हास्य-व्यंग्यः बेचारा लेखक-पद्मा मिश्रा

सुबह की सैर से लौटते समय, न चाहते हुए भी विनय को देर हो ही गई थी, धूप सिर पर आ पहुंची थी, पसीने में डूबा शरीर बस, एक शीतल स्नान की कामना कर रहा था। वह सोचता जा रहा था और खुद से बातें भी करता जा रहा था, ‘सबसे पहले आज का अख़बार जरूर पढ़ेगा , शायद आज मेरा लेख भी छपा होगा, जिसे कल रात ही देर तक जाग कर लिखा फिर टाइप कर ईमेल से भेजा था, खुद वरिष्ठ संपादक का फोन आया था,’
,
एक लेखक को उसके सृजन से दूर नहीं किया जा सकता-जब भी किसी कहानी या रचना का जन्म होता है, बिलकुल अपने नवजात शिशुओं सा मोह — उनके भविष्य की चिंता किसी माता पिता की तरह ही उपजती है किसी लेखक के मन में ,,,,,उसकी कृति कैसी है, सम्पादकीय और जन-प्रतिक्रिया कैसी रही ? वही उत्सुकता ,वैसा ही उत्साह,’सहसा उसका मन आह्लाद से भर उठा – जरूर आज उसका लेख प्रकाशित हुआ होगा,कितने विश्वास और आदर से ,,खुद संपादक जी ने लेख भेजने का आग्रह किया था , हाँ,याद आया फोन से सूचना भी तो दी थी कि कल का अख़बार जरूर देखें। उसके कदम तेजी से घर की ओर बढ़ रहे थे -अब तक अख़बार तो आ ही गया होगा, गेट खोलने की आवाज सुनते ही मेघा बाहर आई -”आज का अख़बार कहाँ है मेघा ?’
विनय ने वहीँ से आवाज लगाई ।

‘वहीँ हॉल में -सेंटर टेबल पर देख लीजिये,’

विनय ने तुरंत अख़बार उठाया –,हाँ, वह विशेषांक तो आया है, जिसके लिए लेख माँगा गया था, मेरा लेख तो होगा ही,विनय ने इत्मीनान से सोफे पर बैठकर मेघा को चाय के लिए आवाज दी,और पृष्ठ पलटने लगा,- तभी फोन की घंटी ‘जरूर मिहिर का होगा ,एक वही तो है जो उसके लेखन से खुश होता है -तारीफ भी करता है,,,बाकि ऑफिस के खन्ना,विवेक,राघवन सभी पीठ पीछे उपहास करते हैं –”अरे, अख़बार में कलम घिसने की बजाय -आफिस की फाइलों पर घिसते तो कहाँ से कहाँ पहुँच जाते विनय बाबू
,,हा,हा,”

लेकिन उसके बॉस उसकी इज्जत करते हैं–इतना बड़ा लेखक हमारे बीच है, यह तो गर्व की बात है,”

वहीँ बैठे बैठे मेघा से कहा -”फोन बंद कर दो,बाद में बात कर लूंगा -थोड़ी देर में ‘

पर सारा अख़बार पलट कर देख लेने के बाद भी उसका लेख कहीं नजर नहीं आया, एक बार फिर उसी पेज पर देखा पर बेकार ”ऐसा कैसे हो सकता है? , खुद संपादक जी ने लेख छपने की सुचना दी थी’, वह रुआंसा हो उठा। -लेख नहीं छपा तो न सही ,पर यह तो उसके आत्मसम्मान पर चोट थी।उसका मन कहीं आहत हो गया था। उसके मुकाबले अन्य साधारण लेखों को जगह मिली थी, पर उसका लेख सर्वश्रेष्ठ और श्रम साध्य तो जरूर था, शोधपूर्ण तथ्यों से सजाया भी था उसने। फिर क्या हुआ ?”

लेखक का भावुक मन चोट खा गया था । ”अब तो मैं इन्हे कोई भी रचना नहीं भेजूंगा,समझ क्या रखा है ? अरे ,हम गरीब लेखकों के पास यह इज्जत ही तो हमारी पूंजी है,-चार लोग मिलते हैं,,सराहना करते हैं,–समाज में नाम है,पहचान है,,”विनय बड़बड़ाता जा रहा था।

मेघा ने कहा –तुम रचना भेजो या न भेजो,-कोई और भेज देगा, वे क्यों तुम्हारा इंतजार करेंगे या मनाएंगे ?

विनय मायूस हो पलंग पर लेट गया -मन दुखी था, भावनाएं उमड़ी तो एक कविता आकार लेने लगी,-जिससे कुछ संतुष्टि मिली। मन शांत हुआ। अगली बार किसी और को रचना दूंगा, ‘सोचते सोचते नींद आ गई। अभी आधा घंटा ही बीता था,कि फोन की घंटी पुनः बजी -उधर से दैनिक-उदय के साहित्य-संपादक थे,”विनय जी,,जल्दी से नारी-विमर्श पर एक अच्छा सा लेख भेजिए ,कल ही आने वाला है। ‘उसकी ‘हाँ’सुने बिना ही फोन बंद हो गया । विनय बेमन से उठ कर बैठ गया –नहीं लिखूंगा,,,क्या मैं इन लोगों का वेतनभोगी नौकर हूँ ? पारिश्रमिक तक तो देते नहीं -और लेखक को हुक्म देते हैं मालिकों की तरह। ”
लेकिन लेखक भी तो एक सामाजिक जीव है -बिना लिखे, अपनी अभिव्यक्ति के बिना जी नहीं सकता ।अतः विनय भी सारी कड़वाहट

भूलकर लिखने बैठ गया -बड़े ही यत्न और श्रम से लेख पूरा कर भेज दिया,।

अगले दिन उसका लेख छपा तो था–लेकिन एक-तिहाई ,,,सारे लेख की जरुरी बातें हटाकर ,उसका क्रिया-कर्म हो चुका था, संपादक जी ने अपने साहित्यिक पेज के सीमित खांचे ,में जितना आ सकता था -डाल दिया था,फलस्वरूप पूरा लेख चूँ चूँ का मुरब्बा नजर आ रहा था। विनय अपने लेख की नियति पर हैरान था। पत्नी ने हंसकर कहा,

”बेचारा लेखक !”

-पद्मा मिश्रा-जमशेदपुर

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