अस्तित्व की लड़ाई
चार्टर्ड अकाउंटेंट की पढ़ाई पूरी की और शादी भी हुई तो सी.ए से ही। सभी ने बड़ा सराहा।
मैं भी तो खुश थी यह जानकर कि हम दोनों के विचार एक से होंगे।
ससुराल में कदम रखा तो ना जाने कितने सपनों को भी अपने साथ डोली में बिठाकर लाई थी ।
मेहंदी का रंग थोड़ा हल्का हुआ तो साथ में ऑफिस जाने की इच्छा प्रकट की । अच्छा भी लगा, इज़ाज़त मिल गई । पर थोड़े दिनों में ही लगा, मैं तो बस स्टाम्प पेपर की तरह थी वहाँ, जाना-आना और बस चुपचाप बैठे रहना ।
एक काम, एक पढ़ाई, पर विचार इतने जुदा-जुदा। नहीं……नहीं I
बात विचारों की नहीं थी, बात पुरुषत्व या सच कहूँ तो अहंकार की थी। पुरुष के सामने स्त्री योग्य कहलाए, कैसे स्वीकार होता।
समझ में आने लगा था कुछ-कुछ।
चुपचाप ऑफिस जाना छोड़ दिया। पर घर पर खाली बैठना, शायद मेरा स्वभाव नहीं था, सोचा क्या करूँ। चलो शिक्षिका ही बन जाती हूँ, सुबह से शाम तक घर में अकेली ही तो रहती हूँ न ।
पास के स्कूल में नौकरी भी मिल गई। पर नहीं। कहा गया ,”दो-तीन घंटे कहीं जाना हो तो ठीक है, साथ ही जब भी कोई मेहमान आए, तुम्हें घर पर ही होना चाहिए” फ़रमान जारी हुआ।
अब स्कूल मेरी अपनी तो नहीं थी, फिर अनुशासन और जिम्मेदारी भी तो कोई चीज़ है। लगा, नहीं कर पाऊँगी, एक महीने में ही छोड़ना पड़ा।
वक्त बीता,एक बेटा, फिर एक बेटी। दोनों को पालने-पोसने में वक्त तो बीतने लगा, पर मन में एक कसक कुछ ना कर पाने की, एक टीस हिटलर शाही को सहने की।
पर लड़की की तो इच्छाएँ थोड़े ही होती हैं, उसके पास दिल होता भी है, शायद ये पुरुषों को पता ही नहीं। ऐसा लगने लगा था।
बीत गए साल-दर-साल। बच्चे कॉलेज जाने लगे। फिर से खालीपन। योग में मेरी बचपन से रुचि थी, सीखा भी था थोड़ा बहुत। लगा समय है, डिप्लोमा कर लें तो घर पर ही सीखा पाऊँगी।
इतना तो जान ही गई थी कि इन्हें मेरा कहीं आना-जाना पसंद नहीं।
डिप्लोमा कोर्स ज्वाइन कर लिया,ढ़ेर सारी शर्तों के साथ, शादी के बीस साल बाद भी वही रौब, वही दबदबा….खैर लगा कोई बात नहीं।
पर बात तो थी, फिर से एक महीना भी नहीं बीता, रोज-रोज किसी-ना-किसी बात पर बेबात ताने कसना, चीखना-चिल्लाना, समझ नहीं आता, ये किस प्रकार की शिक्षा है, जो पुरुष स्त्री को अपनी जागीर समझता है, जो स्त्री को पक्षी की तरह बाँधकर रखना चाहता है, क्या ये कोई उनकी कमज़ोरियों का डर है, कोई कॉम्प्लेक्स….. जो संतुष्ट होता है, घर को पिंजड़े की भाँति उसमें अपनी ही जीवन संगिनी को कैदी बनाकर रखने में।
लगा इस कलह और अशांति से चुपचाप बैठना ही अच्छा। और छोड़ दिया वो योगा का डिप्लोमा कोर्स भी।
घर की चारदिवारी और मैं, बच्चे अपने दोस्तों में, अपनी पढ़ाई में और पति अपने ऑफिस में,,,
किस तरह इस अकेलेपन के साथ रहती हूँ, किसी ने जानने की कोशिश भी नहीं की, शायद सोचा ही ना हो , घर में पड़े एक समान की भाँति, इस्तेमाल करो और एक ओर पड़ा रहने दो।
अलमारी खोलती तो उसमें रखे कपड़ों की भाँति खुद को वहाँ टंगा पाती, जिसे गाहे-बगाहे कभी-कभी कहीं किसी त्योहार पर लपेट लेती मैं, और फिर उदास-सी वो वापस बन्द उस अलमारी में।
कहने को तो घर की मालकिन थी, कोई कमी नहीं, पर एक दर्द जो बहता था कहीं नाले की भाँति
अंदर-ही -अंदर अब फूटने लगा था सोता बाहर भी, पन्नों में कुछ बूंदें छिटकने लगी थीं और कहीं नीले, कहीं काले से रंगों से रंगने लगे थे, बस कलम साथी बनी और अकेलापन जाने लगा, पर नहीं इतना-सा ही नहीं था मेरा सच….।
एक बेचैनी…..अंदर ही अंदर….बैठे-बैठे खलती रही, और धीरे-धीरे अपनी प्यास बुझाने के लिए कम्प्यूटर के माध्यम से दोस्तों के बच्चों की जोड़ियाँ मिलाती।
कब विवाह करवाने की इस सुंदर-सी दुनिया में आ गई, पता ही नहीं चला। पन्नों पर दो और दो चार को जोड़ती एक और एक ग्यारह करने लगी।
पर क्या यही चाहता था मन, टटोलती खुद को तो ये सारा जैसे आडम्बर-सा, एक चादर, एक नकाब अपने-आप को छुपाने का, एक सच, एक झूठा अहसास खुश रहने का।
ढ़ेरों सवाल मेरे चारों ओर मेरी चाहतों के, पर जवाब…..?
बस, धीरे-धीरे अहिल्या की भाँति बन गया मन पत्थर……!
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किन्तु इस अहिल्या को इन्तजार नहीं था किसी राम का,,
शायद हर किसी को कोई ना कोई किनारा तो मिलता ही है,,मन में सच्चाई और कर्मठता हो तो ,,,,
मिला मुझे भी वो किनारा,,और निकल पड़ी अपने सपनों को सच करने,,, आसान तो नहीं था पर निश्चय पक्का था ,,,इसलिए अपनी राम मैं खुद ही बन बैठी,,, सारी वर्जनाओं को सम्भालती, घर में रहकर भी अब मैं बुन रही हूँ उस चादर को, जो मुझे उस आग से जलने से बचाऐगा, जिसमें अब तक जलती हुई भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रही मैं,,,,,।
बदलाव
लोग कहते हैं मैं बहुत बोल्ड हो गई हूँ। किसी से नहीं डरती। खुलकर बातें करती हूँ।
बदल गई हूँ मैं। हर वक्त पुरूषों के खिलाफ मोर्चा लेकर खडी रहती हूँ।
सच ही कहते हैं पर ये पूरा सच नहीं। अनेकों ऐसे पुरूष भी हैं जिनका मैं सम्मान भी करती हूँ।
पर आखिर कैसे आया ये बदलाव ?
एक छुई-मुई कोमल हृदयवाली सम्वेदनशील लड़की आखिर इतना कैसे बदल गई, किसी ने जानने की कोशिश नहीं की।
समस्या हमारे सामाजिक पारिवारिक ढांचे की ही अधिक है जहाँ बस जो बाहर दिखाई देता है उतना ही देख पाते हैं लोग। लिखे शब्दों को पढ़ना तो सीख गए हैं, पर उसके अर्थ की तह तक नहीं जा पाते।
शरीर को जान गए हैं, आत्मा और मन को जानने की आवश्यकता नहीं समझते।
ऐसे में किसी से क्या उम्मीद की जाए।
लेकिन मैं बदलना चाहती हूँ इस ढाँचे को ।
शायद यह छोटा मुँह बडी बात भले ही लगे, पर कोशिश करने में क्या हर्ज है, मेरी सहेली ने समझाया था । कोशिश कहीं-न-कहीं मानसिक संतुष्टि तो देता ही है, सफल हो या असफल।
यही कारण है कि मैं बचपन से लेकर अबतक के उन रिसते हुए धावों की टीस आज सब तक पहुँचाने का साहस कर पा रही हूँ, जिनकी यादें अब भी लावा बनकर खून के साथ मेरे शरीर में दौड़ने लगती है और उसकी आँच में झुलसने लगता है मन का कोना-कोना।
शायद पाँच छः साल की रही होंगी मैं। स्कूल में प्रिंसिपल सर अपने पास आफिस में बुलाते और अपनी मेज के पास खड़ा करके मीठी-मीठी बातें करते और धीरे-धीरे उनका हाथ मेरी जंधा को सहलाता आगे बढ़ता और किसी के आने की आहट से फौरन हाथ खींच लेते और वापस कक्षा में भेज देते।
चौदस-पन्द्रह साल की कमसिन सीधी सरल किशोरी मैं,,, ट्रेन में रात नींद में किसी के हाथों को अपनी शरीर पर रेंगते हुए पाया। झटके से आँख खुली तो देखकर स्तब्ध रह गई, एक युवक ठीठ की तरह अपने हाथों को बिना हटाए मुझे देख रहा था, मैं चिल्लाई तो वो चुपचाप सामने की सीट पर आँख मूँदकर इसतरह सो गया, जैसे उसने कुछ भी नहीं किया हो।
32साल की शादीशुदा औरत बन गई थी मैं बेटे को छोड़ने स्कूल गई, उसकी क्लास में कोई नहीं था, सात साल के बेटे ने कहा ,” आप रूको मैं बाथरूम जाकर आता हूँ।”
मैं उसका बैग लिए कक्षा में दरवाजे के पास कक्षा की ओर मुहँ किए खडी थी। अचानक पीठ पर किसी की छुअन महसूस हुई,सोचा बेटा आया है , मुड़ी तो स्तब्ध रह गई।
एक भद्दा-सा पुरूष बेशर्मी से भद्दी हँसी हँसते हुए मुझे देख रहा था। पूरे शरीर में बिजली का करंट महसूस किया मैंने,, मैं अवाक,,,, कुछ कहने की ताकत ही नहीं जैसे , तभी बेटा आ गया मैं उसे कक्षा मैअअं बैठाकर शून्य -सी बाहर आकर गाड़ी में बैठ गई, ड्राइवर ने गाड़ी घर की ओर ले ली,,, धीरे-धीरे रोना आने लगा, रास्ते भर रोते-रोते घर आई,,,,तब थोडा होश आया और लगा स्कूल में उसकी शिकायत करनी होगी।
पति को लेकर स्कूल गई तो वहाँ उस शैतान को भी बुलाया गया, जिसने अकेली पाकर मेरी पीठ को अपने होठों से गन्दा करने का प्रयास किया था। पर स्कूल में मुझसे ऐसे-ऐसे सवाल पूछे गए तमाम पुरूषों के सामने कि मुझे लगा, ये तो मेरा ही तमाशा बना रहे हैं।
तब पहली बार समझ में आया कि इस पुरूष सत्तात्मक समाज में सिर उठाकर जीना इतना आसान नहीं।
अपनी सुरक्षा और अपनी लडाई स्वयं लड़नी होगी और आस्तीन के साँपो को पहचानना होगा।
सम्वेदनशील तो पहले से अधिक हूँ, पर अब कोई हाथ बढ़ाने की हिम्मत नहीं कर सकता ,,,बस इतना ही बदला है,,,पर पुरूषप्रधान समाज में पुरूष के साथ कहीं-न-कहीं स्त्रियाँ भी दोषी हैं किसी न किसी रूप में , ये भी जानती हूँ मैं।
आज भी वे यादें मेरे अन्दर जिंदा है, क्या जान पाया कोई,,,?
नहीं,,,।
इसीलिए तो मेरे बदलाव को किसतरह समझ सकेंगें भला,,,ऊपर-ऊपर छिछले में तैरने वाले,,,,?
डॉ इन्दु झुंझुनवाला
बेंगलोर