प्रेम दिवस, मातृ दिवस, पित्र दिवस,
बेटी दिवस बाल दिवस परिवार दिवस,
मित्रता दिवस पर्यावरण दिवस,
जल दिवस, पृथ्वी दिवस और हिन्दी दिवस
जिस- जिस पर खतरा नजर आया,
या फिर वक्त नहीं दे पाए जिसे हम
मना लेते हैं उसी के नाम का एक दिवस
दर्शा आते हैं एक दिन की प्रतिबद्धता
और धो लेते हैं हाथ अपने उत्तरदायित्वों से,
मत रो पर तू अकेली ही तो नहीं हिन्दी
जिसे याद किया जाता है बस एक दिन
सैनिक, किसान, मजदूर, और नारी
जाने कितने और भूखे नंगे और व्यथित
खड़े हैं इसी कतार में बेहाल और उपेक्षित
तालियाँ और फूलमालाओं से सजा
अखबारों में नई-नई सुर्खियाँ बना
इनका भी उद्धार उपेक्षित ही सदा
एक ही दिन इनके भी नाम
जिन्दगी की व्यस्तताओं में भूल जाना
गुनाह तो, पर इतना बड़ा गुनाह नहीं
गुनाह है नजरें फेर लेना
निष्ठा दिखाकर सुध ही ना लेना
वह भी अपनों से…
-शैल अग्रवाल
हिन्द, हिन्दी और हिन्दुस्तान मेरे लिए एक ही भाव एक ही बात के तीन विभिन्न पहलू हैं, तीन विस्तार हैं एक ही आत्मा और शरीर के…जिसे हम हिन्दुस्तान या भारत कहते हैं। देशप्रेम या अपनों से प्रेम कहते हैं। हिन्द यानी हम सभी भारतीयों का वह तबका जो भारत के सपूत हैं, जो खुद या उनके पूर्वज भारत से निकले और अभी भी उन्हें अपनी देश व संस्कृति से प्यार है , उसपर गर्व है। हिन्दी उस समूह की भाषा और हिन्दुस्तान वह देश है जहाँ हमारे भाई-बन्धु रहते हैं, दूर भले ही आ बसे हों , जो अभी भी हमारे दिल में रहता है। दो टुकड़े भले ही कर दिए हों, लीपि भले ही बदल दी हो , उन दोनों मुल्कों की भाषा , खाना-पीना, अभी भी एक ही है।
आप सोच रहे होंगे कि हिन्दी के संदर्भ में मैंने यह उर्दू की बात क्यों उठा ली क्योंकि हिन्दी के बदलते रूप पर विचार करना जरूरी है । भारतवासियों में भेद आया, दो टुकड़े हुए क्योंकि हमने अपनी भाषा को हिन्दु मुसलमान दो धर्मों में बांट दिय़ा अलग अलग लीपियों में लिखना शुरु कर दिया। जरूरी है लीपि को संभालना। लीपि गई तो भाषा को बोली होते देर नहीं लगती, और समय के प्रवाह में बोलियाँ विलुप्त भी हो जाती हैं। कितनी बोलियाँ दुनिया से गायब हो गईं , यह बात किसी से छिपी नहीं है। उर्दू एक अलग भाषा बनी क्योंकि हिन्दी देवनागरी नहीं एक अलग लीपि में लिखी जाने लगी। अब यह क्रियोल और अन्य भाषा में लिखे हिन्दी के नये-नये रूप सामने आ रहे हैं। उन देशों के लिए यह सुविधाजनक है इस लिए ठीक है परन्तु भारत में नहीं। सर्वाधिक खतरा मेरी समझ में बढ़ते हुए हिन्दी भाषा में रोमन लीपि के प्रयोग से है। वह भी भारत के अंदर। जहाँ देवनागरी लीपि को बचा कर रखना ही है हमें यह नहीं तो हमारी पहचान का एक बड़ा हिस्सा नहीं। देश की संस्कृति नैतिक मूल्य और मान्यता नहीं। भारत का धड़ ही धड़ रह जाएगा चेहरा नहीं। इसकी रक्षा हर भारतीय का मातृभूमि की तरह ही प्रथम कर्तव्य है।
सदानीरा भाषा न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर है , हमारा भूगोल और इतिहास है, समाज का डी.एन .ए है यह भावी पीढ़ी के लिए। परन्तु जब इसपर स्वार्थ और सहूलियत के बांध खड़े कर दिए जायें तो भाषा को बोली होते देर नहीं लगती। और आज युवा पीढ़ी के हाथों हिन्दी की भी वही दशा नजर आती है। बोलने और समझने वाले तो कई मिल जायेंगे पर लिखना पढ़ना अधिकांश का रोमन लीपि में ही होता है। इसके पहले कि यह बीमारी महामारी का रूप ले और हिन्दी भाषा व लीपि पूरी तरह से क्षयग्रसित हो, इसकी रोकथाम जरूरी है यदि हम भारत और भारतीय संस्कृति और भारतीय ज्ञान व परंपरा की यह हरी भरी बगिया जीवित रखना चाहते हैं, भावी पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं।
बदलाव खुद से ही करना होगा। खुद यानी अभिवावक और शिक्षकों द्वारा। बच्चों के आदर्श बनें। अपनी संस्कृति और भाषा का आदर करें। उसमें गौरव लें। कम से कम घर में यथा संभव हिन्दी में ही बात करें और उनकी अपनी भाषा, संस्कृति व इतिहास में रुचि जगायें, ताकि वह हिन्दी की किताबों को जानना और पढ़ना चाहें। सरकार को भी ऐसे कड़े कानून बनाने चाहियें कि हाई स्कूल तक हिन्दी पढ़ना अनिवार्य हो, हर भारतीय के लिए। तभी हम हिन्दी को बोली होने से बचा पायेंगे। इसकी रक्षा , राष्ट्र की रक्षा की तरह ही हर नागरिक और देश-प्रेमी की जिम्मेदारी है।
कोस कोस पर पानी बदलै चार कोस पर वानी। यह कहावत जरूर है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि भाषा वाकई में बदल जाती है , कुछ शब्द अलग आ जाते हैं बस। इन थोड़े से शब्दों के बदलाव को एक अलग भाषा का दर्जा देना या मांग करना वाकई में सामंत शाही भारत की तरफ ही वापस लौटना है। ये बस अलगाव और तोड़ फोड़ की बातें हैं। आज के इस सुखी और समृद्ध भारत को सशक्त बनाने के लिए जोड़ने की जरूरत है , तोड़ने की नहीं। 85 या 86 में कभी सर्वे हुआ था कि भारत में 1652 भाषायें हैं मुझे नहीं लगता कि वाकई में इतनी भाषायें हैं और अगर हैं भी तो चन्द शब्द और बोलने के लहजे के अलावा ( जिसे अंग्रेजी में एक्सेंट कहते हैं, इतना अधिक फर्क है । लड़ने के लिए तो जहाँ कोई फर्क या वजह ना हो वहाँ भी लोग फर्क ढूँढ लेते हैं परन्तु एक सफल धुन सितार तबला और बांसुरी आदि विभिन्न साजों के समिश्रण से ही उत्पन्न होती है। अलग-थलग की बगावत से भारत बस और और बिखरेगा, टूटेगा। अगर सारी रियासतों को जोड़कर एक स्वतंत्र भारत बन सकता था तो इसतरह की सभी भाषाओं के इन मामूली फर्कों को भुलाकर सशक्त हिन्दी जो देश की संयुक्त भाषा हो , क्यों नही?
हर व्यक्ति का एक ही चेहरा होता है ताकि उसकी सही पहचान हो सके। दस बीस चेहरे लेकर न कोई जी सकता है और ना ही भगवान ने भी चाहा है यह। यहाँ ब्रिटेन में भी गेल्टिक, सेकौटिक, वेल्स, कौकनी और आयरिश आदि अलग-अलग एक्सेंट हैं। वेल्स में बोली जाने वीली कमरू तो बिल्कुल ही अलग । फिर भी कोई अलग मान्यता की डिमांड नहीं। आप घर के अंदर चाहे जैसे बोलें परन्तु राष्ट्र भाषा अंग्रेजी ही है। और यही अंग्रेजी की ताकत है , जो आज यह पूरे विश्व की ताकत है। यह कभी फालतू के वाद-विवाद में नहीं पड़ी , ना ही इसने कभी अन्य भाषाओं के शब्दों से गुरेज ही किया। और यही उदारमना सोच इसकी ताकत और विस्तार दोनों है । कहाँ जइबू और केहर बा या केहर बाटू और कहाँ गई का फर्क इतना बड़ा नहीं कि इन्हें अलग भाषा माना जाए हाँ कोथाय जाबे, या कित्थे गई का थोड़ा बहुत है परन्तु इतना बड़ा नहीं कि समझ में न आए। हमें भारत में संगठित होना पड़ेगा , अपनी सोच बदलनी होगी, कइसे बनी कइसे बनी, फुलौरी बिना चटनी कइसे बनी-इस गाने के गाने वाले जो अलग भाषा की मांग करते हैं , उन्हें सोचना होगा कि यह उनकी अपनी भाषा तो है ही परन्तु भारत का भविष्य विश्व के आगे हिन्दी में ही है। जब भारत में सोच बदलेगी तभी हिन्दी वैश्विक होगी। जबतक हम भारतीयों के मन नहीं मिलेंगे, हम अपने देश , आपसी भाइचारे में गर्व नहीं करेंगे, भारत और हिन्दी, हम हिन्दुस्तानियों तक को वह सम्मान नहीं मिल सकता जो हम चाहते हैं। हमारी यह अंदरूनी दरार ही है जो हमें कमजोर बनाती है और बाहर वाले इसे ही जानकर हमें तोड़ सके , हमपर राज कर सके। सशक्त होने के लिए मैं के दायरे से निकलकर हम होना ही पड़ता है। याद आ रही है एक घटना कि जबतक बच्चों की शादी नहीं हुई थी, हम पांचों एक साथ ही कहीं घूमने , खाने-पीने वगैरह जाते थे और यह देखकर एक बार किसी मित्र ने मजाक-मजाक में कहा था – why you people walk as a unit , it is very empowering . और मुझे तुरंत वह सात लकड़ियों के गठ्ठर वाला बचपन में सुना नीति संदेश याद आ गया था -जहाँ अकेली-अकेली लकड़ी को तो कोई भी आसानी से तोड़ सकता है , परन्तु गठ्ठर को तोड़ना आसान नहीं। विविधता में एकता , मात्र एक नारा नहीं । मन से स्वीकारना होगा हम भारतीयों को तभी हमारी उन्नति और सम्मान है। घर के अंदर हम मराठी , बंगाली , पंजाबी , कश्मीरी, हिन्दु, सिख, मुसलमान कुछ भी हों परन्तु जब घर के बाहर हों तो सिर्फ भारतीय होने चाहिएँ। इस पहचान को बाहर जाने वाले सुरुचिपूर्ण और कीमती कपड़ों की तरह ही पहनें, गर्व करें, ध्यान रखें ।
नौर्मन टेबिट ने क्रिकेट में यहाँ बसे भारतीय भारतीय टीम को ही क्यों सपोर्ट करते हैं इस बात पर आपत्ति जताई थी और कहा था कि वे यदि अब यहाँ के वासी हैं तो उन्हें यहीं की टीम को सपोर्ट करना चाहिए और हममें से कई हैं जो खुद को भारतीय भी नहीं कहना चाहते हैं, वो बस पंजाबी और कश्मीरी ही रह गये हैं। दुख होता है ऐसे देशद्रोहियों की बातें सुनकर। देश में भी और बाहर भी। आस्था और सम्मान सब मन से आते हैं। मन बदलने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। पर अगर फिर भी न समझें तो ऐसे जयचंदों पर कड़ी आंख रखनी चाहिए। कई बार सुनने को मिलता है कि कोरी भावुकता या आदर्श वाद से पेट नहीं भरता, इसके लिए व्यवहारिक होना पड़ता है परन्तु मेरी दृष्टि में हर आदर्श या सिद्धांत में एक नहीं पीढ़ियों के इसी व्यवहार पर आधारित अनुभव होते हैं, और हर वह व्यक्ति जो इन्हें ठुकराता है या इनसे विद्रोह करता है कहीं-न-कहीं अपनी जिम्मेदारियों को ठुकराता है। उनसे विद्रोह करता है।
अस्मिता की लड़ाई है भाषा की परवाह फिर हमारी भाषा तो वैज्ञानिक और सभ्य भाषा है। जहाँ करने से पहले क्या कर रहे हैं यह सोचा जाता है और कर्ता के बाद कर्म आता है-जैसे मैंने आम खाया। अन्य भाषाओं की तरह नहीं-जहाँ I ate mango-यानी खा पहले लिया और फिर बाद में पता चला कि जो खाया वह आम था।
कर्ता ने कर्म को करण से यानी कि कारक और वाहक क्या था , किसकी सहायता से सम्प्रदाय के लिए अपादान हेतु , संबंध और संबोधन अंत में। एक सुगठित सोच, एक स्पष्ट और व्यवहारिक भारतीय मनीषा है हमारे व्याकरण में भी, सुगठित समाजशास्त्र के साथ।
बतायें संस्कृत जो कि हमारी सभी भारतीय भाषाओं की जननी है उसके अलावा विश्व की कौन सी भाषा है जो इतनी सुगठित है और हर शब्द जो लिखा जाता है वैसे ही पढ़ा जाता है या जैसे लिखा जाता है वैसे ही बोला जाता है।
भाषा का सम्मान पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ ही होना चाहिए, गंगा की तरह ही जो सदियों से हमारी आस्था और अस्थियाँ दोनों को संजोए बह रही है। अस्थियाँ यानी हमारे पूर्वजों के सोच और संस्कारों को और आस्था हमारे जाने और बरते हुए को, समय की अनंत यात्रा में भाषा परखे विश्वास को लिए बह रही है सदियों से। पर इसे हमें सरस्वती होने से बचाना है। सरस्वती यानी अब जो विलुप्त, मात्र एक गौरवमय अतीत ही, वह सिंधु नदी ही है जिसके नाम पर ही हम हिन्दु हिन्दु कहलाए और हमारा देश आज भी हिन्दुस्तान है।
जय भारत और जय भारती।
शैल अग्रवाल