विमर्षः भय / शैल अग्रवाल/दिसंबर जनवरी

भय भी शक्ति देता है…

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सकारात्मक रूप से सोचें तो भय प्रकृति प्रदत्त एक सुरक्षा कवच है, जिससे हम अहितकारी परिस्थिति और व्यक्ति व वस्तुओं से दूर रहना सीखते हैं। आक्रमण या पलायन करते हैं। कहते हैं भय भी शक्ति देता है। आदमी सबसे तेज भयभीत होकर ही भागता है। तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया कि ‘ भय बिनु प्रीत नाहिं जग माहि।‘ यानी कि प्रेम जैसे उद्दात्त भाव के केन्द्र में भी भय ही है-भय स्वीकृति और अवज्ञा का।

प्रायः देखा गया है कि इच्छाओं की प्रबलता ही भय को जन्म देती हैं। जब हम किसी को बहुत प्यार करते हैं, तभी खोने या बिछुड़ने का भय भी सताता है ।

भय कई प्रकार के हैं कुछ काल्पनिक जिनका जन्म चिंता और कुंठाओं से होता है तो कुछ स्थूल, जो प्रायः परिस्थिति जन्य होते हैं। जैसे मृत्यु से डरना, या किसी प्रिय के कुशल क्षेम को लेकर चिंतित होना तो स्वाभाविक है, परन्तु  उसे आँखों से ही ओझल न होने देना कि कुछ अनिष्ट न हो जाए, यह काल्पनिक भय की अतिशयोक्ति ही मानी जाएगी।

भय में अनिष्ट और क्षरण या खोने और विछोह का भाव मुख्य है और यही वजह है कि प्रतिक्रिया स्वरूप या तो व्यक्ति सुरक्षा करना चाहता है या फिर व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति को जीतना या वश में करना और अंत में यदि यह संभव न हो तो कारक या कारण को ही ध्वस्त या नष्ट करना। बड़ी से बड़ी लड़ाई….इन भांति भांति के परमाणु बम और शस्त्रों के केन्द्र में  यही मूलभाव भय ही रहा है। भय और अवशता या तो पंगु करती है या फिर आक्रामक बनाती है।

प्रकृति ने अगर हमारे अंदर भय के भाव भरे हैं तो साहस व उम्मीद भी, जो इसे नकारते हैं। भय से जीतना सिखाते हैं ये हमें। इन्ही के सहारे मानव अपने कद से कई गुना बड़े असाध्य कार्य कर ले जाता है। वीर और नायक कहलाता है।  यह भय की सकारात्मक उर्जा है। पर कुछ भय ऐसे भी हैं जिन्हें अनिष्ट से बचने के लिए और पीढ़ियों के अनुभव और ज्ञान के आधार पर  शैशवकाल से ही बच्चे के मानस में ढाला जाता है जैसे कि आग और नदी तालाबों आदि से डरना या फिर थोड़े और बडे होने पर सामाजिक कायदे कानून आदि का विवेक और भय ताकि अहितकारी और अप्रिय से बचा जा सके।

फिर भी दुस्साहस और अविवेक के रहते दुर्घटनाएँ होती हैं और अपराध भी। यह भय की नकारात्मक उर्जा है जो कुंठा और भांति भांति की ग्रंथियाँ और फोबिया को जन्म देती हैं। भय में अनभिज्ञता का भी बड़ी हाथ रहता है। प्रायः हम अपरिचित से डरते हैं। जैसे कि अंधेरे में जाना –क्योंकि क्या है और क्या मिलेगा- इसका पता नहीं रहता।

आज मनोविज्ञान में भांति-भांति के प्रयोग और प्रक्रिया व सुझाव हैं –भय के निदान और निवारण के लिए। कुछ औषधियाँ भी हैं जो रासायनिक परिवर्तन से मन और मस्तिष्त को शांत और तनाव मुक्त कर देती है।

 

परन्तु विज्ञान और तकनीकी की प्रगति के बावजूद आज का प्रतिस्पर्धी तनावपूर्ण वातावरण नित नई हीनता और असुरक्षा से उत्पन्न हिसा और अपराधों को जन्म दे रहा है, साथ में उनसे उत्पन्न भय भी। लूटमार और हिसा की खबरे, अन्याय और अत्याचार की खबरें अब दैनिक अखबारों की मुख्य खबर बनती जा रही हैं। समझें तो, इन भयावह गुत्थियों के केंन्द्र में भय ही नजर आता है जो कर रहे हैं, उनका भी और जो भुगत रहे हैं उनका भी। समाज , कानून, आधिपत्य आदि की इस लगातार चलती लड़ाई के बीच कहीं-न-कही मन का परिवर्तन भी उतना ही आश्यक है।

इस सभ्य समाज की व्यवस्था में विवेक और संतुलन,सदाशयता के साथ-साथ आज भी बड़े सहायक और उन्मूलक औजार हैं भय से लड़ने के लिए।  हर जागरूक नागरिक अपनी अपनी तरह से बड़ी जिम्मेदारी निभा सकता है। विक्षिप्त और भयभीतों से डरकर नहीं, उन्हें जानने और समझने की कोशिश के साथ विवेकपूर्ण रास्ता ढूंढकर।…

 

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