श्रीकृष्ण के संदेश, महिला सशक्तिकरण और राष्ट्रीय चेतना
शुरूआत एक कथा से, कहीं पढ़ी थी मैंने,,,
एक हाथी का बच्चा। महावत जंगल में। रात्रि का पहर विश्राम का समय। कहीं रात में भटक ना जाए हाथी,,,,उसने उसके पैरों में जंजीर बाँध दी। चैन से सोया। प्रातः नींद खुली। ठंडी- ठंडी हवा के झोंके। कल-कल झरनों की मधुर स्वर लहरी, महावत ने प्यास का अनुभव किया और चल पडा झरनों की ओर। सारा दिन धूमधाम रहा हरियाली का आनन्द लेता भूल गया हाथी के बच्चे को।
शाम ढले लौटा उसी वृक्ष के पास। अरे, ये तो भूखा-प्यासा यहीं खड़ा रह गया?
अफसोस हुआ, दौड़ा झरने की ओर थोड़ा पानी और थोड़ी-सी घास।
हाथी के भूखे बच्चे ने अपनी भूख प्यास मिटाई।
महावत ने सोचा, अब खोलकर क्या होगा। फिर से रात होने वाली है कल खोल दूँगा।
दूसरे दिन फिर से महावत को पास के गाँव में जाना था।
सोचा ,अभी बँधा रहने दूँ तो अच्छा है, नहीं तो कहाँ ढूँढ़ना इसे लौटने पर । सुरक्षित जगह हे पास में ही झरना भी है। शाम को आने पर देख लूँगा।
तीन दिन इसी प्रकार हाथी बंधा रह गया।
चौथे दिन जब महावत को उस जंगल से आगे जाना था तो उसने हाथी की जंजीरें खोल दी।
और सोचा आज इसे खुला छोड़ देता हूँ, आज मुझे कहीं जाना नहीं है। यहीं विश्राम करूँगा। तीन दिनों से काम करके थक गया हूँ।
महावत ने हाथी की जंजीरें खोल दी।
और झरने पर नहाने चला गया।
थोड़ा फल- फूल खाकर गहरी नींद सो गया।
शाम हो गई। महावत की नींद खुली। सोचा देखूँ हाथी कहाँ है।
अरे, ये हाथी तो वहीं वैसे ही बैठा है जैसे तीन दिनों से बैठा था। वो चकित रह गया।
उसने कोशिश की कि वो अब चले तो भी वो हाथी टस से मस न हुआ।
उसे समझ में नहीं आया क्या किया जाए। महावत अब परेशान हो गया। उसे लगा हाथी बीमार हो गया है।
वो दौड़कर गाँव में एक वैद्य के पास गया।
वैद्य को उसने पूरी बात बताई।
वैद्य मुस्कुराया और बोला,”महावत, वो तन से बीमार नहीं, मन से हो गया है।
तुमने उसे तीन दिनों तक बाँधकर रखा।
वो चाहकर भी नहीं उठ सका।
अब उसने सोच लिया है कि वह शक्तिविहीन है नहीं उठ सकता।
तुम एक काम करो, उसे फिर से बाँधने का उपक्रम करो, बाँधना जरूरी नहीं और फिर वहाँ की घास में आग लगा देना। ”
महावत वापस जंगल में लौटा। हाथी वहीं बैठा था, महावत ने वही किया जो वैद्य ने बतलाया था।
हाथी को जंजीर से बाँधने का उपक्रम किया। फिर पास की धास में आग लगा दी।
थोड़ी देर तो वो हाथी वही बैठा रहा, महावत डर गया, कहीं हाथी जल ना जाए। लेकिन जैसे ही हाथी तक आग पहुँची वो धमकाने लगा,, उसकी पूंछ जलने लगी तो वो झटके से उठा और जंजीर बिखर गई वो दौड़कर भागा।
महावत ने खुशी से ताली बजाई।
अब हाथी अपनी ताकत पहचान चुका था।
श्रीमद्भागवत गीता में अर्जुन जब सामने खड़ी सेना में अपने ही लोगों को खड़ा पाता है तो वह अपने आप को विवश पाता है। रिश्तों की डोरी में जकड़ा मन आज भी उन टूटे बंधन से भी कहीं जुड़ा महसूस करता हुआ। संस्कारों की जंजीर,जो अपनों के खिलाफ नही होने देती।
अर्जुन की यह अशक्यता शारिरिक नहीं, मानसिक थी।
जब मैं अपने गौरवशाली देश भारत को देखती हूँ, यहाँ की भारती (स्त्री वर्ग) को देखती हूँ तो मुझे अर्जुन, भारतीय व भारतीय स्त्री की स्थिति ठीक अर्जुन जैसी नज़र आती है। जिन्होंने अपने समक्ष कथित अपना कहलाने वालों लोगों के बीच अपने को आज भी उन अनदेखी जंजीरों में जकड़ रखा है, जो पहले कभी नहीं बाँधी गई थी।
युगों पहले बाहरी आक्रमणकारियों के कारण सुरक्षा के दृष्टि से भारतीय समाज में नारी को एक विशेष घेरे में रखा गया, पर अब वह बंधन खुल चुका हैं, किन्तु आज भी भारतीय नारी, उस हाथी की तरह जो लम्बे समय तक बँधे रहने के कारण आज भी अपने-आप ही परतंत्रता ओढ़ कर बैठा हैं, अपने-आप को उसी बंधन से बँधी शक्तिहीन समझ कर जीवन ढो रही है।
श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश, बताई गई राह और पावन संदेश, आज मुझे अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रासंगिक जान पड़ता है।
पहले महिला सशक्तिकरण की बात करें तो मन इतिहास और पुरातन साहित्य की ओर ले जाता है, तुलनात्मक दृष्टि से आधुनिक युग की नारियों की ओर भी।
राम और कृष्ण के समय, महावीर और बुद्ध के समय, जब भारतवर्ष बाहरी आक्रमणों से अपरिचित था, उस समय स्त्री की सबलता उसका परिवार और समाज में स्थान, उसकी स्वच्छंदता सभी अपनी श्रेष्ठता पर थी।
वो राजमाता बनकर भी राज कर रही थी, राजकुमारी रूप में वर चुनने का अधिकार प्राप्त था उसे। अपने बुद्धि कौशल से हर समस्या का समाधान भी कर रही थी और आवश्यकतानुसार युद्ध क्षेत्र में भी कौशल दिखला रही थी।
अर्थात अपनी शक्ति का भान था उसे भी और समाज को भी।
एक राजा को एक ऋषि कन्या से विवाह करना हो तो उसे उस कन्या की अनुमति माँगनी पड़ती थी।
अगर एक स्त्री गंधर्व विवाह के द्वारा माँ के पद पर आसीन होती थी तो समाज व परिवार उसका तिरस्कार नहीं करता था।
अकेली रानी या राजकुमारी स्वेच्छा से जंगल में ऋषि के आश्रम में रह सकती थी।
देश के लिए अपने पुत्र का बलिदान कर सकती थी।
अपनी संतान के लिए कोई भी निर्णय लेने का पूरा अधिकार उसकी माता को था।
बिना राजमाता व सहधर्मिणी की अनुमति के राजा और पति कोई भी फैसला नहीं लेता था।
हर प्रकार की शिक्षा का अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त था, तभी स्त्री और पुरुष चौसठ कलाओं में पारंगत होते थे।
हर परिवार में स्त्री-पुरूष को समान अधिकार प्राप्त था, समान कर्तव्य भी थे।
महाभारत काल तक आते-आते रजवाड़ों में आपसी रंजिशों का दौर इतना अधिक हो गया कि एक ही राज्य के लोग भी आपस में युद्ध करने लगे तो फिर राष्ट्र की भावना कहाँ बची रह पाती।
जैसे ही विदेशियों की पहुँच भारत में होने लगी, यहाँ के निवासियों में असुरक्षा की भावना और बढ़ती चली गई।
विदेशी आक्रमणों का उद्देश्य भारत को लूटना, बर्बाद करना रहा, स्त्री दासी रूप में उनके लिए भोग की वस्तु बन गई, भारतीय पुरूष दास,,,,।
आरम्भ में उनसे लड़ाई भी की गई, पर उनकी शक्ति और अलग-अलग टुकड़ों में बँटा भारतीय राज्य, विशाल और शक्तिशाली होते हुए भी अपनी शक्ति से बेखबर, दासत्व की बेड़ी में जकड़ता चला गया।
स्त्रियाँ अपने-आप को बचाने की कोशिश में स्वयं को हर ओर से काटती, छुपाती घर के पिछले हिस्से में नज़रबंद करती चली गई, अपनी स्त्री संतान के प्रति अत्यंत भयभीत, उनपर अनेक प्रकार की बंदिशें लगा दी गई, इसप्रकार धीरे-धीरे शिक्षा क्षेत्र भी सीमित हो गया।
घर के भीतर घर के कामों में बाँधकर उनकी बुद्धि को भी कुंठा झेलनी पड़ी।
धीरे-धीरे कब अधिकारों का क्षेत्र मिटता चला गया और कर्तव्यों की मीठी धारा जंजीर बनकर उन्हें जकड़ने लगी, स्त्री को भी पता नहीं चला।
साथ ही युद्ध में पुरूषों के मारे जाने के कारण विधवाओं के अस्तित्व की सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहा था या कहूँ खतरा बढ़ गया था।
मुहम्मद गजनी, गौरी, सिकन्दर, मुगल आदि सभी ने जीभरकर लूटा विशाल भारत रूपी सोने की चिड़िया को। और भूल गई ये चिड़िया अपनी उड़ान, अपने प्रेम प्रीत के गीत, अपना नीड़ तक भी।
तभी आए अंग्रेज,व्यापारी के रूप में लुटेरे ,,,भारत को अपनी मुठ्ठी में कैद करने।
सबसे अधिक चतुर।
देखी यहाँ की गुरुकुल वाली 164 कलाओं को खेल-खेल में सिखा देने वाली शिक्षा पद्धति, पढ़े यहाँ के शास्त्र, आगम, वेद, उपनिषद और पुराण।
जाना, यहाँ के गौरवशाली इतिहास को।
मन-ही-मन नतमस्तक यहाँ के रणबांकुरों की कथाओं के समक्ष।
पर उद्देश्य तो भारत जैसे समृद्ध, पर अपनी शक्ति से बेख़बर देश पर राज्य करना , अपनी मुठ्ठी में बाँधना।
ज़रूरी था इसके लिए इसकी ज्ञान रूपी अक्षुण्ण सम्पदा को इनसे अलग करना।
इसकी शिक्षा नीति को तहस -नहस करना।
बहुत मुश्किल भी नहीं था।
क्योंकि क़रीब हजार सालों से बाहरी आक्रमणों और भीतरी स्वार्थपरता को झेलता भारत मानसिक रूप से गुलाम हो चुका था शारीरिक रूप के साथ-साथ।
पहला कुठाराघात भाषा पर,,, जिसमें रचे गए, अनुवादित व संग्रहित किए गए ज्ञान ग्रंथ से विलग किया जा सके भारतीयों को।
दूसरा परिवार संयोजन व अर्थ व्यवस्था पर,,,
जहाँ धन से अधिक प्रेम की पूजा होती रही है, वहाँ धन की श्रेष्ठता रखी जा सके,
जहाँ शारिरिक आराम और सौन्दर्य से अधिक आत्मीय सम्बंधों व गुणों की श्रेष्ठता थी, वहाँ भौतिकवाद को बढ़ावा देते हुए आत्मीय सम्बन्धों को गौण कर देना।
वर्तमान में परोक्ष रूप से इसका एक लाभ अवश्य हुआ कि स्त्री फिर से स्वतंत्रता का अनुभव करते उसे अपनी शक्ति को पहचानने लगी है।
पर अभी यह संख्या नगण्य ही कही जा सकती है।
अंग्रेजी भाषा और उसके द्वारा भारतीय इतिहास को मनमाना रूप देती हुई नई शिक्षा पद्धति!
दासत्व को स्वाभाविक रूप से ओढ़ते भारतीय ,,,
यह कड़वा सत्य है कि अंग्रेजों की कूटनीति में भारत की भोली जनता ने हर ओर से हथियार डाल दिए।
धर्म परिवर्तन शिक्षा परिवर्तन के साथ ऐसा घुलमिल गया की अनजाने ही हम अपनी भाषा और संस्कृति को तुच्छ मानकर शरीर से अधिक मानसिक गुलामी को स्वीकार कर बैठे।
ऐसे में श्रीकृष्ण का उपदेश याद आता है कि हर मानव को अपने धर्म को ही जीना उचित है।
इतना ही नहीं, आजादी प्राप्त करने के आज ७५ साल बाद भी हम इस मानसिक दास्ता से दूर नहीं, बल्कि और उलझते जा रहे हैं।
हमारे शास्त्रों से ज्ञान-विज्ञान से अपरिचित अपनी ही भाषा संस्कृति को हेय दृष्टि से देखते हम अंग्रेजी भाषा और उसकी संस्कृति को अपनाते जा रहे है, गीता के संदेश के विपरीत।
मुझे अब कदम -कदम पर गीता के वे सारे श्लोक याद आते चले जा रहे हैं, जिसमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखरित ही नहीं होते, बल्कि अन्याय के खिलाफ लड़ने का साहस भी पैदा होता है।
गुलामी मानसिक हो या शारीरिक, गुलामी गुलामी ही है और आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, ये नारा लगाने वाले हमारे वीर स्वतंत्रता सैनानी थे, जिन्होंने अपनी जान की परवाह भी नहीं की।
यही बात गीता भी हमें सिखाती है , अधर्म और अन्याय के खिलाफ युद्ध करना- धर्मयुद्ध कहते हैं इसे।
आज हम भारतीयों को इस धर्मयुद्ध की शिक्षा ग्रहण करनी ही होगी और वो राह दिखाएंगे गीता के श्रीकृष्ण, अर्जुन की भाँति।
दूसरी ओर
अपनी शक्ति और अपने अधिकारों से बेखबर स्त्री जाति,,,,
आज गीता हाथ में लेकर देखती हूँ, तो इनमें मुझे कमजोर मन वाला पारिवारिक कर्तव्यों को ओढ़कर अपने-आप को दोष से बचाने का प्रयास करता अर्जुन नज़र आता है, जिसे आज एक बार फिर श्रीकृष्ण से सारथी की आवश्यकता है, जो सच्चे और झूठे रिश्तों के सत्य को उजागर कर सके। जो अपने कहलाए जाने वालों के खिलाफ इस धर्म युद्ध में खड़ा होकर निर्भीकता से लड़ने के लिए उद्धृत कर सके उन सबके खिलाफ, जिन्होंने कहीं अपनों की, कहीं सपनों की, कहीं परिवार की, कहीं समाज की दुहाई देकर स्त्री को पंगु बना दिया है। चाहकर भी वो इस मायाजाल से नहीं निकल पाती।
ऐसे में श्रीकृष्ण का उपदेश कि तुम्हारा कर्तव्य अधर्म के खिलाफ युद्ध करना है, जो तेरे सामने खड़े है, वे अधर्म के साथ हैं, अतः तू उन्हें अपना सम्बन्धी समझकर अपने कर्तव्य पथ से च्युत मत हो।
लोग क्या कहेंगे यह मत सोच।
यह भी मत सोच कि तू राज्य और सम्पदा के लिए लड़ रहा है। तू लड़ रहा है अन्याय के विरूद्ध, तू खड़ा है मानवता के लिए।
तू लड़ेगा अपने अधिकार के लिए।
इन रिश्तों की झूठी जंजीरों को तोड़ सकता है तू ।
तू शक्तिशाली है, पहचान अपनी शक्ति को।”
महिला सशक्तिकरण यानि पहचानना उस शक्ति को, प्राप्त करना गौरवशाली अपने स्थान को, जो प्राप्त था हर मनुष्य को भारत देश में, झूठे संस्कारों और दिखावी रिश्तों की जंजीरों से स्वयं भी आज़ाद होना और सभी स्त्री को आज़ाद करना।
आज सम्पूर्ण भारतवासी को श्रीमद्भागवत गीता इसलिए नहीं पढ़नी चाहिए कि वो हमारा पवित्र ग्रंथ है, बल्कि इसलिए जरूरी है कि हम अपनी मानसिक गुलामी के बंधन से स्वयं को आजाद कर सके।
हर स्त्री श्रीकृष्ण के संदेश से अपने कर्तव्य को सही रूप में जान सके और अपने और सम्पूर्ण स्त्री जाति के अधिकार के लिए बेखौफ लड़ सके।
श्रीकृष्ण ने कहा था न, मरना तो सभी को है, मृत्यु शाश्वत सत्य है तो फिर क्यों न लड़ते-लड़ते मरा जाए एक सच्चे वीर की भाँति,,,।
इन्दु झुनझुनवाला
26 अगस्त 2022