समीक्षाः तुम क्यों उदास हो-संदीप तोमर

उदासी के बीच जीने की राह, मुमकिन है इनसे पार पाना…

“तुम क्यों उदास हो?” कुलबीर बड़ेसरों के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह का नाम है जो 2021 में पंजाबी में छपा, लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया जो 2023 में भावना प्रकाशन से छपकर आया। स्पष्ट है कि अनुवाद स्वयं में एक स्वतंत्र विधा भी है, जाहिर तौर पर लेखिका के साथ अनुवादक भी किसी कृति के लिए बराबर का उत्तरदायी होता है। कुलबीर अपने समय और व्यवसाय की शिनाख्त करते हुए इस संकलन की कहानियों को बुनती हैं। अपने कथानक के लिहाज से ये कहानियाँ कुछ ‘हटके’ हैं।
कुलबीर की कहानियाँ न तो कलावादी शिल्पकारी से निर्मित होती हैं और न ही कथ्य की सपाट प्रस्तुति से। सधी हुई संप्रेषणीय भाषा और बेहद कसे हुए महीन शिल्प के सहारे वह विषय के इर्द-गिर्द एक ऐसा ताना-बाना रचती हैं कि पाठक कहानी के अंतिम शब्दों तक खुद को कहानी से बंधा पाता है, वे परिस्थितियाँ जिन्होंने कुलबीर से ये कहानियाँ लिखवाई है, कहीं अधिक सशक्त रही हैं, लेखिका की पैनी और महीन नजर उन परिस्तिथियों को कालजयी बना देती है। ये कहानियां पाठक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने में सक्षम दीख पड़ती हैं। इन कहानियों की कसक पाठक के भीतर तक अपनी पैठ बनाने की क्षमता रखती हैं। मन की उलझनें, प्रेम का भटकाव, मानव स्वभाव की दुर्बलताएँ, जीवन का एकाकीपन, रिश्तों का बनावटीपन, अभिनय, फ़िल्मी दुनियाँ के विविध पहलू इन कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित हैं। ये कहानियाँ एक सकारात्मकता के साथ जिजीविषा को नए तरीके से प्रस्फुटित करती हैं।
संग्रह की पहली कहानी है- “तुम उदास क्यों हो?” इस कहानी को लिखने में लेखिका ने अपने प्रोफेशन का भरपूर प्रयोग किया है, यह कहानी पाठक को एक अलग लोक में ले जाती है। कहानी एक तरफ असंगठित कार्य स्थल पर मजदूरों की मनोदशा का वर्णन करती है, प्रतीत होता है मानो यू.पी., बिहार मजदूर बनाने की फैक्ट्री मात्र हैं। मजदूर लड़का अभिनेत्री लड़की के ख़यालों में इतना खो जाता है कि सपने में लड़की द्वारा दुःख-सुख बांटना उसे अच्छा लगने लगता है, यहाँ लेखिका ने अच्छा खाका खींचा है।
“स्कूल ट्रिप” कहानी एकल अभिभावक के पारिवारिक अर्थ-तंत्र (बजट) की कहानी है जो इस बात की तरफ ध्यान ले जाती है कि अधिकांश मध्यम-वर्गीय परिवारों का जीवन बीमा और बैंक-कर्ज की किस्तों को निपटाने में ही बीत जाता है। यह कहानी पारिवारिक रिश्तों की पड़ताल भी करती है, जहाँ झूठी इज्जत के लिए पैसा बहाना है तो दूसरी और बिना बात का गर्व है। कहानी इंगित करती है कि अभाव में बच्चे इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं और उम्र से पहले समझदार हो जाते हैं।
मौत का भय कितना भयानक होता है, उसी कशमकश को लेकर “फिर” लिखी गयी है। ओशो कहते हैं- “मैं मृत्यु सिखाता हूँ” लोग मृत्यु से भयग्रस्त हैं। इंसान की मंशा होती है कि लोग बीमार व्यक्ति की सुने, लेकिन सुनने वाले कम होते हैं, बात पूरी सुने बिना सुनाने की प्रवृति अधिक लोगों में पाई जाती है, यह व्यथा इस कहानी में बार-बार व्यक्त हुई है।
“माँ री” कहानी में डायरी शैली की झलक है, यहाँ भी क़िस्त भरने का दर्द झलकता है, बार-बार धन बचाने की चिंता दिखाई देती है। यहाँ पिता के न रहने का दर्द भी उभरता है, मानो लेखिका कहना चाहती है- जिसका जीवन में अभाव रहता है, उसकी कीमत रहती है। कहानी हमें बताती है- माँ का सही-सही आकलन उसके बच्चे ही करते हैं, कहानी हमें एक अलग एंगल पर ले जाती है जब लड़की कहती है- “मुझे पहले अपनी माँ का ब्याह करना है”, ऐसे ही “बहन जी” कहानी में रिश्तों की शिकायतों का पिटारा है, यह संस्मरणात्मक शैली में लिखी कहानी है जिसमें चिट्ठी, शिकायतें, टोकाटाकी, जलन, इतनी ऊँचाई तक जाती हैं तब लेखिका कह उठती है- “…आपसे पूछूंगी कि मेरी होशियारी, मेरी समझदारी, मेरे गुणों को ही आप मेरा दोष क्यों बना देती हैं”, लेखिका की मंशा है कि- बड़ों की टोकाटाकी से हम अपनी पसंद तक छोडने को विवश हो जाते हैं। लेखिका बड़ी बहन से बहुत से सवाल करना चाहती है लेकिन ये ‘पूछना’ हमेशा ही रह जाता है, बस लेखिका के हिस्से एक अफ़सोस ही आता है। बड़ी बहन का चरित्र कुछ यूँ उभरता है कि लेखिका का बड़ी होकर अमीर बनने का कथन भी टोंटिंग के रूप में सामने आता है जब वह कहती है- “…अभी तक अमीर नहीं बनी, छोटी होती कहा करती थी कि अमीर बनना है।“ ‘माँ री’ कहानी का दर्द इस कहानी से मेल खाता है। लेखिका के मन की विदेश जाकर न बस पाने की एक अलिखित टीस भी इस कहानी में उभरी है। ‘मज़बूरी’ कहानी भी फ़िल्मी सैट, सूटिंग के समय को दर्शाती है, यहाँ का शोषण कहानी में स्वाभाविक रूप से उभरता है, जिसमें लेखिका को अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़ते। कहानी में करुणा निल्हानी और नीति का चरित्र खूब उभरा है।
कुलबीर की कहानियां परिवारिक कहानियाँ हैं, यहाँ बहन है, भाई, है, सास है, ससुर है, ‘सास-बहू’ कहानी के माध्यम से कुलबीर ने कहना चाहा है- “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन…” तब सजना-सवरना भी अच्छा लगता है। हरबंस और सरदार गुरनाम सिंह का प्रेम अनूठा है, सास-ससुर के प्रेम से जलन होने पर बहू कह उठती है- “क्या फायदा इतने रोमाँस का, जब एक रोमाँटिक लड़का पैदा न कर सकें।” रोमाँस से महरूम होने के चलते बहू की मानसिक स्थिति को भांप ससुर उसका फायदा उठाता है, चोट लगना और गर्म दूध को यहाँ सिम्बोलिक तरीके से कुलबीर इस्तेमाल करती हैं, परिणति ये होती है कि सास-बहू की खुशखबरी एक ही वक़्त की होती है, सांझी भी है। ‘आक्रोश’ कहानी में एपिसोड सूट होने की पूरी प्रक्रिया को लेखिका चित्रित करती हैं, कहानी विवाहेत्तर प्रेम-प्रसंगों का खुलासा करते हुए आगे बढती है, लेखिका इस कहानी में पुरुष की फरेबी मानसिकता को एक वाक्य से प्रकट करती हैं- “तू मेरे पास नहीं होती तो भी मेरे पास होती हो, …तूने तो मुझे जीना सिखा दिया।” घर तोडू स्त्रियों पर वे लिखती हैं- “…उन्हें पति से वंचित करके वहाँ एक अधूरापन भर दो… एक शून्य भर दो… एक ऐसा खालीपन जो कभी भरा न जा सके….।” यहाँ लेखिका सभी पीड़ित स्त्रियों के दर्द की बयानी करती हैं। ‘बक बक’ ड्राईवर पर लिखी एक हलकी-फुलकी कहानी है। ‘दो औरतें’ आपसी रिश्तें की औरतों की कहानी है, जिसमें वे पति की बेवफाई पर चर्चा करती हैं, इस कहानी में कुछ वाक्य आधार-वाक्य बने हैं, यथा- शादी निभे न निभे, पर वह बच्चों को छाती से लगाकर रखती हैं।, मैं एक गृहस्थ जीवन जीना चाहती थी, एक आम साधारण जीवन जैसा स्त्रियों का होता है।, बहुत आवश्यक होता है, प्रोफेशनल होना।, कभी जगह बदलने से किस्मतें भी बदली हैं? आदि।
कुलबीर की कहानियों में गुस्सा, नाराजगी और रिश्तों का तनाव अधिक दिखाई देता है, एक बात और उनकी अधिकांश काहनियों में पिता की नौकरी, उनका तबादला साथ-साथ चलते हैं, लेखिका के पिता खुद सरकारी अधिकारी रहे, शायद यह सब उनके निजी अनुभवों के कारण दृष्टिगत हुआ है। उनकी कहानियों में इंग्लॅण्ड, कैनाडा, अमेरिका बहुतायत में है लेकिन ऐसा लगता है इन देशो को भारत में बैठकर देखा गया है, उन जगहों की खुशबू यहाँ सिरे से गायब है, काहनियों में जिन जगहों का जिक्र हो अगर वहाँ के कल्चर, वहाँ की भाषा, उस जगह के चरित्र से लेखक रूबरू नहीं है यानि वर्णन शोधपरक नहीं है तो कहानी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती जो उसे छोड़ना चाहिए, गीताश्री की कहानियों में हर वो जगह उपस्थित होती है, जिसका जिक्र उनकी कहानियों में होता है। लेखिका को इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है। एक और महत्वपूर्ण बात है- लेखिका अधिकांश कहानियों में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बहुतायत में करती हैं, जिसके लिए उनकी भाषा में सहज शब्द हैं, यहाँ अनुवादक से भी सवाल होना चाहिए कि हिंदी में अनुदित कहानियों में अंग्रेजी शब्दों के हिंदी शब्द न लिखने के पीछे उनकी मंशा क्या रही? ऐसे शब्दों की भरमार इन कहानियों में है, यथा- एयरपोर्टो, मार्किटों, मैश, एडमिट, इंटेलिजेंट, सैटिल, टीचर, परसेंटेज, ओपन, डे, कांफिडेंस, एप्रिसियेट, एन्जॉय, गेम, प्रोफेशन, आर्टिस्ट, पैशन, जॉब सेटिस्फेक्शन, मेकअप रूम, मेट, वर्किंग होस्टल, स्टार, हिट, शोर्ड, ऐड. अंडर रेटिड, मेन स्ट्रीम, वन-फोर्थ, एक्नोलिज, शो, बिजी, डेट्स, एक्सेंट, नोटिस, पैरेलल, टाइम, मॉडर्न, प्राइवेट, नम्बर वन, प्रोग्राम, सीन, रीशूट, ग्रेस पीरियड. टेक्नीशियनों, सॉफ्ट- कार्नर, चैलेंज, स्ट्रेस, इंट्रोडक्शन, इंटेलिजेंट, डाउन टू अर्थ, लैंग्वेज, कमाँड, कालेजियेट, प्लेटों, स्लॉट, लंडन, इन्कुआरी। ऐसा नहीं है कि इन सब शब्दों के इस्तेमाल से नहीं बचा जा सकता था, सवाल है कि अनुवादक को क्या इतनी छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वह अनुदित कृति की भाषा के शब्द ले, भले ही मूल लेखक ने अंग्रेजी शब्दों को बहुतायत प्रयोग किया हो ।
कथ्य और पात्रों का चरित्र, चित्र, वातावरण निर्माण या संवाद के स्तर पर बात की जाये तो यहाँ कुलबीर सभी तत्वों का समुचित व सार्थक प्रयोग करती हैं। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि इनमें कहीं ठहराव या बोझिलपन नहीं है। पाठक की उत्सुकता को बनाये रखने में लेखिका पूरी तरह कामयाब हुई हैं। वे मानवीय आवेग को तन्मयता के साथ प्रयुक्त करती हैं। उसके पात्र हमें अपने आसपास महसूस हो सकते हैं। कुलबीर की कहानियों के पात्र संजीदा हैं जिनका चित्रण पाठक को स्तब्ध करता है।
आधुनिक बोलचाल की भाषा के साथ लिखी सहज सरल अभिव्यक्ति वाली इन कहानियों का यह संग्रह पठनीय बन पड़ा है। पंजाबी से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद करके एक पुस्तक हिंदी पाठको को सुपुर्द करने के चलते कथाकार सुभाष नीरव बधाई के पात्र हैं ।
सभी कहानियों के कथानकों की विविधता, लेखक के विस्तृत अनुभव, प्रकांड ज्ञान व अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का परिचय देती है। लेखिका अपने खुले नेत्र, संवेदनशील हृदय और सक्रिय कलम से अपनी रचनाओं में स्मरणीयता के साथ-साथ पठनीयता जैसे गुणों को जन्म देकर पंजाबी जगत के साथ-साथ हिंदी-जगत के सुधी पाठकवृंद को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हैं। भाषा और शिल्प की बात की जाए तो हम पाते हैं कि लेखिका ने कहानी के लिए किसी विशेष शिल्प को नहीं अपनाया। उनकी कथा कहने की शैली इतनी सरल और सहज है कि उनके पात्र बड़े ही सहज-सरल शब्दों में संवाद करते हैं। लेखिका जो भी जैसा भी घटते हुए देखती है, उन घटनाओं से बड़ी आसानी से कथा बुनती चलती है। वाक्य-विन्यास एकदम सहज है और संवाद कथा की माँग के हिसाब से ही प्रयुक्त किये गए हैं, कुल मिलाकर कहानियां पठनीय है।
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पुस्तक — तुम क्यों उदास हो? (कहानी संग्रह)
लेखक – कुलबीर बड़ेसरों (अनुवाद : सुभाष नीरव)
प्रकाशक- नीरज बुक सेंटर, पटपड़गंज, दिल्ली।
प्रकाशन वर्ष: २०२३
मूल्य: २०० /-

-संदीप तोमर
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