मुझे शिकायत है खुद से कि क्यों मैं अपनी आन-बान और उसकी अना के बीच में पुल न बना सकी.
वह जांबाज़ लड़की, जवान हंसती मुस्कुराती, सलोनी सी सूरत, कर्मठता का परचम लिए दरवाजे के बाहर, और मैं अनमना सा गैरत भरा रवैया लिए दरवाजे के अंदर……
दरवाजा भीतर से बाहर की ओर खुलता है, पर मैं हाथ थामे खड़ी उसकी मोहिनी मुस्कुराहट में खो गई.
‘नमस्ते दीदी जी, सॉरी आज कुछ देर हो गई. मैं देर तक रुक कर आपका सब काम कर दूंगी. क्या मैं अंदर आ जाऊं?’ कहते हुए उसने मेरे चहरे पर अपनी नज़र डाल दी.
“अरे हाँ… ” मैंने दरवाजे से हटते हुए उसे अंदर आने का रास्ता दिया.
जैसे वह रसोई घर में घिरी, वहां से उसकी आवाज आई- “दीदी मैं हाथ साफ करके पहले आपके लिए चाय बना देती हूं, फिर वह सब काम करूंगी जो आप कहेंगी.”.
जाने क्या था उसके कहने के अंदाज़ में जो मेरी रूह मेरे तन में मचलने लगी. कुछ बेचैनियों का बवंडर मुझे घेरे हुए था. कई दिनों से बेवजह नाराजगी का बोझ मन में लिए मैं मंजुला से थोड़ी नहीं, थोड़ी से कुछ ज्यादा बेरुखी बरतती रही हूँ, यह भी महसूस कर रही हूं.
दो बरस से वह मेरे यहां काम पर लगी हुई है. दो बार आती है सुबह और शाम, मेरे घर के हर काम की जिम्मेदारी को अपने ऊपर लादती जा रही है, यह भी महसूस कर रही हूं. कभी मेरी बात का बुरा न मानते हुए सामान्य रूप से मुस्कुराती, ‘दीदी-दीदी’ करती जैसे मुझे रिझाती रहती है.
और आज मुझे अपने भीतर झांकने का अवसर मिला.
वह ऐसी क्यों है, और मैं उस जैसी क्यों नहीं?
मेरा घर, मेरे घर का काम, मैं नहीं कोई और कर रहा है. मुझे निस्संदेह आराम मिल रहा है, पर उसके काम का बोझ यकीनन दुगुना हुआ है. मेरे घर का सब काम व् उसके अपने घर का काम. काम ही नहीं, शायद और भी टूटी फूटी जवाबदारियाँ हों, जिनको ढोती हुई वह मेरे घर काम मांगने आन पहुंची थी. मैंने उसे घर की चौखट के भीतर ले लिया, अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए उसकी जवाबदारी बांटने के लिए नहीं.
“दीदी, लीजिए गर्म चाय. क्या साथ में कुछ लेंगी.”
“ कुछ नहीं मंजू, अब तुम भी बैठ कर चाय पियो, फिर काम कर लेना.”
“नहीं दीदी मैं तो चाय घर से पीकर चली थी. आज बेटे को भी चाय के साथ कुछ देती आई हूं. उसे थोड़ा बुखार चढ़ा हुआ है और साथ में कमजोरी और शिथिलता भी छाई है.
“ तो क्या उसे अकेले ही घर छोड़ आई हो, अभी तो वह 10 साल का है. तुम्हारा उसके साथ होना जरूरी है.”
“वह तो है, पर काम पर तो आना ही था, बस आते आते कुछ देर हो गई… अब काम करके जल्दी ही जाऊंगी, उसे खिचड़ी बनाकर देनी है.
“अरे खिचड़ी पर याद आया. आज मेरा मन भी खिचड़ी खाने को कर रहा है. ऐसा करना तू तुरंत ही खिचड़ी बना, मुझे देकर अपने और मन्नू के लिए घर ले जा. हाँ साथ में कुछ फल भी देती हूं कल उसे खिला देना. और एक बात, कल तुम घर पर ही रहना. मैं यहां अपना काम संभाल लूंगी. एक अकेले इंसान की जरूरत ही कितनी होती है?” कहते हुए मैंने उसकी ओर देखा और झटपट रसोई में काम संपन्न करने का आदेश दिया.
देखते ही देखते कुकर की सीटी फुसफुसाती हुई, शोर पर शोर मचाती रही… जो मेरे भीतर के शोर में घुलमिल सा गया.
अंतर्मन का द्वंद्व समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था. आज क्या हुआ है मुझे? क्यों मैं मंजू को लेकर इतनी सजग हुई हूं. दो बरस पहले ऐसा कभी नहीं हुआ. वह आती काम करती, चली जाती फिर आने के लिए.
अकेली मैं भी हूं, अकेली वह भी है.
मेरा बेटा बड़ा है, शादीशुदा है और परदेस में जा बसा है. उसका बेटा छोटा है, दस साल का, पढ़ने जाता है. और वह उसकी गैर हाज़िरी में मेरे यहां काम करने आती है. अनेक कारणों की वजह से दो चार बार मैंने उससे कहा भी है कि कहीं और जाकर काम करे जहाँ उसे चार पैसे ज्यादा मिल पाएं. पर वह मानती ही नहीं.
क्यों नहीं मानती शायद आज मेरे भीतर सोच की गांठें खुलने पर जान पाई हूं. वह जवान है. सुंदर है, सुशील है सुगठित शरीर की मालकिन है. मैं अकेली हूं… घर में कोई और नहीं जिससे वह पर्दा करें. और घरों में मर्दों की नजरों से वह बार-बार बेपर्दा होती रही है जिस कारण वह ऐसे कई काम छोड़ चुकी है. यह भी वह बातों बातों में कह गई थी एक बार.
“दीदी मुझे और कहीं नौकरी करने के लिए मत कहियो. मैं यहां बहुत ही निश्चित तौर से काम करती हूँ. आप बड़ी है, पर नारी मन तो सबका यकसा होता है. मुझपर अपनी नज़र बनाए रखिए जब तक मनु बड़ा नहीं हो जाता.”
और यादों का सैलाब उमड़ आया. लगा कहानी अपने आप को दोहराती है. एक कड़ी दूसरी से, दूसरी तीसरी से जुडती चली जाती है…पर कहानी का अंत कभी नहीं होता.
आज मेरी अना व् उसकी आन के बीच संधि हो गई.
जीवन का नूतन पाठ यही सिखा गया-‘जो ढोते हैं कांधों पर अपनी जवाबदारियों का बोझ, कोशिश कीजिए कि आपकी वजह से उनके पैर न जल जाएं.’
देवी नागरानी
27 अगस्त 2022