संस्मरणः देवी नागरानी, अर्जित मिश्र

संवेदनात्मक अनुभूति

कभी-कभी जीवन में शब्दों की महत्वता सही समय पर जानने को मिलती है जब अर्थ में अनर्थ और अनर्थ के अर्थ अपने अनोखे स्वरुप में सामने रूबरू होते हैं.
ऐसा ही अनुभव मैंने हाल ही में किया जब अफ्रीका के एक रेगिस्तानी इलाके “मोरोक्को” में टूर के दौरान सइरा की सैर घोड़े पर चढ़कर करने की बारी आई.
सात-आठ लोगों का समूह था जिसमें बड़े बूढ़े नौजवान नर-नारी व नन्हे मुन्ने बच्चे भी थे.
सभी लोग घुड़सवार की मदद से घोड़े पर चढ़े और अपने आप को कुछ पट्टों की कैद में महफूज करने के बाद एक कारवां की तरह आगे बढ़ने लगे.
मेरी बेटी मीनाक्षी मेरे पीछे थी और मेरी समधिन साधना के आगे. कतार में सबसे आगे थे ज्ञानेश्वर जी, साधना के पति अपनी पांच साल की पोती के साथ. उनके पीछे दीक्षित मेरे दामाद अपने तीन साल के सुपुत्र के साथ.
जैसे ही सफर शुरू हुआ बेटी मीनाक्षी ने आवाज दी:
‘माँ ठीक हो ना, डर तो नहीं लग रहा है?’
‘हाँ मैं तो ठीक हूँ, पर मेरी टांग की तरह मेरी घोड़ी की टांग तो नहीं लड़खड़ाएगी.’ मैंने अपनी अवस्था से उन्हें अवगत कराते हुए कहा.
पीछे मुड़ना मुहाल था, पर वहां से हल्की सी हंसी की फुहार आती रही. और फिर वही सवाल मीनाक्षी ने अपनी सास साधना जी से किया.
‘मम्मी तुम ठीक हो, कैसा लग रहा है?’
मेरा ध्यान अब उत्तर को सुनने के लिए उतावला सा रहा. यही तो जीवन के वे पल होते हैं, जब हम खुले अंबर तले तैरती फिजाओं में सांस लेते हैं, हंसते हैं, मुस्कराते हैं, और जीते हैं. घुड़सवार के रेडियो पर गाना बज रहा था:

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द हो सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है…
‘बेटे मैं तो ठीक हूँ पर मेरी घोड़ी से पूछ लो वह कैसी है?’
आगे से हंसी के फुहारे के साथ ठहाकों की आवाज आई. मैं भी आगे की ओर देखते हुए मुस्कुराई. दूरंदेशी का संदेश देता साधना जी का जवाब मन को भाया और मौन मुस्कुराहट झूमती हुई माहौल में छा गई. बेचारी दुबली पतली घोड़ी तो कुछ कह न पाई, पर बेटी को पता था कि उसकी सास क़द की छोटी, मन की मौजी, भरी भरकम बदन की मलिका, खाते पीते घर की मालकिन है.
अपना किरदार बखूबी निभाती, मुस्कुराती हंसती-हंसाती मेरी समधिन साधना मुझे बहुत अजीज़ है. उसके आंगन में मैंने मीनाक्षी को रौंपा, जहाँ उसकी आन, बान और शान उनकी छत्रछाया में बरक़रार है.
वो कहते हैं ना…
हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…
वह भी तो दिलदार है,
दिलवाली है और हर दिल अजीज़ है.

देवी नागरानी
नवंबर 14, 2023

आज पुश्तैनी संपत्ति से सम्बंधित एक काम के सिलसिले में तहसील कार्यालय जाना हुआ| चूँकि सम्बंधित बाबू से बात हो चुकी थी, इसलिए मैं सीधे न्यायलय कक्ष के पास स्थित उसके कमरे में चला गया| उस समय वो किसी से बात कर रहा था| मुझे देखते ही उसने नमस्कार किया और दो मिनट रुकने का आग्रह किया| मैं न्यायलय कक्ष के आस पास ही टहलने लगा| काफी भीड़ थी वहां| हर व्यक्ति फाइलों को समेटे परेशानी में इधर उधर भाग रहा था| कुछ पत्थर की और कुछ स्टील के बेंच पड़ी हुई थीं, जिनमे से पत्थर की अधिकाँश खाली ही थीं| मेरा कोई बैठने का ख़ास इरादा नहीं था लेकिन पत्थर की बेंच पर बैठना भी मुझे मंज़ूर नहीं था| नज़र दौड़ा कर मैंने देखा एक स्टील की बेंच पर सिर्फ एक बुजुर्ग महिला बैठी हुई थी| शायद किसी पास के गाँव से तारीख़ पर आई होगी| ऐसा लगा जैसे उसने मेरी मनःस्थिति को भांप लिया| अचानक से वो उठी और मुझसे बोली “भैया, आप यहाँ बैठ जाओ”|
मेरे द्वारा संकोचवश मना करने पर उसने एक माँ की तरह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बेंच पर बैठा दिया और खुद जाकर एक कोने में फ़र्श पर बैठ गयी| कुछ पल के लिए मेरा शरीर और मेरा दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया हो| मैं बस उस शख्सियत को देखता रहा| मैं उसे नहीं जानता था, न ही वो मुझे जानती थी और शायद ज़िन्दगी में दुबारा कभी मुलाक़ात भी न हो, किन्तु उसके द्वारा मुझपर लुटाई गयी कुछ पलों की ममता ने मुझे भावविभोर कर दिया| सहसा ही मन में आया कि वास्तविकता में हमारे संस्कार और हमारी संस्कृति सिर्फ गावों में ही जीवित है| मैंने आँखें बंद कीं और सिर स्वयं ही श्रद्धा से उस महान माता के सम्मान में झुक गया|

अर्जित मिश्र

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