यह कहानी संग्रह झारखंड का परिवेश बुनता है और ये कहानियांँ यह स्थापित करती दिखती हैं कि बात-व्यवहार, रहन-सहन, बोल-विचार जैसे हर स्तर पर आदिवासियों का जीवन अक्सर ब्लैक एंड वाइट होता है, आदिवासियों के व्यक्तित्व में ग्रे शेड की उपस्थिति कभी-कभार दिख जाती है, लेकिन वह कभी भी आदिवासियों के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रंग नहीं रहा.
समीक्षा :
कहानी संग्रह : सरई के फूल
कहानीकार : अनिता रश्मि
प्रकाशक : हिंद युग्म, दिल्ली
मूल्य : 150 रुपये
आदिवासी जीवन के रंगों में लिपटा ‘सरई के फूल’
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अनुराग अन्वेषी
आदिवासी स्वभावतः सरल और भोले होते हैं. शहरों के ऐब से दूर प्रकृति के प्रेम में डूबे होते हैं. कहना चाहिए कि उनके जीवन का मूल तत्त्व ही है प्रेम. यह प्रेम चाहे जानवरों से हो या प्रकृति से, इनसान से हो या फिर देश से. इनके खून में प्रेम उबाल मारता है. ये बातें अनिता रश्मि की 12 कहानियों से गुजरते हुए महसूस की जा सकती हैं, जो हाल में प्रकाशित हुए उनके कहानी संग्रह ‘सरई के फूल’ में संकलित हैं.
झारखंड के आदिवासियों के लिए उनकी लोककथाएंँ आत्मिक शक्ति हैं. वे उसे भरसक जीते हैं. इन लोककथाओं से उन्हें प्रेरणा भी मिलती है और सीख भी. इसलिए उनके बीच लोककथाओं की नदी कभी सूखी नहीं, बल्कि कलकल कर बहती रही.
अनिता रश्मि की कई कहानियों में संदर्भ के मुताबिक ये लोककथाएंँ घुली हुई मिलेंगी. आदिवासियों के बीच से उठाई गई लोककथाएंँ कई बार अनिता जी की कहानियों को गति देती हैं और नया अर्थ भी. बल्कि कई बार तो इन लोककथाओं का इस्तेमाल कहानियों में कुछ इस तरह हुआ है कि वहीं से कहानी एक नई जमीन रचने लगती है. कहानी को गति देने के लिए लोककथा पगडंडी-सी बनकर आती है.
अपनी कहानियों के जरिए अनिता रश्मि आदिवासी समाज में शब्द रचना की प्रकृति पकड़ती नजर आती हैं. मसलन अपनी पहली कहानी ‘रघुआ टाना भगत’ में उन्होंने लिखा है – ‘भूत टानते-टानते जतरा उराँव टाना भगत कहलाने लगा’. एक तरह से यह प्रसंग उरांव के टाना भगतों के इतिहास में जाने जैसा है. काम से किसी को पहचानने की आदिवासियों की यह जो सादगी है, इसी सादगी और इसी दृष्टि के साथ रहे हैं डॉ. भीम राव आंबेडकर.
महात्मा गांँधी चाहते थे कि समाज में जाति व्यवस्था हो, यानी जो जिस जाति का है सम्मान के साथ अपना काम करे, जबकि आंबेडकर का मानना था कि किसी की जाति की पहचान उसके काम से हो, इसे उन्होंने वर्ण व्यवस्था कहा. जतरा उरांँव जैसे लोगों को टाना भगत की उपाधि उसके काम की वजह से ही मिली. कहा जा सकता है कि आंबेडकर की विचारधारा से अनजान होते हुए भी तत्कालीन आदिवासी समाज की प्रकृति आंबेडकर की विचारधारा के ज्यादा करीब दिखती है, जहाँ किसी को उसके काम के आधार पर किसी खास जमात में डाला जाता है.
एक और रोचक बात यह कि आंबेडकर और गांँधी विचार के स्तर पर बहुत जगहों पर एक-दूसरे से असहमत दिखते हैं. पर आदिवासी समाज में उस असहमति का कहीं कोई स्थान नहीं. वह तो अपने समाज और देश प्रेम में डूबा इन्सानियत के हितकारी आदर्शों का हिमायती है.
अनिता रश्मि की इसी कहानी में आपको गांँधी जी आदिवासियों के बीच प्रेरक के रूप में दिख जाएंँगे और चिंता में डालते अब के नक्सली भी. ऐसे ही मौकों पर आदिवासी समाज की इन कहानियों से गुजरते हुए कई बार बिरसा मुंडा के अनुयायियों की बिरसाइत धर्म की याद आई. कहीं पढ़ी हुई एक धुंधली सी याद है कि बिरसा के अनुयायियों ने उनके धर्म सुधार और समाज सुधार की बातों के आधार पर बिरसाइत धर्म की शुरुआत की थी. इस धर्म में दूसरे धर्मों की तमाम वे बातें शामिल की गई थीं जो मनुष्य और मनुष्यता के हित में थीं. वैसे ‘रघुआ टाना भगत’ कहानी आदिवासियों के शोषण का पूरा वृतांत रचती है और पुलिसिया दमन की कहानी भी कहती है.
‘तिकिन उपाल का छैला’ बदलते हुए आदिवासी समाज की कहानी है. जहां युवा पीढ़ी खुद को लोककथाओं से काटती जा रही है. लोककथाओं को वे अपनी तार्किकता की कसौटी पर कसती है. अपने को पारंपरिक पेशे में झोंकने के बजाए वह नए रास्ते तलाशते दिख रही है. उसके जेहन में बेहतर जीवन के लिए ‘लोन’ जैसे रास्ते कुलबुलाने लगे हैं. इस कहानी के नायक छैला और उसके पिता के संवाद में पीढ़ियों की यह खाई दिखने लगती है. इस कहानी में छैला और उपाल का निश्छल प्रेम भी है, जो मुकाम पाने से पहले ही बदले हुए छली समाज के बीच बिखर जाता है. अपने गांव लौटकर भी छैला गुमनाम रहकर जीवन बिताता है. कहानी नाकाम प्रेम का दुखद वृतांत है.
‘कहानी यहीं खत्म नहीं होती’ आदिवासी समाज में स्त्रियों के परंपराभंजक तेवर की कहानी है. कहा जाता है कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं. बल्कि सच यह भी है कि संपत्ति को छोड़कर बाकी मामलों में आदिवासी समाज में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए हैं. लेकिन यही आदिवासी समाज अपनी परंपरा और मान्यताओं के नाम पर अंधविश्वासी भी है और इसलिए कई बार बेहद क्रूर भी. यहाँ अशिक्षा की काली छाया दिखती है. यह समाज परंपराओं के दुराग्रह की वजह से पंच परमेश्वरों के अतार्किक फैसले से सहमत होता है और ओझा गुनी के नाम पर पुरुषों को और डायन बिसाही के आरोप में स्त्रियों पर जुल्म करता दिखता है. इस कहानी में भी परंपराओं को बदलने की कोशिश करतीं स्त्रियांँ समाज के अंधविश्वासों के कारण प्रताड़ना झेलती हुई दिखती हैं.
झारखंड की खूबसूरती, स्त्री की कोमलता और निर्भीकता के साथ-साथ नक्सली समस्या की दास्तान है कहानी ‘सरई के फूल’. संग्रह का नाम भी इसी कहानी के नाम पर रखा गया है, तो जाहिर है यह इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है. अनकहे प्रेम के बहुत बारीक रेशे से बुनी गई यह कहानी झारखंड में नक्सल समस्या के आहट के दिनों की है. उस दौर की स्त्रियों के संघर्ष की भी है और साथ ही एक प्रकृति प्रेमी की भी कहानी है. इस कहानी में जब आप लेखिका के संग आदिवासियों के जीवन में झांँकने लगते हैं तो आपके कानों में मांदर की थाप पर कोई लोकधुन लगातार बजती रहती है. कहानी के बाद के हिस्से में झारखंड में पैदा हुई नक्सली समस्या से आपका पाला पड़ता है तो लोकधुन की उदासी आपको परेशान करती है और मांदर की जो थाप कभी प्रेम की सिहरन पैदा करती थी, वही अब युद्ध की दुदुंभी की तरह सुनाई पड़ने लगती है.
‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ और ‘बिट्टो की बड़ी मांँ’ जैसी कहानी बदले हुए झारखंड में देशप्रेम और अतीत से जुड़ाव की दस्तावेज हैं. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ जहाँ मांँ-बाप का मोह और बेटे की आकांक्षा के टकराव की बुनावट से निकली कहानी है, तो वहीं यह शहीद परिवारों की दयनीय हालत का भी बयान है. सरकारी उदासीनता और शहीदों की उपेक्षा की अपेक्षित चर्चा कहानी को सार्थक बनाती है. ‘बिट्टो की बड़ी मांँ’ कहानी आजादी के संघर्ष के गुमनाम योद्धाओं के प्रति आदर और श्रद्धा जताती है.
‘डोमेसाइल’ और ‘सुग्गा-सुग्गी का जोड़ा’ अलग झारखंड राज्य बनने के बाद बिखरे सपनों की कहानी है. झारखंड राज्य के गठन का संघर्ष करते हुए यहांँ के लोगों ने जिस रामराज्य का सपना देखा था, झारखंड बनने के बाद वह सपना उतनी ही तेजी से टूटा. विकास के नाम पर विस्थापन का दर्द, रोजगार के लिए भटकते लोग, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुशासन के स्तर पर यहाँ के लोगों ने नाकामी देखी. झारखंड गठन के बाद आदिवासी और सदानों में टकराव हुआ. ‘कैसा झारखंड’ और ‘किसका झारखंड’ जैसे सवाल अक्सर बवाल का रूप धरने लगे. ये दोनों कहानियांँ ऐसे ही मोहभंग की पीड़ा से उपजी हैं.
लेकिन इस पूरे संग्रह में जो कहानी बुनावट के स्तर पर सबसे ज्यादा बांँधे रखती है, वह है ‘दो चुटकी निमक’. यह अलग बात है कि ‘दो चुटकी निमक’ भ्रूण हत्या की जिस कुप्रथा को केंद्र में रखकर लिखी गई है, वह आदिवासी जीवन का स्वर नहीं है. बल्कि आदिवासी समाज की स्त्रियांँ पारिवारिक संरचना में मजबूत उपस्थिति रखती हैं. बीस साल के लंबे अंतराल को घेरती इस कहानी में गौना, मालती और मालती की माँ ही प्रमुख चरित्र के तौर पर उभर कर सामने आती हैं. इस कहानी में स्त्री महत्व को रेखांकित करती मालती का आत्मलाप पढ़ें –
ः’मालती अंदर के अंधेरे में आँख पर हाथ रखे लेटी थी। तभी उसके अंदर एक बेचैन आत्मा घर कर गई थी। उसे अँधेरे साये डराने लगे थे। वह अक्सर सोचती, क्या हवेली के इतने बडे़-बडे़ कमरों मे उसके लिए तनिक भी जगह नहीं है? नहीं थी?
जनजाति और कोल्ह, कुर्मी, तेली लोग तो अपनी बेटियों को नही फेंकते हैं। ये लोग तो कोई फरक नहीं करते हैं। किसी कमी के कारण ही फेंकते-मारते हैं गरीब लोग। पर ई बड़का लोग?’
इसी कहानी का वह हिस्सा भी पढ़ें, जब गौना हवेली से बचाकर बच्ची को झोपड़ी में सौंपने आई है। दो स्त्रियों के बीच का संवाद बता देगा कि आदिवासी समाज में स्त्रियों का महत्त्व कितना है…
“अरे! तू इके लाइन देले। केकर हय?” स्त्री की आँखों में उत्सुकता कुलबुला रही थी। वह चुप लगा गई।
“पाप के हय?”
“नय।”
“बेटी हय?”
“हाँ।”
“पता नय, ई सब काहे बेटी से अनसाता है!”
साथ का मर्द बुदबुदाकर उसे देखने लगा। उसकी जाति में नारी से घृणा नहीं की जाती। वे लोग वधू किनते हैं, वर नहीं। उनमें बर खोजने के लिए नहीं जाते, कन्या खोजने के लिए जाते हैं।
एक दिन ई कन्या को भी कोई किनकर (खरीदकर) ले जाएगा। कम-ले-कम सात खड़ी साड़ी देकर। उस काली स्त्री की आँखें चमक उठीं। उसने बच्ची को सीने से लगा लिया और अपनी खुरदुरी हथेलियों से उसकी पीठ थपकाने लगी। उसे अपनी छाती से दूध की धार बहने का एहसास हुआ।
‘चुटकी भर निमक’ कहानी का यह हिस्सा याद दिलाता है कि आदिवासी परंपरा में लड़कियों के लिए दहेज की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि लड़का पक्ष के लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार लड़की पक्ष को उपहार दिया करते हैं।
अनिता रश्मि के इस संग्रह को पढ़ते हुए आप झारखंड की लोकबोली के शब्दों के उस रूप से भी परिचित होते चलते हैं जिनका हिंदी में रूप कुछ दूसरा है। ‘नमक’ के लिए ‘निमक’ या ‘खरीदना’ के लिए ‘किनना’ जैसे शब्दों की उपस्थिति कहानी को झारखंडी टोन देती है. इन सारी कहानियों में आपको लोककथाएंँ भी संदर्भों के मुताबिक मिलेंगी, समय-समय पर गीतों के बोल भी मिलेंगे। कुल मिलाकर यह संग्रह झारखंड का परिवेश बुनता है और ये कहानियांँ यह स्थापित करती दिखती हैं कि बात-व्यवहार, रहन-सहन, बोल-विचार जैसे हर स्तर पर आदिवासियों का जीवन अक्सर ब्लैक एंड वाइट होता है, आदिवासियों के व्यक्तित्व में ग्रे शेड की उपस्थिति कभी-कभार दिख जाती है, लेकिन वह कभी भी आदिवासियों के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रंग नहीं रहा।
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समीक्षक का पता –
ए – 802 जनसत्ता सोसायटी, से. – 9, वसुंधरा, गाजियाबाद ( उ. प्र.) पिन – 201012
मो – 9999572266
लेखिका
ईमेल – rashmianita25@gmail.com
आदिवासी जीवन के रंगों में लिपटा ‘सरई के फूल’
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अनुराग अन्वेषी
आदिवासी स्वभावतः सरल और भोले होते हैं. शहरों के ऐब से दूर प्रकृति के प्रेम में डूबे होते हैं. कहना चाहिए कि उनके जीवन का मूल तत्त्व ही है प्रेम. यह प्रेम चाहे जानवरों से हो या प्रकृति से, इनसान से हो या फिर देश से. इनके खून में प्रेम उबाल मारता है. ये बातें अनिता रश्मि की 12 कहानियों से गुजरते हुए महसूस की जा सकती हैं, जो हाल में प्रकाशित हुए उनके कहानी संग्रह ‘सरई के फूल’ में संकलित हैं.
झारखंड के आदिवासियों के लिए उनकी लोककथाएंँ आत्मिक शक्ति हैं. वे उसे भरसक जीते हैं. इन लोककथाओं से उन्हें प्रेरणा भी मिलती है और सीख भी. इसलिए उनके बीच लोककथाओं की नदी कभी सूखी नहीं, बल्कि कलकल कर बहती रही.
अनिता रश्मि की कई कहानियों में संदर्भ के मुताबिक ये लोककथाएंँ घुली हुई मिलेंगी. आदिवासियों के बीच से उठाई गई लोककथाएंँ कई बार अनिता जी की कहानियों को गति देती हैं और नया अर्थ भी. बल्कि कई बार तो इन लोककथाओं का इस्तेमाल कहानियों में कुछ इस तरह हुआ है कि वहीं से कहानी एक नई जमीन रचने लगती है. कहानी को गति देने के लिए लोककथा पगडंडी-सी बनकर आती है.
अपनी कहानियों के जरिए अनिता रश्मि आदिवासी समाज में शब्द रचना की प्रकृति पकड़ती नजर आती हैं. मसलन अपनी पहली कहानी ‘रघुआ टाना भगत’ में उन्होंने लिखा है – ‘भूत टानते-टानते जतरा उराँव टाना भगत कहलाने लगा’. एक तरह से यह प्रसंग उरांव के टाना भगतों के इतिहास में जाने जैसा है. काम से किसी को पहचानने की आदिवासियों की यह जो सादगी है, इसी सादगी और इसी दृष्टि के साथ रहे हैं डॉ. भीम राव आंबेडकर.
महात्मा गांँधी चाहते थे कि समाज में जाति व्यवस्था हो, यानी जो जिस जाति का है सम्मान के साथ अपना काम करे, जबकि आंबेडकर का मानना था कि किसी की जाति की पहचान उसके काम से हो, इसे उन्होंने वर्ण व्यवस्था कहा. जतरा उरांँव जैसे लोगों को टाना भगत की उपाधि उसके काम की वजह से ही मिली. कहा जा सकता है कि आंबेडकर की विचारधारा से अनजान होते हुए भी तत्कालीन आदिवासी समाज की प्रकृति आंबेडकर की विचारधारा के ज्यादा करीब दिखती है, जहाँ किसी को उसके काम के आधार पर किसी खास जमात में डाला जाता है.
एक और रोचक बात यह कि आंबेडकर और गांँधी विचार के स्तर पर बहुत जगहों पर एक-दूसरे से असहमत दिखते हैं. पर आदिवासी समाज में उस असहमति का कहीं कोई स्थान नहीं. वह तो अपने समाज और देश प्रेम में डूबा इन्सानियत के हितकारी आदर्शों का हिमायती है.
अनिता रश्मि की इसी कहानी में आपको गांँधी जी आदिवासियों के बीच प्रेरक के रूप में दिख जाएंँगे और चिंता में डालते अब के नक्सली भी. ऐसे ही मौकों पर आदिवासी समाज की इन कहानियों से गुजरते हुए कई बार बिरसा मुंडा के अनुयायियों की बिरसाइत धर्म की याद आई. कहीं पढ़ी हुई एक धुंधली सी याद है कि बिरसा के अनुयायियों ने उनके धर्म सुधार और समाज सुधार की बातों के आधार पर बिरसाइत धर्म की शुरुआत की थी. इस धर्म में दूसरे धर्मों की तमाम वे बातें शामिल की गई थीं जो मनुष्य और मनुष्यता के हित में थीं. वैसे ‘रघुआ टाना भगत’ कहानी आदिवासियों के शोषण का पूरा वृतांत रचती है और पुलिसिया दमन की कहानी भी कहती है.
‘तिकिन उपाल का छैला’ बदलते हुए आदिवासी समाज की कहानी है. जहां युवा पीढ़ी खुद को लोककथाओं से काटती जा रही है. लोककथाओं को वे अपनी तार्किकता की कसौटी पर कसती है. अपने को पारंपरिक पेशे में झोंकने के बजाए वह नए रास्ते तलाशते दिख रही है. उसके जेहन में बेहतर जीवन के लिए ‘लोन’ जैसे रास्ते कुलबुलाने लगे हैं. इस कहानी के नायक छैला और उसके पिता के संवाद में पीढ़ियों की यह खाई दिखने लगती है. इस कहानी में छैला और उपाल का निश्छल प्रेम भी है, जो मुकाम पाने से पहले ही बदले हुए छली समाज के बीच बिखर जाता है. अपने गांव लौटकर भी छैला गुमनाम रहकर जीवन बिताता है. कहानी नाकाम प्रेम का दुखद वृतांत है.
‘कहानी यहीं खत्म नहीं होती’ आदिवासी समाज में स्त्रियों के परंपराभंजक तेवर की कहानी है. कहा जाता है कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं. बल्कि सच यह भी है कि संपत्ति को छोड़कर बाकी मामलों में आदिवासी समाज में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए हैं. लेकिन यही आदिवासी समाज अपनी परंपरा और मान्यताओं के नाम पर अंधविश्वासी भी है और इसलिए कई बार बेहद क्रूर भी. यहाँ अशिक्षा की काली छाया दिखती है. यह समाज परंपराओं के दुराग्रह की वजह से पंच परमेश्वरों के अतार्किक फैसले से सहमत होता है और ओझा गुनी के नाम पर पुरुषों को और डायन बिसाही के आरोप में स्त्रियों पर जुल्म करता दिखता है. इस कहानी में भी परंपराओं को बदलने की कोशिश करतीं स्त्रियांँ समाज के अंधविश्वासों के कारण प्रताड़ना झेलती हुई दिखती हैं.
झारखंड की खूबसूरती, स्त्री की कोमलता और निर्भीकता के साथ-साथ नक्सली समस्या की दास्तान है कहानी ‘सरई के फूल’. संग्रह का नाम भी इसी कहानी के नाम पर रखा गया है, तो जाहिर है यह इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है. अनकहे प्रेम के बहुत बारीक रेशे से बुनी गई यह कहानी झारखंड में नक्सल समस्या के आहट के दिनों की है. उस दौर की स्त्रियों के संघर्ष की भी है और साथ ही एक प्रकृति प्रेमी की भी कहानी है. इस कहानी में जब आप लेखिका के संग आदिवासियों के जीवन में झांँकने लगते हैं तो आपके कानों में मांदर की थाप पर कोई लोकधुन लगातार बजती रहती है. कहानी के बाद के हिस्से में झारखंड में पैदा हुई नक्सली समस्या से आपका पाला पड़ता है तो लोकधुन की उदासी आपको परेशान करती है और मांदर की जो थाप कभी प्रेम की सिहरन पैदा करती थी, वही अब युद्ध की दुदुंभी की तरह सुनाई पड़ने लगती है.
‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ और ‘बिट्टो की बड़ी मांँ’ जैसी कहानी बदले हुए झारखंड में देशप्रेम और अतीत से जुड़ाव की दस्तावेज हैं. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ जहाँ मांँ-बाप का मोह और बेटे की आकांक्षा के टकराव की बुनावट से निकली कहानी है, तो वहीं यह शहीद परिवारों की दयनीय हालत का भी बयान है. सरकारी उदासीनता और शहीदों की उपेक्षा की अपेक्षित चर्चा कहानी को सार्थक बनाती है. ‘बिट्टो की बड़ी मांँ’ कहानी आजादी के संघर्ष के गुमनाम योद्धाओं के प्रति आदर और श्रद्धा जताती है.
‘डोमेसाइल’ और ‘सुग्गा-सुग्गी का जोड़ा’ अलग झारखंड राज्य बनने के बाद बिखरे सपनों की कहानी है. झारखंड राज्य के गठन का संघर्ष करते हुए यहांँ के लोगों ने जिस रामराज्य का सपना देखा था, झारखंड बनने के बाद वह सपना उतनी ही तेजी से टूटा. विकास के नाम पर विस्थापन का दर्द, रोजगार के लिए भटकते लोग, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुशासन के स्तर पर यहाँ के लोगों ने नाकामी देखी. झारखंड गठन के बाद आदिवासी और सदानों में टकराव हुआ. ‘कैसा झारखंड’ और ‘किसका झारखंड’ जैसे सवाल अक्सर बवाल का रूप धरने लगे. ये दोनों कहानियांँ ऐसे ही मोहभंग की पीड़ा से उपजी हैं.
लेकिन इस पूरे संग्रह में जो कहानी बुनावट के स्तर पर सबसे ज्यादा बांँधे रखती है, वह है ‘दो चुटकी निमक’. यह अलग बात है कि ‘दो चुटकी निमक’ भ्रूण हत्या की जिस कुप्रथा को केंद्र में रखकर लिखी गई है, वह आदिवासी जीवन का स्वर नहीं है. बल्कि आदिवासी समाज की स्त्रियांँ पारिवारिक संरचना में मजबूत उपस्थिति रखती हैं. बीस साल के लंबे अंतराल को घेरती इस कहानी में गौना, मालती और मालती की माँ ही प्रमुख चरित्र के तौर पर उभर कर सामने आती हैं. इस कहानी में स्त्री महत्व को रेखांकित करती मालती का आत्मलाप पढ़ें –
ः’मालती अंदर के अंधेरे में आँख पर हाथ रखे लेटी थी। तभी उसके अंदर एक बेचैन आत्मा घर कर गई थी। उसे अँधेरे साये डराने लगे थे। वह अक्सर सोचती, क्या हवेली के इतने बडे़-बडे़ कमरों मे उसके लिए तनिक भी जगह नहीं है? नहीं थी?
जनजाति और कोल्ह, कुर्मी, तेली लोग तो अपनी बेटियों को नही फेंकते हैं। ये लोग तो कोई फरक नहीं करते हैं। किसी कमी के कारण ही फेंकते-मारते हैं गरीब लोग। पर ई बड़का लोग?’
इसी कहानी का वह हिस्सा भी पढ़ें, जब गौना हवेली से बचाकर बच्ची को झोपड़ी में सौंपने आई है। दो स्त्रियों के बीच का संवाद बता देगा कि आदिवासी समाज में स्त्रियों का महत्त्व कितना है…
“अरे! तू इके लाइन देले। केकर हय?” स्त्री की आँखों में उत्सुकता कुलबुला रही थी। वह चुप लगा गई।
“पाप के हय?”
“नय।”
“बेटी हय?”
“हाँ।”
“पता नय, ई सब काहे बेटी से अनसाता है!”
साथ का मर्द बुदबुदाकर उसे देखने लगा। उसकी जाति में नारी से घृणा नहीं की जाती। वे लोग वधू किनते हैं, वर नहीं। उनमें बर खोजने के लिए नहीं जाते, कन्या खोजने के लिए जाते हैं।
एक दिन ई कन्या को भी कोई किनकर (खरीदकर) ले जाएगा। कम-ले-कम सात खड़ी साड़ी देकर। उस काली स्त्री की आँखें चमक उठीं। उसने बच्ची को सीने से लगा लिया और अपनी खुरदुरी हथेलियों से उसकी पीठ थपकाने लगी। उसे अपनी छाती से दूध की धार बहने का एहसास हुआ।
‘चुटकी भर निमक’ कहानी का यह हिस्सा याद दिलाता है कि आदिवासी परंपरा में लड़कियों के लिए दहेज की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि लड़का पक्ष के लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार लड़की पक्ष को उपहार दिया करते हैं।
अनिता रश्मि के इस संग्रह को पढ़ते हुए आप झारखंड की लोकबोली के शब्दों के उस रूप से भी परिचित होते चलते हैं जिनका हिंदी में रूप कुछ दूसरा है। ‘नमक’ के लिए ‘निमक’ या ‘खरीदना’ के लिए ‘किनना’ जैसे शब्दों की उपस्थिति कहानी को झारखंडी टोन देती है. इन सारी कहानियों में आपको लोककथाएंँ भी संदर्भों के मुताबिक मिलेंगी, समय-समय पर गीतों के बोल भी मिलेंगे। कुल मिलाकर यह संग्रह झारखंड का परिवेश बुनता है और ये कहानियांँ यह स्थापित करती दिखती हैं कि बात-व्यवहार, रहन-सहन, बोल-विचार जैसे हर स्तर पर आदिवासियों का जीवन अक्सर ब्लैक एंड वाइट होता है, आदिवासियों के व्यक्तित्व में ग्रे शेड की उपस्थिति कभी-कभार दिख जाती है, लेकिन वह कभी भी आदिवासियों के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रंग नहीं रहा।
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समीक्षक का पता –
ए – 802 जनसत्ता सोसायटी, से. – 9, वसुंधरा, गाजियाबाद ( उ. प्र.) पिन – 201012
मो – 9999572266
लेखिका
ईमेल – rashmianita25@gmail.com