हमन् है इश्क मस्ताना,
हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद इस जग में
हमन दुनिया से यारी क्या
क्या डबरे के पानी के आवर्त की तरह हम घूमते रहे हैं सदियों,जबकि कबीर हमे चेता रहे थे,“जागत रहियो भाई“
कबीर को आवाज़ लगाने से हम गौरान्वित नही होते ,बल्कि हम अपनी ऐतिहासिक निष्क्रियता की याद करते है,की कबीर आप
थे,मौजूद अनदेखे आवरण से हम ही छू न पाए आपको।
जड़ता की शिलाओं को तोड़कर प्रगट हुए थे कबीर हमारे समाज मे,क्योंकि बहीखाता रखने वाले तो रोज पैदा होते रोज मरते है। किंतु एकतरफा फानी दुनिया जीने वाले सीर्फ़ कबीर ही जन्म लेते है।
कबीर न तो आक्रमक प्रवक्ता है,न अलाव जलाने वाला जोगी।कबीर जिस ज्ञान की आंधी बाते करते है उसे कोई ऐहिक दर्शन और तर्क नही समझ सकता था। वह भौतिकवाद का सूत्र नही एक ऐसे सन्त की ज्वाला है जो आंधी के बाद रिमझिम बारिश से आपको भिगो देगा। वो अंततः यही तो चाहते थे,बारिश प्रेम की बारिश उद्दतिकरण। वे प्रेम रस को सभी मे बांटकर पीना चाहते थे। कभी वे साधुओं, फकीरों को सम्बोधित करते थे, कभी भाई, कभी मुल्ला तो कभी माया जोगी को । वह स्वयं जीते-जी किवदंती बन गए थे। उन्हें इससे परे नही देखा जा सकता है।
कबीर का धर्म बांटता नही संसार को त्यागता नही। वो दो टूक कहते है-/हाथ पांव कर काम सब चितरंजन नलि/ जीवन की साझेदारी ऐसी जैसे गंगा बह रही हो। कबीर के अध्यात्म और सामाजिकता को अलग-अलग करने पर उनकी चादर तार तार हो जाएगी। हमे उसे इकठ्ठा ही अपनाना होगा,इकट्ठे होकर।
कबीर की जोखिम बहुस्तरीय थी,मध्यकाल में विखण्डनो के पश्चात भी दो जातियां थी। मिथ्या को सच का दर्जा ही उस युग की विडंबना थी। चावार्क कि तरह तर्क देते हुए वे आस्तिक सन्त के मुकाम पर पहुंचते है। कबीर की पुनरावर्ति और शुष्क दार्शनिक पद हमेशा एक लय में बहते है। उनकी रचनाएं ही उनकी उत्कृष्टता का मानक हैं।
-धागा ज्यूँ टूटे त्यू जोरि-
कभी मुझे यूँ भी लगा,की कौन प्रेम हो सकता है मेरा इस जीवन मे,,राम,कृष्ण,शिव,किन्तु जीवन के ढलान के आरंभ में ये जाना, मेरा प्रेम तो कबीर है,हमेशा साथ हमेशा पास। मुझसे ही फना न हुआ गया ।
शौके जुनू कर के देखा
हमने किसी पर मर के देखा
रवायतों ने हमे समझाया बहुत
वफ़ा के किस्सों में मर के देखा
एक तेरी बेवफाई से रूबरू न होते
तो भला दुनिया मे हमने क्या देखा
तू न पैगम्बर न राम न यूसुफ
इंसान भी कहां तुझे बनते देखा
गमो की दहलीज पर जी ही लेंगे
मौजे बहार में तुम्हे तो रोज ही देखा
कभी कभी लगता कि मै वो दुशाला हूँ जिसे आखरी बार कबीर ने छोड़ दिया था। मैं, प्रेम और दुशाला तीनो रह गए ,बिन कबीर के ये कहने के लिए की -‘कबीरा खड़ा बाजार में’ ।
रुचि बाजपेयी शर्मा
अकाउंटेंट -बीएड कॉलेज खण्डवा mp
लेखन,पेंटिंग,
एम ए -इतिहास
कवि कुम्भ-उज्जैन कुम्भ2016
कालिदास लिटरेचर नेशनल अवार्ड–
नागपुर ज्योतिबाफुले
फ़िल्म राइटिंग एसोसिएशन की मेम्बर
आकाशवाणी दूरदर्शन में कविता पाठ