संस्मरणः देवी नागरानी


जिंदगी-एक सफर, एक मुक्ति द्वार
मैं मात्र मिट्टी, वह भी कच्ची

-देवी नागरानी
जीवन की पाठशाला में दाखिला…
ज़िन्दगी की किताब से पन्ना दर पन्ना हर रोज़ पढ़ना पड़ता है. यही जीवन का सार है, जो ज़िन्दगी सिखाती है.
जीवन एक तवील सफ़र है, जिसके साथ और कई सफर चलते रहते हैं. कहते हैं, कहकशां में कहकशां हैं और भी…
जिंदगी को मैंने जैसे जाना, पहचाना उससे प्यार किया है. आज भी कोई शिकायत नहीं, और आज तक न ऐसा कोई गणित ईजाद हुआ है जिससे मूल्यांकन किया जाय कि जिंदगी ने हमें क्या दिया और क्या छीना? कोई मापदंड भी नहीं कि अपने आप को परख पाएं. वैसे भी सेल्फ जजमेंट सही हो इसकी भी तो कोई खातिरी नहीं.
मेरी आस्था उस पैदा करने वाले पर शायद, शायद नहीं, निश्चित ही तब भी थी जब मेरी जीवन रूपी नैया गिर्दाब में धंस रही थी, और आज भी वही आस्था कायम है, कि करने वाला भी वही और कराने वाला भी वही है. मैं तो फ़क़त एकमात्र वसीला हूँ. आगाज़ और अंजाम के बीच का फासला तय करने में मैं प्रयत्नशील, कुछ इस तरह जैसे कोई अस्थाई जॉब मिला हुआ हो, जो कदम दर कदम आगे बढ़कर कार्य को संपूर्ण करके तजुर्बों के शुमार में दर्ज करती हूँ. कच्चे मटके को पक्का करना, काम उस कुंभार का. मैं मात्रा मिट्टी, वह भी कच्ची.
शादी के पश्चात एक पत्नी की, बच्चों के बाद एक माँ की, और अनेक दूसरे रिश्तो को निभाने की रस्म अता करनी पड़ती है. हर एक इन्सान के जीवन में यही मौसम आकर गुजर जाते हैं. स्थाई कोई दौर नहीं! बदलते हुए मौसमों की मानिंद, धूप-छांव की तरह आती-जाती अवस्थाएं- बालपन, जवानी और अधेड़ उम्र की दहलीज़ से होकर जीवन की राह आगे बढती है. आज का दिन गुजरता है, जो महसूस किया, जिया, उस हर पल को हमारे तजुर्बात के टकसाल में दर्ज किया जाता है.
नियामतें रोज हमारे सामने रक्स करतीं हैं, शायद हमें पहचानने वाली वह नज़र नहीं है, या शायद हम कुछ और ढूंढ रहे हैं जो हमारे हिस्से में नहीं है. पाना और खोना- अगर हम इस महाजाल की सतह से ऊपर उठकर देखें तो हमें आभास होगा कि सूरज उगने के साथ, कुदरत हमें एक दूसरा नया दिन जीने के लिए देती है, खुद को जानने व् पहचानने के लिए, अपना कुछ निजी काम करने के लिए.
Life is a gift to live, to enjoy, to serve and to attain the purpose of human birth. कुछ इस तरह सोच कर चलने के लिए कि- It is the first day of the rest of my life.
फिर तो रोशनी ही रोशनी होगी और हम!
एक शायर के ख़याल की तरह इस करिश्मे का अहसास महसूस किया जा सकता है जो कहता है–
“नुक्ते के हेर फेर से उस से जुदा हुआ
नुक्ता पलट कर रख दिया, वही खुदा हुआ”
रुककर, पलटकर, पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि जीवन मुझपर मेहरबान रहा है- कम छीनकर, ज़्यादा दिया है: एक पहचान, एक रोशनी जो मेरे मन के वहमों, भरमों के अंधेरों को रोशन करती है.
सबसे बड़ी नियामत जिंदगी ने मुझे तोहफे में दी है वह है मेरी प्यारी सिंधी भाषा, अपनी बोली! वह बोली जो मैंने बचपन में तो न पढ़ी ढी, न लिखी, पर बड़ी उम्र के इस पड़ाव पर उस भाषा को लिखना-पढ़ना सीखकर यह पाठ पढ़ा कि अपनी मात्रभाषा हमारे अस्तित्व की बुनियादी नींव है, हमारी असली पहचान है, हमारी तखलीक की लौ है.
वह कशमकश का कौन सा दौर था, नहीं जानती. जिसने शिद्दते-शौक को अंजाम तक लाने में मेरी मदद की. क्यों वक़्त मुझसे यह सब कुछ कराता गया, किस कारण, नहीं जानती पर, इस बात का संपूर्ण विश्वास है इस करने कराने के पीछे उस विधाता का कोई तो हाथ है.
बचपन, विभाजन के दौर में गुजरा. लड्पडाण (विस्थापन) बस जाने में बाधा बनता चला गया, कुछ भी आसान न था, अपने उखड़े वजूद को फिर से नई मिट्टी में रोपना. यह दौर हममें से बहुतों ने देखा और भोगा है. उसका दंश अब तक नसों के तहों में सरसराहट पैदा करता है.
हैदराबाद दक्षिण में आकर बस जाना हुआ. शुरूवाती शिक्षा हिंदी में, फिर अंग्रेजी में हुई. उस प्रांत में तेलुगू बोली दूसरी भाषा के रूप में पढने की अनिवार्यता थी, जिसकी मान्यता ने मुझे दक्षिण भारत की उस भाषा से परिचित करवाया.
वह दौर भी खत्म हुआ, कदम आगे बढ़े. जिंदगी का एक और पड़ाव आया या यूँ कहें कि दूसरा जन्म, जो एक औरत के जीवन का अहम् हिस्सा होता है, अपनी स्थापना करने व् अपनी निजी पहचान पाने का.
1961 में शादी के बाद मुंबई में बस जाना पड़ा. एक नारी मात्र नहीं, एक पत्नी, एक माँ, एक बहू, बेटी होने के साथ साथ अनेक और गर्दिशों के दौर से गुजरी. हर आज़माइश के पड़ाव को पार करते हुए आज सूरज के सामने खड़ी हूँ. जिंदगी यही है सबके लिए-यकसी, सूरज की रोशनी की तरह. बस नज़रिया अलग अलग रहता है, सूरज को दरवाजा खोल कर देखें, या फिर खिड़की.
मैंने अपने दिल के दरवाजे खोल कर जिंदगी को आगोश में भर लिया है. जैसी थी और जैसी है, मुझे स्वीकार है. कोई शिकायत नहीं, कोई शिकवा नहीं. बस एक तमन्ना शुक्रगुज़ारी की कायम रहती है-कि यह क़लम मेरा साथ निभाते आई है, इस की धार ही मेरी सोच को शब्दों में कलमबंद कर पाई है. हर नए सफर के नए मोड़ पर, नई आशाएं, नई आकांक्षाएं अपने आपको जाहिर करने के लिए छटपटाती हैं, यही अभिव्यक्ति है का सार है, मेरा रचना संसार.
१९७२ में नागरानी साहब के देहांत के पश्चात, पहाड़ जैसी मुश्किलातें, सामने मुंह उठाये खड़ी रहीं. किसी के होने और न होने का अहसास क्या होता है, यह तब जाना. तीस साल की उम्र में तीन बच्चों के साथ इस जीवन के महासागर के मंझधार में मेरी नैया पार लगाने वाला भी यकीनन वही जग का पालनहार है. यह मेरी अटूट आस्था है जो आज तक मुझे इन पगडंडियों से पार, यहाँ तक ले आई है. कोई तो है जिसके पदचिन्ह मेरी राहों को सुगमता बख्शते हैं, जिनपर चलना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल नहीं हुआ. मुश्किलें तो और होती है यह उनसे पूछो जो दिन रात जिंदगी बसर करते हुए यह भी नहीं जानते हैं कि दुख क्या है सुख क्या है अंधेरा क्या है, रोशनी क्या है?
और आज बेइंतहा लम्बे सफर के बाद यह अहसास मन में विश्वास बनकर बस गया है: “I walk on the footsteps of one who walks before me.” न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे मैं किसी मकसद के लिए उन्हीं रास्तों पर चल रही हूँ, जो कुदरत ने मेरे लिए स्थापित किए हैं. वही मेरे सामने के बंद रास्ते खोलते रहती है, और यह भी सच है जिन रास्तों पर मुझे नहीं चलना है वे दर बंद कर देती है. इस खुलने और बंद होने की तहों में मैं जिंदा हूँ, वह कोई और थी जो मेरे भीतर मर गई- वह डरी हुई सहमी सहमी नारी, वह कमजोर माँ.
दोनों लड़कियों की शादी १९८३ -१९८६ में हो गई. तद पश्चात मेरे कांधों का बोझ कम हो गया. मेरी जवाबदारियों को काफी राहत मिली, और १९९४-९५ में मुझे जैसे सिंधी भाषा की पाठशाला में दाखिला मिला.

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