रामचन्द्र के पिता जमींदार थे। वे अयोध्या में रहते थे। जमींदारी खत्म होने पर वे जमीन और जंगल बेच पैसा ले कर दिल्ली बस गए। उन्होंने एक यज्ञ-कम्पनी खोली जिस में 250 ब्राह्मण और 25 ऋषि काम करते थे, जो रामलीला की दाढ़ी-मूंछें लगाते थे। यह कम्पनी आर्डर पर भारत में कहीं भी यज्ञ करती थी। यज्ञों से देश समृद्द होता है, यह मान कर सरकार कम्पनी को अनुदान देती थी।
रामचन्द्र की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई। जब वे एम.ए. हुए तब उनके पिता और सौतेली माता में विवाद छिड़ा कि बेटे का भविष्य कैसा हो। पिता का मत था कि उसे यज्ञ कम्पनी का डाइरेक्टर बना दिया जाए। सौतेली माता का हठ था कि उसे दिल्ली से दूर कहीं अच्छी नौकरी दिलवा दी जाए और यज्ञ-कम्पनी का डाइरेक्टर उनका सगा बेटा बने। हठ के सामने मत की नहीं चली। रामचन्द्र के पिता ने एक मंत्री से, जो यज्ञ के प्रताप से ही मंत्री हुए थे, रामचन्द्र को नौकरी देने के लिए कहा। उन्होंने रामचन्द्र को अफसर बना कर नागपुर भेज दिया।
सौतेली मां ने रामचन्द्र की शादी कर के बहू को कुछ दिन के लिए अपने पास रख लिया। नियम है कि जो मां बेटे को जितना प्यार करती है, बहू को उतना ही दुःख देती है। रामचन्द्र को मद्रास में प्रिया के पत्र मिलते कि मुझे जल्दी बुला लो वरना मेरी लाश पाओगे। सास जो पूरी राक्षसी है।
एक दिन रामचन्द्र ने अपने सेवकों को बुलाकर कहा, “ तुम्हारी स्वामिनी जानकी दिल्ली में बड़े संकट में है। एक तो वह विरह की आग में जल रही है दूसरे उस की सास उस पर अत्याचार करती है। तुम में से कोई जा कर उसे ले आए।“
यह सुनकर सेवकों ने सिर नीचे कर लिए और वे चुप बैठे रहे।
रामचन्द्र ने कहा-“ तुम बोलते क्यों नहीं ? उदास क्यों हो गये ? मालकिन के आने की खबर से घबराओ मत। जानकी बहुत अच्छे स्वभाव की है। नए आंकड़े के अनुसार अफसर के घर में नौकर के टिकने की औसत अवधि एक महीना है। पर मैं विश्वास दिलाता हूँ कि जानकी तुम्हें 5-6 महीने निभा लेगी। उठो और उसे सादर लिवा लाओ।“
एक सयाना सेवक हाथ जोड़ कर बोला, “ मालिक, हमें मालकिन से डर नहीं है। हम दूसरी बात से चिंतित हैं। बात यह है कि हम मालकिन को दिल्ली से नहीं ला सकेंगे। रेलगाड़ियों में इतनी भीड़ होती है कि हम कुचल कर या दम घुटकर मर जाएँगे। हम आप के काम के लिए जान दे सकते हैं पर जान देने से भी माता जानकी दिल्ली से नहीं आ सकतीं। आप तो जानते ही हैं कि दिल्ली में आदमी गाड़ी में बैठते हैं और मद्रास में लाशें उतरती हैं।“
यह सुनकर रामचन्द्र चिन्तित हो गए। बोले, “ तुम्हारा कहना ठीक है। गाड़ियों में सचमुच बहुत भीड़ होती है। और क्यों न हो? जितने डब्बे बनते हैं, उन से कई गुना बैठने वाले पैदा हो जाते हैं। पर यह समस्या जल्दी हल हो जाएगी। सरकार कानून बना रही है कि जो आदमी पांच से ऊपर बच्चे पैदा करे, वह रेलगाड़ी का एक डब्बा बनाकर दे। पर क्या तुम लोगों में से एक भी ऐसा वीर नहीं है, जो दिल्ली जा कर मेरी प्रिया को ले आए?”
सयाने ने कहा,“ मालिक दिल्ली तो बहुत दूर है। हम में से कितनों की ही बीबियां तीन-चार स्टेसन आगे पड़ी हैं और हम उन्हें नहीं ला सकते। हां, हम में एक ही ऐसा वीर है, जो आपका काम कर सकता है, वह हनुमान है।“
ड्राइवर जाम्बवन्त सिंह ने पास ही बैठे एक तगड़े नौकर के कन्धे पर हाथ रखकर कहा,“ हनुमान परशाद, तुम क्यों चुप हो? तुम तो अतुलित बलशाली हो। तुम ने बड़े-बड़े पराक्रम किए हैं। तुम नए ‘ बाक्स आफिस‘ ‘फिल्म ‘ के पहले‘ शो‘ के टिकिट करीद कर तिगुने दाम में बेचते हो। उठो और स्वामी का काम करो। “
सयाने के वचनों से हनुमान को अपने बल का स्मरण हो आया। दूसरों की बीबियों की सेवा में दिलचस्पी लेना, उसकी पुरानी आदत थी। इस के लिए वह बड़ी दौड़-धूप करता था, समुद्र तक लांघ जाता था। उस ने चुटकी बजाकर जोर से जमुहाई ली और उठ खड़ा हुआ। हाथ जोड़कर वीर स्वर में कहने लगा,“ मालिक, आप के हुक्म से मैं कुछ भी कर सकता हूँ। आप प्रतापी अफसर हैं, जिन का हाथ बड़ा से बड़ा आडीटर नहीं पकड़ सकता। आप कहें तो मैं ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस को उलट दूं; चितरंजन के इंजिन को चबा जाऊं। आप की कृपा के बल से मैं दिल्ली जानेवाली गाड़ी को ढकेल कर मद्रास ले जाऊँ; पुल तोड़कर रेलगाड़ी को चाहे जहां रोक दूं। “
हनुमान के वचन सुनकर रामचन्द्र प्रसन्न हुए। वे बोले,“ तुम्हारी बात से मैं संतुष्ट हुआ। मैं तुम्हारी तनख्वाह बढ़ा दूंगा। तुम आज ही ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस से चले जाओ।“
रामचन्द्र ने पिता के नाम पर चिठ्ठी लिखकर दी जिसे हनुमान ने तमाखू के बटुए में रख लिया। उसने कहा, “मालिक, दो अच्छर मालकिन के लिए भी लिख देते। “ रामचन्द्र ने कहा, “ लिखने से क्या होगा? चिठ्ठी उस के पास नहीं पहुंचेगी। पिता जी को मेरे प्रेम-पत्र पढ़ने की पुरानी आदत है। तुम तो जानकी को मेरा संदेश जबानी दे देना। कहना कि साहब ने कहा है कि ‘ हे प्रिया, मैं तेरे विरह में कितना दुबला हो गया हूं कि मैं ने कल ही बेल्ट में कील से एक नया छेद किया है। मेरी हालत तू इसी से समझ जा।‘ “
हनुमान ने बिस्तर कांख में दबाया और स्टेशन पहुंच गया। टिकिट की खिड़की के पास के दो-तीन आदमियों को धकेल कर वहां खड़ा हो गया। मुसाफिरों ने चिल्लाना शुरू किया,“ आगे क्या घुसता है।” धक्का-मुक्की होने लगी। हनुमान ने ध्यान ही नहीं दिया। पर इसी समय पुलिसमैन आ गया। उसे देखते ही हनुमान का बल क्षीण हो गया। बचपन में एक जुआड़ी के कहने से उस ने एक पुलिसमैन को चबा लिया था, इस लिए उसे शाप मिला था कि पुलिसमैन को देखते ही तेरा बल क्षीण हो जाएगा। पुलिसमैन ने उसे हाथ पकड़ कर घसीटा और कतार में सबसे पीछे कड़ा कर दिया।
वह वहां खड़ा-खड़ा खिसकने लगा। उसे लगा कि मैं मांस का एक लोंदा हूं, जो धीरे-धीरे लुढ़क रहा है। उसका होश जाता रहा।
अचानक उस के कानों में शब्द पड़े, “ कहां का टिकिट चाहिए?” उस ने आंकें चला कर टिकिटघर की दीवार पर देखा। वहां 23 तारीख की तख्ती लगी थी। टिकिट बाबू से पूछा, “ आज क्या 23 तारीख है? “ टिकिट बाबू ने सिर हिलाया। हनुमान ने कहा , “ पर मैं तो 21 तारीख को कतार में खड़ा हुआ था। मुझे 21 तारीख की गाड़ी का क टिकिट दिल्ली का चाहिए।“
बाबू ने कहा, “ क्या तुम पागल हो? 21 तारीख तो निकल गई। “
हनुमान बोला, “ पर गलती मेरी है कि तुम्हारी? मैं तो 21 की गाड़ी से ही जा रहा था। 23 हो गई, तो मैं क्या करूं? “
पीछे से धक्के लगने लगे। पुलिसमैन फिर दिख गया। हनुमान ने झट टिकिट ले लिया और प्लेटफार्म पर पहुंच गया।
गाड़ी आई। चढ़ने और उतरने वालों में लड़ाई होने लगी। चढ़ने वाले एक-दूसरे को कुचलकर चढ़ने की कोशिश करने लगे। हनुमान उचका और भीड़ के सिर पर खिसक कर डब्बे में घुसने लगा। उसे उतरने वालों का धक्का लगा और वह दूर जा गिरा। वह उठा और चढ़ने वालों को उठा-उठाकर फेंकने लगा। डब्बे के पास पहुंचा ही था कि किसी ने पीछे से टांग खींच दी और वह औंधे मुंग गिर पड़ा।
हनुमान ने दूसरे डब्बे में कोशिश की; फिर तीसरे में, चौथे में। वह कहीं भी नहीं घुस सका।
वह ग्लानि से जल रहा था। सोचता,“ धिक्कार है मेरे बल को। मैं गाड़ी में नहीं बैठ सकता। हाय, मैं मालिक का इतना सा काम न कर सका। माता जानकी क्या कभी भी पति के पास नहीं आ सकेंगी? “
वह प्लेटफार्म से निकला और लाइन के साथ-साथ आगे बढ़ने लगा।
थोड़ी देर बाद रामचन्द्र रेलवे लाइन के पास की सड़क से घूमते हुए निकले। उन्होंने देखा कि ग्रैंड ट्रंक रुक गई है और सीटी दे रही है। ऊपर चढ़े तो देखा कि हनुमान पांत पर लेटे हैं। उन्होंने उसे जल्दी उठाया और कहा, “तुम अभी यहीं हो! दिल्ली नहीं गए ! क्या किसी ने जेब काट लिया? इस तरह पांत पर क्यों लेटे हो ? “
हनुमान की आंखों से आंसू टपकने लगे। कहने लगा,“ मालिक मुझे मर जाने दीजिए। मैं गाड़ी में नहीं बैठ सका। मेरे बल को धिक्कार है। जिस गाड़ी ने मुझे ऊपर नहीं बिठाया, उस के मैं नीचे बैठ कर प्राण त्याग दूंगा।“
हरिशंकर परसाई