स्वयं से साक्षात्कार- सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

कैसा लगता है यह पढ़कर कि आपको अपना ही साक्षात्कार लेना है। रोमांच महसूस होता है। दूसरे से तो हम कभी – कभी बात करते हैं परन्तु जब भी हम दूसरों से विलग होते हैं या अकेले होते हैं , तब स्वयं से ही निरंतर बात करते हैं। कई बार तो औरों के साथ होते हुए भी हम स्वनिर्मित वीरान सागर में डूबे हुए होते है जहाँ पूरा जहान होते हुए भी हमें लगता है कि हम अकेले हैं और अकेले होते हुए भी हम खुद के साथ होते हैं और तब हम स्वयं से न जाने कितनी बातें कर रहे होते हैं ।

इस तरह से बातें करना और स्वयं से प्रश्न पूछने पर उनके उत्तर पाने की जिज्ञासा पलना , में अंतर होता है। हम जब भी स्वयं से स्वयं की बातें या उन घटनाओं का विवरण जानना चाहते हैं जो आपके साथ आपके अब तक के जीवन काल में घटी हैं कि क्या अच्छा हुआ ? क्या बुरा हुआ है ? किन परिस्थितिओं में हमने क्या निर्णय लिए थे ? किसी के प्रति क्या बुरा किया था या किसके लिए क्या कष्ट उठाये थे , जिससे उसका कुछ भला हो पाया ? दूसरों को क्या कष्ट दिए ? कौन – कौन और कितने लोगों ने जिंदगी को छुआ और क्यों या किस रूप में छुआ। लोगों से मिलकर संबंधों की दुनिया में क्या समझा ? कैसे उन्हें भुगता या उनसे आनंद प्राप्त किया या हमारी जिंदगी में उनका आना और जाना भी , हमारे दुःख या सुख का कारण बना और क्यों बना , कितना बना । हम कितनो के लिए परेशानी या फिर सुकून का सबब बने ? वो कौन सी खट्टी – मीठी घटनाएं थीं जो हमारे साथ घटीं , हमने उन्हें सहा या उनका स्वागत किया ? अपने लिए , अपनों के लिए जो सपने देखे या संजोय थे , क्या वे सच में परिवर्तित हो पाए या सिर्फ सपने ही बन कर रह गए या समय के चक्र के साथ वे इतने सच हुए कि स्वयं पर ही गर्व करने की इच्छा हुई। क्या पता कभी सबकुछ छोड़कर , एकांत और निर्जन स्थान पर जाने की इच्छा हुई ! स्वयं के हिस्से में जो सफलताएं हाथ आयीं , वे खुद की कोशिशों का परिणाम थीं , हमारी लगन , इच्छा शक्ति और समर्पण का प्रतिफल थीं या किस्मत और संयोग की वजह से ही हम सफलता की सीढियाँ चढ़ते चले गए ? जिन असफलताओं ने जिंदगी को परेशान किया , उसके क्या कारण थे ? हमने समाज और देश को कुछ दिया या केवल उससे लिया ही लिया ? ढेर सारे और अनगिनत ऐसे प्रश्नो के उत्तर मन ढूंढ़ता है जब खुद से ही सवाल करते हुए खुद ही उत्तर भी देने होते हैं।

सवाल स्वाभविक है , महत्वपूर्ण भी है कि क्या अब तक की जिंदगी से संतुष्ट हूँ ? क्या कर लिया है , क्या और कितना करना बाकी है ?

प्रश्न भले ही स्वाभाविक और सरल हों परन्तु इनके उत्तर न तो स्वाभाविक है और न ही सरल। क्योंकि एक आम जिंदगी में किसे फुर्सत है या सरोकार है किवह अपने ही साथ इस तरह के बेसिरपैर के सवालों में उलझे। वो तो एक अनियंत्रित और कभी न खतम होने वाली दौड़ के बाशिंदे से इतर कुछ है ही नहीं। एक आम व्यक्ति तो यह भी तय करने की मानसिकता में नहीं रह पाता कि वह स्वयं से यही पूछ ले कि उसे इस धरती पर जन्म किस उद्देश्य के लिए दिया गया है ? उसे कुछ संस्कारगत नैसर्गिक रूप से विद्यमान मान्यताओं का दास बनाकर स्वयं को बड़ा करना होता है और वह उसी व्यवहारिक पिंजरे को ही जीवन की अंतिम सांस तक अपनी दुनिया मानता रहता है।

जिन माँ – पिता की संतान के रूप में जन्म पाया , होश संभालते ही पता चल गया कि वे तो इस समाज और देश के बहुत ही अदने और सामान्य घटक हैं , जिनको किसी भी तरह के सपने देख़ने का अधिकार व्यवस्था ने नहीं दिए है , उन्हें पूरा करना तो बहुत दूर की बात है। जब तक शरीर में सांस चल रही है , उसे चलने दो और जब ऊपर वाले की तरफ से दी गयी साँसों की गिनती पूरी हो जाये तो इस धरती को छोड़ दो। ऐसी ही प्राकृतिक प्रक्रियाओं के मकड़जाल में जन्म लिया , बड़े हुए , उदरपूर्ति के संसाधन के रूप में रोजगार की व्यवस्था कर ली , विवाह एक सामाजिक परम्परा से अधिक शारीरिक जरुरत थी , उसे भी अपना लिया फिर बच्चे होने ही थे , वे भी हो गए क्योंकि उसी प्रक्रिया में मुझ जैसे का अस्तित्व इस धरा पर हुआ था। न भी होते तब भी किसी को कोई क्या फर्क नहीं पड़ता। समय बीत जाता तो मुझे भी नहीं पड़ना था।

जब सबकुछ सामाजिक या यूँ कहूं कि प्रकृति और रिवाजों की एक निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार होता चला गया। तो फिर यहाँ तक कैसे आ गए कि आज स्वयं से वे अजीब प्रश्न करने की इच्छा हुई कि इस जिंदगी नाम के प्राकृतिक घटना चक्र ने मैंने जिंदगी को क्या दिया या मैंने इस जिंदगी से क्या पाया ?

ईश्वर ने मानव के मस्तिष्क की संरचना और उसकी कार्य पद्धति को इस प्रकार का बनाया है कि उसके क्रियाकलापों के निर्धारण पर उसकी नैसर्गिक देन की तो महत्वपूर्ण भूमिका होती ही है , परन्तु साथ ही उस पर उसके उस वातावरण का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है , जिसमें उसकी परवरिश होती है। वातावरण का अर्थ है ,घर – परिवार की संरचना , समाज की दिशा और दशा , देश का राजनितिक चरित्र , ,परिवार की धार्मिक प्रतिबद्धता , देश और समाज पर मानव निर्मित या फिर प्राकृतिक आपदाएं भी व्यक्ति की दिनचर्या और प्रकृति पर अपना प्रभाव डालते हैं। नैसर्गिक का अर्थ है , शरीर की कोशिकाओं में संरक्षित आणविक तंत्र की संरचना से निर्मित व्यवहार प्रक्रिया , जिसे समय भाषा में डी एन ए के नाम से जाना जाता है और इसकी प्रकृति अदृश्य शक्ति द्वारा निर्धारित होती है। यही सबकुछ तो मेरे साथ भी हुआ और उनके ही आलोक में मेरी दिनचर्या , विचारधारा , कार्यकलापों का निर्धारण हुआ। इन सब स्थितिओं ने सर्वांगीण रूप से मेरी सोच की संरचना की। मेरे जनक देश के विभाजन की भयावह त्रासदी का सामना करते हुए अपनी हत्याओं के डर के रूप में मृत्यु को घोखा देकर इस भूखंड के उस भाग में आ बसे जिसे हम भारतवर्ष कहते हैं। मेरा जन्म इसी देश की धरती पर हुआ , इसलिए भारतवर्ष मेरी मातृभूमि है , इस बात का मुझे बेहद संतोष तो है ही कि मैं भारत भूमि पर जन्मा , साथ ही गर्व भी है क्योंकि बचपन में ही यहाँ मेरा परिचय श्रीराम की मर्यादित और संयमित जीवन – गाथा और श्रीकृष्ण की श्रीमद्भागवत गीता की अलौकिक वाणी से हो गया । यह दोनों ही ग्रंथ और उनकर पात्र मानव जीवन का सबसे बड़ा विद्यालय हैं। ये ग्रंथ सर्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से किसी भी व्यक्ति के जीवन – उद्देश्यों को परिभाषित ही नहीं करते , जीवन की हर अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिओं के लिए सम्पूर्ण मानव जगत के चारित्रिक और व्यवहारिक निर्णयों का मार्ग दर्शन भी करते है। श्री राम का मानवीय कमजोरिओं से रहित मर्यादित व्यवहार और श्री कृष्ण की वाणी के रूप में श्रीमद्भागवत गीता का निष्काम कर्म का मन्त्र , हम सबके लिए यह तय करता है कि हमें इस धरती पर उस अलौकिक शक्ति ने क्यों भेजा है ! हमें इस रूप में जीवन पाकर क्या करना है !

बहुत छोटी आयु में देश विभाजन के समय की विधर्मियों द्वारा दरिंदगी की कहानियां ही नहीं , उस दरिंदगी के जीवंत किस्से अपनी नानी श्रीमती वस्सो बाई और माँ श्रीमती धर्मवती से सुन – सुन कर बड़ा हुआ। नानी तो जब तक जीवित रहीं , विभाजन की उस विभीषिका की दहशत उनके चेहरे और भावनाओं को घायल ही करती रहीं। उन्होंने अपने सामने अपने मझले भाई का सर , तन से जुदा होते हुए स्वयं देखा था जो आततायी विधर्मियों ने वर्ष 1947 में मुल्तान में किया था।

बाद में मेरे सभी अपने अपने ही देश में सुरक्षित स्थितिओं में थे , इसलिए भय तो नहीं था परन्तु वेदना और आक्रोश के साथ चिंता जरूर बनी रही , जो आज भी है कि मेरे भारत में ऐसा फिर कभी नहीं होना चाहिए।

माता – पिता स्वयं भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं थे और किसी प्रकार की महत्वकांछाओं से रिक्त भी थे , परन्तु उनके अंदर कहीं यह तीव्र इच्छा अंगड़ाइयां आवश्य लेती थी कि उनके बच्चे शैक्षिक रूप में ,आगे बढ़ते हुए देश में कम से कम इस दृष्टि से किसी से भी कमतर न रह जाएँ । मैंने उनकी यह लालसा अपने जीवन की आवश्यक गति और उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर ली और शिक्षा को ही जीवन पहली मंजिल मान ली। इसी सकल्प ने मेरे जीवन की दिशा तय कर दी जो मेरे परिवार की सामर्थ्य के दायरे में मेरी वर्तमान दशा का कारण भी बनी। शिक्षा ने मुझे वो सबकुछ दिया जिससे मैं आर्थिक रूप से निश्चिंत जीवनयापन कर सकूँ। हाँ यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे कोई ग्लानि नहीं है कि अपने इस प्राम्भिक और प्रथम उद्देश्य को पूरा करने में मेरी नानी ने मेरे पिता को जितना सहयोग दिया , मेरे पापाजी के परिवार ने उतना ही असहयोग किया। मेरी माता भले ही लगभग निरक्षर थीं , परन्तु शिक्षा के प्रति उनकी जागरूकता ने हम सभी भाई – बहनो को शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध उन्होंने हमारी शैक्षिक यात्रा में नहीं आने दिया।

उनके साथ समय – समय पर घटित , घटनाक्रम और पारिवारिकता के स्तर पर अमानुषिक व्यवहार को को मैं अब याद करना नहीं चाहता। मेरे स्मृतिपटल पर अंकित उन घटनाओं का स्वाद बहुत कसैला है और उन्हें याद करके मैं आज भी उद्विग्न हो उठता हूँ। वह सब अब मैं भूलना चाहूंगा। दूसरी तरफ मेरी नानी , मेरे लिए मेरी माता से किसी भी प्रकार से कम आदरणीय और ममता से भरी हुई नहीं थी। अपने अत्यंत सीमित आर्थिक संसाधनों के होते हुए भी उनकी ममता और स्नेह में किसी प्रकार कि कमी नहीं थी। उन्होंने मुझे भरपूर प्यार दिया। मेरे बचपन ने उनके वात्सल्य भाव का भरपूर आंनद उठाया , भले ही वे मेरे पिता के निवास से लगभग सात सौ किलोमीटर दूर रहती थीं। वे अत्यंत मानवीय प्रकृति की अत्यंत सुघड़ महिला थीं और अपने पूरे परिवेश में अम्मा के नाम से सुविख्यात थीं।

अम्मा को लगभग बाल – विधवा थीं। मेरी बीबीजी के जन्म के छह माह बाद ही मेरे सगे नाना श्री चिंका राम जी का देहावसान हो गया था और तब मेरी नानी की आयु शायद पंद्रह वर्ष के आस – पास रही होगी। एक बार जब नानी अपने बालपन में ढूढ़कर उसमें से यादों के कुछ मोती निकल कर मुझे दिखा रहीं थीं तो मेरे किशोर मन ने पूछ लिया था , ” अम्मा ! आपको मैंने जब से देखा है , आपकी काया में कोई परिवर्तन मैं नहीं पा पाया हूँ। आप तब भी ऐसी ही थीं , जब मैं पांच साल का था और आज भी आप वैसी ही हो जबकि मेरे तो दाढ़ी – मूछ भी निकल आये हैं। मेरे इस अप्रत्याशित प्रश्न पर हमेशा बड़प्पन ओढ़े उनके वत्सलयमय चेहरे पर थोड़ी देर के लिए असमंजस की लकीरें उभर आयीं थीं , वे थोड़ा शरमा भी गईं थीं , फिर उस प्रौढ़ उम्र में उन्होंने लजाकर कहा था , ” निक्का ( मुल्तानी में बेटे को प्यार से इसी नाम से पुकारा जाता है ) पचास साल पहले जब मैं तेरे बाबा के घर में ब्याह कर आयी तो लोग कहते थे , इसके चेहरे की कोमलता तो देखते ही बनती है। इसे हाथ मत लगाना। हाथ लगते ही ये मैली हो जाएगी। फिर नानी ने एक ठंडी सांस के साठ कहा था , भाग्य का लेख और ईश्वर की मर्जी कुछ ऐसी हुई कि तुम्हारी नानी के हाथ पकड़ने वाला ही तभी चला गया , जब उसने अपनी जिंदगी को जीना शुरू ही किया था। ”

इस एक वाक्य में नानी की पूरी जीवन गाथा छुपी थी।
इसके बाद नानी को साठ साल कि उस उम्र में सहज होने में बहुत देर लग गयी थी। नानी की इस स्वीकारोक्ति ने संस्कारजनित भारतीय स्त्री के न जाने कितने पन्ने मेरे सामने खोल दिए थे। मैंने इस वाक्य से संस्कारों की पूरी फेहरिस्त जान ली और फिर कभी मुझे इस विषय में न तो नानी से कुछ भी पूछने की हिम्मत हुई और न ही अब उसकी जरुरत थी।

( शेष अगले अंक में जारी )

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा ,
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