शिमला से काजा तक चंडीगढ़ के रास्ते से…
कितना अद्भुत है भारत, सौंदर्य से भरा हुआ. प्रकृति और मानव निर्मित खूबसूरती का आगार. इसको देख्नना मानो स्वयं को देखना है। चारो ओर इतनी हरियाली, इतने मौसम, इतना खिलता जीवन। नदियों का गूँजता स्वर, पहाड़ियों का एकांत, समुद्र की पछाड़, रेगिस्तान में दमकता सूरज, घने वन, दूर-दूर तक फ़ैले गाँवों में प्रकृति का अनूठा राग…फ़िर कितने ही मौसम…कितने ही रंग और रूप बदलते आसमान के नीचे कितने ही रूपों में बसता, खिलता भारत का जीवन। हमारे प्राचीन महाकाव्यों में जो प्रकृति वर्णित है, वह मात्र कवियों की अतिश्योक्ति नहीं, वरन भारत का सच है। कालीदास जी का मेघदूत हो या फ़िर ऋतुसंहार, व्यास जी का महाभारत हो या कि फ़िर वाल्मीकि की
रामायण, जिस भारत के वनों-पर्वतों-बस्तियों-नदियों की महागाथा कहते नहीं अघाते, वह भारत में आज भी मौजूद है, उपस्थित है।
प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचियता के श्रृंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव। मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भींगना, गर्मी में दरख्तों की छांव, सबके सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं ।
शिमला की बात करें, यहां वसंत एक बार आता है, तो फ़िर वहीं महिनों ठहरा रहता है,
जबकि उसी भू-भाग में बसा काजा, बर्फ़ की चादर ओढ़े, किसी तपस्वी की भांति समाधि में लीन रहता है। सच ही कहा है किसी ने-प्रकृति की नब्ज में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। बस जरुरत है इस बात की कि हम कुदरत की स्वभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें-सराहें और पहचानें।
कुदरत की इस स्वभाविक उड़ान को समझने के लिए, पहचानने के लिए मैं निकल पड़ता हूँ प्रकृति की गोद में। घर और गांव में रहकर मैं जितना खाली हो जाता हूँ, और जब लौटकर वापिस आता हूँ तो उतना ही भरा-भरा महसूस करता हूँ, उतना ही मालामाल हो कर लौटता हूँ जैसे कोई राजा-महाराजा।
इस विराट प्रकृति की वंदना करते हुए मुझे बरबस ही श्री नरेश मेहता जी कि कविता- चरैवेती-जन-गरबा; की याद हो आती है।
वे लिखते हैं.
(एक अंश)
चलते चलो, चलते चलो,
सूरज के संग-संग चलते चलो,
चलते चलो
नदियों ने चलकर ही सागर का रूप लिया
मेघों ने चलकर ही धरती को गर्भ दिया
रुकने का मरण नाम
पीछे सब प्रस्तर है
आगे है देवयान, युग के ही संग-संग चलते चलो
मानव जिस ओर गया नगर बसे, तीर्थ बने
तुमसे है कौन बड़ा गगन-सिंधु मित्र बने
भू मा का भोगो सुख, नदियों का सोम पियो
त्यागो सब जीर्ण
वसन नूतन के संग-संग चलते चलो।
मेरी यात्रा का पहला पड़ाव है चंडीगढ़। इस शहर का नामकरण दुर्गा के रूप में -चंडिका; के कारण हुआ है। चंडीगढ़ से कुछ दूरी पर अवस्थित है माता मनसा देवी का जगप्रसिद्ध मन्दिर। इनका प्रादुर्भाव मस्तक से हुआ है। इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। महाभारत के अनुसार इनका वास्तविक नाम जरत्कारू है। समान नाम वाले पति का नाम महर्षि जरत्कारू त्तथा पुत्र आस्तिक है। माता रानी के दर्शनों के पश्चात हम टैक्सी द्वारा कालका पहुँचते हैं और कालका से मिनि टाय ट्रेन से शिमला के लिए रवाना होते हैं।
रोमांचकारी सफ़र-कालका से शिमला तक का-
पहाड़ों की रानी के नाम से जग-विख्यात शिमला, वर्तमान में हिमाचल प्रदेश की राजधानी है. शिमला को अपनी खूबसूरती का प्राकृतिक उपहार आशीर्वाद के रूप में मिला है। चारों ओर हरे-भरे पहाड़ों और हिमाच्छादित चोटियों से घिरा हुआ। यहाँ की शांत वादियां अन्य
पहाड़ियों से एक अलग ही आभा से जगमगाती है..1864 में शिमला भारत में ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित की गई थी।
औपनिवेशिक युग के समय की अनेक इमारतें जिसमें ट्यूडरबेटन और नव-गाथिक वास्तुकला के साथ-साथ कई मंदिर और चर्च शामिल हैं। वाइसराय लाज, क्राइस्ट चर्च, जाखू मंदिर, माल रोड और रिज इस शहर के आकर्षण हैं। यूनेस्कों द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित-कालका-शिमला रेल्वे लाइन; भी एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण का केन्द्र है।
कालका-शिमला मिनी टाय ट्रेन से सफ़र
2 फ़ीट 6 इंच चौड़ी पटरी पर छुकछुक की आवाज निकालती हुई ये ट्रेन शिवालिक की पहाड़ियों पर 919 घुमावदार रास्ते, 103 सुरंगे और 869 पुलों से गुजरती है। तभी वह 48 डिग्री कोण से घूमती हुई 2076 मीटर ऊपर बसे शिमला तक जाती है। इस नैरो गेज लेन ने 09 नवम्बर 1903 को अपना सफ़र शुरु किया था, जो आज भी अनवरत जारी है।
8 जुलाई 2008 को यूनेस्को ने कालका-शिमला रेलवे को ' भारत के पर्वतीय रेलवे
विश्व धरोहर स्थल ' के रूप में शामिल किया। मिनि टाय ट्र्रेन में सफ़र करना एक रोमांचकारी अनुभव था मेरे लिए। इस मिनि ट्रेन में सफ़र करते हुए मैं बरबस ही अपने बचपन की भूल-भुलैया में जा पहुँचता हूँ। मैं इंजन बनता और मेरे नन्हें मित्र, एक दूसरे की शर्ट का पिछला हिस्सा पकड़कर, डब्बे के रूप में जुड़कर ट्रेन बनाते। शोर मचाते
और छुकछुक की आवाज निकालते हुए एक के पीछे एक चला करते थे।
छुक-छुक की आवाज निकालती यह मिनि ट्रेन 656 मीटर की ऊँचाइयों पर चढ़ती जाती है। इसमें बैठकर आप सरसराती शीतल हवा के झोंकों को महसूस करेंगे, तो कभी पीछे छूटते, सरपट भागते जंगल और गाँवों को। तो कभी इसे गहरा मोड़ लेकर सुरंग में प्रवेश करती हुई देखकर रोमांच से भर उठते है। ट्रेन की खिड़की से जब आप, पहाड़ से छलांग लगाते झरनों को देखते हैं तो सहसा कह उठते हैं- वाह ! कितना रोमांचकारी और अद्भुत है यह सफ़र..इसे तो मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा।
आपकी प्रसन्नता के पारावार को बढ़ता देख, आपका ही कोई साथी कह उठता है.- अरे वाह ! बचपन में मैंने भी कभी इस ट्रेन में सफ़र करने का सपना देखा था आज उसे मैं अपनी खुली आँखों से देख रहा हूँ।
इस मिनि ट्रेन के यादगार सफ़र के बाद हमने रात्रि में होटल में विश्राम किया और सुबह सराहन के लिए रवाना हुए। सराहन- हिमालय से निकल कर बहती सतलुज नदी के किनारे बसा है। सराहन अपने प्राकृतिक दृष्यों के लिए विख्यात है। सराहन होते हुए हम जा पहुँचते है 2510 मीटर की ऊँचाई पर बसे कुफ़री गाँव-एक छॊटा पहाड़ी स्टेशन। स्थानीय भाषा में कुफ़्र शब्द झील से लिया गया है।
कुफ़्री में हिमालयान नेचर पार्क, फ़ागु, महासू पीक आदि देखा जा सकता है, फ़ागु, शिमला और कुफ़री के बीच छिपा खूबसूरत पर्यटन स्टेशन अपनी खूबसूरती, प्रकृति और शांत वातावरण के लिए प्रसिद्ध है, फ़ागु में हम रात्रि विश्राम करते हैं और सुबह जा पहुँचते है जगप्रसिद्ध भीमाकाली के मन्दिर में।
भीमाकाली मंदिर-(मंडी)- कहा जाता है कि इस स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मार गिराया था। कृष्ण के बाद उनके यादव अनुयायियों ने इस मंदिर को बनाया। भीमाकाली को रामपुर बुशहर के राजाओं की आराध्य देवी माना जाता है। व्यास नदी के तट पर स्थित मंदिर का परिसर काफ़ी सुंदर बनाया गया है। एक लंबे रैम्पस से चढ़ते हुए
तीसरी मंजिल पर पहुँचकर आपको माँ भीमाकाली के दिव्य दर्शन होते हैं।
सराहन में रात्रि विश्राम के बाद हमारा अगला पड़ाव होता है, 84 किमी की दूरी पर बसा, हिमाचल प्रदेश राज्य के किन्नौर जिले में स्थित एक गाँव सांगला।
सांगला- यहाँ कई मंदिर हैं. यहाँ के अधिदेवता हैं बेरिंग नाग, माजेन और पिरी नाग, इनके मंदिरों के अलावा बद्रीनाथ जी और छितकुल माता मंदिर.भी देखे जा सकते हैं।
छितकुल- हिमाचल राज्य के किन्नौर जिले में, भारत तिब्बत मार्ग पर 3450 मीटर (बारह हजार फ़ीट) की उँचाइयों पर, वसपा घाटी का अंतिम गाँव, बसपा नदी के किनारे अवस्थित है। छितकुल भारत का भी अंतिम बिंदु है।
इसी स्थान पर शाक्यमुनि, बुद्ध; की अत्यधिक मूल्यवान पुरानी छवि है। छितकुल एक तरह से किन्नर कैलाश परिक्रमा का अंतिम बिंदु है, क्योंकि यहाँ से कोई भी चढ़ाई कर सकता है। छितकुल की रोमांचिक यात्रा कर हम पुनः सांगला में आकर रात्रि विश्राम करते हैं।
सांगला से कल्पा- हम अब एक ऐसे स्थान की ओर बढ़ चले थे, जो हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों के लिए एक विशेष महत्व रखता है. इसी कल्पा से किन्नर कैलाश के दिव्य दर्शन किए जा सकते हैं।
किन्नर कैलाश;. हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में तिब्बत सीमा के समीप 6050 मीटर ऊँचाई पर, आकाश से होड़ लगाता, हिमाच्छादित पर्वत, जिस पर शिवजी का विशाल शिवलिंग प्राकृतिक रूप से विद्यमान है। यह वही हिमालय है जहाँ से पवित्रतम नदी गंगा का उद्भव गोमुख से होता है। देवताओं की घाटी के नाम से विख्यात कुल्लू भी इसी हिमालय की रेंज में आता है। इस घाटी में 350 से भी ज्यादा मंदिर स्थित हैं. इसके अलावा अमरनाथ और मानसरोवर झील भी हिमालय पर ही स्थित है। अनेकों एडवेंचरों के लिए हिमालय विश्व प्रसिद्ध है. हिमालय विश्व का सबसे बड़ा स्नोफ़िल्ड है, जिसका कुल क्षेत्रफ़ल 45,000 किमी. से भी ज्यादा है।
भगवान श्रीकृष्ण जी ने हिमालय के बारे में भगवद गीता में कहा है- मेरा निवास पर्वतों के राजा हिमालय में है। उसी तरह स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि हिमालय प्रकृति के काफ़ी समीप है। वहाँ अनेक देवी-देवताओं का निवास है। महान हिमालय देवभूमि। यही कारण है कि भारतवासियों में खासकर हिन्दू समाज में हिमालय को देवत्व के काफ़ी
करीब माना जाता है।
किन्नर कैलाश-
पुरातन काल में लिखित सामग्रियों के अनुसार किन्नौर के निवासी को किन्नर कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है- आधा किन्नर और आधा ईश्वर।
गंधर्वों और किन्नरों को संगीत का अच्छा जानकार माना जाता है। इन्होंने ऐसी सैकड़ों ध्वनियों को खोजा, जो प्रकृति में पहले से विद्यमान हैं। उन ध्वनियों के आधार पर उन्होंने मंत्रों की और सहायक ध्यान ध्वनियों की रचना की. किन्नर इन्ही ध्यान ध्वनियों की सहायता से शिवजी की आराधना कर उन्हें प्रसन्न रखते हैं। यहाँ किन्नरों का निवास रहने के कारण
इसे किन्नर कैलाश के नाम से जाना जाता है। 19,849 फ़ीट की ऊँचाई पर 45 फ़ीट उँचा और 16 फ़ीट चौड़ा स्फ़टिक शिवलिंग हिन्दू और बौद्ध दोनों के लिए समान रूप से
पूज्यनीय है। लोगों की इसमें गहरी आस्था है। इस शिवलिंग के चारों ओर परिक्रमा करने की इच्छा लिए भारी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं।
हिमालय के गर्भ में बसा कैलाश भोलेनाथ को अत्यंत प्रिय है, लेकिन हिमाचल के किन्नौर में मौजूद किन्नर कैलाश शिवजी का शीतकालीन निवास माना जाता है। शिवलिंग अपने आप में अद्भुत है। इसे बाणासुर का किन्नर कैलाश के नाम से भी जाना जाता है।
बाणासुर ने इसी पर्वत पर शिवजी की कठिन तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था।
ऐसी भी मान्यता है कि किन्नर कैलाश के आगोश में श्री कृष्ण जी के पोते व्रजभान का विवाह हुआ था। किन्नर कैलाश दिन में कई बार रंग बदलता है, सूर्योदय से पूर्व सफ़ेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्यान्ह काल में लाल हो जाता है और फ़िर क्रमशः पीला, सफ़ेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है, जबकि इसके आसपास मौजूद पहाड़ियों का रंग एक जैसा ही रहता है।
किन्नर कैलाश अपनी इन्हीं विशेषताओं के लिए जाना और माना जाता है।
कल्पा में हमें रात्रि विश्राम करना था।
हम दोपहर को लगभग दो-ढ़ाई बजे के करीब यहाँ पहुँच गए थे। कल्पा के होटेल में मुझे कमरा नंबर 204 दिया गया था, जो पहली मंजिल पर था। कमरे के ठीक सामने किन्नर कैलाश अपनी दिव्यता के साथ चमचमा रहा था. कमरे में बैठे-बैठे ही हम उसकी
दिव्यता को जी भर के निहार सकते थे। कमरे के एक कोने में बैठकर मैं जी भर के उसे निहारते रहा। फ़िर आँखे बंद कर उसकी पावन छवि को अपने मन-मस्तिस्क की ओर ले गया। मेरा चंचल मन धीरे-धीरे स्थिर होने लगा था। मन के शांत होते ही मेरे अन्दर
एक अद्भुत संगीत बजने लगा। शायद एक ऐसा संगीत, जिसे किन्नर अपने आराध्य देव महादेव को प्रसन्न रखने के लिए बजाया करते हैं। जैसा कि मैने अनुभव किया था।
यात्रा की वापसी में भी मुझे यही कमरा मिला।
इस तरह मुझे दो बार इसके दिव्य दर्शनों का पुण्य लाभ मिला। किन्नर कैलाश जाने का मार्ग काफ़ी कठिन है जो मुश्किल दर्रों से होकर गुजरता है। पहला लालांति दर्रा जो 14,501 फ़ीट की ऊँचाई पर और दूसरा चारंग दर्रा है जो 17,218 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है।
किन्नर कैलाश के दिव्य दर्शनों के उपरान्त हमने रेकाग पिओ की ओर प्रस्थान किया। रिकांग पिओ किन्नौर जिले का वाणिज्यिक व प्रशासनिक केन्द्र है, जो सतलुज नदी के किनारे अवस्थित है। इसके बाद हमने रेकांग पिओ के निकट ब्रेंलेंगी गोम्फ़ा, लोकप्रिय गोम्फ़ा, हू बू लान कार मोनेस्ट्री देखा और काल्पा में विश्राम किया।
काल्पा से काजा ( दि हिमालयन कोल्ड डेजर्ट)-
हिमाचल प्रदेश राज्य के लाहौल और स्पिति जिले में, स्पीति नदी के किनारे, शिमला से 425 किमी की दूरी पर, समुद्र तल से 3,650 मीटर (11,980 फ़ीट) की उँचाई पर स्थित काजा, अपने शानदार पहाड़ियों दृष्यों, बौद्ध मठों और प्राचीन गाँवों और बर्फ़ीले पर्वतों के लिए जाना जाता है। काजा लाहौल स्पीति जिले का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र भी है जो चारों ओर से बर्फ़ीले पर्वतों से घिरा हुआ है।
काजा अपने रंगीन त्योहारों के लिए जाना जाता है. प्राचीन शाक्य तांग्यद मठ शहर से 14 किमी. की दूरी पर अवस्थित है. यहाँ बहुत कम या मानसून में बारिश होती है। जलवायु शुष्क और स्फ़ूर्तिदायक रहता है। सर्दियों के दौरान तापमान शून्य से नीचे चला जाता है, जिसके कारण यहाँ पर औसतन बर्फ़बारी सात फ़ुट तक हो जाती है।
यहाँ आकर आपको बरबस ही शिमला की याद ताजा हो आएगी। यहाँ की हरी-भरी वादियां, सघन पेड़ों की श्रृंखलाएं और खुशगवार मौसम को देखकर भ्रम होता है कि वंसत यहां एक बार आता है, तो कई-कई महिने ठहरा रहता है। इस चित्ताकर्षक वादियों में भ्रमण करते हुए आप रोमांच से भर उठते हैं, जबकि काजा में आकर आपको देखने को मिलते है नीली गहरी उदासी ओढ़े हुए रंग-बिरंगे रुखे-सूखे से पहाड़. यहाँ आपको एक भी वृक्ष देखने को नहीं मिलेगा। अक्टूबर-नवम्बर में यहाँ भीषण बर्फ़बारी होती है। तब बर्फ़ की मोटी चादर ओढे पहाड़ किसी तपस्वी से कम प्रतीत नहीं होते। हिमाचल प्रदेश के एक ही बेल्ट पर आपको दो अलग-अलग मौसम देखने को मिलेंगे। एक छोर पर खिलता वसंत है तो वहीं दूसरे छोर पर बर्फ़ का रेगिस्तान देखकर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है।
चंद्रताल झील-
चंद्रताल झील पर्यटकों और ट्रेकरों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। चंद्रताल (चंद्रमा की झील) इसके अर्धचंद्राकार होने की वजह से पड़ा है। यह झील भारत की दो उच्च ऊँचाई वाली आर्द्रभूमि के रूप में से एक है। इस पानी का रंग दिन ढलने के साथ लाल से नारंगी और नीले से हरे रंग में बदलता रहता है। यह झील काजा से 55 किमी की दूरी पर है।
किब्बर गाँव-
एक चूना पत्थर चट्टान के शिखर पर एक संकीर्ण घाटी में किब्बर,काजा से 17 किमी की दूरी पर, समुद्र तल से 4,328 मीटर की ऊँचाई पर बसा यह गाँव विश्व भर में सबसे अधिक ऊँचाई पर बसा गाँव है। ठंडॆ रेगिस्तान में स्थित अपने सुरम्य गाँव, बंजर परिदृष्य के लिए जाना जाता है। इसे लघु तिब्बत भी कहा जाता है। ताबो मोनेस्ट्री-काजा से 48 किमी मीटर, समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊँचाइयों पर बसा यह गाँव हिमालय का अजंता कहलाता है।
की मठ-(KYE)-
काजा से 7 किमी की दूरी पर स्थित की मठ गोंपा के नाम से जाना जाता है। इस मठ का निर्माण 11 शताब्दी के दौरान किया गया था। अपनी आकर्षक वास्तु-कला के लिए पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध है। समुद्र तल से 13,504 फ़ीट की ऊँचाई पर एक शंखाकार चट्टान पर निर्मित इस मठ को रिंगछेन संगपो ने बनवाया था।
गोम्फ़ा के भीतर प्रवेश करते ही आपको लगने लगेगा कि आप किसी अलौकिक जगह में आ गए है। ठीक सामने की दीवार पर विशालकाय बुद्ध की तस्वीर, सामने पूजा-पाठ की सामग्रियाँ और भी अनेकानेक चीजें करीने से रखी हुई मिलेंगी, गोम्पा की कलात्मक साज-सज्जा, कक्ष के बीच में मुख्य पुजारी अपनी पारंपरिक पोषाक में बैठा दिखाई देगा, वहीं उसके दोनों ओर कतार से बैठे बुद्ध के अनुयायी मंत्रों को उच्चारते दिखाई देंगे। यहाँ आकर यदि आपने इस मठ को नहीं देखा, तो कुछ भी नहीं देखा।
लाहौल और स्पीति-
हिमाचल प्रदेश में समुद्र तल से 10050 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है लाहौल-स्पीति। पहले लाहौल और स्पीति अलग-अलग राज्य थे। इन दोनों के विलयोपरांत, मिलाकर एक जिला बना दिया गया है। विलय के पूर्व लाहौल का मुख्यालय करदंग और स्पीति का मुख्यालय दनकर था। अत्यधिक शीत के चलने के कारण यहाँ पेड़-पौधे तक नहीं पनप पाते। सारा इलाका बंजर रहता है। कुछ कड़ी घास एवं झाड़िया यहाँ उग पाती हैं, वो भी 4000 मीटर के नीचे। अपनी ऊँची पर्वतमाला के कारण यह शेष दुनिया से कटा रहता है।
यह स्थान कोल्ड डेजर्ट आफ़ हिमालय के नाम से भी जाना जाता है।
यात्रा करते समय आपको हिमालयान याक और नीली भेड़े भी देखने को मिलती हैं।
हिक्किम गाँव-
स्पिति घाटी में बंजर पहाड़ों के बीच एक छॊटा-सा गांव है हिक्किम। इसी गाँव में दुनिया के सर्वाधिक 14,567 फ़ीट की ऊंचाईयों पर कार्यरत हिक्किम डाकघर, जो आसपास के कई गांवों को बाकी दुनिया से जोड़ता है।
चुंकि मैं भी पोस्टमास्टर के पद से सेवानिवृत्त हुआ था, दुनिया के सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित डाकघर को काम करता देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, डाकघर जाना और डाकपाल से मिलना मेरे लिए जरुरी था। मुख्य सड़क से करीब दो सौ फ़ीट नीचे ढलान में उतर कर वहां जाना होता है, अत्यधिक ढलान से फ़िसलने का खतरा बना रहता है। काफ़ी सावधानी पूर्वक उतरते हुए मैं वहां जा पहुंचा। पोस्टमास्टर श्री रिंचेन शेरिंग से मुलाकत करते हुए अपना परिचय दिया। परिचय पाकर वे बहुत खुश हुए थे। उन्होंने साग्रह मुझे अंदर आने का आग्रह किया, कुर्सी दी,जलपान का आग्रह किया। लेकिन मेरे पास समय की कमी थी। यात्रा में और आगे बढ़ना था। मैंने डाकपाल के साथ फ़ोटो लिया और वापिस हो लिया।
गयू गाँव-
ताबो मोनेस्ट्री से करीब 50 किमी दूर गयू नाम के गाँव में मिली यह ममी 55 वर्ष के लामा सांगला की है, जो तिब्बत से चलकर यहाँ तपस्या करने आए थे। जब वे तपस्या में लीन थे, अचानक 1974 में आए भुकम्प से वहीं दबे रह गए। 1975 में आईटीबीपी के जवानों को लामा का शव सड़क बनाते समय खुदाई में मिला था।
कहते है खुदाई के समय कुदाल लगने से ममी से खून निकल आया था। ज्ञात हो कि इस ममी पर अन्य ममियों की तरह कोई लेप आदि नहीं लगाया गया है। बिना लेप आदि लगाए इस ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ रहे हैं, यह एक आश्चर्य का विषय है। लोग इसे जिंदा भगवान मानकर पूजा करते हैं।
काजा हमारी यात्रा का अंतिम बिंदु था. काजा में दो दिन बताने और उसके
आसपास फ़ैले रहस्यमय जगत को देखने और अपने कैमरों में दुर्लभ चित्र और मन में एक नई यादों का पिटारा लिए हम लौट पड़े।
सच ही कहा है किसी ने कि हर यात्रा एक तलाश होती है- अपनी और उस
अछोर जीवन की उस विराट प्रकृति की, हमारा अस्तित्व जिसकी एक
कड़ी है। इसीलिए हर यात्रा से कुछ न कुछ मिलता जरूर है। किसी भोर का
उगता सूरज, कोई बल खाती नदी, दूर तक फ़ैला कोई मैदान, कोई
चरागाह, कोई सिंदूरी शाम, दूर गांव से आती ढोलक की थाप, पीछे छूटती
दृष्यावलियां..हमारे भीतर रच-बस जाती हैं। यही सब तो जीवन की संपदाएं हैं।
मुझे बरबस ही अज्ञेय जी की कविता याद हो आती है.
मंदिर से, तीर्थ से, यात्रा से
हर पग से, हर सांस से
कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा,
पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से।
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गोवर्धन यादव
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