शिव और राममय भारत-शैल अग्रवाल

शिव और राम का रामायण में वही रिश्ता है जो शब्द और अर्थ का है, कर्ता और कर्म का है। एक लीला रचता है तो दूसरा करता है।
राम शब्द का अर्थ है- रा प्रकाश और म का अर्थ मेरा अर्थात अंतः का प्रकाश।
राम आखिर क्या हैं ?…
राम जीवन का मंत्र है। मृत्यु नहीं, गति का नाम है। थमने, ठहरने का नाम नहीं, सृष्टि की सतत् और अडिग निरंतरता हैं राम तो शिव अनादि व अनंत। महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, महामृत्युंजयी। राम शिव के आराध्य हैं और शिव खुद उनके पुजारी। अभिन्न रिश्ता है इनका। सदैव एक दूसरे के सहायक और अनुयायी। शिवजी काशी में मरते व्यक्ति को(मृत व्यक्ति को नहीं) राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र – शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है। सर्वदा कल्याणकारी शिव के हृदयाकाश में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं।
राम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आराध्य ईश हैं। दरअसल, राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है।
वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है।

राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपा जप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं। इसका संकेत कबीरदासजी ने इस उक्ति में किया है –
सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।
मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास – प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।
दादूजी ने कहा है –
षट चक्र पवना फिरे, छः सहस्त्र एक बीस ।
योग अमर जम कूँ गीले, दादू बिसवा बीस ॥
राम शब्द का अर्थ है – रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है – रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं।
इसी तरह

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है –
राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः
अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथ के पुत्र राम हो, ध्यान देने वाली बात यह है कि राम शब्द खुद में ही एक महामंत्र है। प्राणायाम और हठयोग तक कर सकते हैं हम इससे। कबीर इन्ही निगुणी राम नाम का जाप करते थे । और दादू ने अपने दोहों में राम बीज मंत्र का उल्लेख किया है। रामनाम को उन्होंने अजपा जप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं। कबीरदासजी ने तो यहाँ तक कहा कि आत्मा और राम एक ही है – आतम राम अवर नहिं दूजा।
राम शब्द का अर्थ है – रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है – रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। शिव और राम का वही रिश्ता है रामायण में जो आत्मा और शरीर का है। शब्द और अर्थ का है। भाव और भक्ति का है । अनादि अनंत ईश्वर यानी शिव के साकार रूप हैं राम। शिवता, यानी दूसरों के कल्याण के लिए ही राम रूप में इनका अवतरण हुआ धरती पर। आश्चर्य नहीं कि शिव राम के और राम शिव के अराध्य हैं और दोनों ही क दूसरे को पूजते हैं। मानस की पूरी रामकथा के सूत्रधार ही खुद शिव हैं। बृहमा विष्णु महेश- इश्वर के इस त्रिगुणी रूप की इच्छाओं का ही तो प्रत्यारोपण है यह सृष्टि और यही समझाती है रामायण हमें- होइहै सोइ जो राम रचि राखा परन्तु यहाँ अपने बृह्म रूप को छोड़कर माँ कौशल्या के अनुरोध पर राम रोदन भी ठानते हैं और शिशुलीला भी करते हैं। तुलसी के राम कृपालु हैं। भव भय दारुणं हैं , यानी कि सांसारिक दुखों से मुक्ति देने वाले हैं। दुष्टों के संहार के लिए ही इनका जन्म हुआ है और इसी हेतु इन्होंने बचपन से ही धनुष बाण उठाए हैं। इसी विश्वास के रहते तुलसी दास अडिग भाव से कहते है-
तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोय
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय।
राम का आश्रय हमें निर्भय और निश्चिंत यानी चिंता मुक्त करता है और एकबार अपने जीवन को प्रभु को समर्पित कर दें तो हम अविचलित जीवन यात्रा के हर कष्ट और कठिनाई को पार कर सकते हैं इसकी रमणीयता का आनंद ले सकते हैं क्योंकि राम तो स्वयं जिसमें मन रमे वह आत्म प्रकाश हैं और शिव उस प्रकाश के मूलतत्व या ईश। यदि एक लीला रचता है तो दूसरा उस लीला को करता है। समाज को सदैव एक नायक चाहिए जिसकी तरफ वह देख सके, जिसका अनुसरण कर सके। विलासिता और पतन के घोर अंधकार मय समय में तुलसी ने राम के रूप में एक ऐसा ही दैवीय शक्तियों से परिपूर्ण महानायक दिया, जिसने कठिन से कठिन परिस्थिति में न तो अपना विवेक और धैर्य ही छोड़ा और ना ही अपने आदर्श व मर्यादा। और ऐसा सिर्फ ईश्वरीय इच्छा और तत्व से ही संभव है, जिनका अंश हम सब में है। शिव और राम एक ही निर्गुण परमबृह्म महाशक्ति के दो साकार और सर्वहिताय पूज्य और रमणीय चरित्र व वर्णन हैं, जिन्हें हम समझ भी सकते हैं और जिनसे हम सीख भी सकते हैं। मेरे लिए तो रामायण का रामायण में वर्णित राम और शिव के रिश्ते का यही सबसे बड़ा संदेश है।
शिव का कल्याणकारी शिवत्व और राम का परहिताय जीवन मानो एक ही डाली के दो फूल, प्राणतत्व हैं रामकथा के। एकदूसरे पर आश्रित और एक दूसरे में पूर्णतः गुम्फित। शिव राम की कहानी सुनाते हैं पार्वती को और ‘ वन्दौ भवानी शंकरौ, श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ। याभ्यां बिना ना पश्यन्ति सिद्धा स्वान्तः स्थमीश्वरम्। ‘ कहकर तुलसी दास रामचरित मानस में सर्वप्रथम वन्दना करते हैं शिव और पार्वती की। तुलसी दास कहते हैं कि शिव-पार्वती जो श्रद्धा और विश्वास का साक्षात रूप हैंं, इनके बिना आत्म प्रकाश संभव ही नहीं। आज भी भारतीय चेतना व दर्शन में शिव-पार्वती दाम्पत्य जीवन के सपृहणीय व अनुपम प्रतीक हैं। शंकर पर पार्वती का जन्म-जन्मांतर का अनुराग और श्रद्धा है और दोनों ही एक दूसरे पर पूर्ण विश्वास भी करते हैं । सीताराम आदर्श दम्पति थे। सीता अनुगामिनी और पूर्णतः समर्पित पत्नी थीं और राम मर्यादा पुरुषोत्तम, जिनके लिए वचन निर्वाह और कर्तव्य परायणता ही सर्वोपरि थी। यही वजह है कि उनके पारस्परिक प्रेम में डूबे राग-रस भरे जीवन का परिचय और वर्णन हमें नहीं मिलता। जन-साधारण के लिए भी कठिन और मर्यादित प्रेम डगर रोचक नहीं। राधाकृष्ण एक आत्मा दो शरीर थे पर अभिन होकर भी दम्पति नहीं थे। शिव और पार्वती ही अकेले ऐसे युगल थे जो दम्पति भी थे और प्रेमी भी। प्रेम के उन्माद और आनंद के साथ-साथ दाम्पत्य सुख भी मिला था इन्हें। विवाह संस्कार शास्त्रों में 16 संस्कारों में से एक प्रमुख संस्कार है, क्योंकि सूक्ष्म से सूक्ष्म कीड़े और पशु-पक्षी से लेकर मानव तक सृजन और विसर्जन की प्रकिया लगातार चलती है । पूर्वजों के ऋण से उऋणी होता है व्यक्ति वंश वेल आगे बढ़ाकर, उत्कृष्ट संतान देकर। शुभांकर और सर्वप्रथम पूज्य श्री गणेश व अप्रतिम सेनापति व योद्धा कार्तिकेय जैसे पुत्र दिए शिव पार्वती ने संसार को विवेक व सुरक्षा के लिए। कल्याणकारी और अनुकरणीय परिवार है इनका, क्योंकि श्रद्धा और विश्वास का मिलन है यहाँ पर। और यही दो गुण प्रेम या किसी भी रिश्तों की वास्तविक नींव हैं। दाम्पत्य जीवन की तो विशेषतः, जहाँ दो व्यक्ति आजीवन निकटता के अटूट और कभी-कभी असह्य व कठिन पलों से गुजरते हैं। भांति-भांति की परीक्षाएं देते हैं। खुद नींव और छत बनकर अपना घरौंदा बनाते हैं। बहुत कुछ समझना और अनदेखा करना पड़ता है उन्हें इस साझी यात्रा में.. प्रेम और विश्वास बिना न तो परिवार में सुख शान्ति संभव है और ना ही खुद अपने हृदय या समाज में ही। तन-मन और आत्मा की संधि ही सफल और मधुर दांपत्य है। शिव पार्वती में यह आंतरिक और बाह्य एकीकरण मिलता है। एक होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र , शक-सुबहे से दूर प्रेम का अटूट और धूनीभरा विश्वास है यहाँ आपस में। पिता द्वारा प्रियतम के अपमान पर प्रेयसी व पत्नी सती न सिर्फ यज्ञकुण्ड में कूदकर पलभर में ही प्राणों की आहुति दे देती हैं अपितु अगले जन्म में कठिन तप के बाद पुनः शिव को ही पति रूप में प्राप्त भी कर लेती हैं। हमारे लिए कैलाश पर विराजित शिव-पार्वती आज भी कल्याणदायी और शाश्वत हैं। और जन्म-जन्मांतर के इस विलक्षण प्रेम को भलीभांति जाना और सराहा है भारतीय समाज ने भी। कुमार संभव जैसा रति और सौंदर्य से भरपूर काव्य ग्रन्थ और कन्या कुमारी से लेकर काश्मीर तक भारत के अनगिनित मंदिरों में इनकी प्रेमगाथा और रतिक्रीड़ा तक वर्णित व चित्रित है, जो न सिर्फ आस्था के अपितु हमारे शिल्प व कलाप्रेम और हमारे गौरवमय विकसित व कुंठाहीन समाज के भी अतुल्य उदाहरण हैं। आज भी सुहागिनें पार्वती से ही अखंड सुहाग का आशीष मांगती हैं और इच्छित वर कुंवारी कन्याएँ। करवा चौथ का व्रत हो या हरितालिका तीज का, सुहाग या पति के मंगलकामना के हर व्रत की शुरुवात गौरा पर सिंदूर चढ़ाकर, उनके आशीर्वाद से ही होती हैं और इन्ही के विधिवत पूजन से समाप्ति भी। खुद सीता राम को वाटिका में देखने के बाद पुनः गौरा के पास लौटती हैं और राम को पति के रूप में मांगती हैं । दाम्पत्य जीवन के जीवन्त प्रतीक ही नहीं इच्छित फलदायी हैं ये। अगर पार्वती को शिव में पूर्ण श्रद्धा है, जन्म-जन्मांतर उन्हें ही पति के रूप में पाना चाहती हैं और पाती भी हैं, तो पार्वती भी शिव की शक्ति हैं। एकाकार होकर अर्ध नारीश्वर का रूप ले लेते हैं वो।
चिर आस्था और अनंत विश्वासों का अद्भुत समिश्रण है मानव मन। इसे अनुकरण के लिए आदर्श भी चाहिए और सहायता व सहयोग के लिए चमत्कार भी। अपने-अपने इष्टों को इन्ही राम कृष्ण और शिव के रूप में ही ढूंढा है हमने। हमारे समस्त धर्मग्रंथ और सारे तीर्थस्थल व उनसे जुड़ी कहानियों के आधार यही रहे हैं। देशविदेश के कई अद्भुत और चमत्कारी मान्यताओं वाले मंदिर देखे हैं, कई तो सच्चे-झूठे और पवित्र-पापी लोगों की परख तक का दावा करते हैं। कहीं झरने के नीचे से बिना भीगे निकल आओ तो आप मन के सच्चे हो, तो कहीं दो खंबों के बीच से निकलकर। पर शिव पार्वती ही ऐसे युगल हैं जिनके मंदिर आज भी दाम्पत्य प्रेम के अटूट बंधन की गरिमा बखानते हैं- इनमें सीता राम का विश्वास और समर्पण भी है और राधाकृष्ण का दीवाना प्रेम भी। एक योगी और सिद्धमाया का योग है यह जो कठिन तप से प्राप्त होता है- संपूर्ण रिश्ता है यह, जो अलग ही रहस्य और विश्वास के साथ जन्म-जन्मांतर के लिए है। अमरनाथ के मंदिर में सफेद कबूतर दम्पति के रूप में लौटते हैं ये, तो नाग के जोड़े के रूप में कई अन्य मंदिरों में। बृह्म कमल की तरह ही आज भी दुर्लभ आकर्षण है हिमालय की गोद में छुपी लोकमान्यताओं और भांति-भींति की गौरीशंकर से जुड़ी इन लोक कथाओं में।
ऐसा ही एक अद्भुत और अति प्राचीन मंदिर देखने का अवसर मिला था मुझे सन 2009 में जब हिमालय भ्रमण के दौरान चार धाम की यात्रा पर थी। देवभूमी उत्तराखंड के धार्मिक स्थल रुद्रप्रयाग जिले के त्रियुगीनारायण नामक गाँव में स्थित यह मंदिर हमारे तीनों प्रमुख देवों से जुड़ा है। सम्पूर्ण सृष्टि के निर्माण, संचालन और संहार का भार संभाले, एक ही निर्गुण ब़्रह्म के तीन सगुण अवतरण -बृह्मा, विष्णु, महेश। इन्ही की तीनों युगों की लीला दर्शाता है यह अनोखा त्रियुगीनरायण मंदिर। यहाँ भगवान विष्णु वामन रूप में पूजे जाते है और साथ ही बद्रीनाथ व रामचंद्र जी की भी प्रतिमाएं हैं। मान्यता यह भी है कि शिव पार्वती का विवाह भी यहीं पर हुआ था। देवों के देव व जगत जननी के विवाह स्थल पर पहुंचना किसी सम्मोहन से कम नहीं।
कहते हैं की सतयुग में जब भगवान शिव ने माता पार्वती से विवाह किया था तब यही स्थान हिमवत की राजधानी था। और यहीं पर सती ने पार्वती के रूप में अपना दूसरा जन्म लेकर शिवजी को पुनः कठिन तपस्या के बाद वर रूप में पाया था। भोलेनाथ ने यहीं उनसे विवाह किया और विष्णु भगवान ने देवी पार्वती के भाई के रूप में सभी रीति-रिवाज निवाहे थे यहीं पर। ब्रह्मा इस विवाह के पंडित थे और विवाह समारोह सभी देवी-देवताओं की उपस्थति और आशीर्वाद के साथ संपन्न हुआ था। भारतीय आस्था और संस्कृति के संदर्भ में इस मंदिर की दिव्यता और आकर्षण को इन्ही तथ्यों की विशिष्टता से समझा जा सकता है।
शिव पार्वती के विवाह के अलावा एक अन्य पौराणिक कथा से भी जुड़ा है यह मंदिर। इन्द्रासन पाने के लिए राजा बलि को 100 यज्ञ करने थे परन्तु राजा बलि द्वारा केवल 99 ही पूरे हुए, तभी भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि को रोक दिया और उनका अनुष्ठान भंग हो गया। विष्णु भगवान की इसी वामन अवतार रूप मे पूजा होती है यहाँ पर। मंदिर के गर्भ गृह में भगवान विष्णु लक्ष्मी देवी के साथ विराजमान हैं यहाँ। परन्तु भक्तों को सर्वाधिक रोमांचित करता है वह हवनकुंड, जहाँ शिव-पार्वती ने साथ फेरे लिए थे। इनके पारस्परिक प्रेम की तरह ही तीन युगों से दिव्य लौ प्रज्वलित है यहाँ, उस अटूट मिलन का प्रकाश बिखेरती। प्रसाद के रूप में भक्त लकड़िया चढ़ाते हैं और हवनकुंड की सतत जलती अग्नि की चुटकी भर राख घर ले जाते हैं। मान्यता है कि हवनकुंड की यह राख भक्तों को वैवाहिक जीवन में सुखी रहने का आशीर्वाद देती है क्योंकि इस विवाह समारोह को सभी, देवी-देवताओं ऋषि-मुनी, साधु-संतों का आशीर्वाद जो मिला था। यह अग्नि पिछले तीन युगों से नहीं बुझी और ना ही बुझने दी गई है। जन साधारण की प्रबल धार्मिक आस्था का बड़ा प्रमाण है यह भी। आश्चर्य नहीं कि डेस्टिनेशन वेडिंग की तरह भी प्रचिलित हो रहा है अब यह मंदिर। कुछ फिल्म स्टार और सेलिब्रिटीज यहाँ विवाह करवा चुके हैं। विवाह स्थल के इस नियत स्थान को ब्रह्मशिला कहा जाता है और न सिर्फ इसे शिव-पार्वती के दिव्य विवाह का वास्तविक स्थल माना जाता है, अपितु यदि आपपर शिव पार्वती की विशेष कृपा हो तो शिव पार्वती सफेद नाग-नागिन के जोड़े के रूप में प्रकट होकर दर्शन तक दे सकते हैं, पूर्णिमा, अमावस शिवरात्रि… किसी भी विशेष दिन।
मंदिर के वास्तुशिल्प की शैली केदारनाथ के मंदिर की तरह है। तीन कुंड हैं। जिन्हें रूद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड के नाम से जाना जाता है। इन तीनों कुंडों के पानी का स्रोत सरस्वती कुंड है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सरस्वती कुंड का पानी स्वयं भगवान विष्णु की नाभि से निकला था। इस पवित्र स्थान का एक विशेष महत्व यह भी है कि मान्यतानुसार यहाँ आने के बाद नि:संतान दम्पती को संतान हो जाती है। लोग इस कामना के साथ भी यहाँ दर्शन करने आते हैं। मंदिर के आंगन में स्थित स्तंभ और इन कुंडों में स्नान और तर्पण की भी परम्परा है।
कहते हैं ब्रह्माजी जब भगवान शिव और पार्वती का विवाह कराने के लिए रुद्रप्रयाग के त्रियुगीनारायण गाँव में आये थे तब उन्होंने इसी ब्रह्म कुंड में सबसे पहले स्नान किया था। ब्रह्माजी के आशीर्वाद की कामना के साथ वर्तमान में भी लोग इस ब्रह्मकुंड में स्नान करते हैं।
विष्णु जी ने विवाह से पहले जिस कुंड में स्नान किया था वह विष्णुकुंड है।
शिव-पार्वती के विवाह समारोह में सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनी, साधु-संतों ने जिस कुंड में स्नान किया, वह रूद्रकुंड है।
यहाँ पर एक स्तम्भ भी है। इस स्तम्भ के सहारे विवाह समारोह के दौरान शिवजी को उपहार स्वरूप मिली गाय को बांधा गया था।
हरी-भरी उत्तराखंड की रम्य वादियों के बीच बना यह अति प्राचीन मंदिर शाति देनेवाला व इससे जुड़ी कहानियों की वजह से रहस्यमय व दिव्य प्रतीत होता है।
शिव से जुड़ी मुख्य नगरी काशी है। विश्व की प्राचीनतम और शिव की अपनी नगरी व क्रीड़ा-स्थली। शिव जी को भी शिवमय काशी से इतना प्यार है कि प्रलय आने पर भी नष्ट नहीं होने देते वे इसे। अपने त्रिशूल पर उठाकर रक्षा करते हैं। बाबा विश्वनाथ, माता अन्नपूर्णा, शहर के कोतवाल भैरों बाबा, बड़ा गणेश और संकट मोचन कई ऐतिहासिक और चमत्कारी मंदिर हैं यहाँ पर, शिव परिवार की गाथा कहते। शिवालय तो हर कोने पर हैं। शिव-पार्वती के मिलन के अद्भुत उल्लास में डूबा बनारस ही अकेला ऐसा शहर है जहाँ विवाह ही नहीं, शिव पार्वती का गौना भी बड़े धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है। शिव रात्रि के 15 दिन बाद रंगभरनी एकादशी को पूरे साज-सिंगार और बाजे-गाजे के साथ चांदी के सिंहासन में बिठाकर शिव जी गौरा को गौना कराके प्रति वर्ष अपने घर लाते हैं। उल्लास इतना कि जहाँ से भी यह सवारी निकलती है वही गली और सड़क गुलाल और फूलों से भर जाती है। ढोल तांसों की आवाज से गूंजता शहर झूम उठता है, शिव और उनके गण बने साधु-संतों के संग खुद नाचता-गाता। पूरे शरीर पर भभूत लगाए, मुंडमाला पहने, नंग-धड़ंग और गले में सांप लपेटे नाचते-गाते ये साधु कईयों को भद्दे और डरावने प्रतीत हो सकते हैं पर शिव के गण तो सदैव अपनी ही धूनी में रमते हैं। उन्होंने कब बाह्य-जगत की परवाह की है और इसी दिन से शुरु हो जाता है यहाँ पर होली का त्योहार व पखवाड़ा भी। शिवप्रिया के कान की मणि जहाँपर गिरी थी वह मणिकर्णिका घाट आज भी मुक्ति के लिए, शवों के भस्मीभूत होने के लिए सर्वाधिक पवित्र स्थल माना जाता है। रात भर अघोरी इसी मणिकर्णिका घाट पर चिता की राख से होली खेलते हैं और चौबीसों घंटे का खुला शमशान एक अनोखे अनहद नाद से गूंज उठता है। भोग लगाने, प्रसाद पाने हिम्मती भक्त और कलाकार दूर दूर से आकर सम्मिलित होते हैं। मृतकों के साथ हठ योग, कर्णसिद्धि आदि तांत्रिक साधना के साथ-साथ रात भर आदम गोश्त और मदिरा का भोग और चरस, गांजा अफीम आदि अन्य व्यसन रातभर चलते हैं। अघोरी सिद्धि की रात मानते हैं इसे, जब शिव-पार्वती का मिलन होता है।

शैल अग्रवाल
संपर्क
आणविक संकेतः Shailagrawal@hotmail.com

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