर पर आयोजित होता है.
जर्मनी—- कुछ इस तरह का उत्सव मनाने की परंपरा जर्मनी में भी है. यहाँ के रैन्लैंड नाम के स्थान पर होली जैसा त्योहार, एक नहीं, पूरे सात दिनों तक मनाया जाता है. इस समय लोग अटपटी पोशाक पहनते हैं और अटपटा व्यवहार कराते हैं. कोई भी, किसी तरह के बिना किसी लिहाज के मजाक कर लेता है. बच्चे-बूढे सभी एक दूसरे से मजाक करते हैं. इन दिनों, किसी तरह के भेदभाव की गुंजाइश नहीं रह जाती. और इस तरह की गई मजाक का कोई बुरा नहीं मानता.
बेलजियम मे भी कुछ स्थानों पर होली जैसा ही उत्सव मनाने का रिवाज है. इस हँसी-खुशी से भरे त्योहार में,पुराने जूते जलाए जाते हैं और सब लोग आपस में मिलकर हँसी –मजाक करते हैं. जो व्यक्ति इस उत्सव में शामिल नहीं होते, उनका मुँह रँगकर, उन्हें गधा बनाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है. कोई किसी की कही बातों का बुरा नहीं मानता.
अमेरिका में होली जैसा ही एक मस्ती से भरे त्योहार का नाम है “होबो”, इस अवसर पर एक बडी सभा का आयोजन होता है, जिसमें लोग तरह-तरह की वेशभूषा पहनकर आते हैं. इस समय किसी भी औपचारिकता पर ध्यान नहीं दिया जाता. मस्ती में झूमते हुए लोग पागलों जैसा व्यवहार करने लगते हैं.
वेस्टइंडिज में तो लोग होली को, होली की ही भाँति मनाते हैं. इस अवसर पर यहाँ तीन दिन की छुट्टी होती हैं. इस अवधि में लोग धूम-धाम से त्योहार मनाते हैं.
पोलैंड में होली के ही समान “अर्सीना” नाम का त्योहार मनाया जाता है. इस अवसर पर लोग एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और एक-दूसरे के गले मिलते हैं. पुरानी शत्रुता भूलकर, नए सिरे से मैत्री संबंध स्थापित करने के लिए यह श्रेष्ठ उत्सव माना जाता है.
चेकोस्लोवाकिया में “बलिया कनौसे” नाम से एक त्योहार, बिल्कुल ही अपनी होली के ढंग से मनाया जाता है. आपस में एक दूसरे पर रंग डालते हैं और नाचते-गाते हैं.
अफ़्रीका महाद्वीप में कुछ देशों में “ओमेना बोंगा” नाम से जो उत्सव मनाया जाता है, उसमें हमारे देश की होली के ही समान ही जंगली देवता को जलाया जाता है. इस देवता को “प्रिन बोंगा” कहते हैं इसे जलाकर नाच-गा कर नई फ़सल के स्वागत में खुशियाँ मनाते हैं.
मिश्र में भी कुछ होली की ही तरह नई फ़सल के स्वागत में आनंद मनाते हैं. इस आनंद से भरे त्योहार का नाम “ फ़ालिका” है. इस अवसर पर पारस्परिक हँसी-मजाक के अतिरिक्त एक अत्यंत आकर्षक नृत्य एवं नाटक भी प्रस्तुत किया जाता है.
सूर्योदय के देश जापान में भी होली के रंग की छटा निखरती है, वहाँ यह त्योहार नई फ़सल के स्वागत के रूप में मनता है. मार्च के महिने मे मनाए जाने वाले इस त्योहार में, जापान निवासी उत्साह से भाग लेते हैं और अपने नाच-गाने एवं आमोद-प्रमोद से वातावरण को बडा ही आकर्षक और मादक बना देते हैं. इस अवसर पर खूब हँसी-मजाक भी होते हैं.
श्रीलंका में तो होली का त्योहार बिल्कुल अपने देश की तरह ही मनाया जाता है. वहाँ बिल्कुल ठीक अपनी होली की ही भाँति रंग-गुलाल और पिचकारियाँ सजती हैं. हवा में अबीर उडता है. लोग सब गम और गिले-शिकवे भूलकर, परस्पर गले मिलते हैं. अपनी मित्रता एवं हँसी-खुशी का यह त्योहार श्रीलंका में अपनी गरिमा बनाए हुए है.
थाईलैंड में इस त्योहार को “सांग्क्रान” कहते हैं. इस अवसर पर थाईनिवासी, मठों में जाकर वहाँ के भिक्षुओं को दान देते हैं और आपस में एक-दूसरे पर सुगंधित जल छिडकते हैं. इस पर्व पर वृद्ध व्यक्तियों को सुगंधित जल से नहलाकर, नए वस्त्र देने की परंपरा है. परस्पर हँसी-मजाक, चुहल-चुटकुले इस त्योहार को एकदम होली की भांति सँवार देते हैं.
अपने पडोसी देश बर्मा में होली के त्योहार को “तिजान” नाम से जाना जाता है. यहाँ पर भारत देश के समान ही पानी के बडॆ-बडॆ ड्रम भर लिए जाते हैं और उसमें रंग तथा सुगंध घोलकर एक-दूसरे पर डालते हैं.
मारीशस में तो होली का त्योहार भारत के समान ही मनाया जाता है. वहाँ पर इसकी तैयारी पन्द्रह दिन पहले से ही शुरु हो जाती है.इन पन्द्रह दोनों चारों ओर हँसी-ठहाकों की मधुर गूँज खनकती रहती है. फ़ांस में “गाचो” नाम का त्योहार मनाते है तथा रंग-गुलाल मलते हैं.
साइबेरिया-नार्वे-स्वीडन एवं डेनमार्क में लकडियों के ढेर में आग लगाकर उसकी परिक्रमा करते हैं और नाचते-गाते हैं.
तिब्बत में तो ’आग” को देवता मानकर पूजा जाता है. जावा-फ़िजी-कोरिया-सुमात्रा-मलेशिया में भी भारत की तरह ही होली का पर्व मनाया जाता है.
हँसी की यह खनक अपने देश में हो या फ़िर देश की सीमाओं के पार, एक-सी है, एकदम एक है. विश्व में बिखरी हँसी की इस छटा को देखकर, यही कहा जा सकता है कि होली एक है, पर उसके रंग अनेक है. ये रंग चमकते-दमकते रहें, इसके लिए हमें और हम सबको इसका ध्यान रखना होगा कि कहीं हम अपने किसी व्यवहार से इन्हें बदरंग न कर दें. इस सांस्कृतिक त्योहार की गरिमा, जीवन की गरिमा में है.
होली के इस रंग-बिरंगे पावन पर्व पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ..
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रंगों का पर्व होली : कला के विविध आयामः वीरेन्द्र यादव
बसंत का मौसम जब अपने पूरे यौवन पर आ जाता है तब चारो ओर फागुन की मस्ती और इन्द्र धनुशी रंगों की बयार बहने लगती है।हर त्यौहार का अपना रंग अपना महत्व है लेकिन फागुन का मौसम जब आता है अपने साथ रंग गुलाल की फुहार, भंग की तरंग और हर तरफ मौज मस्ती की बयार लेकर आता है। इसका आन्नद ही कुछ और होता है क्योंकि होली में चौतरफा रंगों की फुहार होती है। यानी लाल-पीले-हरे-गुलाबी रंगों का त्यौहार के साथ-साथ भावनाओं के समन्वय एवं मन के मिलन का उत्सव होने के साथ ही फुल टाइम मौज मस्ती, उल्लास एवं उमंग का उत्सव माना जाता है। इस रंगों के पर्व में जहाँ एक ओर साठ वर्श की उम्र का व्यक्ति अपने को जवान नजर आता है वहीं बच्चे भी इस पर्व की मस्ती के आलम में अपने को जवान महसूस करने लगते हैं। अर्थात् रंगों का यह पर्व अपने अन्दर अनेक विविधताओं को समाहित किये हुए है। आखिर इस पर्व की विविधताएं एवं मान्यतायें क्या हैं इसके लिए हमें अपने देश के विविध प्रान्तों की ओर चलना होगा।
रंगों का यह पर्व अपने आप में देखने में एक लगता है परन्तु इसे पूरे भारत में मनाने/अपनाये जाने के विविध पहलू हैं। वास्तव में अवलोकन किया जाय तो सच्चे अर्थों में यह रंग पर्व अनेकता में एकता की वास्तविक मिसाल सामने रखता है। इस पर्व के मनाये जाने/खेले जाने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे कि नाम से रंग के रूप में यह पर्व रंगों के द्वारा मनाया जाता है पर कहीं-कहीं यह गुलाल के साथ, कहीं यह फूलों के रूप में मनाया जाता है तो कहीं पत्थरों से, कहीं-कहीं इस पर्व में लट्ठ चलते हैं तो कहीं से कोड़े के साथ इसका आगाज किया जाता है तो कहीं आटे, कीचड़ से, कहीं-कहीं दूध, दही मट्ठे और कढ़ी से भी खेलने का रिवाज परम्परागत रूप से आज भी चल रहा है।
महाराश्ट्र एवं गुजरात में होली (रंगपर्व) के दिन आम स्थान एवं सड़कों के बीच एक निश्चित ऊँचाई में दूध-मक्खन की मटकी को किसी आधार में बाँध देते हैं। यहाँ के लोगों में ऐसी मान्यताएं एवं वि वास है कि भगवान कृश्ण (माखन चोर) आकर इसे खांयेगें और अपने ग्वालों को भी खिलांएगे। इसी समय उमंग एवं वि वास के साथ सभी लोग ‘गोविन्दा आल्हा रे` जरा मटकी संभाल ब्रजबाला ` का सामूहिक गायन करते हैं। ‘रंग पंचमी` के नाम से ग्रामीण इलाकों (महाराश्ट्र) में इसे मनाया जाता है। रंगों के इस पर्व को पंजाब में ‘होली मोहल्ला` कहते हैं जिसे सिख समुदाय के एक पंथ के लोग रंग पर्व के अगले दिन अपने प्राचीन हथियारों के साथ स्वांग रचने का भव्य आयोजन करते हैं। वहीं हरियाणा में भी इस रंगपर्व को बड़े उत्साह के साथ मनाता है। घर में परिवार के सदस्यों के साथ भाभी अपने देवर को साड़ी के फंदे बनाकर मारने/पीटने का नाटक करती हैं वहीं दूसरी ओर चौराहे एवं सड़कों पर दूध-मक्खन से भरी हांडी (मटकी) को दो आधारों के बीच बांधकर पुरूश वर्ग पिरामिड के आकार में बनकर उसे तोड़ने का उपक्रम करते हैं। यहाँ की स्थानीय भाशा में इसे ‘धुलेडी होली` भी कहते हैं। पं० बंगाल में इस पर्व के दिन श्री कृश्ण और राधा की मूर्ति को सभी लोग एक झूले में रखकर उनके चारों ओर झूमते हैं इसके साथ ही रंगों का आपस में आदान-प्रदान कर बैंड बाजे के साथ होली पर्व मनाते हैं। यहाँ इसे ‘दोल यात्रा` के नाम से जाना जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने होली के नये रूप `बसंत उत्सव` से परिचित कराया। वर्तमान में शांति निकेतन विश्वभारती विश्वविद्यालय में होली को बसंत उत्सव के रूप में मनाते हैं। राजस्थान (बाड़मेर) में पहले फूलों एवं पत्थरों से होली खेली जाती थी। वर्तमान में मांडवा में लोग सिर्फ अबीर-गुलाल से इस रंग पर्व को मनातें हैं और रंगों का प्रयोग नहीं करते हैं। दक्षिण भारत में भी इस रंगपर्व को लोग उत्साह से मनाते हैं। साथ ही एक दूसरे के घर पर जाकर शुभकामनाएं देते -लेते हैं। दक्षिण भारत में इस रंग पर्व को ‘कामुस पुत्ररू` कहते हैं। मणिपुर में होली को ‘योगंस` कहते हैं। चांदनी रात में लोग ढोल बजाकर लोकगीत गाते हैं। यहाँ के लोग अपनी परम्परागत/पारंपरिक सफेद और पीली पगड़ी बांधकर यहाँ के प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘थाबल` पर थिरकते हैं। सबसे बड़ी विशेशता यह है कि इस पर्व को लोग यहां छह दिन तक मनातें हैं। और अन्तिम दिन इसे श्रीकृश्ण मन्दिर में धूम से मनाकर समाप्त करते हैं। उड़ीसा प्रान्त में श्रीकृश्ण की इस पर्व में पूजा न कर भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को लोग झूलें में रखकर झुलाते हैं।
भारतीयों में यह रंगों का उत्सव सभी राज्यों में किसी न किसी रूप में दिल की उमंग एवं मस्ती का सम्पूर्ण उत्सव माना जाता है परन्तु यदि उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश की बात न हो तो यह रंग पर्व अधूरा रह जाता है। उत्तर प्रदेश में इस रंग पर्व के मनाये जाने का अंदाज ही अलग है। मथुरा एवं बरसाने की होली तो अब अंतर्राश्ट्रीय हो गयी है। यहां (बरसाना) में महिलाएं पुरूशों को लट्ठमारकर एवं आपस में रंग डालकर होली मनाती हैं। इसलिए यहां की होली को ‘लट्ठ मार` होली कहते हैं। बिहार, म० प्र० राज्यों में लोग होलिका दहन के अगले दिन शाम के समय सामूहिक रूप से बैंड बाजे एवं ढोल के साथ निकलते हैं और अपने इश्ट मित्रों से मिलकर इसे मनाते हैं। कीचड़ एवं रासायनिक रंगों का प्रयोग करके कुछ विकृत मानसिकता के लोग इस रंग पर्व की महत्वता को कम कर रहे हैं। परन्तु कुछ भी हो इस दिन का वातावरण बड़ा धांसू रहता है और कहीं फाग का गायन होता है तो कहीं लोग लोकगीत गाते हैं। कहीं रास का गायन होता है तो कहीं पर रसिया का नाच-नाचकर लोग अपनी खुसी का इजहार करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश के लोग भले ही अलग-अलग रहन-सहन, तौर-तरीकों में रहते हों, इसके साथ ही उनकी परम्पराओं एवं मान्यताओं में कितना ही ‘मध्यान्तर` क्यों न हो पर इस रंगपर्व के माध्यम से यह तात्कालिक सन्देश तो जरूर लोगों के जेहन में रहता है, कि इस रंग पर्व में भाईचारा मौजस्ती, उमंग, उल्लाह निहित रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि-
भूल-चूक हो माफ कि भैया, ऐसा उड़े गुलाल।
भ्रश्टाचार, आतंकवाद, वैमनस्य जले होली में, देश बने खुशहाल।।