गवाह है हमारा पुरखा- सतपुड़ा।
समय से संलाप करती बोदरी नदी हो, कुलबेहरा हो या फ़िर कन्हान, महुआ की मादक गंध और तरंग में, टिमकी की टिमिक-टिम धुन पर थिरकते आदिवासी जन हों, या चिखलदेव की झिरिया जहाँ स्वयं भोलेनाथ विराजते हों अथवा तामिया की पहाड़ियों के मध्य विराजे छोटा महादेव की गुफ़ा हो, अथवा पांढुर्णा के तट को छूकर बहती जाम नदी हो ( जिसके किनारे (पत्थरमार) गोटमार मेले का आयोजन सदियों से होता आ रहा है,) अथवा एक हजार दो सौ पचास फ़ुट से ज्यादा वर्गफ़ुट में फ़ैली, पातालकोट की हजारों फ़िट गहरी तलहटी में (जिसे प्रकृति का कुँआ भी कहा जा सकता है) आदिवासियों के बारह गाँव आज भी अपनी आदिम संस्कृति को बचाए हुए जी रहे हैं, अथवा मोहखेड़ कस्बे के समीप चन्दन वनों से घिरा देवगढ़ का ऐतिहासिक किला हो (चन्दन वनों का उल्लेख उपन्यास में मिलता है) जहाँ कभी चन्द्रकांता संतति उपन्यास के बीज पड़े थे या फ़िर यहाँ का मोती टांका, जिसमें अथाह जलराशि समाई हुई है (जो कभी नहीं सूखा). या फ़िर हर्रई की जागीर हो अथवा सोनपुर की, या फ़िर मोहगांव हवेली स्थित अर्धनारीश्वर का जगप्रसिद्ध मन्दिर हो, ये सभी इस बात के साक्षी रहे हैं और साक्षी रहा है हमारा पुरखा- सतपुड़ा जो युगों-युगों से अपनी करोड़ों आँखों से और सूपों सदृष्य कानों से देख-सुन रहा है, चश्मदीद गवाह है कि आजादी के मतवालों की टोली यहाँ शुरु से ही संघर्षशील रही है.
इतिहास भी साक्षी है इस बात का कि आजादी की अलख जगाते महात्मा गाँधी जी के चरण इस माटी पर पड़े थे और मतवालों की टोली उनके पीछे दौड़ पड़ी थी. गाँधी जी के अलावा और भी स्वनामधन्य महापुरुषों का यहाँ समय-समय पर आगमन होता रहा है.
आजादी की अलख जगाते बापू का छिन्दवाड़ा आगमन….
इतिहास का यह वह स्वर्णिम काल था जब बापू 1920-21 में नागपुर में कांग्रेस का महा-अधिवेशन आयोजित किया गया था, भाग लेने के लिए पधारे थे. इसी महाअधिवेशन में “असहयोग आन्दोलन का नारा” बुलन्द हुआ था. एक अलख जलायी जा रही थी. अधिवेशन की समाप्ति के बाद, महात्मा गांधी उन दिनों के प्रसिद्ध अली बन्धुओं मुहम्मद अली एवं शौकत अली तथा सरोजनी नायडू के साथ छिन्दवाड़ा पधारे थे. 06 जनवरी 1921 का वह स्वर्णिम दिन था. नागपुर अधिवेशन की बयार यहाँ भी बह रही थी. पूरा नगर जोश और जुनून से भरा हुआ था. अपने प्रिय नेताओं को ठहराने का कोई उपयुक्त स्थान उस समय उपलब्ध नहीं था. पर बापू तो सादगी से भरे अपूर्व मानव थे. उन्होंने सेठ नरसिंह दास की धर्मशाला में ठहरने की स्वीकृति दे दी थी.
उनके आगमन से उत्साहित महिलाओं ने जिस जोश भरे अन्दाज में आजादी के नारे बुलन्द किए, उससे बापू बहुत प्रभावित हुए और दोपहर के समय उन्होंने सबसे पहले महिलाऒं को संबोधित किया. संध्या समय चिटनवीसगंज ( आज का गांधीगंज ) में एक विशाल सभा आयोजित की गयी. महात्मा जी ने नागपुर अधिवेशन में पारित “असहयोग आन्दोलन प्रस्ताव” की विस्तृत चर्चा की. उन्होंने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरोध में, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की. जोश और उमंग से भरे लोगों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. बापू के उस मर्मांत्क भाषण ने लोगों के दिलों को गहराई से प्रभावित किया था. नगर के प्रभावशाली वकीलों- सर्व श्री साल्पेकर, बी.आर. ढोक, मोरेकर, व्ही.एस.शर्मा, श्री मनोहर घाटे तथा बृजलाल वर्मा ने अपनी वकालत छॊड़कर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ने की घोषणा मंच से ही कर दी थी. साथ ही अन्य लोगों ने भी अपनी शासकीय नौकरियों को त्याग कर देश प्रेम का अद्भुत उदाहरण पेश किया था. इस तरह पूरे अंचल-सौंसर, पांढुर्णा, अमरवाड़ा आदि सभी क्षेत्रों में असहयोग आन्दोलन की तीव्र आँधी बहने लगी थी.
गाँधीजी के इस अंचल से प्रस्थान करने के बाद नगर कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया ताकि आन्दोलन का प्रभावी ढंग से संचालन किया जा सके. किन्तु इन कांग्रेसी नेताओं सर्वश्री कृष्णा स्वामी नायडू, देवमन वानखेड़े, नेमीचंदजी, जयदेव इगंदे, गुलाबराव बोरीकर, बालाजी एवं विठ्ठलपुरी (सौंसर), देवराव (सौंसर) आदि को सश्रम कारावास के दण्डस्वरूप जेलों में बंद कर दिया गया.
अपने प्रथम प्रवास में ही बापू को इस अंचल ने बड़ा प्रभावित किया था. सुदूर होने तथा आवागमन के सीमित साधन होने के बाद भी बापू ने इस नगर को अपनी चरणधुलि 29 नवम्बर 1933 को पुनः उपलब्ध करायी. उस समय पूरा भारतवर्ष “महात्मा गांधी जिन्दाबाद”, “भारत माता की जय” के नारों से गूँज रहा था. इस छोटे-से नगर ने अपने प्रिय नेता के स्वागत-सत्कार में पलक पाँवड़े बिछा दिए. पूरे नगर को तोरण और बन्दनवारों से सजा दिया गया था. महात्मा गाँधी जी की सुन्दर शोभायात्रा निकाली गयी. छितियाबाई के बाड़े में विशाल जनसभा आयोजित हुई. नगर की ओर से गांधीजी को मान-पत्र भेंट किया गया. इस सभा में गाँधीजी ने श्री विश्वनाथ साल्पेकर जी के त्याग और सेवा की भूरि-भूरि प्रशंसा की. इसके पश्चात गाँधीजी ने हरिजन मुहल्ले का भ्रमण किया तथा उनकी कठिनाइयों को जाना-समझा.
छिन्दवाड़ा अंचल एवं स्वतंत्रता आन्दोलन.
स्वतंत्रता आन्दोलन की चिनगारी इस अंचल में “ राष्ट्र जागृति आन्दोलन” के नेता डा.बी.एस.गुंज एवं दादा साहेब खापरे के 11 मई 1906 मे आगमन से ही सुलगने लगी थी. इसे नगर का सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि पूज्य बापू का आगमन जनवरी 1921 एवं पुनरागमन नवम्बर 1933 को हुआ था.. डा.सरोजिनी नायडू 18 अप्रैल 1922 को तथा पण्डित जवाहरलाल नेहरु का 31 दिसंबर 1936 को छिन्दवाड़ा में आगमन हुआ था. पूरे अंचल में अंग्रेजी सत्ता के विरोध स्वरूप अनेक आन्दोलन चल रहे थे. सत्याग्रहियों पर अनेक तरह के जुल्म ढाये जा रहे थे. नागपुर के झण्डा सत्याग्रह में भाग लेने गए सर्वश्री कृष्णा नायडू, जयदेव उगदे, देवमन वानखेड़े, गुलाबराव बोरीकर, आदि को पकड़कर जेल में यातनाएं दी गईं. 23 मार्च 1931 को भगतसिंग, सुखदेव तथा राजगुरु को एक दिन पूर्व जब अचानक फ़ांसी दे दी गयी, तो पूरे अंचल में स्वप्रेरित भूख हड़ताल हुई. छिन्दवाड़ा, सौंसर,अमरवाड़ा तथा अन्य कस्बों में, न केवल भूख हड़ताल की गयी, वरन सारी व्यापारिक गतिविधियाँ रुक गईं. इसी प्रकार कांग्रेस के महान नेताओं के आव्हान पर यहाँ के अंचलवासियों ने रोलेक्ट एक्ट, साईमन कमीशन का विरोध, जंगल सत्याग्रह में सोत्साह भाग लेकर अपने विरोध को मुखर किया और यातनाएं सहीं. द्वितीय विश्वयुद्ध की सफ़लताओं ने मित्र देशों को गर्वोन्मत बना दिया था. अतः पूरे भारतवर्ष में अंग्रेजी शासन का दमनचक्र तीव्रता से चलने लगा. इन परिस्थितियों में सन 1942 में महात्मा गांधीजी ने “अंग्रेजों भारत छॊड़ो आन्दोलन” का उद्घोष कर दिया.
इस घोषणा का आम जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा. देखते ही देखते नगरवासियों ने कार्यक्रम की एक रुपरेखा तैयार करते हुए गहन अन्धकार में कांग्रेसी नेताओं ने गुप्त बैठक आयोजित की. इस बैठक में मुख्य रूप से हरदा नगर से पधारे, अखिल भारतीय चरखा संघ के प्रमुख श्री दादाभाई नायक ने संबोधित किया. इसे जन-आन्दोलन का रूप दिए जाने की विधिवत तैयारियां भी की गयी. विशाल आमसभा को नगर के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता एवं वकील श्री श्यामचरण सोनी संचालित कर रहे थे. उन्होंने आम नागरिकों से “भारत छॊड़ो आन्दोलन” को भरपूर सहयोग देने की अपील की. “भारत माता की जय”, “महात्मा गांधी जिन्दाबाद” के नारों की गूंज से समूचा वातायण कंपित हो उठा. आन्दोलन अपना मूर्त रुप ले पाता, तभी 9 अगस्त 1942 को अंग्रेजी शासन ने सभी कांग्रेस कमेटियों को भंग कर दिया. देखते ही देखते जगह-जगह छापे मारे जाने लगे और नेताओं की धर-पकड़ शुरु हो गयी. चुंकि श्री कृष्णास्वामी नायडू अपनी दाढ़ी और कमली के कारण आसानी से पहिचान लिए गए थे. गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया. इसके पश्चात अन्य कांग्रेसी नेताओं जिनमें मुख्यरुप से श्री अर्जुनसिंह सिसोदिया, श्री आर.के.हलदुलकर, श्री गोविन्दराम त्रिवेदी, श्री देवमन वानखेड़े, श्री साल्पेकर आदि नेताओं को रातों-रात गिरफ़्तार कर लिया गया. श्री चोखेलाल मान्धाता अपने टीन के चोंगे से सड़कों पर “महात्मा गांधी जिन्दाबाद” के नारे लगाते घूम रहे थे, गिरफ़्तार कर लिया गया.
इन नेताओं की गिरफ़्तारी ने नगरवासियों में काफ़ी उद्वेलित कर दिया था. सभी अपने-अपने ढंग से प्रदर्शन करने में जुट गए थे. नगर के छात्रों ने भी अपनी एक योजना बनाई और श्री दत्तात्रेय बागड़देव जी के नेतृत्व में सड़कों पर निकल पड़े. पूरा नगर इन छात्रों के समर्थन में उतर आया था. नगर के सभी व्यापरियों ने अपने-अपने प्रतिष्ठान बन्द कर दिए थे. सरकार तुरन्त हरकत में आयी और पुलिस ने निर्दयतापूर्वक लाठियाँ भांजी. छात्रों को बुरी तरह से पीटा गया. छात्रनेता बागड़देव को गिरफ़्तार कर अनेक यातनाएं दी गईं. पुलिस के इस दमनकारी बल- प्रयोग के विरोध में श्री पी.डी.महाजन ने शाम के समय एक आमसभा का आयोजन किया, किन्तु उन्हें भी फ़िरफ़्तार कर लिया गया.
इस घटनाक्रम से समूचा शहर रोष में भर गया था. इन युवकों द्वारा रोष प्रदर्शन करने पर इन्हें अंग्रेजी शासन का कोप भाजन बनना पड़ा. श्री सूरजप्रसाद सिंगारे ने सभी युवकों को संगठित किया और पुनः आन्दोलन को तीव्र करने की योजना बनायी. इस योजना की भनक लगते ही सिंगारे जी सहित सभी छात्रों को 10 नवम्बर 1942 को गिरफ़्तार कर जेल के सींकचों में बंद कर दिया गया.
निर्दयी शासन के इस बल प्रयोग एवं नेताओं और युवकों की गिरफ़्तारी से पूरा अंचल उद्वेलित हो उठा. फ़िर क्या था, नगरवासी अब खुलकर अपना विद्रोही तेवर दिखाने लगे थे. पूरे शहर में जगह-जगह सत्याग्रह के शामियाने दृष्टिगोचर होने लगे. बैरिस्टर गुलाबचन्द चौधरी, राजाराम तिवारी, भगवती प्रसाद श्रीवास्तव, मंगली प्रसाद तिवारी सहित अमरवाड़ा, सौंसर, पांढुर्णा क्षेत्रों में सुदरलाल तिवारी, नीलकण्ठराव झलके, रायचन्द्र भाई शाह, मानिक राव चौरे आदि के नेतृत्व में, सत्याग्रह में सम्मलित होकर अपना विरोध प्रदर्शित करने लगे. श्री प्रेमचंद जैन, श्री चुन्नीलाल राय आदि नेता घर-घर जाकर, आजादी की अलख जगाने लगे. ठाकुर श्री चैनसिंह, सोनपुर जागीरदार, ठाकुर राजवा शाह, जागीरदार प्रतापगढ़, ठाकुर, महावीर सिंह, जागीरदार हर्राकोट को, जिन्होंने इस स्वतन्त्रता की लड़ाई में अपने प्राणॊं को न्योछावर कर दिया. क्या इनकी शहादत को यूंही भुलाया जा सकता है?
हम उन्हें भी याद करते चलें जिन्होंने हमें आजाद भारत की खुली हवा में साँस लेने के लिए तन के अपार कष्टों को झेला. श्री बादल भोई-पगारा, श्री स्वामीनन्द –अमरवाड़ा, श्री अब्दुल रहमान-छिन्दवाड़ा, श्री नाथूलक्षमण गोंसाईं, श्री वामनराव पटेल-बानोरा, श्री रायचन्द राय शाह, श्री पिलाजी श्रीखण्डॆ, श्री सूरजप्रसाद मथुरिया, श्री जगमोहनलाल श्रीवास्तव, श्री महादेवराव खाटॊरकर, श्री छोटेलाल चवरे, श्री तुकाराम थोसरे श्री महादेव धोटे, श्री गोविन्दराम त्रिवेदी, श्री दुर्गाप्रसाद मिश्रा, श्री हरप्रसाद शर्मा,, श्री शिवकुमार शर्मा, श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डॆ,, श्री रामनिवास व्यास, श्री गुरुप्रसाद श्रीवास्तव, श्री दयाल मालवीय, श्री प्रह्लाद भावसे, श्री जयराम वर्मा, श्री नेमीचन्द, श्री बलीराम मिस्त्री, श्री गुलाबराव बोरीकर, श्री देवराव (सौंसर). श्री देवमन वानखेड़े ( सौंसर), श्री माधव प्रसाद गुप्ता, श्री रेखड़े वकील एवं सत्यवती बाई आदि.
श्री रायबहादुर मथुराप्रसाद, श्री गुरुप्रसाद श्रीवास्तव, श्री गोपीनाथ दीक्षित, श्री देवीदयाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर दयाल वर्मा, श्री भगवत प्रसाद शुक्ल, श्री रामप्रसाद राठौर, श्री ब्रजमोहन वर्मा, श्री मारोतीराव ओकटे, श्री झामसिंग, श्री दीनदयाल वर्मा आदि ने अपनी ओजस्वी लेखनी के माध्यम से इस महायज्ञ में अपनी भागीदारी का निर्वहन किया था. हिन्दी के आशुकवि श्री रामाधार शुक्ला, भगवती प्रसाद शुक्ला, मारोतिराव ओकटे, रामनिवास व्यास, मराठी भाषा के मर्मज्ञ कवि-कथाकार श्री द्वारका ,श्री मनोहर घाटे, श्री प्र.श.मांजरेकर आदि ने अपनी ओजस्वी वाणी तथा लेखनी के माध्यम से जनता को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया.
छॊटी बाजार के जिस चौक में पंडितजी ने ओजस्वी भाषण दिया था, आपके आगमन की खुशी में समूचा शहर एकत्रित हो गया. बड़ी संख्या में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. महिलाओं के विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं श्रीमती दुर्गाबाई मांजरेकर. क्रांतिकारियों के दिलों में जोश भरता और काफ़ी प्रसिद्धि पा चुका गीत “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा….झंडा ऊँचा रहे हमारा” और “ स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” नारे के प्रणेता श्री बाल गंगाधर तिलक के उद्घोष से समूचा शहर गूंज उठा था. महिलाओं का यह जुलूस बुधवारी बाजार होता हुआ छोटी बाजार पहुँचा. इस जुलूस का नेतृत्व कांग्रेस नेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती राधेकुमारी वर्मा कर रही थीं. श्रीमती विद्यावती मेहता, श्रीमती केकरे, श्रीमती घाटे, श्रीमती रेखड़े, श्रीमती पार्वती आदि तिरंगा लहराते हुए साथ चल रही थीं.
15 अगस्त 1947 का वह शुभ दिन भी शीघ्र ही आया, जब हमारा देश आजाद हुआ. शायद इंद्र देवता भी उस दिन बहुत प्रसन्न थे. रिमझिम बारिश से यह पूरा अंचल भींग रहा था. जिस घर में रेडियो उपलब्ध था, वहाँ लोगों की भीड़ जमा थी. दिल्ली में होने वाले सत्ता परिवर्तन की पल-प्रतिपल की खबरें प्रसारित हो रही थीं. साँसे रोकर लोग एक-एक शब्द को अपने जेहन में उतार रहे थे. पूरे नगर को तोरणॊं एवं बन्दनवार से सजाया गया और शाम को हर घरों में रौशनी की गई थी. अर्ध रात्रि को तिरंगा फ़हराकर अपनी सदियों पुरानी मुराद पूरी होता देख जनसामान्य भी गद-गद था. यह रात जश्न की रात थी. उस रात शायद ही कोई सो पाया होगा. नगर के विभिन्न मोहल्लों से “भारत माता की जय”, “महात्मा गाँधी जिन्दाबाद” के नारे सुनाई पड़ रहे थे. नगरपालिका तथा जिला कचहरी को विद्युत बल्बों से रोशन किया गया था. लोग आपस में गले मिलते हुए एक-दूसरे को बधाइयां प्रेषित कर रहे थे. खुशी के मारे सभी के चेहरों पर प्रसन्नता की चमक देखी जा सकती थी.
छोटी बाजार चौक में सर्वाधिक गहमा-गहमी थी. महिलाएं भी बड़ी संख्या में यहाँ पहुँच चुकी थीं. महिलाओं के इस हुजूम एक जुलूस की शक्ल में बदल गया. इस विशाल जुलूस का नेतृत्व श्रीमती दुर्गाबाई मांजरेकर जी कर रही थीं. “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा…झण्डा उँचा रहे हमारा” गान को गाते हुए जुलूस आगे बढ़ रहा था. इस जुलूस में उस समय की कांग्रेसी नेत्रियाँ श्रीमती राधेकुमारी वर्मा, श्रीमती विद्यावती मेहता, श्रीमती केकरे, श्रीमती घाटे, श्रीमती रेखड़े, श्रीमती पार्वती आदि तिरंगे को लहराते हुए चल रही थीं और बीच-बीच में ओजस्वी नारों से समूचा वातायन गुंजायमान हो रहा था. नगर की प्रमुख सड़कों- गोलगंज, बुधवारी बाजार से होता हुआ जुलूस छोटी बाजार आकर एक सभा के रूप में परिवर्तित हो गया.
इतिहास के इन गौरवशाली पन्नों को पलटते हुए शरीर में रोमांच हो आता है. वहीं उन तमाम घटनाओं को याद करते हुए, उन गौरवशाली सपूतों के चेहरे, आँखों के सामने दृष्यमान हो उठते हैं, जिन्होंने बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता को बंधनमुक्त कराने के लिए अपने प्राणॊं तक का उत्सर्ग कर दिया था. कल्पना मात्र से शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते है कि किस तरह इन सपूतों ने शारीरिक और मानसिक आघातों को अपने ऊपर झेला होगा, लेकिन ऊफ़ तक नहीं की थी. उन तमाम शहीदों की शहादत को याद करते हुए आँखों से आँसू स्वमेव झरने लगते हैं.
15 अगस्त 1947 की तिथि को हम 70-72 साल पीछे छॊड़ आए है और निकट भविष्य 2022 में हम भारत की आजादी की पचहत्तरवीं साल-गिरह मनाएंगे. अहिंसा के इस पुजारी का जन्म दिवस 2 अक्टूबर 1869 है. इसी तरह हम बापू की एक सौ पचासवीं जयन्ती भी मनाएंगे. प्रश्न यह उठता है कि इन 70-72 सालों में हमने क्या खोया और क्या पाया, की मीमांसा करनी होगी. चर्चा करनी होगी गांधीजी के उन तमाम सपनों की, जिन्हें वे अपनी खुली आँखों देखा किया करते थे, कि मेरा भारत कुछ इस तरह होगा,जो विश्व का सिरमौर बनेगा, क्या हम उनके सपनों में रंग भर पाए हैं या हमने उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया है, गहन अध्ययन किए जाने की मांग करता है. प्रश्न एक नहीं बल्कि अनेकों उठ खड़े होते हैं कि क्या हम देश से गरीबी को पूरी तरह मुक्त कर पाएं है? क्या हम शोषित-पीड़ित मानव-जन को, जो आज भी अन्तिम छोर पर खड़ा, आशा भरी नजरों से दिल्ली की ओर मुँह उठाये टुकुर-टुकर देख रहा है, क्या हम उस तक पहुँच पाए है? क्या हम उसकी आँखों से झरते आँसूओं को पोंछ पाए है? क्या हम भारत को, भारत की नदियों को पूरी तरह से साफ़-स्वच्छ रख पाए हैं? क्या हम प्रत्येक गाँव को सड़कों से जोड़ पाए हैं? गांधीजी कहा करते थे कि भारत गाँवों में बसता है, क्या हमने कभी पलटकर कभी गाँवों की ओर कदम बढ़ाया हैं? क्या हम छुआ-छूत जैसे घिनौनी प्रथा को बंद कर पाए है? क्या हम शिक्षण संस्थाओं में, उन तमाम बलिदानी महापुरुषों की स्मृतियों को अक्षुण्य रख पाए है?. क्या हम उनकी शूरवीरताओं के किस्सों को आमजन तक पहुँचा पाए हैं? यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो, आज विश्वविद्यालयों से “भारत तेरे टुकड़े-टुकड़े होंगे…लेकर रहेंगें आजादी जैसे घिनौने नारे कैसे लग पाते?.
ऐसा नहीं है कि इन सत्तर सालों में कोई विकास हुआ ही नहीं. विकास तो हुआ जरुर है लेकिन उनका फ़ायदा उस अन्तिम-जन नहीं पहुँच पाया, जिसकी की कभी कल्पना बापू सहित अन्य महान विभूतियों ने की थी. सत्ता की चाहत और सत्ता के घिनौने खेल आदि काल से चलते रहे हैं और चलते रहेंगे. सरकारें आती-जाती रही है, लेकिन वर्तमान की सरकार ने, गांधीजी के सपनों को, उनकी रामराज्य की विशाल कल्पना को धरती पर उतारना चाहा है, की राह में एक नहीं, बल्कि अनेकों रोढ़े खड़े किए जा रहे है. कई लोगों की अपनी सोच है कि जो काम हम नहीं कर पाए, ये कैसे कर पाएंगे?. ऐसी सोच को मान्य नहीं किया जाना चाहिए. अगर मन में दृढ़ इच्छा-शक्ति हो तो क्या नहीं किया जा सकता.?..कुछ करने के लिए हौसले तो चाहिए ही चाहिए तथा सपनों में रंग भरने का जस्बा भी होना चाहिए. सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में संकल्प लिया था…”सबका साथ…सबका विश्वास”. इस संकल्प के चलते काफ़ी कुछ बदलावा आया है, जो अकल्पनीय है.
सत्ता में पुनः वापसी के साथ ही सरकार ने अपने पुराने वाद में एक नया वाद और जोड़ा है…और वह है “सबका विश्वास”. अतः विश्वास किया जाना चाहिए कि निकट भविष्य में जो भी कुछ होगा, वह सुखकर ही होगा. भारत शीघ्र ही विश्व-गुरु की प्रतिष्ठा पर पुनः जा पहुंचेगा. चारों तरफ़ सुख की अविरल वर्षा होगी, सभी निरोगी होंगे.भारत की गली-कूचे, शहर, नगर, महानगर सभी साफ़-स्वच्छ होगें..नदियाँ भी साफ़-स्वस्छ हो जाएगी और इस तरह एक नए भारत का उदय होगा. यही सुन्दर-सलोना सपना तो बापू ने देखा था, जो संभवतःशीघ्र ही सच होने जा रहा है.
गोवर्धन यादव
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