अभिलाषा
पिंकी – माँ मुझे पढ़ने बाहर जाना है ..!
पिकीं लगातार माँ पिताजी को बोल रही थी ..! पिंकी चार भाई बहनों में सबसे छोटी , ऊर्जा और उत्साह से भरी हुई , कुछ भी कर गुजरने को तैयार ! उसका बालमन माता पिता कि आर्थिक समस्या को मिटाने के सपने देख रहा है ! उसने कभी ज़िद नहीं की खिलौने , कपड़े की परंतु उसकी पढ़ने व बढ़ने की चाहत बरकरार है !
माँ भी महसूस कर रही थी पर गाँव का परिवेश और आर्थिक समस्या दोनों ही आड़े आ रही थीं !
पिंकी का रुझान टी व्ही , अख़बार, रेडियो इन्हीं मे था नित नयी खबर देखना , जानना समझना चाहती थी !
अन्य भाई बहनों की तरह १० वाँ पास हो गई अच्छे नंबर से ! अब वह कम्प्यूटर साइंस पढ़ने बाहर जाना चाहती थी ! उसे इन्टरनेट के सही उपयोग की सही जानकारी थी !
– सुनो ना माँ ..”
– सरकार स्कालरशिप दे रही है “ बड़े उत्साह से पिंकी बोली ! माँ कुछ बोल पाती , तभी इतने में ही चाची चाचा घर आये .. पिंकी का उत्साह देख कर बोले-
– “क्यों ना पिंकी को शहर ले जाये हमारे साथ उच्च शिक्षा के लिये ! कम्प्यूटर पढ़ कर माँ पिताजी का नाम रोशन करेगी ।”
– आनन फ़ानन में पिंकी शहर आगई ! चाचा ने उसे स्मार्टफ़ोन गिफ़्ट कर दिया अब तो पिंकी की उड़ान को पंख मिल गये !वह हमेशा मोबाइल का उपयोग करती परंतु नयी जानकारी प्राप्त करने के लिये ! वहीं उसका चचेरा भाई दिनभर मोबाइल का दुरुपयोग कर रहा था ! जहाँ पिंकी निखरती जा रही थी , भाई गर्त में जा रहा था ! .. एक दिन पता चला पिंकी पढ़ाई पूरी कर के विदेश जा रही है
– भाई … वहीं पर परचून की दुकान पर बैठा … ग्राहकों के साथ सिर खपा रहा है !
– काश भाई भी सही समय पर सही चीज़ का सही उपयोग करना सीख गया होता ., स्मार्टफ़ोन का स्मार्ट यूज ….,
गर्विता
लीना – “सुनो अंश .. आज डाक्टर का अपाइंटमेंट है “
अंश – “ हाँ है तो .. पर आज मेरी महत्वपूर्ण मीटिंग है ,संभव नहीं हो पायेगा !
लीना ये महसूस कर रही थी कि अंश के मन में संतान को ले कर वो पहले सा उत्साह नहीं रहा !
लीना व अंश का प्रेम विवाह था , लीना को ससुराल में ख़ुश दिल से नहीं अपनाया गया था । स्वाभिमानी होने के कारण मायके आकर स्वयं की अपनी कोचिंग क्लास शुरु कर दी थी ! कुछ दिन में तबादला ले कर अंश भी लीना के ही पास आ गये थे ।
दोनों मस्त रहते , बीच बीच में वार- त्यौहार पर दोनों अंश के माता पिता से मिलने भी जाते । कुल मिलाकर जीवन व्यवस्थित चल रहा था !
परंतु आज अंश से मन माफ़िक़ जवाब नहीं मिलने से लीना दुखी हो गई ।
विवाह के १२ वर्ष बाद भी संतान ना होने के कारण दोनों ही कहीं मन के कोने में दुखी थे !
बातों बातों में लीना को कहीं से “आई वी एफ “टेक्नोलॉजी के बारे पता चला था !
उसी के संबंध में उसने डाक्टर से मिलने का समय निर्धारित किया था! परंतु अंश से सही जवाब न मिलने पर बोली –
लीना – “कोई बात नहीं अंश , मैं स्वयं मिल कर आऊँगी !
“तुम किसी और दिन चलना !”
लीना शुरू से ही आत्मविश्वासी और गंभीर प्रकृति की थी !
बच्चों के प्रति उसे विशेष आकर्षण था , परंतु बस सामाजिक मर्यादा के चलते किसी से इस विषय पर बात नहीं कर पायी ! और फिर उसे ईश्वर पर भी भरोसा था !
जैसा कि कहावत है – “ घुटना पेट की ओर ही मुड़ता है “
समय के साथ अंश का झुकाव भी माँ की ओर होने लगा .,! लीना ये महसूस कर रही थी ! उसे अपने आँगन में भी “फूल -फल “ चाहिये थे , बच्चों की किलकारी चाहिये थी !
अंश के ऑफिस जाते ही लीना भी तैयार हो कर डाक्टर के पास चल दी !
डाक्टर – “ओह आप अकेली है ! “
“ जी “लीना ने संक्षिप्त उत्तर दिया !
अनुभवी डाक्टर लीना की आँखों में देख कर ही मन का हाल समझ गयीं!उन्होंने भी दृढ़ निश्चयी लीना की मदद करने की ठान ली!
उन्होंने ने पूरी गंभीरता से बातों बातों में समझा दिया नारी बहुत शक्तिशाली है पर संतानोत्पत्ति के लिये पुरुष का सहयोग पूर्णतः अपेक्षित है ! पर फिर भी “अबला “ नहीं है विज्ञान के बहुत तरक़्क़ी कर ली है ! बातों बातों में लीना को समझ में आ गया कि पति के बिना भी फुलवारी महक सकती है !
“ सुनो अंश में डाक्टर से मिल आयी हूँ “
यदी तुम ना चाहो तो भी विज्ञान ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि मेरे अकेले के लिये डाक्टर मेडम की मदद से अब सब संभव है ।“
एक साँस में लीना ने बोल दिया और गर्वीली मुस्कान के साथ अंश को देखने लगी !
अंश को समझ आ चुका था कि संतानोत्पत्ति के लिये “ पुरुष “चाहिये ..“ पति “नहीं भी होगा तो चलेगा ..! और वह लीना को भी खोना नहीं चाहता था !
तुरंत बोल पड़ा, “ओह लीना .. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ !”
मन में लीना सोच रही थी –“देर आये दुरुस्त आये “
कोख का व्यापार
दरवाज़े पर घंटी बजते ही सुदीप दरवाज़े की तरफ बढ़ता है।
“ अरे तुम ! “
दरवाज़े पर लतिका को देख कर थोड़ा तल्ख़ी मे बोला बोला ।
लतिका भी थोड़ा सकुचाती हुई बोली – “ हाँ मै। ! शहर छोड कर जा रही थी तो सोचा आप लोगो से मिलती चलूँ ! “ परंतु मन के किसी कोने मे चाह दबी थी … शायद एक झलक दिल के टुकड़े की मिल जाये !
सुदीप की बात करने का लहजा देख .. पहले तो लतिका ने सोचा कि मन की चाह मन मे ही दबी रहने दे … परंतु फिर भी ज़्यादा ममत्व उमड़ जाने से .. दुखी किंतु संयत स्वर मे बोली –
“ साहब यदी एक झलक बच्चे की मुझे दिखा देते तो मैं थोड़ी संतुष्ट हो कर यहाँ से चली जाती ! “
सुदीप ग़ुस्से से बोला – हमने तेरा हिसाब कर दिया है , अब ख़बरदार जो इधर क रुख़ किया तो …!
सुदीप की बात सुन कर और व्यवहार देख कर लतिका का मन ख़राब हो गया । बस इतना ही बोली –
“ कोख मजबूरी मे बेची है साहब….. माँ तो हूँ ना ….. ! “
तब तक सुदीप दरवाज़ा बंद कर चुका था !
कृतज्ञता
आज नीरू बहुत ही खुश थी ,पंख होते तो उड़ कर घर पहुँच जाती ।
कैसी हो नीरू ..!
नीरू के कदम ठिठक गये आवाज़ सुन कर ! जैसी पीछे मुड़ कर देखा , तो ठगी सी खड़ी रह गई। बस इतना ही बोल पायी कि
“ठीक हूँ प्रवेश । आज बरसों बाद तुम यहाँ कैसे “?
बस ऐसे ही … इसी अस्पताल मे आ गया हूँ । दो साल हुये ।
“दो साल “… नीरू आश्चर्य से बोली ! और तुम मिले तक नहीं मुझसे !
“हाँ ! दो साल । “ प्रवेश निर्विकार भाव से बोला ।
…. नीरू के विचारों को पंख लग गये थे । वो भी क़रीब 20 साल पीछे पहुँच गयी।जब वे सहपाठी थे ।प्रवेश के पिता की अचानक मृत्यु हे जाने के कारण बीच मे ही पढ़ाई रुक सी गई थी ।तब नीरू के ही पिता की मदद के कारण वह पढ़ाई पूरी कर पाया था।
नीरु व प्रवेश अच्छे दोस्त थे ,एक दूसरे का ख़याल रखते थे , मगर प्यार का इज़हार कभी भी नहीँ किया था … शायद मन में ख़याल भी नहीं आया था ।
आज जब अस्पताल से बेटे को घर ले जाना था और चिंता ये थी की बिल कौन देगा ?
अचानक ये पता चलना की “एक संस्था ने चेरिटी के तहत आपका बिल भर दिया है .. “ ये सुन कर नीरू ने राहत की साँस ली । परंतु मन में असंख्य प्रश्न भी कौंध रहे थे , कौन सी ऐसी संस्था है , मेरे बेटे का ही बिल क्यों भरा ….. वग़ैरह वग़ैरह ….
अचानक प्रवेश का मिलना और बिना ज़्यादा कुछ बात किये जाना … अब नीरू को अच्छी तरह समझ आ गया था ,आज प्रवेश का कम बात करना .. पिताजी की मदद से प्रवेश की डाक्टरी पूरी करना ….. ! नीरू कृतज्ञता से भर उठी ।
आज “हिसाब “पूरा हो गया ।
नीरू के क़दम घर की और बढ चले !
शेफालिका
भोपाल
ग्रहण
*****
हरिप्रसाद मास्टर सातवीं कक्षा के बच्चों से पूछ रहे थे –
“कल सूर्य ग्रहण था। जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तो वह सूर्य को पूर्ण रूप से आच्छादित कर देता है। सूर्य का बिंब ढक जाता है और धरती पर उसकी छाया से अंधेरा छा जाता है। इसका आध्यात्मिक स्वरूप भी हमारे पुराणों में मिलता है। बताओ रोहित, कल तुमने क्या किया?”
रोहित ने खड़े होकर कहा -“कल सूतक लगने के पहले हमने नाश्ता कर लिया था। फिर सूतक समाप्त होने के बाद खाना खाया।”
उसके मोटे शरीर को देखकर सब हँसने लगे ।
“तुम बताओ मीरा। खाने के अलावा तुमने क्या किया ?”
जब तक ग्रहण था हमने कुछ नहीं खाया। माँ ने जो थोड़ी बहुत खाने की सामग्री घर में थी उसमें तुलसी के पत्ते डाल दिए। ग्रहण समाप्त होने पर माँ ने घर में गंगाजल का छिड़काव किया। फिर हम सब ने स्नान करके भोजन किया।”
” नहाते क्यों है मास्टर जी?” रोहित ने पूछा।
” पृथ्वी पर छाया पड़ती है न चंद्रमा की।”
“तो क्या छाया अपवित्र होती है?” मीरा ने पूछा
मीरा के प्रश्न ने हरिप्रसाद को न जाने कितने वर्षों के पार पहुँचा दिया। आज वह पढ़ लिखकर मास्टर है। लेकिन है तो दलित ,अछूत होने के कारण उनके माता-पिता ,पूरे परिवार ने सवर्णों का घोर अत्याचार सहा है।
सड़क पर चलते हुए उनकी छाया उन पर पड़ जाए तो वे तुरंत स्नान करते थे। मुंह में तुलसी रखकर सूर्य का जाप करते थे।
एक बार तो सड़क पर एक पंडित के आगे आगे चलने के कारण उनके पिता पर पंडित ने मैला फिकवाया था ।
“बताइए न मास्टरजी, छाया अपवित्र कैसे हुई?”
” छाया अपवित्र नहीं होती। जो छाया को अपवित्र मानते हैं उनके मन अपवित्र होते हैं, सोच अपवित्र होती है।”
कहते हुए हरिप्रसाद को भर आईं आँखें पोछने के लिए दो बार चश्मा उतारना पड़ा।
असमंजस
रोहित बाबू ने पूछा “लड़की का नाम क्या रखा गोपाल ?”
गोपाल ने हाथ जोड़े “नाम तो आप ही रखेंगे सरकार ।आपका दिया नाम……. गरीब घर की लड़की चंदा सी चमकेगी ।”
रोहित बाबू सोचते रहे ।तब तक कोठी के महाराज ने मिठाई का डिब्बा लाकर स्कूल पर रख दिया ।रोहित बाबू ने मिठाई गोपाल को देते हुए कहा
“जवाकुसुम , घर में जवा बुलाना।” गोपाल ने चमकती आंखों से डिब्बा थामा 7 साल बाद गोपाल पिता बना है ।फूल कर छाती तो चौड़ी होनी ही है।
गोपाल के जाते ही कोठी में खुसर पुसर शुरू हो गई ।बड़ी मां ने कहा
“अरे तुझे यह क्या सूझी रोहित ? कोठी के नौकर की लड़की को अपनी परदादी का नाम दे दिया।”
” हमें पता नहीं था बड़ी मां परदादी का नाम। फिर बताएं क्या रखूं उसका नाम?” मोहनी रखने को कह दूं?”
वंशावली मंगवाई गई ।सात पुश्ते तलाशी गई। परिवार में किसी का नाम मोहनी तो नहीं।
” हां रख सकता है तू मोहनी नाम ।पर तुझे क्या पड़ी है नाम रखने की?” बड़ी मां से रोहित बाबू आंखें नहीं मिला सके ।अब कैसे बताएं कि मोहिनी उन्हीं की तो……..
रोबोट
अमेरिका के बोस्टन से लौटकर वह खाना खाते हुए पत्नी को बतला रहा था–
“पता है अमेरिका में अब रेस्तरां में रोबोट ग्राहकों का ऑर्डर भी लेंगे और परोसेंगे भी।”
पत्नी ने मटर पनीर की सब्जी उसे परोसते हुए आश्चर्य से पूछा-” क्या वाकई ।”
“हाँ ये रोबोट्स पाँच बैटरियों से चलेंगे। इनकी कीमत 74 लाख है।
“नींबू दो यार ।”
“अभी लाई ।”
कहती हुई पत्नी किचन में गई और प्लेट में नींबू काटकर ले आई, साथ में गर्म फुलका भी। पति ने सब्जी में नींबू निचोड़ते हुए कहा –
“रोबोट से सेवा लेने के लिए ग्राहक को कंप्यूटर पर लॉग इन करवाया जाता है। तब उसके सामने एक कस्टमाइज्ड टेबल कुर्सी खुल जाती है। ग्राहक के उस कुर्सी पर बैठते ही रोबोट ऑर्डर लेता है, किचन तक पहुंचाता है और रोबोटिक सर्वर से उसका ऑर्डर टेबल पर सर्व हो जाता है ।”
“वाह जीना कितना आसान ।”
“मुझे तो यह वेस्ट ऑफ मनी लगा। मनुष्य मशीन हो गया। यार पापड़ और हरी मिर्च भी लाओ न ।”
पत्नी पापड़ सेकने किचन की ओर जाने लगी।
पलट कर उसने पलकें झपकाईं।
गिद्ध
अनाथ आश्रम में मुर्दनी छाई थी। आश्रम के सर्वेसर्वा सबके चहेते रुस्तमजी यानी अब्बू का अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया था। रुस्तमजी की सबसे लाडली रूपा सहमी हुई उनके शव के पास बैठी थी। सुबह ही तो रुस्तम जी ने रुपा से कहा था “शहर में कर्फ्यू लगा है। बिना दूध की काली चाय पीनी पड़ेगी” चाय पीते हुए ही वे कुर्सी से नीचे गिर पड़े थे……… और अब रुस्तम जी के पार्थिव शरीर पर मसालों का लेप लगाकर दुखमेनाशीनी यानी अंतिम संस्कार के लिए दख्मा( टॉवर ऑफ साइलेंस )पर रख दिया गया ।
रूपा को जैनी समझा रही थी ‘अब्बू महान थे। अभी थोड़ी देर में गिद्ध आएंगे और अब्बू की पार्थिव् देह से अपनी भूख शांत करेंगे ।जैसे जीवित रहते हुए वे हम सबकी भूख शांत करते थे। वे मरने के बाद भी परोपकार कर रहे हैं।”
रूपा आंखें फाड़े आकाश की सीमा नापने लगी। कहीं एक भी गिद्ध न था ।ये अपशकुन कैसा ?
शहर में सांप्रदायिक दंगों की आग चरम पर थी। बेकसूर लोगों की गिनती दंगों में मारे गए लोगों में शुमार होने लगी ।गिद्ध वही मंडरा रहे थे ।कई शरीरों का मांस जो मिल रहा था। दख्मा गिद्धों के भारी पंखों की आवाज से वीरान हो गया था ।औरतों के जिंदा शरीर को भी गिद्ध नोच रहे थे। और असली गिद्धों को पहचानना मुश्किल हो रहा था।
गुलाबी चुनरी
टीवी पर दिखा रहे थे दिल्ली की झुग्गियों में लगी आग। जमुना बर्तन साफ कर रही थी। उसके पति ने बताया
“सब जलकर खाक हो गया। हमारा सारा सामान ।गैस का सिलेंडर भी फट गया। हमारी झुग्गी के पास वाली बीस,पच्चीस झुग्गियां जलकर खाक हो गईं।”
जमुना के बर्तन साफ करते हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए ।अभी 20 दिन पहले ही तो काम न मिलने की वजह से भुखमरी की स्थिति में वह पति के साथ पैदल गांव लौटी थी। पैरों में छाले पड़ गये थे, चप्पल टूट गई तो कपड़े से बांधकर काम चलाया ।इस आस में कि गांव में अपने घर में शायद बच्चों को भात मिले खाने को।वहाँ तो लॉक डाउन की वजह से भूखे पेट सोना पड़ता है।
“क्या हमारी झुग्गी का सारा सामान जल गया ?”
“अरे जब झुग्गी ही जल गई तो सामान बचा रहेगा क्या मूरख ?”पति ने दर्द भरे स्वर में कहा ।
ओह तब तो गणेशी की दी गुलाबी चुनरी भी जल गई होगी जिसे वह बड़े जतन से सहेजे रखी थी कि गणेशी तो उसका नहीं हुआ। उनके प्यार को जात बिरादरी ने एक न होने दिया। जमुना से शादी न होने की वजह से गणेशी तो दिल्ली छोड़कर ही चला गया न जाने कहाँ…….जाते जाते कह गया “तू मेरी ही रहेगी जमुना ,भले हम दूर दूर रहें।” और अखबार में लिपटी गुलाबी चुन्नी उसे उढ़ा कर गले से लगा लिया था ।
पति अफसोस जता रहा था।
,” भाग ही खराब है हम मजदूरों का।”
लेकिन जमुना का दिल मानो झुग्गी में लगी आग से झुलसा जा रहा था। सामान तो फिर से कमाकर खरीदा जा सकता है ।पर प्यार की निशानी वो गुलाबी चुनरी……
संतोष श्रीवास्तव
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रिश्ता
अमर अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था। जैसे ही बड़ा हुआ उच्च शिक्षा के लिए उसने अमेरिका जाकर पढ़ने की इच्छा प्रकट की, साथ वादे भी किये कि वह पढ़ाई पूरी करते ही वापस आकर दोनों की देखभाल भी करेगा। दोनों बहुत खुश हुए, उन्होंने तमाम उम्र की जमा पूँजी लगाकर उसे विदेश रवाना कर दिया था. वहाँ जाकर अमर जल्दी-जल्दी ख़त लिखा करता था पर जल्द ही खतों की रफ़्तार ढीली पड़ गयी। एक दिन डाकिया एक बडा-सा लिफाफा उन्हें दे गया । ख़त में कुछ फोटो भी थे। ये अमर की शादी के फोटो थे । उसने अंग्रेज़ लड़की के साथ शादी कर ली थी । ख़त में लिखा था – ” पिताजी, हम दोनों आशीर्वाद लेने आ रहे हैं । फ़क़त पाँच दिन के लिए, फिर घूमते हुए वापस लौटेंगे। एक निवेदन भी है कि अगर हमारे रहने का बंदोबस्त किसी होटल में हो जाये तो बेहतर होगा। और हाँ, पैसों की ज़रा भी चिंता न कीजियेगा……!”
माता पिता को पहली बार महसूस हो रहा था कि उनकी उम्मीदें और अरमान तो कब के बिखर चुकें हैं । दूसरे दिन पिता ने तार के ज़रिये बेटे को जवाब में लिखा – ” तुम्हारे खत से हमें कितना धक्का लगा है, कह नहीं सकते, उसी को कम करने के लिए हम कल ही तीर्थ के लिए रवाना हो रहे हैं, लौटेंगे या नहीं कह नहीं सकते, अब हमें किसी का इंतज़ार भी तो नहीं । और हाँ, तुम पुराने रिश्तों को तो नहीं निभा पाये, आशा है, नये रिश्तों को जीवन-भर निभाने की कोशिश करोगे.”-.वासुदेव
बाई जी का जूता (लघुकथा)
‘बाई ज़रा रास्ता देना!’ राह चलते एक सभ्य पुरुष ने कहा।
संबोधन सुनते ही पाँव से ऐड़ी वाला जूता निकाला और बरबस शेरनी की तरह वह
उसपर बरस पड़ी।
‘अरे कौन बाई, किसकी बाई….!’
‘अरे बाई जी.‘ सभ्यता से ‘जी’ जोड़ते हुए पुरुष ने नर्मी से कहा।
‘ओए….. बाई जी होंगी तेरी माँ, तेरी बहन, तेरी बीवी, तेरे खानदान की……!’
‘अरे…रे…सुनिए तो ……!’ उस पुरुष की आवाज़ मिमियाती रही।
‘अरे नामर्द ! बाई किसे बुलाता है?’
रास्ते पर भीड़ जमा होने में वक़्त कितना लगता है। उसी भीड़ से लखनऊ का एक मियां बोल पड़ा-‘अरे मियां, लखनऊ में उसे ही बाई कहते हैं जो….!’
माजरा समझ में आते ही निशब्द ग्लानि के साथ पुरुष ने अपना रास्ता बदला और आगे बढ़ गया।
जहन्नुम
सीढियां चदते हुए पसीने से तर चेहरा अपनी सूती साड़ी के पल्लू से पोंछती हुई माला जब चाल में अपने घर के सामने खड़ी होकर कुंडी पर लगा ताला खोलने की कोशिश करने लगी, तो वहाँ खड़ी पड़ोसन ने पूछ लिया-“सुबह सुबह कहाँ से आ रही हो माला?” “जहन्नुम से !” खीजते हुए माला ने उत्तर दिया “अरे जहन्नुम तो ऊपर होता है, जहाँ लोग मरने के बाद जाते हैं …तू…..!” “वो भी तो जहन्नुम ही है, जहाँ हर रात ज़िन्दगी मुझे जीती है, और मैं मरती हूँ….!” अब वह ताला खोल कर जन्नत में पाँव धर चुकी थी।
भिक्षा पात्र
दरवाज़े पर भिक्षा दते हुए देवेन्द्र नारायण सोच रहे थे, ये सिलसिला कब तक चलेगा? दरवाज़े पर आए भिक्षुक को खाली हाथ नहीं लौटाना है, यह तो पिताजी के ज़माने से चलता आ रहा है, और इसी सोच की बेख्याली में, भिक्षा पात्र में न पड़कर नीचे ज़मीन पर गिरी. कुछ रूखे अंदाज़ से बढ़बढ़ाते हुए देवेन्द्र नारायण कह उठे, “भई ज़रा उठा लेना, मैं जल्दी में हूँ” यह कहते हुए वे भीतर चले गए.
बरसों बीत गए और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव जहाँ ऊँठ जैसी करवट लेकर थमे, वहाँ पासा भी पलटा. सेठ देवेन्द्र नारायण मसाइलों की गर्दिश से गुज़र कर ख़ास से आम हो गए और फिर पेट पर जब फ़ाकों की नौबत आई, तो वही हुआ जो न होना था। इसे नियति कहें या परम विधान?
एक दिन वे भिक्षा पात्र लेकर उसी भिक्षू के दरवाज़े की चौखट पर आ खड़े हुए जिसे एक बार उन्होंने अनचाहे मन से भिक्षा दी थी. बाल भिक्षू अब सुंदर गठीला नौजवान हो गया था और कपड़ों से उसके मान-सम्मान की व्याख्यान ज़ाहिर हो रही थी। उसे देखकर देवेन्द्र नारायण अतीत की यादों में खो गए.
“मान्यवर आप कृपया अपना पात्र सीधा रखें ताकि मैं आपकी सेवा कर पाऊँ.” नौजवान की विनम्र आवाज़ ने देवेन्द्र नारायण के हृदय में करुणा भर दी और साथ में दीनता भी. नौजवान ने उनके भावों को पहचानते हुए विनम्र भाव कहा – ” मान्यवर हम तो वही हैं, बस स्थान बदल गए है और यह परिवर्तन भी कुदरत का एक नियम है जो हमें स्वीकारना है, इस भिक्षा की तरह.” न कुछ हमारा है, न कुछ आपका है। बस कभी कभी लेने वाले हाथ देने वाले बन जाते हैं.”.
दाव पर द्रोपदी
कहते हैं चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए. अनील भी कितने वादे करता, किए हुए वादे तोड़ता और अपनी खोटी क़िस्मत को फिर फिर आज़माने जुआ घर पहुँच जाता! जहाँ हार उसके हौसले को बार-बार मात देती रहती.
एक दिन अपनी पत्नि को राज़दार बनाकर उसके सामने अपनी करतूतों का चिट्ठा खोलते हुए कहा- “अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है जो मैं दाव पर लगा सकूँ. क्या करूँ? क्या न करूँ? समझ में नहीं आता. कभी तो लगता है खुद को ही दाँव पर रख दूँ.”
पत्नि समझदार और सलीकेदार थी, झट से बोली- “आप तो उस खोटे सिक्के की तरह हैं, वो जुआ के बाज़ार में भी कैश नहीं हो सकता? अगर आपका ज़मीर आपको इज़ाज़त देता है तो आप मुझे ही दाँव पर लगा दीजिए. इस बहाने आपके किसी काम तो आ सकूंगी.”
पत्नि को दाँव पर लगाने की बात सुनकर अनील शर्म से पानी-पानी हो गया. और इस कटाक्ष के वार से खुद को बचा न पाया. अलबता ज़िंदगी की राह पर सब कुछ हार जाने के बाद, जो कुछ भी बचा था उसे दाँव पर लगाने से बच गया.
खबर
शहर के बाहर एक नया मोहल्ला आबाद हो रहा था,जिसका नाम फ़ोकटनगर रखा गया था. उसमें कई गरीब-बेसहारा लोगों ने अपनी-अपनी झोपडियां बना ली थी. इसी फ़ोकटनगर में एक गरीब आदमी ने भी अपनी झोपडी बना ली . वह और उसकी जवान बेटी शहर में जाते और जो भी काम मिलता,खुशी-खुशी करते और किसी तरह अपना जीवन यापन करते
एक दिन अखबार में यह खबर प्रकाशित हुई कि उस आदमी ने अपनी जवान बेटी को किसी शहर में जाकर बेच दिया है. अखबार पढकर लोग उसकी झोपडी पर इकठ्ठा होने लगे और इस कृत्य के लिए उसे भला-बुरा कहने लगे
सारे लोगों की जली-कटी बातें सुन चुकने के बाद उसने हाथ जोडकर कहा-“ अगर मैं अपनी बेटी को न बेचता तो तीन छोटे-छोटॆ बच्चे भूख में तडप-तडप कर मर जाते. भाइयों- हमारी गिनती नीच जात में आती है, यह जानने के बाद कोई न तो हमें काम देता है और न ही देहरी पर खडॆ होने देता है. भगवान ने हमे हाथ तो दे रखा है लेकिन हाथॊं के लिए हमारे पास कोई काम नहीं है. जब काम नहीं है तो पैसा कहाँ से आएगा और जब पैसा नहीं है तो अनाज कहाँ से आएगा.?.जब अनाज नही होगा तो पेट में धधक रही अग्नि को कैसे शांत कर सकेंगे. फ़ूल सी सुकुमार बच्ची को बेच देने का दुख तो मुझे भी है,लेकिन इसके अलावा और कोई चारा भी तो मेरे पास नहीं था.”
इतना कह कर वह फ़बक कर रो पडा था और प्रश्न दागने वाले लोग, अपने-अपने घरों में जाकर दुबक गए थे.
देवी नागरानी
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जीवन के सबसे बडी जरुरत- रोटी
एक दिन मैं अपनी स्कुटर सुधरवाने के लिये एक गैराज में बैठा था. वहाँ आठ-दस साल का एक लडका हेल्पर के रुप मे काम कर रहा था. शायद वह नया-नया लगा था. मैकेनिक ने बगैर उसकी तरफ़ देखे 19-20 का पाना माँगा. लड़के ने एक पाना उठाया और उसके हाथ में पकडा दिया. वह पाना उस नम्बर का ना होकर कोई दूसरे ही नम्बर का था . सही पाना न पाकर उस मैकेनिक को क्रोध आ गया और उसने गंदी गालियाँ बकते हुये, उसके गाल पर कस कर एक झापड मार दिया. लड़के की आँख छलछला आयी थीं.
थोडी देर बाद वह मिस्त्री किसी आवश्यक कार्य से बाहर गया. मैने जिज्ञासावश उस लड़के से पूछा:- मिस्त्री तुम्हारा कौन लगता है और कितनी तन्खाह देता है?.
लड़का थोडी देर तो चुप रहा, फ़िर थूक से हलक को गीला करते हुये उसने कहा:-
“रिश्ते में तॊ कोई नहीं लगता साहब . बस खाने को दो जून की रोटियाँ देता है.”.
मैने आश्च्रर्य से पूछा – ” केवल रोटियाँ और कुछ नहीं ?” .
उस लड़के ने बड़ी ही मासुमियत से जबाब दिया- ” साहबजी….जिंदा रहने के लिये रोटियाँ ही काफ़ी है.
छोटी सी उम्र में उस लड़के ने जीवन की सबसे बड़ी जरुरत – ” रोटी ” के मुल्य को समझ लिया था.
मरते-मरते लखपति बना गयी.
एक कांस्टेबल को किसी जुर्म में सस्पेन्ड कर दिया गया. वह दिन भर जुआं खेलता और शाम को टुन्न होकर घर लौटता. घर पहुँचते ही मियां-बीबी में तकरार होती .वह घर खर्च के लिए पैसे मांगती तो टका सा जबाब दे देता कि जेब में फ़ूटी कौडी भी नही है. बच्चॊं को कई बार भूखे पेट भी सोना पडता था. उसकी बीबी थी हिम्मत वाली. उसने सब्जी-भाजी की दुकान, एक पडौसन से कुछ रकम उधार लेकर शुरु की. उसका व्यवहार सभी के साथ अच्छा था. देखते-देखते उसकी दूकान चल निकली. अब वह दो जून कि रोटी कमाने लायक हो गई थी. लेकिन उसके पति मे कोई सुधार के लक्षण दिखाई नही दे रहे थे
उसने कुछ अतिरिक्त पैसे भी जोड लिए थे. तभी उसकी बडी बेटी के लिए एक रिश्ता आया और उसने धूमधाम से बेटी की शादी भी कर दी. कुछ दिन बाद वह कांस्टेबल भी बहाल हो गया. नौकरी पर बहाल हो चुकने के बाद भी उसने अपनी दूकान बंद नहीं की.
कुछ दिन बाद उसकी बेटी के घर कोई पारिवारिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. उसकॊ वहाँ जाना था. अपने पति और बच्चॊं के साथ वह रेल्वे स्टेशन पहुँची. ट्रेन के आने में विलम्ब था. ट्रेन के आगमन के साथ ही एक दूसरी ट्रेन भी आ पहुंची. दोनो ट्रेनो का वहाँ क्रासिंग़ था.जल्दबाजी में पूरा परिवार दूसरी ट्रेन मे सवार हो गया,लेकिन शीघ्र ही उन्हे पता चल गया कि वे गलत दिशा की ट्रेन मे सवार हो गए है. पता लगने के ठीक बाद ट्रेन चल निकली थी. ट्रेन की स्पीड अभी धीमी ही थी ,इस बीच उसके परिवार के सारे सदस्य तो उतर गए लेकिन उतरने की हडबडी मे उसका पैर उलझ गया और वह गिर पडी. दुर्योग से उसकी साडी उलझ गयी थी और वह ट्रेन के साथ काफ़ी दूर तक घिसटती चली गई.
पति चिल्लाता -भागता दूर तक ट्रेन का पीछा करता रहा. पब्लिक का शोर सुनकर ट्रेन के परिचालक ने ट्रेन रोक तो दी लेकिन तब तक तो उसके प्राण पखेरु उड चुके थे..पुलिस केस दर्ज हुआ. सारी औपचारिकता पूरी करने के बाद उसका शव परिजनॊं को सौप दिया गया. वे एक खुशी के कार्यक्रम मे शामिल होने जा रहे थे,लेकिन नही जानते थे कि दुर्भाग्य उनका पीछा कर रहा था लगातार.
उसके मृत्यु को अभी सात-आठ माह ही बीते होंगे कि इसी बीच रेल्वे से क्लेम की राशि स्वीकृत होकर आ गई. जेब में रकम आते ही उसने दूसरी शादी कर ली और एक नय़ी इन्डिका खरीद लाया. अब वह अपनी नई बीबी के साथ कार मे सवार होकर फ़र्राटे भरने लगा था. पास-पडॊसी कहते” बीबी मर तो गई लेकिन उसे लखपति बना गई.”.
छोटी सी चिडिया.
“ रामदीन…जरा बडॆ बाबू को मेरे कमरे में भिजवाना”. बडॆ साहब ने चपरासी को हुक्म बजा लाने को कहा.
“ मे आई कम इन सर”. बडॆ बाबू ने कमरे में प्रवेश करने के पहले कहा. “ हाँ, तुम अन्दर आ सकते हो”. साहब ने कहा. “ देखो, मुझे बार घुमा-फ़िराकर कहने की आदत नहीं है. एक हफ़्ते के अन्दर मुझे पचास हजार रुपये चाहिए. इसका इन्तजाम कैसे हो सकता है,वह तुम जानो.”
. “ बिल्कुल हो जाएगा सर. अप चिन्ता न करे.” “ बडा बाबु अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया. उसने अपने टेबल की ड्राज से कोरे कागज निकाले. टाईपराईटर में फ़ंसाया और एक लेटर टाईप किया. और साहब के कमरे में जा पहुँचा. “ ये क्या है ?” साहब ने कहा. “ कुछ नहीं हुजूर…..यह एक छोटा सा कागज का पुर्जा है. “ बडॆ बाबू, तुम्हारा दिमाक खराब तो नहीं है. तुम जानते हो कि बीच सेशन में किसी का ट्रान्सफ़र नहीं किया जा सकता.” “ हुजूर जानता हूँ. प्यारेलाल इसी शहर में कई बरस से कुण्डली मारे बैठा है. फ़िर उसकी बीवी भी सरकारी नौकरी में है. फ़िर हमने उसका ट्रान्सफ़र थोडॆ ही किया है. उसे तो हमने प्रमोशन दिया है. मैं जानता हूँ वह इतनी दूर नहीं जाएगा. आर्डर मिलते ही वह सिर पर पैर रखकर दौडा चला आएगा. और हमें मनचाही रकम दे जाएगा. बस आप इस कागज पर अपनी छोटी सी चिडीया बिठा दीजिए और देखिये ये चिड़िया क्या कमाल दिखाती है”.
“ समझ गया. तुम बहुत ही होशियार आदमी हो”.
“सर, ऐसी बात नहीं है. मैं तो आपका सेवक हूँ. और आपकी सेवा करना ही मेरा धर्म है”.
तेल की चोरी
दीपावली की रात सेठ गोविन्ददास की आलीशान कोठी जगमगा रही थी. सेठजी इस समय देवी लक्षमीजी की पूजा में व्यस्त थे.चौकीदार मुस्तैदी के साथ अपनी ड्यूटी निभा रहा था. तभी एक १२-१४ साल का लडका दबे पांव आया और एक पात्र में दियों में से तेल निकालने लगा.चौकीदार के पैनी निगाहों से वह बच नहीं पाया. लडके को ललकारते हुये उस चौकीदार ने उसे पकडने के लिये दौड लगा दी. अपने पीछे उसे आता देखकर लडके ने भी दौड लगा दी.लेकिन पैर उलझ जाने से वह गिर पडा और और उसके हाथ का पात्र भी दूर जा गिरा.
अब वह चौकीदार की पकड में था. रौबदार कडक आवाज में उसने लगभग डांटते हुये उस लडके से तेल चुराये जाने का कारण जानना चाहा ,तो उस लडके ने रोते हुये बतलाया” भैयाजी, माँ तीन दिन से बीमार पडी है.उसका बदन तवे जैसा तप रहा है.मैने उसके लिये खिचडी बनायी और माँ को खाने को दिया तो उसने मुझसे कहा कि यदि खिचडी को थोडे से तेल में छौंक देगा तो शायद उसे खाने में कुछ अच्छा लगेगा. घर में तेल की एक बूँद भी नहीं थी, तो मैने सोचा कि यदि मैं दियों से थोडा तेल निकाल लूं तो काम बन जायेगा.इसी सोच के चलते मैंने तेल चुराने का मन बनाया था.”
लडके की बात सुनकर चौकीदार का कलेजा भर आया. उसने अपनी जेब से पचास रुपये का नोट उस लडके की तरफ़ बढाते हुये कहा” ले ये कुछ पैसे हैं.किसी किराने की दुकान से खाने का मीठा तेल खरीद लेना और खिचडी फ़्राई कर अपनी माँ को खिला देना और बचे पैसॊं से दवा आदि खरीद लेना.जानते हो जिस तेल को चुराकर तुम भाग रहे थे,वह तेल करंजी का कडवा तेल था.यदि तुम उस तेल से खिचडी फ़्राई करते तो उसको न तो तुम्हारी माँ खा पाती और न ही तुम”.
इतना कह कर वह वापिस लौट पडा था. मुठ्ठी में नोट दबाये वह लडका, तब तक वहीं खडा रहा था, जब तक कि चौकीदार उसकी आँखों के सामने से ओझल नहीं हो गया था.
गोवर्धन यादव
छिन्दवाड़ा, मध्य प्रदेश