पहले कब ऐसा हुआ है कि होठों पर वसंत हो, बांहों में वसंत हो और मन में ना हो…
बाहर बसंत के सभी चिन्ह दिखने लगे हैं और हम घरों में बन्द हैं। गिलहरी , कबूतर और चिड़िया तक उदास दिख रही हैं । सड़कें बाजार सब सूने। क्रोकस, डैफोडिल्स और कैमिलिया ने सिर तो उठा लिया है पर उनके ऊपर मंडराती तितलियों के रंग-बिरंगे पंख नहीं अब बस फूलों को घेरती काली परछांइयाँ ही दिख रही हैं , वाकई में यह कैसे वक्त में जी रहे हैं हम जब चारो तरफ पत्तों से झर रहे हैं लोग और लाखों इंतजार करती आंखें अपनों के बिना बंद होने को मजबूर हैं…न कोई अंतिम विदा, ना ही गले लगकर रोने को, और ना ही कांधा देने को अपने ।
जब-जब निर्झर आंसूओं में डूबी प्रकृति तक अपनी नग्नता पर रोती है, सवाल खड़े करती है तो पेडों से गिरते कई-कई रंगों के सूखे पत्ते भी तुरंत ही धरती को रंग-बिरंगे परिधान पहना देते हैं। जो कुछ घट रहा है मानव समाज के साथ, खबरें कितनी ही विचलित क्यों न करें हमें आस नहीं छोड़नी चाहिए।
सामंजस्य या समझौता प्रेम या भय में होता है या फिर लालच में।…जब कुछ खोने का डर हो , कुछ बचाना हो। संरक्षण और संचय की भावना जब मजबूर कर दे, तब। मजबूरी में नहीं, मजबूरी में तो समर्पण होता है निर्बल की तरफ से और आक्रमण सबल की तरफ से। सामंजस्य व समझौते का भी नहीं, यह तो हताशा का वक्त सिद्ध होता जा रहा है जब प्रार्थना में हाथ जुड़े हुए हैं सभी के।
पेडों की फुनगियों पर गुच्छे-गुच्छे बसंत खिलखिला उठा है पर हमारी सूनी आंखों में एक रंग नहीं उतर पाया। अजीब अनिश्चित और अस्वाभाविक समय है यह, मानो सब कुछ थम सा गया है और सभी प्रार्थना में हैं। सकुशल इस आफत से उबरने की प्रार्थना में। रंग-बिरंगी कलियाँ सिर उठाएँ और हमें न तो उनके रंग दिखें और ना ही उनपर मंडराती तितलियों के पंखों के रंग ही, इतने उदासीन तो हम सब शायद ही कभी हुए हों। बसंत एक चहल-पहल और प्रकृति में रूप और रंग के ज्वालामुखी की तरह बेहद शोर गुल और धूम-धड़ाके से ही आता है विशेषतः यूरोप में परन्तु इस बार नहीं। इसबार तो एक चीखता सन्नाटा है , दिल दहलाने वाला सन्नाटा। बूढ़े, बच्चे , युवा कोई नहीं दिखता बाहर । सभी इच्छाओं को मारकर, काम-काज छोड़कर घर के अंदर बन्द हैं इस अदृश्य और जानलेवा शत्रु के भय से।
सूनी सड़कें सूने बाजार
बन्द सभी अकेले-अकेले
अपने भी खड़े नहीं दिखते
आज तो अपनों के साथ…
मौज-मस्ती के लिए जिन पांचतारा जहाजों पर घूमने को लोग बेचैन रहते थे अब वे मौत और घुटन के प्रतीक बन चुके हैं। कोई भी देश उन्हें लंगर नहीं लेने दे रहा और वे भटक रहे हैं महीनों से उन्हीं लहरों पर। दो लाख से अधिक लोग जान से हाथ धो चुके हैं और जो जिन्दा हैं उनकी जीविका के साधन खतम होते जा रहे हैं। मानो जिन्दगी जिन्दगी नहीं, एक डरावनी फिल्म में तब्दील हो चुकी है और प्रत्येक व्यक्ति इसको भुगतता एक लाचार किरदार।
घर के अंदर तक आंखें भय से जमी हुई हैं। वक्त-ही-वक्त है सभी के पास पर उत्साह नहीं। पलपल भय खुद अपने और अपनों की जिन्दगी की सुरक्षा को लेकर, आंखों के आगे झरते-बिछुड़ते सुख-चैन और सदियों से विकसित की अपनी ऐशो-आराम की जीवन पद्धति के लेकर। पतझर भी तो नहीं कह सकते पर इस मौसम को, क्योंकि पत्ते नहीं, पत्तों से ही, पूरे ही विश्व में, चारो तरफ जीवन वृक्ष से खुद आदमी झर रहे हैं ।…कई-कई लाखों की संख्या में। बच्चे-बूढ़े सभी , न उम्र का लिहाज और ना ही अमीरी और गरीबी का ही कोई फर्क। युद्ध नहीं हो रहा फिर भी युद्ध जैसी ही स्थिति है। जीविकाएँ , अर्थ-व्यवस्था सब नष्ट हो रही है और सिवाय शहीदों के परिवारों को हरजाना और आश्वासन देने के अलावा समृद्ध से समृद्ध देश कोई सुरक्षा नहीं दे पा रहे। न उन्हें जो घरों में बन्द हैं और ना ही उन्हें जो इस भयानक संक्रमण से जूझ रहे लोगों को बचाने की कोशिश में खुद भी शहीद हो रहे हैं । डॉक्टर , नर्स, स्वास्थ कर्मचारी, बस ड्राइवर तक। बचाव का अभी तक तो कोई इलाज नहीं। समझौता और सामंजस्य दोनों ही शब्दों को हथौड़ों की चोट और गूंज सा समझाता, चोट पहुंचाता वक्त है यह।
करोना काल का यह कोहासा कबतक हमें घरों में बन्द रखेगा, कोई नहीं कह सकता। एक नन्हा तारा एस्ट्रा जैनेका की कोरोना वैक्सीन की तरह उम्मीद के आकाश में उभरा तो है पर रौशनी हमतक पहुँचे, सुनते हैं इसमें अभी देर है। दावेदार बहुत हैं और उपसंधान सीमित। खैर…।
महीनों की लम्बी इस तालेबन्दी से बेचैनी और छटपटाहट बढ़ती जा रही है। मौत और मृतकों की संख्या अब उतना नहीं दहलाती…जनता की भी और देश के नेता-निर्णायकों की भी। आर्थिक व्यवस्था कहीं ठप्प न हो जाए इसलिए अब बाहर आना और बाजार खोलना जरूरी-सा हो गया है। वैसे भी भय हो या ऊब सभी अब अपने-अपने दरबों में से बाहर निकलने को आतुर है। कुछ उपद्रवी तो इस व्यग्र छटपटाहट में शस्त्र तक उठा चुके हैं, शायद ऐसे ही कुछ उत्तेजना मिले इस नीरस और सपाट जीवन से, बोरियत दूर हो…मरना तो वैसे भी है ही एक दिन यह सोचकर। फालतू में आक्रमक हुआ यह रवैया मानसिक ग्रन्थियाँ बनकर उभरता दिख रहा है कमजोरों में और जीवन से ही पलायनवादी प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है, चाहे वो व्यक्ति हों या फिर कुछ सामंती और विस्तारवादी देश। कुछ छुटपुट जो पटाकों की तरह फूटते, बरसों से क्या दशकों से गुरिल्ला लड़ाई लड़ते और भटके, लक्षहीन व सामर्थहीन देश हैं अब मानो आत्महत्या की राह पर ही चल पड़े हैं। इस गहन मतिभ्रम और बेबसी में मुनाफाखोरों की भी एक नई जमात उभरकर सामने आई है। माना, साहित्य राजनीति नहीं, पर यूँ चुपचाप सब स्वीकारते जाना, सचेत न होना भी तो सही नहीं।
अज्ञान का पोषण ही तो ज्ञान का सबसे बड़ा क्षय है। अंधेरा यूँ ही नहीं आता अक्सर उसका भी एक प्रयोजन होता है क्योंकि यही सच के सूरज को अधिक स्पष्टता और चमक के साथ सामने ला पाता है।
बहुत मनमानी हो चुकी। प्रकृति का दोहन और अपने अलावा हर चीज की पूर्ण उपेक्षा, उनके प्रति गहन उदासीनता। दूसरों के प्रति सद्भाव और सहानुभूति का पूर्ण अभाव और आंखें मूंदकर अपनी ही स्वार्थ-लिप्सा में जीते हम आज विनाश के ऐसे कगार पर पहुंच चुके हैं सामने बस अब अंत ही अंत दिखता है। चमगादड़ सा अंधा और उलटा लटक चुका है विश्व और सारी इसकी भौतिक और आर्थिक उपलब्धियाँ और प्रणाली व व्यवस्था, परन्तु अभी भी इस आपदा से बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखता। हाँ बाहर निकल पाने की झटपटाहट अवश्य। परन्तु कम से कम इस वक्त तो हारे मानव समाज के हाथ में कुछ नहीं।
बहुत कर चुके हम सौदेबाजी और मुनाफे का बढ़ता घटता कागजी खेल। अब यह वक्त सिखलाएगा हमें कि क्या जरूरी है और क्या नहीं- चीजों और रिश्तों का वास्तविक मूल्य। प्रार्थना भी तो एक तरह का बोध ही है , जब हम आत्म-समर्पण कर देते हैं सर्व शक्तिमान के आगे। यही विनम्रता ही तो मद को शांत करती है। मुश्किलों से निकलने का मार्ग दर्शाती है और बेचैनी से उबारती है। कहते हैं हर पहाण और जंगल के बीच से एक नदी बहती है -भटकों को तसल्ली देती , बाहर जाने का मार्ग दर्शाती। बेबस या लाचारी का नहीं, विवेकी का जेवर है समझौता।
थमकर सोचें तो सामंजस्य या समझौता इस एक शब्द में ही व्यक्ति और समाज की कई समस्याओं का इलाज भी है और खुशियाँ भी। परन्तु लाचारी में किए गए समझौतों को एक किनारे रखकर यहाँ हम बात करेंगे विवेक और समझदारी से किए गए समझौतों की जिनके लिए साहस और धैर्य दोनों की जरूरत पड़ती है। निभाने के लिए कई-कई आंतरिक और बाह्य युद्धों से गुजरना पड़ता है। और हर आदमी जीतेगा ही इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती हमेशा।
वैसे भी आजकल तो नेता, प्रजा, समर्थ, असमर्थ सभी सिर खुजा रहे हैं। कई निर्बल हार चुके हैं। अधिकांश परिस्थितियों से समझौता करके चुपचाप घरों में बन्द हैं। वक्त बदलने का इन्तजार और प्रार्थना करते, पर मौका मिले तभी तो…फिर यह तो वैसे भी मौके नहीं , प्रतीक्षा का वक्त है अगर जीते रहना है…निर्णय अभी तो हाथ में नहीं ही है हमारे…बस समाप्ति या समझौते में क्या संभव है , क्या उचित है इसी में सामान्य नहीं, असामान्य जिन्दगी गुजर रही है विकसित और सभ्यता के शिखर पर बैठे मानव की। इस तालाबन्दी में कितनी भी आशंका और उदासी हो, जैसे कि पेड़ पक्षियों के लौटने का इंतजार करते रहते हैं, आँखें बेताबी से प्रतीक्षा कर रही हैं जिन्दगी को वापस सामान्य रूप में देखने की। महीनों बीत चुके, पर स्थिति अभी भी असह्य है मामूली सुधार के साथ और कभी भी बिगड़ सकती है इसका सभी को भय रहता है-