समीक्षाः लेखनी लघुकथा विशेषांक 2019

अंदाज़-ए-बयां और…

आमतौर पर मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के अनुसार ही साहित्य लिखता-पढ़ता हूँ,संभवतः इसी वज़ह से मैं बेहद चूज़ी हो गया हूँ । मुझे प्लांट किया हुआ साहित्य अरूचिकर लगता है। लेखनी सितम्बर अक्टूबर 2019 में संग्रहित लघुकथाओं को पढ़ने के बाद मुझे अन्दर से लगा कि इस पर कुछ लिखना चाहिए।
“अपनी बात” में लघुकथाओं पर बलराम अग्रवाल जी के विचारों पर मौन सहमति दर्शाते हुए सम्पादकीय दायित्वों की इति कर लेना खल गया। मुझे लगता है यहाँ पर संपादक द्वारा इस अंक को निकालने के पीछे के विज़न पर अपनी बाट रखनी चाहिए थी।लघुकथाओं की उपादेयता पर वीरेन्द्र यादव जी का आलेख अच्छा बन पड़ा है,पर “युगबोध” और “नैतिक मूल्यों की राख” जैसे शब्द लघुकथाओं को ‘परसेप्शन’ के आधार पर लिखे जाने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाते हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि मैं उनकी इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक़ रखता हूँ की लघुकथाएं विसंगतियों के प्रति आव्हान होती हैं। इस अंक में एक सुखद आश्चर्य की बात यह समझ में आई कि मूल रूप से दूसरी विधाओं के स्थापित लेखकों में लघुकथाओं की बेहद गहरी समझ है। चित्र मुदगल की-मर्द, एच आर हरनोट की-मोबाईल और हरिशंकर परसाई की-जाति जैसी लघुकथाएँ इसका प्रमाण है।
मूल रूप से लघुकथा लेखकों में प्राण शर्मा की ‘गर्माहट ‘और ‘लावारिस’ बहुत ही अच्छी तरह बुनी गई है।सुभाष नीरव की लघुकथा ‘तिड़के घड़े’ एक कालजयी रचना है।मुझे याद पड़ता है कि मैनें कई बरस पहले किसी बड़ी साहित्यिक पत्रिका में इसे पढ़ा था.मुझे यह लघुकथा याद सी रह गई थी। ‘अपने घर जाओ न अंकल’ भी उनकी एक उम्दा रचना है।गोवर्धन यादव की ‘खज़ाना’ एक बेहतरीन रचना है,वहीं अनीता रश्मि की ‘मौत-पर्व’ एक झकझोरने वाली लघुकथा है। मेरा अपना मानना है कि क्लासिक लघुकथाएं (यहाँ कालजयी के अर्थ में) क्लासिकल संगीत की तरह होती हैं,जिसे गाना बजाना तो सभी चाहते हैं, पर बहुत कम लोग ही सफल हो पाते हैं। यह एक किस्म की तपस्या ही है। जिस तरह क्लासिकल संगीत का प्रभाव वैश्विक होता है,ठीक उसी तरह क्लास्सिक लघुकथाएँ भी वैश्विक होती हैं।इसमें शब्द वीणा के तारों की तरह झंकृत होते हैं।दीपक मशाल की बूढी औरतों पर आधारित अनाम लघुकथा. सहजीवता, ताक़त, रेज़र के ब्लेड एवं शैल अग्रवाल की लघुकथाएं वसंत,निरुत्तर परिचय, पति-परमेश्वर,फैमिली, बेकार और पहुँच आदि लघुकथाएँ रिश्तों को नये सिरे से पारिभाषित करती हैं।आमतौर पर पारिवारिक विषयों पर आधारित लघुकथाएँ ऊब पैदा करती हैं, लेकिन यहाँ पर अंदाज़े बयां और होने के कारण एक अलग ही तरह के रस से भिगोती हैं। दीपक मशाल एवं शैल अग्रवाल दोनों ने ही शब्दों के चमत्कारिक प्रयोग से लघुकथाओं में झंकार उत्पन्न करने का प्रयास किया है। शैल अग्रवाल जी ने तो प्रकृति के मानवीयकरण और मानवीय संबंधों को दर्शन के परिपेक्ष्य में कहा है,जो कि एकदम नयी बात है।

आलोक कुमार सातपुते,
832, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,सड्डू,रायपुर-छत्तीसगढ़ भारत

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