समीक्षाः डॉ. सुनील जाधव

‘’नगाड़े की तरह बजते है शब्द’’ का स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में विवेचन

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‘’नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द’’ संथाल आदिवासी महिला लेखिका निर्मला पुतुल जी का यह पहला कविता संग्रह हैं | साहित्य जगत में प्रवेश करते ही इसने तहलका मचा दिया था | पहली बार जंगल के बाहर शहर में किसी आदिवासी स्त्री ने अपने अस्तित्व का नगाड़ा बजाया था | जिसकी अनुगूँज सम्पूर्ण साहित्य में आज भी अपनी सम्पूर्णता में सुनाई देती है | आदिवासी स्त्री एवं आदिवासियों की वेदना, पीड़ा, दर्द, टिस, उपेक्षा, अपमान, घुटन-टूटन, विवशता, विपन्नता, बदहाली के साथ,….. अपने अस्तित्व की खोज करने वाली स्त्री सदियों से पुरुष व्यवस्था की चूभन को सहते-सहते…. उसके भीतर के आक्रांत स्त्री ने विद्रोह का बिगुल बजाते हुए, प्रति सत्ता को चुनोती दे डाली | निर्मला जी की कवितायेँ मात्र स्त्री के दर्द की अभिव्यक्ति एवं पुरुष व्यवस्था का विरोध ही नहीं करती अपितु स्वयं के अस्तित्व की तलाश करती आदिवासी स्त्री, आदिवासी जनजाति के प्रत्येक क्षेत्र में किये जानेवाले शोषण को भी सशक्त रूप में उघाड़ती है | शहर के ठेकेदार, समतावादी, राजनेताओं द्वारा विपन्न निरीह आदिवासियों के भोलेपन का फायदा उठाकर उनका ‘’यूज़ एंड थ्रो’’ करते हैं | जंगलोसे धडल्ले से गायब होते पेड़ों को बचाने का सन्देश भी देती है | आदिवासियों के जीवन पद्धतियों, नृत्य,गीत-संगीत, श्रद्धा-अंधश्रद्धा के साथ आदिवासी स्त्री-पुरुष, लड़का-लड़की, माता-पिता, भाई-बहन, कबीले का सरदार आदि भी उनकी कविताओं के विषय रहे हैं |

आदिवासी स्त्री को केवल भोग्य वस्तु की दृष्टी से देखनेवाले पुरुषीय समाज पर आक्रोश प्रकट करते हुए आदिवासी लड़कियों को विभिन्न प्रकार से सावधान करती है | इतना ही नहीं मुखिया एवं जंगल के आदिवासी पुरूषों-भाईयों से आदिवासी लड़कियों की लाज बचाने का आग्रह भी करती है | मैंने ‘’नगाड़े की तरह बजते है शब्द ‘’ पुस्तक का स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में विवेचन निम्न सूत्रों के आधार पर किया है |

 

१.स्व का अस्तित्व तलाशती आदिवासी स्त्री

२.पुरुष व्यवस्था के प्रति विद्रोह

३.आदिवासी स्त्री के दर्द एवं वेदना की अभिव्यक्ति

४.आदिवासी लड़की और विवाह :-

५.आदिवासी स्त्री सौन्दर्य, गीत संगीत और नृत्य

६.आदिवासियों को फटकार

७.सभ्य शहरी समाज पर व्यंग्य

८. मुक्ति की चाहत

 

१.स्व का अस्तित्व तलाशती आदिवासी स्त्री :-

निर्मला पुतुल की स्त्री अपने होने की, स्वंय के अस्तित्व की तलाश करती नजर आती है | वह पुरुष प्रधान समाज में घर, परिवार, प्रेम, रिश्ते-नाते सम्बन्धों में अपने स्थान को ढूंडती है | वह सदियों से किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रही | या फिर उसे रहना पड़ा | या उसे वैसा रहने के लिए बाध्य किया गया | उसे पिता, भाई, पति, पुत्र के सहारे जीवन जीना पड़ा | वह एक ही साथ स्थापित और निर्वासित होती रही है | बचपन से लेकर विवाह तक माता-पिता के घर और विवाह के बाद पति का अनजाना घर ..| वह प्रत्येक एकांत समय महसूस करती रही कि ‘मैं कोन हूँ ? मेरा स्थान क्या है ? मेरा अस्तिव क्या है ? जिन्होंने मुझे जन्म से लेकर अट्ठारह वर्षों तक लाड-प्रेम, ममत्व दिया | जिस कारण लड़की अपने परिवार से बिछड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकती | आचानक विवाह होने के उपरांत अनजाने घर में प्रत्येक स्थितियों में स्थापित करना पड़ता है | इसी दर्द ,पीड़ा, वेदना को पूरी संवेदना के साथ अपनी कविता में अभिव्यक्त करते हुए वह कहती है ,

‘’ क्या तुम जानते हो

अपनी कल्पना में

किस तरह एक ही समय में

स्वंय को स्थापित और निर्वासित

करती है एक स्त्री ?’’ १

निर्मला जी की कविताओं में अभिव्यक्त स्त्री अस्तित्व हीनता से उत्पन्न पल-पल के प्रश्नों का शमन चाहती है | वह सदियों से अपना घर, अपनी जमीन तलाशती रही | ‘’अपने घर की तलाश में ‘’ कविता में वह कहती है ,

‘’ धरती के इस छोर से उस छोर तक

मुट्ठी भर सवाल लिए मैं

दौड़ती-हाँफती-भागती

तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर

अपनी जमीन, अपना घर

अपने होने का अर्थ ..’’ २

स्त्री चाहे माता-पिता के घर रहे या पति के घर में रहे , भले ही वह वहाँ समर्पित है, पर उसके भीतर के सुने एकांत में अक्सर एक प्रश्न उसका पीछा करते रहता है | मेरा घर कौनसा हैं ?,

‘’अंदर समेटे पूरा का पूरा घर

मैं बिखरी हूँ पूरे घर में

पर यह घर मेरा नहीं है |’’ ३

निर्मला जी ने स्त्री के उस रहस्य को उजागर किया है, जो शायद रहस्य न होते हुए भी रहस्य के समान लगता है |

 

२.पुरुष व्यवस्था के प्रति विद्रोह:-

स्त्री को सदियों से चार दीवारों, चूल्हा-चक्की, घर-गिरस्ती तथा बच्चों को सम्हालना… तक सीमित रखा गया था | उसे प्रत्येक अवसर पर सुवर्ण घर रूपी पिंजरे में कैद तोते के भांति जीवित रखा गया था | जब-जब उसने चौकट लांगने की कोशिश की, या पुरुष के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठायी, तब-तब उसे प्रेम से या क्रोध से पुन: अँधेरी खोह में धकेल दिया गया | उसमें हीरे की भांति चमक तो थी पर उसके लिए बहार की दुनिया प्रतिबंधित थी | प्रत्येक अवसरों पर उसकी चाहत को दबा दिया गया था | वास्तव में उसे चाहने लायक रखा ही नही गया था | कभी उसे देवि बनाकर उसके पैरों को जकड़ा गया तो कभी उसके शरीर को आघात पहुँचा कर अनंत काल तक सहन करने के लिए छोड़ दिया गया था | निर्मला पुतुल की कविताओं में अभिव्यक्त आदिवासी स्त्री भी ऐसे ही दर्द को सहते हुए नजर आती है |

आर्थिक विपन्नावस्था, पुरुष द्वारा किये जानेवाले अत्याचार से वह इतनी पीड़ित हुई कि उस दर्द को भीतर ही भीतर सहते-सहते वह दर्द का लावा बन गया | प्रकृति का नियम है कि जब-जब किसी बात का अतिरेक होता है ,तब-तब प्रकृति अपना रोद्र रूप दिखाती है | भूकंप से सारी धरती काँप उठती है | मार्ग में आनेवाली वनस्थली, जीव-जंतु, मानव आदि सबका वह विनाश करते चलती हैं | वैसे ही निर्मला पुतुल की स्त्री पुरुष व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद कर देती है | कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘’ क्या तुम जानते हो ‘’ कविता में वह कहती है ,

‘’ क्या तुम जानते हो

पुरुष से भिन्न

एक स्त्री का एकांत |

घर प्रेम और जाति से अलग

एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन

के बारे में बता सकते हो तुम ?’’ ४

पुतुल जी की नजरों में स्त्री पुरुषों के लिए मात्र भोग्य वस्तु रही है | पुरुष ने स्त्री को इसके परे जाकर कभी समझा ही नहीं | ना ही स्त्री होने का दर्द कभी महसूस किया है | इसीलिए वह पुरुषों से आक्रांत होकर प्रश्न करती है कि तुम स्त्री के गर्भ में बीज तो छोड़ देते हो पर कभी गर्भवती स्त्री का दर्द, वेदना,पीड़ा को तुमने कभी समझा है | महसूस किया है | स्त्री पुरुष के नजरों में केवल शरीर ही रही | उससे परे उसने उसे नहीं समझा | यही कारण है कि निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आक्रोश प्रकट करते हुए प्रश्न करती है ,

‘’ तन के भूगोल से परे

एक स्त्री के

मन की गाँठे खोल कर

कभी पढ़ा है तुमने

उसके भीतर का खौलता ईतिहास ?

अगर नहीं !

तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे

एक स्त्री के बारें में …|’’ ५

निर्मला पुतुल आँखें होकर आँखें बंद नहीं करना चाहती | कान होकर भैरी नहीं बनना चाहती | और जबान होकर गूंगी | उन्होंने जो समाज देखा, भोगा उसे किसी के भय के कारण झूठ की थाली में परोसा नहीं | वह तो कबीर,निराला, नागार्जुन की भांति डंके की चोट पर अपनी बात कहने की हिमायती है | उन्हमें जंगल की शेरनी की तरह गर्जना है, वे ‘’ खून को पानी कैसे लिख दूँ ‘’ कविता में कहती है,

‘’ पर तुम्ही बताओं, यह कैसे सम्भव है ?

आँख रहते अन्धी कैसे हो जाऊं मैं ?

कैसे कह दूँ रात को दिन ?

खून को पानी कैसे लिख दूँ |’’ ६

 

३.आदिवासी स्त्री के दर्द एवं वेदना की अभिव्यक्ति :-

एक ओर विश्व चाँद-मंगल ग्रह पर बस्ती बनाने की योजना बना रहा है | वहीं आदिवासी स्त्री की ओर नजर डाले तो पता चलता है कि वह सिर्फ जंगल तक ही सीमित है | उसके लिए बाहर का विश्व अजनबी है | उसे पता ही नहीं कि उसके जंगल की दुनिया के बाहर भी कोई दुनिया है , ‘’आदिवासी स्त्रियाँ ‘’ कविता में वह कहती है,

‘’ उनकी आँखों की पहुँच तक ही

सीमित होती उनकी दुनिया

उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियांये

शामिल है इस दुनिया में ‘’ ७

आदिवासी स्त्रियाँ परिश्रमी होती हैं | वे पुरुषों के कंधो से कन्धा मिलाकर ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा परिश्रम करती है | ऐसा कहना असंगत नही होगा | वह खेतों में काम करती हैं | पत्तल, चटई, पंखा, झाड़ू बनाकर बाजार में बेच कर अपना तथा परिवार की उपजीविका चलाने में विशेष योगदान देती है | जीन हाथों से वह वस्तु बनाती है, उन वस्तुओं का कोई ओर उपयोग करता है | उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है, अपने ही पेट भरने की | इसी विडम्बना को व्यक्त करते हुए ‘’ बाहामुनी ‘’ कविता में कहती है,

‘’ तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते है पेट हजारों

पर हजारों पत्तल भर नही पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि

जमीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ

और पंखा बनाते टपकता है

तुम्हारे करियाये देह से टप..टप ..पसीना |’’ ८

आदिवासी स्त्री को पता ही नही होता कि उसकी बनाई चीजे, उसकी तस्वीरें देश की राजधानी दिल्ली कैसे पहुँच जाती हैं | जब उसी स्त्री पर शहरी पुरुष की ललचाई नजर पड़ती है | स्त्री के विवशता का फायदा उठाकर उसे मात्र भोग्य समझा जाता है, तब निर्मला जी ‘’ ये वे लोग है ‘’ कविता में कहती है ,

‘’ ये वे लोग है जो खींचते है

हमारी नंगी-अधनंगी तस्वीरें

और संस्कृति के नाम पर

करते हमारी मिटटी का सौदा

उतार रहे है बहस में हमारे ही कपड़े …

जो हमारे बिस्तर पर करते है

हमारी बस्ती का बलात्कार |’’ ९

कवियत्रि अपनी कविताओं में दुखी है क्योंकि लोगों को हमारा सबकुछ चलता है | फूल-फल, लकड़ियाँ, सब्जियाँ | पर वर्जित है हमारा उनके घर में प्रवेश | वे हमारे अनगढ़ शरीर पर व्यंग्य करते है | हमारे हाथों छुआ पानी नही चलता है | चलता है तो सिर्फ उपयोगी वस्तु | ‘’ मेरा सबकुछ अप्रिय है उनकी नजर में ‘’ वे कहती है,

‘’ उन्हें प्रिय है

मेरी गदराई देह

मेरा मॉस प्रिय है उन्हें |’’ १०

उनकी कविताओं में आदिवासी लड़की इसीलिए दुखी है क्योंकि उसे मात्र शरीर समझा जाता है | वह चाहती है कि उसके देह को छोड़ कर उसके परिश्रम, भोलेपन, ईमानदारी की प्रशंसा करें | ‘’ सुगिया’’ कविता में वह कहती है,

‘’ काश, कोई कहता कि

तुम बहुत मेहनती हो सुगिया

बहुत भोली और ईमानदार हो तुम

काश कहता कोई ऐसा |’’ ११

 

४.आदिवासी लड़की और विवाह :-

 

स्त्री के विभिन्न रूप होते है | माँ-बेटी, साँस-बहु, देवरानी-जिठानी, बहन आदि | उसे आदि रिश्ते निभाने पड़ते है | विवाह से पूर्व उसकी सारी यादे घर-आँगन, माता-पिता,भाई-बहनों में, गाय-भैंसों, भेड़-बकरियों, खेतों में, पानी के घड़े में आदि में बसी होती है | जब उसका विवाह कर दिया जाता है | तब अपना सबकुछ छोड़ कर दूसरों के आँगन को अपना बनाना पड़ता है | ऐसे समय ससुराल जाने से पूर्व अपनी माँ के सम्मुख रोते हुए अपना दर्द सुनाती है | ‘’ माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले ‘’ कविता दृष्टव्य है,

‘’पर क्या सचमुच

जा सकूँगी पूरी की पूरी यहाँ से ?

आँगन में पड़े टूटे झाड़ू-सा

पड़ी रह जाऊँगी कुछ न कुछ यहाँ …

पानी के खली घड़े में

भरी रह जायेंगी मेरी यादे .. |’’ १२

आदिवासी लड़की अपना विवाह जंगल के बाहर कोसो दूर शहर में न कराने की बात जब अपने पिता से करती है, तब उसकी वेदना से ह्रदय द्रवित हो जाता है |

‘’ बाबा !

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर

घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे ..|’’ १३

वह इसीलिए शहर में ब्याहना नहीं चाहती कि वहाँ इंसान से ज्यादा भगवान बसते है | वह ऐसे लड़के से विवाह करना चाहती है, जिसमें इंसानियत हो | वह अपने ही जंगल के किसी लडके से विवाह करना चाहती है | जो ढोल-मांदल, बाँसुरी बजाने में पारंगत हो | जो बसंत में उसके जूडे के लिए फूल लाये….

‘’ जिससे खाया नहीं जाये

मेरे भूखे रहने पर,

उसी से ब्याहना मुझे |’’ १४

 

५.आदिवासी स्त्री सौन्दर्य, गीत संगीत और नृत्य :-

निर्मला पुतुल जी अपनी कविताओं में स्त्रियों के दर्द, वेदना, पीड़ा के साथ उनकी समस्या, चाहत , अजनबीपन का चित्रण करते हुए, उसके पारिश्रमिक सौन्दर्य को उसके गीतों, नृत्यों की भी अभिव्यक्ति करती हैं | ‘’ सुगिया’’ कविता में पुरुष की नजर से उसके सौन्दर्य को व्यक्त करते हुए कहती है,

‘’ तुम हँसती हो तो

बहुत अच्छी लगती हो सुगिया |

बादलों में बिजली से चमकते

उसके दांतों को देख ..

तुम बहुत अच्छा गाती हो

बिल्कुल कोयल की तरह

और नाच का तो क्या कहने

धरती नाच उठती है

जब नाचती हो तुम |’’ १५

 

 

६.आदिवासियों को फटकार एवं प्रोत्साहन :-

निर्मला पुतुल जब अपनी आँखों के सामने अपने भोले-भाले, ईमानदार एवं परिश्रमी आदिवासी भाई-बहनों का लोगों द्वारा स्तमाल होते देखती है | तब उनसे रहा नहीं जाता | वह अपने लोगों की आँखे खोलने के लिए फटकार लगाती है | झारखण्ड के लिए संघर्ष करने वाले अपने आदिवासी भाई को ‘’ भाई मंगल बसेरा’’ कविता में कहती है,

‘’अभी यद्ध विराम हुआ है भाई

खत्म नहीं हुई है तुम्हारे हिस्से की लड़ाई

देखना वे फिर सटने की कोशिश करेंगे जो कल

साथ छोड़ गये थे तुम्हारा

मंजिल नहीं है यह

जो दे रहा है मंजिल होने का भरम

एक पड़ाव है तुम्हारी लम्बी यात्रा का |

थक गये हो तो थोड़ा सुसता लो

पर देखना कहीं निश्चिन्त होकर सो मत जाना मेरे भाई |’’ १६

बस्ती का प्रधान जब विदेशी दारू के बदले पूरा गाँव गिरवी रख देता है | तब पुतुल जी बेहद दुखी होती है ,

‘’ कैसे बिकाऊ है तुम्हारे बस्ती का प्रधान

जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारु में रख देता है

पूरे गाँव को गिरवी

और ले जाते है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह

लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को

हज़ार पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर

पिछले साल

धनकटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी

किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव |’’ १७

स्त्री जो घर-परिवार, समाज-पुरुष सभी को सहती रहती है | और किसी एकांत कोने में घुट-घुट कर रोती है | तब वह उनके इस रूप को देखकर व्यंग्यात्मक शैली में फटकारते हुए कहती है,

‘’ हक की बात न करो मेरी बहन

मत मांगों पिता की सम्पत्ति पर अधिकार

जिक्र मत करों पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का

सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो बहन

मिहिजाम के गोआकोला की

सुबोधनी मारण्डी की तरह तुम भी

अपने मगजहीन पति द्वारा

भरी पंचायत में डायन करार कर दण्डित की जाओगी

माँझी हाडाम ‘पराणिक’ ‘गुडित’ ठेकेदार

महाजन और जान गुरुओं के षड्यंत्र का शिकार बन |’’ १८

 

७.सभ्य शहरी समाज पर व्यंग्य :-

निर्मला पुतुल जी ने अपनी कविताओं में शहर के उन लोगों पर व्यंग्य किया जो अपने आप को सभ्य समझते है | पर भीतर से आदिवासियों से घृणा करते है | उन्हें नीचा दिखाते हैं | उनके अनघड शरीर का मजाक उड़ाते हैं | आदिवासियों को वे यूज़ एंड थ्रो करते हैं | अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन के अवसर पर शहरी महिलाओं को पुरुष के विरुद्ध आवाज उठाते हुए देखती हैं | उन्हें वह सिर्फ दिखावा लगता हैं | उनपर ‘’ एक बार फिर’’ कविता में व्यंग्य करती हैं | ताकि सच में ही वे कार्य करें,

‘’ एक बार फिर

अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते

हम गुजरेंगे शहर की गलियों से

पुरुष-सत्ता के खिलाफ

हवा में मिट्ठी-बँधे हाथ लहराते

और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से

गर्म हो जायेगी शहर की हवा |’’ १९

 

८. मुक्ति की चाहत :-

अपनी जमीन तलाशती आदिवासी स्त्री की मुक्ति की चाहत को अपनी कविताओं में वाणी दी है | स्त्री को सदियों से दबाया गया | चार दीवारों में कैद किया गया | उसकी चाहत का किसीने ख्याल नहीं रखा | आज वही स्त्री घर-प्रेम,जाति से अलग अपना अस्तित्व बनाना चाहती है ,

‘’ मैं स्वंय को स्वंय की दृष्टी से देखते

मुक्त होना चाहती हूँ अपनी जाति से

क्या है मात्र एक स्वप्न के

स्त्री के लिए घर सन्तान और प्रेम ?

क्या ? ‘’ २०

वह अपना एक विशेष स्थान बनाना चाहती है | उसे किसी ओर के कारण नहीं बल्कि उसकी पहचान स्वंय से करना चाहती है | वह ऐसी जमीन चाहती है, जिसे वह अपना कह सके,

‘’ अपनी कल्पना में हर रोज

एक ही समय में स्वंय को

हर बेचैन स्त्री तलाशती है

घर प्रेम और जाति से अलग

अपनी एक ऐसी जमीन

जो सिर्फ उसकी अपनी हो |’’ २१

वह मुक्त आकाश में खुली साँस लेते हुए बिनधास्त, बन्धनों से परे मुक्त होकर स्वच्छंद उड़ना चाहती है | वह ऐसा आधार चाहती है, जो उसे उसकी इच्छाओं को पूरा करने दें | जिसमे अपनापन हो,

‘’ एक उन्मुक्त आकाश

जो शब्द से परे हो

एक हाथ

जो हाथ नहीं

उसके होने का आभास हो ! ‘’ २२

 

वस्तुतः निर्मला पुतुल की कविताओं में स्त्री घर, परिवार, जाति, प्रेम, से परे अपना अस्तित्व तलाशती हुई दिखाई देती है | सदियों से पुरुष व्यवस्था द्वारा सतायी गई | प्रताड़ित की गई | स्त्री को पुरुष ने केवल उपभोग्य वस्तु समझा | स्त्री का अस्तिव घर, शरीर से परे भी है | पुरुष ने कभी उसे स्त्री के रूप में समझा ही नहीं | इसीलिए वह आक्रांत होकर पुरुष व्यवस्था से प्रश्न करते हुए अपने मन की भडास निकालते हुए कहती है,’’अगर नही ! /तो फिर जानते क्या हो तुम /रसोई और बिस्तर के गणित से परे / एक स्त्री के बारे में ..?’’

निर्मला पुतुल जी ने अपने कविता संग्रह में न केवल पुरुष व्यवस्था के प्रति विद्रोहात्मक कवितायेँ लिखी बल्कि आदिवासी स्त्री की वेदना, दर्द की अभिव्यक्ति करने वाली कवितायें कठोर हृदय को पिघला भी देती है | उन्होंने देखे और भोगे होए सत्य का काव्य में हुबहू चित्र खिंचा हैं | उन्होंने जो भी कहना चाहा, कबीर और निराला की भांति बेबाक एवं बिनधास्त कहा | वह डंके की चोट पर कहती है –‘’पर तुम बताओं, यह कैसे संभव है/ आँख रहते अन्धी कैसे हो जाऊ मैं ?/ कैसे कह दूँ रात को दिन ?/ खून को पानी कैसे लिख दूँ ?/’’

संग्रह की अन्य कविताओं में झारखण्ड के संथाल आदिवासी स्त्री के सौन्दर्य, गीत, संगीत और नृत्य का चित्रण हुआ है | साथ ही आदिवासियों के भोलेपन, ईमानदारी , दरिद्रता का बाहरी लोग किस तरह फायदा उठाते है | आदिवासियों को ‘’यूज एंड थ्रो’’ किया जाता है | इस पर कवियत्री उन्हें अपने अस्तित्व का अहसास दिलाते हुए फटकार भी लगाती है |

सदियों से पुरुष व्यवस्था को सहने वाली स्त्री घर, प्रेम, जाति, समाज से परे आक्रोश प्रकट करते हुए अपना अस्तित्व बनाना चाहती है | वह मुक्त गगन में स्वच्छंद उड़ना चाहती है |

डॉ.सुनील गुलाबसिंग जाधव

नांदेड,महाराष्ट्र,भारत

चलभाष : +९१ ९४०५३८४६७२

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मेल-Suniljadhavheronu10@gmail.com

ब्लॉग-Navsahitykar.blogspot.com

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