शैलेश मटियानीः एक परिचय

हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार शैलेश मटियानी का जन्म 14 अक्टूबर 1931 को अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना गांव में हुआ। तब कौन जानता था, उस साधारण परिवार में जन्मा बालक एक दिन हिंदी कथा साहित्य का शिखर-पुरुष बनेगा। लेकिन मटियानी जी को यह उपलब्धि सहज ही नहीं मिली। उनका सारा जीवन-व्यक्ति के तौर पर भी और साहित्यकार के स्तर पर भी संघर्षों से भरा रहा। उन्ही के शब्दों में कहें तो उसमें न जाने कितने उपन्यासों के लिए कथावस्तु मौजूद है। मटियानी जी बारहवें वर्ष में थे, तभी उनके माता-पिता दो भाई-बहनों के साथ उन्हें छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। यहीं से उनके जीवन का कठिन दौर शुरू होता है। वह पांचवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। अब उन्हें अपने चाचाओं के संरक्षण में रहना था। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि पढ़ाई छूट गई और चाचाओं के घर और कारोबार में हाथ बटाने का काम शुरू करना पड़ा, जिसमें बूचड़ की दुकान पर काम करना और जुए की नाल उघाना प्रमुख थे। चाचाओं के आश्रय में वह करीब आठ साल रहे। इसी दौरान पांच सालों के अंतराल के बाद जैसे-तैसे पढ़ाई फिर से शुरू करके वह मिडिल तक पहुंचे। पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय न मिलने के बावजूद अपने ‘ अभिशप्त छात्र जीवन ‘ में उन्होने अपनी विलक्षण प्रतिभा से अध्यापकों को अभिभूत कर दिया। उनका स्नेह उन्हें बराबर मिलता रहा। वे उन्हें प्रोत्साहित भी करते रहे और चाचाओं पर उन्हें पढ़ाने के लिए दबाव भी बनाते रहे। यह अध्यापकों का स्नेह-प्रोत्साहन था कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह हाइस्कूल कर गए।

मटियानी जी के संवेदनशील व्यक्तित्व में लेखक बनने के बीज शुरू से ही मौजूद थे, जो एक लेखक मित्र कुंवर सिंह तिलारा के संपर्क में आने से अंकुरित होने लगे। 1950 में उन्होंने कविताएं-कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं। किंतु अल्मोड़ा की पत्रिकाओं से उन्हें सिर्फ उपेक्षा और घृणा ही मिली। अल्मोड़ा का घनघोर आभिजात्य उनकी प्रतिभा को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था। बल्कि जितना हो सकता था, तिरस्कृत करने में लगा हुआ था। इस तिरस्कार ने उन्हें तोड़ा नहीं बल्कि लेखक बनने और सिर्फ लेखक ही बनने के विचार को मजबूती दी। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जिसका परिवेश जुआरियों-शराबियों का रहा हो, जिसे पढ़ने के लिए पाठ्यपुष्तकों के लिए भी पर्याप्त साधन और समय न मिला हो, उसके मन में लेखक बनने का विचार कैसे आया ? इसका जवाब तो ईश्वर ही दे सकता है जिससे वह निरंतर प्रार्थना करते थे- ‘ हे माता सरस्वती, मुझे किसी भी तरह लेखक अवश्य बना देना। ‘

जल्दी ही उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई। ‘जहाँ चाह वहाँ राह ‘ को चरितार्थ करती मटियानी जी की दो कहानियां अमर कहानी तथा रंगमहल पक्षिकाओं में छपी। लेकिन अब परिस्थितियां इतनी विकट हो गई थीं कि उनके लिए अल्मोड़ा-बाड़ेछीना रहना कठिन हो गया। वह दिल्ली चले आए। चाचा के घर से ‘ घी का चौथाई ‘ चुराकर उसे उन्नीस रुपयों में बेचकर दिल्ली आने की व्यवस्था की। यहां वह अमर कहानी के संपादक आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रुके। कुछ समय नौकरी भी की। इस दौरान उनकी बारह कहानियां छपीं। लेकिन जल्दी ही उनका मन दिल्ली से भर गया। उन्होंने इलाहाबाद जाने का निश्चय किया और उसके लिए धन की व्यवस्था अमर कहानी के लिए शक्ति ही जीवन है और दोराहा नामक दो लघु उपन्यास लिखकर की।

1951 के अंत में पहली बार इलाहाबाद पहुंचे। मटियानी जी को इलाहाबाद के इस दौर ने न तो आर्थिक रूप से स्थापित होने में मदद की, न वहां साहित्यकार के रूप में ही उनका स्वागत हुआ। लेकिन इसने उन्हें यथार्थ से रू-ब-रू करवा दिया। उनमें आत्मविश्वास का संचार किया। इलाहाबाद में वह माया कार्यालय गए क्षितीन्द्र जी से मिलने, लेकिन क्षितीन्द्र जी ने उनसे कोई बात नहीं की, पर शमशेर बहादुर सिंह का रास्ता जरूर दिखा दिया। शमशेर जी ने उन्हें बड़ी आत्मीयता से लिया। न केवल अपने घर में टिकने की जगह दी बल्कि उन्हें काम दिलवाने की भी भरसक कोशिश की। पहले उन्हें एक परिचित के माध्यम से ‘लीडर प्रेस‘ की कैंटीन में काम दिलवाया। वह काम सिर्फ एक ही दिन चला। उसके बाद शमशेर जी ने उन्हें ‘पंत जी ‘ के पास पत्र देकर भेजा, जिसमें उन्हें घरेलू काम पर रखने की गुंजाइश के साथ-साथ उनकी साहित्यिक प्रतिभा का भी जिक्र था। पंत जी के पास पहाड़ी आदमी के लिए कोई नौकरी नहीं थी ( क्योंकि उनका पहाड़ी नौकर चोरी करके भाग गया था) न ही उनके पास मटियानी जी की साहित्यिक उपलब्धियों को देखने की फुर्सत थी।

पंत जी के उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने उनके अंतर्मन को किस कदर झकझोरा, यह उनके शब्दों से ही स्पष्ट है-‘ …मेरी कायर कुंठित होती चली जा रही आत्मा के, मेरे मृतप्राय स्वाभिमान के मुंह पर जैसे दूसरी बार (पहली बार क्षितिन्द्र की उपेक्षा) एक करारा तमाचा पड़ा था। …वह दिन है और आज का दिन है-मैं फिर किसी साहित्यकार की शरण में नहीं गया कि मुझे आश्रय मिले।‘

उसी दिन उन्होंने इलाहाबाद छोड़ दिया। कुछ दिन मुजफ्फरनगर में घरेलू नौकर का काम किया, फिर दिल्ली लौट आए।

इसके बाद जीवन में एक नया मोड़ आया। दिल्ली से वह एक पहाड़ी मित्र के साथ बिना टिकट बंबई के लिए रवाना हुए। यहां उन्होंने लगभग आठ-नौ वर्ष बिताए, जिन्होंने उन्हें ‘ लेखक होने के उस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां से वापसी संभव नहीं रही‘।

बंबई पहुंचते ही उनका सामान और मित्र दोनों गायब हो गए। कोई आसरा न होने के कारण उन्हें फुटपाथों की शरण लेनी पड़ी। यहां उन्होंने एक तथाकथित ‘असामाजिक बिरादरी‘ पाई जिसके लिए सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है, जिनकी नारकीय परिस्थितियों में भी जीने की अदम्य इच्छा ने मटियानी जी को प्रभावित किया। वह उनके साथ फुटपाथ पर सोए, राह पर पड़े रोटी के टुकड़ों को बीना, भोजन की जुगाड़ में हवालातों के चक्कर लगाअ। भिखारियों की पंगत में बैठे, खून बेचा। कुल मिलाकर कहा जाए तो घोर उपेक्षा और तिरस्कार सहा, पर लेखक बनने का ख्वाब न टूटने दिया।

दरअसल वह इसे अपने लेखन के लिए उर्वरक मानते थे। प्रकाश मनु ने एक संस्मरण में उन्हें इस तरह उद्धृत किया है-‘ मैं शराब, सिगरेट या किसी भी नशे का सेवन नहीं करता- इसलिए कि शराब या कोई भी नशा लेने का मतलब है, मैं हार गया। यह मेरी मूल प्रतिज्ञा के खिलाफ है। दुख-दर्द जो भी मेरे हिस्से का है, उसे सहकर- सीधे-सीधे झेलकर ही मैं लेखक हूँ- तो मैं उसे सहूंगा। हर कीमत पर, हर हाल में…. ‘

करीब पांच-छह साल इन तोड़ देने वाली परिस्थियों में रहने के बाद 1956 में उन्हें ‘श्री कृष्ण पूरी हाउस‘ में प्लेटें साफ करने का काम मिला। मटियानी जी ने इसे वरदान से कम नहीं समझा। तीन-साढ़े तीन साल तक उन्होंने यही काम किया, साहित्य-साधना भी जारी रही। कई कहानी-कविताओं की रचना हुई। फिर बंबई भी छूट गया। पहाड़ से बंबई तक के इस दौर के अनुभव उनकी मेरी तैंतीस कहानियां, बोरीवली से बोरीबंदर तक, चौथी मुठ्ठी, हौलदार आदि कृतियों में दर्ज हैं। बंबई से अल्मोड़ा, फिर दिल्ली की यात्राएँ कीं लेकिन टिके फिर इलाहाबाद में जाकर ही।

उन्होंने पूरी तरह से लेखनी को ही आजीविका का स्रोत बना लिया था। पत्रिकाओं से आनेवाले पारिश्रमिक से चार बच्चों वाला घर न संभला तो उन्होंने विकल्प नामक अर्धवार्षिक पत्रिका निकालने का निश्चय किया और बाद में जनपक्ष। यह मटियानी जी की नैतिक ईमनानदारी ही थी कि विकल्प के पहले संपादकीय में वह स्पष्ट कर देते हैं कि ‘ पत्रिका का उद्देश्य आजीविका जुटाना है।‘ मटियानी जी लेखन के प्रति समर्पित थे, तो लेखकीय स्वतंत्रता के लिए भी प्रतिबद्ध थे। वह अपने विचारों व लेखकीय प्रतिष्ठा के प्रति कितने संवेदनशील थे, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी वैचारिकता से संबंधित एक खबर को तोड़-मरोड़कर छापने के लिए विरोधस्वरूप में धर्मयुग के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। इसमें एक-एक करके सभी साथी पीछे हट गए और उन्हें भी हटने की सलाह दी गई। किंतु अर्थाभाव और साधनहीनता के बावजूद स्वाभिमानी लेखक ने अपने दम पर मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा। साहित्य जगत में उनके दो टूक और स्पष्टवादी स्वभाव का स्वागत नहीं हुआ, बल्कि अवसरवादिता के शिकार लोग उनसे चिढ़ते चले गए। सुधी आलोचकों ने उन्हें प्रेमचन्द के बाद के श्रेष्ठ आलोचकों में गिना। फिर भी कथाकार के रूप में उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं दी गई जिसके वह अधिकारी थे।

ऐसी उपेक्षा के वह आदी हो चुके थे, उसने उनकी रचनाओं को कभी प्रभावित नहीं किया। पर नियति की मार उन्हें झकझोर गई। 13 अप्रैल, 1992 को उनके छोटे बेटे की हत्या हो गई। इस हादसे के बाद उनका संतुलित रहना कठिन हो गया। 1995 में कलकत्ता में भारतीय भाषा परिषद् की एक गोष्ठी में उन्हें मानसिक रोग का पहला दौरा पड़ा। यह इतना जबर्दस्त था कि वह सात दिनों तक बेहोश रहे। उसके बाद इस रोग ने मृत्यु तक उनका पल्ला नहीं छोड़ा। उन्हें करीब आठ बार विक्षिप्तता के दौरे पड़े। इलाज बराबर चलता रहा। कुछ समय के बाद वह ठीक होते, तो लिखना फिर शुरु हो जाता था। पर वह सामान्य कभी नहीं हो पाए। अततः विक्षिप्तता में ही 14 अप्रैल, 2001 को उनका देहांत हो गया।
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