श्रीमती शैल अग्रवाल जी के उपन्यास “शेष-अशेष” को पूरा पढ़ने के बाद भी पाठक यह निश्चित नहीं कर पाता कि उनकी कहानी का नायक शेखर सरकार है या उनकी पुत्री मनुश्री अब्राहम। दोनों ही पात्र अपने-अपने तौर पर नायकत्व का दावा करते से दिखते हैं। इस प्रकार यह उपन्यास किसी एक को स्थापित करने की बजाय समानांतर स्तर पर दोनों का पक्ष बताता चलता है। उपन्यास की कहानी का एक तीसरा समानांतर भी है। श्रीमती शैल ने अपने इस उपन्यास में न केवल भारत व इंग्लैंड (जो उपन्यास के मुख्य पात्रों की कर्म भूमि है) की घटनाओं का समावेश किया है बल्कि मध्य एशिया की परिस्थिति का भी जायज़ा लिया है।
कहानी मुख्यत: पिता व पुत्री के बनते-बिगड़ते संबंधों पर आधारित है। जहाँ शेखर सरकार अपनी माँ व पत्नी के बीच सामंजस्य बिठाते हुए अपनी पुत्री से अथाह प्रेम करते हुए अपना जीवन सबके साथ बिताना चाहते हैं। किंतु इस प्रयास में वे न माँ को संतुष्ट कर पाते हैं न पत्नी को ही। और बेटी तो उन्हें दोनों का ही गुनहगार मानती है। बेटी जो पिता के जीवन का एक अविभाज्य अंग है, उसकी उपेक्षा न सह पाने की स्थिति में चिड़ियाघर में काम करने वाला पिता स्वयं को एक पशु को पिंजरें में बंद कर लेता है। जहाँ से उसे केवल उसकी बेटी ही बाहर निकाल सकती थी।
शैल जी का कहानी कहने का अपना ही ढंग है, जहाँ वे मनुष्य के मन में उठते विचारों की तरह पाठक को कभी भूत, कभी वर्तमान की सैर कराती हुई, अनेक मनभावन और उदास दृश्य दिखलाती हुई अपने साथ लेकर चलती हैं।
इस उपन्यास में प्रकृति भावनाओं की वाहक बनती है। इसकी एक बानगी देखिए। रिश्तों की क्षणभंगुरता को बताने के लिए वे लिखती हैं—
“ उस सूखे पत्ते को देख रहे हो सुमी (ज़्यादा प्यारा या दु:ख में इसी नाम से पुकारती थीं माँ उन्हें), कैसे डाली से लिपटा काँप रहा है, पर जानता है, कि एक न एक दिन इसे तो गिरना ही होगा| इन रिश्तों की भी कुछ ऐसी ही ज़िंदगी होती है, शेखर|”
इस औपन्यासिक यात्रा में वे अनेक नई परिभाषाएँ गढती चलती हैं। अत्यंत निराशा की स्थिति में शेखर सरकार को जीवन बस एक आदत सा लगता है।
“अपनी विवशता को भली-भाँति जानते और तरह-तरह से परख चुके थे वह… जीना भी तो एक आदत ही, साँसों-सी, बहते खून सी, हमारे रग-रग में ही रची-बसी!
जीवन के अनेक रंगों के साथ-साथ शैल जी इस उपन्यास में वास्तविक रंगों व कला की अपनी समझ का भी परिचय देती हैं। जहाँ प्रकृति के रंग, प्यार के रंग और कला के रंग एकमेव हो मिलते हैं। उदाहरण देखिए—
“माँगने पर हँसकर ही जवाब दिया था जोनुस ने भी -,”ओह, तो तुम्हारे जंगल में भी हर सुबह एक शर्मीला सूरज निकल आता है और फिर शाम को इन्हीं चार रंगों के पीछे छुप जाता है?”
इसके पहले कि मनु कुछ जवाब दे या सोच तक पाए, दोनों ही एक साथ बोल पड़े थे-“ बर्न्टएम्बर, योलो ओकर, इंडिगो और सीपिया ग्रीन!”
सभ्यता का दावा करने वाले हम आज भी अपने-अपने अहम व स्वार्थ के चलते युद्ध की विभीषिकाओं से जूझ रहे हैं। ईश्वर प्रदत्त प्रकृति रूपी संपदा का दोहन ही नहीं एक प्रकार से बलात्कार कर रहे हैं। स्वार्थलिप्त मानव अपनी आगामी संतानों के बारे में भी नहीं सोच रहा। किंतु मनु जैसे साधारण व्यक्ति चिंतित हैं। चिंतित हैं यह सोचकर कि राष्ट्रों की इस अंधी शस्त्र प्रतिस्पर्धा का दुष्परिणाम उनके बच्चों को किस प्रकार भुगतना होगा? वह सोचती है –
“तो क्या कल कोई एक ऐसी सुबह भी आ सकती है जब ये फुदकती चिड़िया, हरी-भरी धरती, सूरज, चाँद-तारे, नन्हू का साथ नहीं दें सकेंगे, उसे बहलाने नहीं आ पाएँगे? पर ऐसा कैसे हो सकता है!…क्यों नहीं ! मौसम ही नहीं खुद आदमी भी तो अपना सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा है आज!
उसकी प्यारी दादी को उससे दूर कर भारत भेज दिए जाने पर वह उनकी तुलना एक पर्यटन स्थल से करती है जहाँ घूमने के लिए जाया जा सकता है, पर रहा नहीं जा सकता।
“अब वह एक ऐसा ऐतिहासिक खंडहर थी जिसे सराहा तो जा सकता है, परंतु इसमें रहा और जिया नहीं| … परिवार से हजारों मील दूर बैठी बस एक पर्यटन स्थल बन कर ही तो रह गई थी श्रीमना, एक ऐसा तीर्थस्थान जहाँ शेखर सरकार परिवार सहित हर साल आने का मन बना चुके थे |”
एक स्त्री कुछ लिखे और स्त्रियों की दशा पर उसकी कलम खामोश रह जाए ऐसा तो हो ही नहीं सकता। शैल जी ने भी स्त्रियों की दशा, विवशता और समाज के दोगलेपन को अपने ही अंदाज में उजागर किया है। साथ ही साधन-संपन्न स्त्रियों का आह्वान भी कि उन्हें ही अपनी बहनों की ओर हाथ बढ़ाकर उन्हें संबल देना होगा।
“आखिर कैसे तोड़ पायेंगे हम नारियों की इस सुविधाजनक खरीद-फरोख्त और इस मनमानी जोड़-तोड़ को? आखिर कब तक मनु और उस जैसी हज़ारों पढ़ी-लिखी और विवेकशीला नारियाँ अपने-अपने आरामदेह रेशमी पालने में ही चुपचाप लेटी रह जाएँगी? शतुरमुर्ग सी अपने ही अंदर की मरीचिका में मुँह छुपाए सब कुछ अनदेखा ही करती रहेंगी?”
वह न केवल मानव तस्करी के तहत स्त्रियों का भेड-बकरी की तरह बेचे जाने और फिर उनका प्रयोग एक संडास की तरह किए जाने का वर्णन करती है बल्कि एक सामान्य स्त्री जिसे हाउसवाइफ़ का दर्ज़ा दिया जाता है, उसकी मजबूरियों का भी मार्मिक चित्रण करती है।
“झूठे बरतनों को समेटती औरत फिर से पकाने वाले कमरे में उबलने को लौट आती है| वह रोना नहीं चाहती – हारना भी नहीं चाहती, मुश्किल से यह घर बनाया है उसने| पर कुतरे जाना ही क्यों लिखा है औरतों की फूटी किस्मत में ?”
किंतु फिर भी यह औरत हारेगी नहीं। क्योंकि लेखिका के अनुसार—
“औरत जानती है कि थका-हारा सिपाही जंगा नहीं जीत पाता, किले नहीं बना पाता – और औरतों को तो हारना आता ही नहीं|”
कुल मिलाकर शैल जी का यह उपन्यास एक ओर नारी विमर्श को नया आयाम देता है तो साथ ही विश्व-भर में अंधी युद्ध-लिप्सा पर बात करता है। इसके साथ ही पारिवारिक रिश्तों की जटिल गुत्थी को सुलझाने का भी प्रयास करता है। शैल जी को इस रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!
डॉ मंजु सिंह
शारजाह यू. ए. ई.
संपर्क सूत्रः manjusinghgupta@gmail.com