क्या मैं धर्म हूँ?
सदियाँ बीत गई, अभी तक मैं नहीं समझा, बता पाया किसीको, मैं कौन हूँ ।
हर युग में नया नाम , नया रूप, नई पहचान ,, पर फिरभी अंजान, बेनाम और बेरूप ,, आखिर क्यों?
आज बताना चाहता हूँ मैं सारी दुनिया को ,,कौन हूँ मैं।
मेरा जन्म कब और कैसे हुआ और क्यों हुआ ?
यूँ तो हर किसी के जन्म के पीछे कोई कहानी नही होती , पर मैं उन आम लोगों में से नहीं था, जो माता -पिता की चाहत ,वंश की वृद्धि या परिवार की प्रसन्नता के लिए जन्म लेते हैं।
मैं उनमें से एक हूँ , जिसे जरूरतें जन्म देती हैं। हाँ यही सच है ।आवश्यकता आविष्कार की जननी है – मेरा जन्म इसी सिद्धांत की बुनियाद पर हुआ ।
बौद्धिक और सामाजिक प्राणी बनने की प्रक्रिया में मानव मन ने मेरी जरूरत महसूस की ।
आदिमानव के विकास क्रम जितना ही पुराना इतिहास मेरा भी है ।
अकेलेपन का दर्द झेलता मानव जब कबीलों में रहने लगा तो प्रकृति के प्रकोप से बचने का कोई रास्ता नही सूझ रहा था, प्रकृति से लडा भी नहीं जा सकता , फिर आपकी प्रेम और शान्ति भी जरूरी थी कबीलों में साथ जीने के लिए ,धने जंगलों के बीच संधर्ष झेलते आदि मानवों ने बनाए कुछ नियम जो कहलाया कबीले का धर्म, जिसका पालन करना उस कबीले के लिए अनिवार्य माना गया , ये था मेरा जन्म ।मेरे लिए रचे गए वेद और अवेस्ता,,जिनमें पूजा की गई प्रकृति के सौन्दर्यमयी रूपों की, जिनपर अधिकार नहीं था पर श्रद्धा जन्म ले रही थी धीरे-धीरे और मेरा बाल्यकाल किलकारियां भर रहा था ।
धीरे-धीरे कबीले ग्रामों में और ग्राम नगरों में विकसित होते चले गए और उसी के साथ मेरा स्वरूप भी विशाल हो गया, मैं किशोर अवस्था की ओर बढने लगा था प्रफुल्लित तन और मन लिए, ग्राम धर्म , नगर धर्म के साथ राज धर्म और प्रजा धर्म भी बन गया जो किसी -न-किसी प्रकार नियमों के रूप में स्थापित हुआ ,जिसका बडा ही सरल उद्देश्य था -युद्ध और संधर्ष से बचाव प्रेमपूर्वक जीवन यापन । मैं भी खुशा था अपने इस रूप से ।
परिवार की स्थापनाओं के साथ उसमें हो सकने वाले संधर्ष को सूक्ष्मता से महसूस किया जाने लगा तो महाभारत और रामायण काल के पूर्व ही पुत्र धर्म, पितृधर्म पत्नीधर्म ,भातृ धर्म आदि मेरे ढेरों रूप बना दिए गए । मैं यौवन की दहलीज पर कदम रख रहा था,
मुझे तब भी कोई तकलीफ नहीं हुई , हाँ थोडी मुश्किल अवश्य होती थी , जब एक ही व्यक्ति पिता और पूत्र की भूमिका में अलग अलग दोष दृष्टि रखता था , पर समस्या अधिक नही होती , उससमय का जीवन उलझन भरा नहीं था , अहंकार जल्दी आडे नहीं आता था , गुरूजनों का सम्मान उन्हें भी सही राह पर ले आता था ।
मैं खुश था अपने इन बदलते रूपों से भी या कहूँ अपने विकसित अंगो से ।
पर हर दिन के बाद काली रातें तो प्रकृति का नयम हैं ना !
फिर मैं भला उससे कैसे अछूता रहता ।
देश और समाज में मेरे ही नाम पर बँटवारा और सीमा विस्तार के लिए होने वाले युद्ध राज धर्म के नाम पर उचित ठहराए जाने लगे और मेरे जन्म का मुख्य कारण शान्ति और प्रेम धुमिल पडने लगा ।
मानवता रौंदी जाने लगी मेरे ही नाम पर,
तब ,पहली बार मैं रोया था युद्ध भूमि में अपने आप को खून से लिपटा देखकर ।
मेरे ही नाम पर होने वाले इस खून -खराबे ने मुझे लहूलूहान कर दिया।
आज भी याद आते हैं कुछ युद्ध, जिसमें कौन जीता , कौन हारा , नही देख पाया मैं, बस इतना ही याद है कि मैं हारता रहा हर बार ,
महाभारत के उस शतरंज की बिसात पर भी तो मैं ही बिछाया गया था न, उतना धिनौना होगा मेरा रूप कभी ,, आज भी सोचता हूँ तो सिहर उठता हूँ धिन आने लगती है अपने ही नाम से ।पिता की आज्ञा का पालन धर्म था या नहीं, यह तो बाद का विषय है , मुझे आज भी लगता है कि वहाँ मेरा कोई काम नहीं था , पर बदनाम मैं ही तो हुआ न!
ये अभिप्सा थी उस धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर की , शतरंज कमजोरी थी उसके मन की , पर मेरे नाम का ताज पहनकर उसने मुझे ही तो सरेआम बदनाम किया था पितृधर्म के नाम पर धृतराष्ट्र की आज्ञा मानकर ।
खुद तो हारा ही ,मुझे भी जीवनभर खुद का चेहरा न देख पाने का दर्द भी दे गया । रजस्वला द्रौपदी खींच लाई गई भरे दरबार में, क्रीडास्थल पर , क्रीडा का हिस्सा बनाकर,, दास धर्म के नाम पर चुप रहे पाँचों पांडव और अपने वचन निभाने के धर्म के नाम पर वचन की लाज रखने कुलवधू के लाज को उजडते देखते रहे भीष्म पितामह, अमानवीयता की पराकाष्ठा , जिसपर बलि चढ गया मैं , न राजा को अपना धर्म या आया न पितामह को , न पतियों को न दरबारियों को , परिवार धर्म की तो बात ही क्या कहूँ,,सिर झुकाकर चुपचाप बैठे सभी ,,और बिना किसी दोष के सूली चढा मैं,, सच कहता हूँ उसदिन वहाँ से मुँह छुपाकर भागना नहीं चाहता था बल्कि दो बूँद जहर की तलाश कर रहा था , जिससे मैं मिट सकूँ , बस मुझे मृत्यु प्राप्त हो सके , जिससे टूट सके दास धर्म का बंधन, जी उठे द्रौपदी का मरता सम्मान , निकल उठे पंच सूरमाओं की तलवार और गरज उठे भीष्म पितामह का शंखनाद, जिसमें भस्म हो जाए धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि की आत्मधाती लालसाएं ।
इन्दु झुनझुनवाला
धर्म-अधर्म
क्या है धर्म -अधर्म, क्या यह परिस्थिति जन्य है या पूर्व निर्धारित, धर्मग्रंथों में वर्णित आचार संहिता ! कौन बड़ा अपराधी है जो बीमार है और भूखा है और एक रोटी चुरा लेता है या फिर वो जिसे काम करने की आदत नही, या पसंद नहीं है और चलती प्रौढ़ा के हाथ से उसका बटुआ झीन लेता है या स्टेशन पर किसीकी जेब काट लेता है ? इस आलेख का मकसद किसी धर्म विशेष की तरफदारी करना या विरोध करना नहीं, अपितु ‘धरति इति धर्मः ‘ के आधार पर जो धारण करे, हमें वहन करे और हमारी रक्षा करे, वही धर्म है उस आचार संहिता या जीने के तरीके को समझने और जानने का प्रयास मात्र है।
आज की सुविधा-परस्त संस्कृति पूर्णतः परिणाम-उन्मुख होती जान पड़ती है और वह भी तुरंत और आसान से आसान तरीके से। लगता है जैसे ध्येय ही धर्म बनता जा रहा है। इसमें कोई बुराई भी नहीं, यदि हम याद रख पाएं कि नियमित संसाधनों वाली यह धरती सहभोग्या है और हम सभ्य कहलाए क्योंकि हमने दूसरों को कुचल-निगल कर रहने की बजाय साथ रहना और बांटना चुना और चाहा। सहयोग करना सीखा। श्रम करना सीखा। पर अब लगता है एकबार फिरसे उल्टी दौड़ शुरु हो चुकी है। सहिष्णुता खतम होती जा रही है । हर आदमी या संप्रदाय चाहता है कि उसका ही धर्म सर्वोपरि हो और दुनिया उसके ही धर्म को सर्वश्रेष्ठ माने। इसके लिए न तो वह दूसरों के इष्ट को विस्थापित करने में हिचकिचाता है और ना ही पूरे के पूरे समुदाय को मिटाने में। संवेदनशीलता तो इस हद तक कुंठित हो चुकी है कि हाल ही में दिल्ली के एक चिड़ियाघर में जहां दर्शकों की भीड़ थी, चीते की मांद में जब एक 20 वर्षीय अति उत्साही युवक (अपनी वैवकूफी से ही सही) गिर गया तो उसकी सहायता किसी ने नहीं की, हाँ विडियो अवश्य खींच लिए गए।
-क्या है मानव का धर्म या अधर्म ? क्या इसका काम समाज को सुधारना और मानव और सृष्टि को उत्कृष्ट व सहज करना है या फिर इसका उद्देश्य मात्र आधिपत्य और मनमानी है और इसके नाम पर चाहे जितने अन्याय और तोड़फोड़ किए जा सकते हैं, पर इसके नाम पर कबतक कितनी बलि की अनुमति होनी चाहिए ? समाज इसका कारक और धारक होना चाहिए या फिर मानव खुद ? क्या खयाल या आदर्श था जिसपर धर्म की नींव पड़ी होगी?कैसे इस धर्म-अधर्म को निर्धारित करें …कौन लिखता है ये नियम -व्यक्ति या समाज और कौन किसका सम्बल है? क्या खयाल या आदर्श जिन्हें धर्म मानकर व्यक्ति अपना जीवन न्योछावर कर देता है , उसी को नहीं निगल जाते अक्सर? और तब क्या जीत या ध्येय ही अन्त मैं एकमात्र धर्म नहीं बन जाते ? यदि ऐसा है तो फिर मानवता- दया धर्म और सहिष्णुता आदि की क्या जगह और उपयोगिता रह जाती है हमारे जीवन में ?
…अनेक सवाल हैं जो अक्सर विचलित करते हैं और आज के समाज में लोहार के हथौड़े की गूंज की तरह इन प्रश्नों की चोट दिन-प्रतिदिन और और तीव्र व असह्य ही होती जा रही है। इतनी तीव्र और विष्फोटक कि मानवीय गुण जैसे दया, क्षमा, सहिष्णुता ही नहीं, पूरी मानवता का भविष्य ही खतरे में दिखाई देने लगा है। स्थिति और भ्रामक हो जाती है जब किसी एक परिस्थिति में किया कर्म, धर्म तथा दूसरी परिस्थिति में वही कर्म अधर्म बन जाता है। आज इन्सान ही इन्सान का अपहरण , बलात्कार और खून कुछ भी करने में नहीं हिचकिचाता यदि इससे उसे सुख मिलता है, ध्येय प्राप्ति होती है। जीव हत्या अधर्म है, सभी जानते हैं पर लड़ाइयों में सैकड़ों को मारने वालों को बहादुर और हीरो कहा जाता है, विशेषतः तब जबकि दुश्मन को जानते तक नहीं, उसने व्यक्तिगत रूप से हमारे साथ कोई गलत काम नहीं किया। कोई दुश्मनी नहीं। फिर एक का अधर्म दूसरे का धर्म क्यों और कैसे?
तो क्या धर्म परिस्थिति जन्य है या फिर वैयक्तिक निर्णय व संयम और व्यवहार? क्या होनी चाहिए अब इस नए युग में धर्म की परिभाषा..ताकि रुक सके यह फिसलन और विनाश? वाकई में क्या है यह धर्म-अधर्म -और कैसे निर्धारित किया जाना चाहिए एक नए सिरे से इसे? क्या वक्त नहीं आ गया जब हम लड़ाइयों और दुखों को मिटाने के लिए मानवता को ही सर्वोपरि धर्म मान लें, ताकि अपने ही नहीं, दूसरे के सुख दुख में भी हंसना रोना सीख सकें! हो सकता है आप सहमत न हों फिर भी आपके साथ बांटना चाहूंगी हाल ही में लेखनी के एक युवा पाठक के साथ हुई अपनी एक बातचीत को-
मैंः ‘ धर्म और अधर्म क्या है ?’
मित्रः ‘ जिसे हमारी आत्मा सहर्ष स्वीकार करे वह धर्म और जिसे धिक्कार दे वह अधर्म। इसे हमारी आत्मा निर्धारित करती है।‘
मैंः ‘आत्मा क्या कभी कभी बाह्य दवाब से अंधी बहरी भी हो जाती है जैसा कि आज कुछ धर्म विशेष के लोगों में नजर आ रहा है या फिर निष्पक्ष और निश्चल है?’
मित्रः ‘ शायद कुछ लोगों की आत्मा पर कलयुग हावी है।‘
मैंः ‘ हम हर बात कलयुग पर तो नहीं थोप सकते?‘
मित्रः ‘ लेकिन धर्म की जीत अटल है।‘
मैंः ‘हाँ पर सिर्फ सब खतम होने के बाद ही क्यों ?’
मित्रः ‘ ये सही कहा आपने। ऐसा नहीं है।‘
मैंः ‘ इतिहास तो यही बताता है… ‘
मित्रः ‘ सत्य को मानते ही हैं, सब खोने के बाद।‘
मैंः ‘ जी। यही तो मेरा सवाल है, तो क्या सत्य कमजोर है?’
मित्रः ‘ईसा मसीह की जब तक सांस चली पत्थर मिले लेकिन आज ‘ गौड ’ हैं।’
मैंः ‘जी, और राम को बनवास व गांधी को गोली।’
मित्रः ‘गांधी को गोली मिली उनके कर्मों की और लाल बहादुर शास्त्री जी को मौत मिली तो अधर्म के विरोध की।’
…
यह बहस आज भी लम्बी और कभी खतम होने वाली नहीं, क्योंकि हमारे अपने-अपने, निजी अनुभव, पूर्वाग्रह और समुदाय हैं , जिनमें हम मनसा-वाचा-कर्मणा आकंठ डूबे हुए हैं, पर एक बात तो माननी ही पड़ेगी, अपनी-अपनी तरह से जो भी, जहाँ भी, चाहे जिस देश और संस्कृति में अधर्म के खिलाफ लड़ा, हश्र एक ही रहा। जीत या मान्यता जीते-जी तो नहीं ही मिली उन्हें। फहरिश्त बहुत लम्बी है। क्योंकि कहीं न कहीं मानव धर्म का एक और व्यवहारिक पहलू भी है, जहाँ ताकत ही धर्म है। धर्म की भी तो अलग राजनीति रही है। इरादा प्रचार और प्रसार या आधिपत्य ही रहा है यह । अधिकांशतः चतुर का हथियार और लालच, या फिर हताश-निराश का भय और विभ्रम। इतिहास साक्षी है। शायद इसीलिए धर्म अधर्म का यह मसला आज भी वैसे ही उलझा और अनिर्णित ही है। एकबार फिर अंधे इस युग में आइय़े रौशनी को नमन करे। रौशनी का आवाहन करें और रौशनी के लिए शुभकामनाएँ ले व दें और आँखें खोलें।