जब हम फूलों की बात करते हैं तो जड़ों की तरफ मुड़ना ही पड़ता है।
विदेशों में रचे जा रहे आधुनिक हिन्दी साहित्य को समझने के लिए नए और करवट बदलते स्वतंत्रता उपरान्त नव निर्मित होते भारत को और उसकी मनोदशा को समझना भी उतना ही जरूरी हो जाता है-कैसा था 1947 के बाद का हमारा भारत, क्या कह रहे थे तत्कालीन कवि और लेखक-
सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
रामधारी सिंह दिनकर
यह था 1947 का आजाद भारत, जोशीला और पराधीनता की बेड़ियों से उन्मुक्त, कुछ कर गुजरने को तत्पर, अपना आत्मगौरव स्थापित करने को आतुर…सन 1947 से आज तक के साहित्य पर विहंगम दृष्टि डालें तो स्वतंत्रता के पहले का जोश और वह भावुक आदर्श जिसके तहत आनंद मठ और गोरा जैसे उपन्यास रचे गए जिसका नायक कहता है- हर धर्म मेरा है और हर इंसान मेरा अपना ही के बाद आया आजादी के तुरंत बाद वह 1947 का विभाजन जिसके तहत भीष्म साहनी की अमृतसर आ गया और तमस जैसी रचनायें आइं। यह वक्त था पुनः निर्माण का। जय जवान और जय किसान का। दिनकर और शिवमंगल सिंह के तेजस्वी स्वर, अमृता प्रीतम, धर्मवीर भारती और प्रसाद का रोमांटिक अंदाज, जैनेन्द्र और निर्मल वर्मा का मनोविज्ञान ,प्रेमचन्द और शिव मूरत का संघर्षरत यथार्थ साहित्य की धारायें भी रश्मिकिरणों सी विविधरंगों में फूट पड़ीं थीं , क्योंकि यदि संघर्ष अपने थे तो सपने भी तो अपने और बहु प्रतिक्षित।…साहित्य की यात्रा समाज को ही तो परिलक्षित करती है- अब जब भारत को आजाद हुए 75 वर्ष होने जा रहे हैं। हमारे अंदर आत्मविश्वास भी आया है और चीजों को बदलने की बेचैनी भी। आज लोग लिख रहे हैं हर विषय पर लिख रहे हैं और खुलकर लिख रहे हैं- सेक्स, भृष्टाचार और अपराध जैसे टाबू विषयों पर भी और विचारोत्तेजक सत्यं शिवम् की अवधारणा को भी लक्ष में रखकर भी। आज हमें पाश्चात्य का वैभव भी चाहिए और पूर्व का आध्यात्म और शांति भी।
इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हमारे विषय और चिन्तायें बदल चुकी हैं आज के इस वैश्विक भारत में। बुद्धि वर्ग का और होनहार युवाओं का विदेशों में पलायन जिसे हम ब्रेन ड्रेन भी कह सकते हैं , वाकई में चिंता का विषय है। इस संदर्भ में याद आरही है कुंवर नारायण की कविता-
क्या फिर वही होगा
क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?
क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?
क्या वे खरीद ले जाएंगे
हमारे बच्चों को दूर देश में
अपना भविष्य बनवाने के लिए?
क्या वे फिर उसी तरह
लूट ले जाएंगे हमारा सोना
हमें दिखलाकर कांच के चमकते टुकड़े?
और हम इसी तरह
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्रार्थनाओं के खंडहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?
-कुंवर नरायण
चौंकी थी मैं इस कविता को पढ़कर इसकी स्पष्ट बयानगी पर। अतीत वर्तमान और भविष्य तीनों दिखे थे यहाँ, यही तो है आजके वैश्विक भारत का एक प्रतिनिधि भाव, और भय।
आज जब तन हुए शहर के और मन जंगल हुए- देखें सोम ठाकुर की ये पंक्तियाँ ,
कहां गए बड़ी बुआ वाले वे आरते
कहां गए गेरू काढ़े वे सतिए द्वार के
कहां गए थापे वे जीजी के हाथ के
कहां गए चिकने पत्ते बन्दनवार के
टूटे वे सेतु जो रचे कभी अतीत ने
मंगल त्योहार बार
बीते कल के हुए।
पर जुड़ना और टूटना..यह परिवर्तन चक्र एक स्थाई भाव है प्रकृति का भी और जीवन का भी। यही ऱखता है नव निर्माण की नींव और यही रचता है यादें , पुनर्मिलन की प्रतिक्षा और ललक व लालसा भी…
मेरी कहानी विच में रूबी परमानंद नायिका से कहती है-‘हम पंछियों से भिन्न नहीं राबिया। पिंजरे पिंजरे ही होते हैं , चाहे सोने के हों या लोहे के। इन्हें पहचानना, बचना बहुत जरूरी है हमारे लिए’- यह बात जीवन के हर क्षेत्र में भी उतनी ही सच और धारदार है. चाहे हम देश में रहते हों या परदेश में और अपरिचित परिस्थितियों जैसे प्रवास आदि में तो और भी ज्यादा क्योंकि प्रवासी तो शब्द के साथ ही विछोह और दर्द जुडा है, पीछे छूटी यादों की गठरी टंगी है । दोधारी स्वप्न जीता है प्रवासी। जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है, क्योंकि पीछे छूटी मिट्टी की महक नहीं भूल पाता, और नई मिट्टी और नए माहौल में भी फलना-फूलना चाहता है , इसी टूटफूट व स्थापन का संघर्ष, पुराने का दर्द , नए का आनंद, साथ-साथ सामंजस्य और समझभरी एक जीत या हार…यही तो असली कहानी है एक प्रवासी की।
विस्थापन के बारे में ब्रिटेन के गौतम सचदेव लिखते हैं-
विस्थापन
विस्थापन का गुण यह है
कि आदमी कभी अपनी जगह से पूरा जा नहीं पाता
पानी भरे ज़ंग खाये ड्रम की तरह
दाग़ों या गीले निशानों में
रिसता रहता है
व्यापकतर होता है
और सिद्ध करता है
कि कोई भी स्थापित नहीं है
सिवाय उस पेड़ के
जिसे आँधी की प्रतीक्षा है ।
एक और मेरी कविता है मानव की इसी असंतुष्ट कमजोरी पर
आदतन
व्यावहारिकता के इस देश ने
हमें बन्द मकानों में
रहना सिखा दिया है
खुशी जब घर आई तो
सेफ्टी चेन लगा हम
परिचय की देहलीज पर खड़े
शंकित से बस देखा किए
न खुलकर उसे गले लगाया
ना ही अन्दर बिठलाया
दुःख आया तो घबराकर भागे
बर्फीली तेज हवा के झोंको से जागे
दहकते मन और सुलगती आंखों से
देखा किए
अपना वह बिछड़ा स्वर्ग
दरवाजा बंद किया जिसका हमने
अभी अभी इन्ही हाथों से
चाभी अंदर ही कहीं भूलकर…
– शैल अग्रवाल
मन छूती है आस्ट्रेलिया के अब्बास अली रिजवी की यह कविता
हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे बारिश की बूँदें सोंधी मिट्टी पर सजती थीं
सुनते थे बेले की कलियाँ बग़िया बग़िया में खिलती थीं
सुनते थे नीम के पेड़ों पर घर घर में झूले पड़ते थे
सुनते थे बच्चे अम्मा से लोरी सुनकर ही सोते थे
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे नदिया का पानी प्यासों की प्यास बुझाता था
सुनते थे वो नीला अम्बर बे घर की छत बन जाता था
सुनते थे सोने की धरती भूखों की भूख मिटाती थी
ख़ुशबू उस रात की रानी की मीलों मीलों बस जाती थी
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे मस्जिद की आज़ॅा उस रब की याद दिलाती थी
सुनते थे मंदिर की जय जय भगवन को शीश झुकाती थी
सुनते थे गिरजा के घंटे पैग़ाम अमन का लाते थे
सुनते थे ईद दिवाली में सब सब को गले लगते थे
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
और अमेरिका से रेणु राजवंशी की यह कविता-
आज का हिन्दू
काशी के घट से
यमुना के तट से,
द्वारिका के पट से,
बाहर निकल गया है
आज का हिंदू।।
पूजा-थाल का रूप बदला,
मंत्र चौपाई का स्वर बदला,
राम नाम का संगीत बदला,
काल की गति में ठल गया है
आज का हिंदू।।
फीजी का गिरमिटिया,
गुयाना का खेतिहर,
मारीशस का कृषक,
अफ्रीका का व्यापारी,
अमेरिका का बौद्धिक
इंग्लैंड का धनिक,
वसुंधरा के कण-कण में फैल गया है,
आज का हिंदू।।
रेणु राजवंशी गुप्ता, अमेरिका
हिंदी में प्रवासी साहित्य नवयुगीन विमर्श है। हिंदी में इसका आरम्भ प्रेमचंद की यही मेरी मातृभूमि है (1908) और शूद्रा (1926) की कहानियों से माना जाता है। इन कहानियों में अमेरिका से लौटे भारतीय प्रवासी तथा मॉरिशस ले जाए गए भारतीय बंधुआ मजदूरों की कहानियाँ हैं।
प्रवास, प्रवासी और प्रवासी साहित्यकार ( महिला या पुरुष); तीन अलग अलग शब्द हैं। तीन अलग-अलग अनुभव और प्रक्रियाएँ हैं जो मेरी नजर में सामूहिक नहीं नितांत व्यक्तिगत हैं। इनसे समूह को संबोधित नहीं किया जा सकता। किसी भी देश में बैठकर लिखी गई हो हर रचना में कड़ी प्रसव वेदना से गुजरता है लेखक। परकाया प्रवेश करके जीता और मथता है इन्हें, क्योंकि एक ही जीवन में सब कुछ भोग पाना संभव ही नहीं। यह भी हठ योग सी एक कठिन साधना है, तभी कलात्मक संवेदना के साथ पाठक के आगे उतर पाती है एक। हाँ स्त्रियों में यह सृजन धर्मिता और ममत्व के गुण नैसर्गिक अवश्य हैं। सोने की थाली में दें या मिट्टी की प्याली में, उनके द्वारा परोसा भोजन परिवार के लिए पोषक ही रहेगा। आइये हम भारत से बाहर बसी, विशेषतः ब्रिटेन और अमेरिका के महिला रचनाकारों के संसार में झांकते हैं।
ब्रिटेन की वर्तमान साहित्य यात्रा में उषा राजे सक्सेना द्वारा संपादित मिट्टी की सुगंध पहली वो किताब थी जिसने ब्रिटेन के कथाकारों को जोड़ा और विश्व मंच पर प्रस्तुत किया। शैरजाह से निकलती पूर्णिमा बर्मन की ई पत्रिका अभिव्यक्ति का योगदान भी अति महत्वपूर्ण रहा है। ब्रिटेन में साहित्य प्रेमी लक्ष्मीमल सिंघवी जी का आगमन , और उर्जावान व स्नेही अनिल जोशी के उत्साह ने कुछ ऐसा माहौल पैदा किया कि लेखिकाओं की एक सुदृढ़ पौध लहलहा रही है आज ब्रिटेन की धरती पर और एक दो को छोड़कर सभी के एक से अधिक कहानी संग्रह आ चुके हैं। अगर हम सिर्फ ब्रिटेन की ही बात करें तो उषा वर्मा, ज़ाकिया जुबेरी, उषा राजे सक्सेना, अचला शर्मा, दिव्या माथुर, जया वर्मा, रमा जोशी, तोषी अमृता, अरुणा सबरवाल, वंदना मुकेश शर्मा, तिथि दानी और रिचा जैन व खुद मुझे लेकर मेरी जानकारी में 12-13 महिला कथाकार हैं इस वक्त यहाँ इस धरती पर। उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, इला कुमार, अनिल प्रभा कुमार, सुधा ओम धींगरा, शैलजा सक्सेना ,स्नेह ठाकुर, हंसा दीप, अर्चना पैन्यूली, पुष्पिता अवस्थी, पूर्णिमा बर्मन यूरोप, अमेरिका. यूरोप व इमरात में बसी अन्य प्रवासी लेखिकाएँ हैं, मेरी जानकारी में ।
आधुनिक कहानियों की बात करें तो आधुनिक पेचीदा जिन्दगी की तरह न सिर्फ इन प्रवासी कहानियों के विषय विविध हैं, अनुभव और अभिव्यक्तियों के आयाम भी बहुरंगी हैं। साहित्य सृजन के विस्तृत आकाश में टिमटिमाते इन सितारों के रंग और रौशनी सब अपनी-अपनी हैं। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। उद्देश्य कृतियों की समालोचना नहीं। योगदान भी वक्त ही बतलाएगा। बस ब्रिटेन की महिला लेखिकाओं की प्रवासी कलम के कुछ उद्धरण आपके साथ साझा कर रही हूँ । आप चाहें तो मेन कोर्स के पहले का एपिटाइजर भी कह सकते हैं इसे। आधुनिक जीवन का जीवंत चित्रण तो है ही यहाँ पर, आनंद और उमंग, मन-मस्तिष्क का द्वंद, परिस्थिति या बदलती जीवन शैली का टकराव, उससे उत्पन्न उलझन व अवसाद भी – प्रस्तुत हैं ब्रिटेन की धरती से महिला रचनाकारों के चन्द चन्द उद्धरण-
ब्रिटेन
अचला शर्मा की
कहानी-दिल एक कस्बा है
“ऐसा क्या किया है मैंने I दो साल हो गए तुम्हें यह लिविंग टुगैदर करते, और आज तक शादी का फ़ैसला न हो सका I और अब तुम प्रगनैंट हो…अब भी अगर उसका शादी का इरादा नहीं तो समझ लो कभी था ही नहीं I कहता क्या है वो ?”
“वह दिखावे के लिए इंगेजमैंट करने को तैयार है ताकि आप लोग शादी का दबाव डालना बँद कर दें I” इतना कहकर नेहा रोने लगी I नेहा को इस तरह बिलखकर रोते हुए प्रभा ने पहले कभी नहीं देखा I ज़रूर मार्टिन की बात से उसके दिल को बहुत चोट पहुँची है I उसने नेहा को गले लगाते हुए कहा-
“और तुमने ऐसे आदमी के लिए अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल ज़ाया कर दिए I छोड़ दो उसे, आज भी तुम्हें एक से एक अच्छे लड़के मिल जाएँगे I”
नेहा झटके से अलग हो गई आँसुओं से भरी आँखों से कुछ पल उसे घूरती रही I फिर बोली-
“माँ, आपकी स्मॉलटाउन मेंटेलिटी की वजह से मार्टिन क्या, कोई लड़का मेरी ज़िंदगी में नहीं टिकेगा I”
जाकिया जुबेरी
कहानी -मन की सांकल
सीमा ने समीर को करीब बुलाकर मालूम करना चाहा ये नीरा कौन है और रात को घर में क्यों लाया है। क्या उसे अभी वापिस भी ले जाना है…?
“माँ रात को यहीं सो जाएगी…।” समीर ने थोड़ा झिझकते और आवाज़ को काफ़ी गंभीर बनाते हुए उत्तर दिया।
सीमा उसके और करीब आ गई और तकरीबन सरगोशी करते हुए बोली, “मुझे ये पसंद नहीं है और अगर वापस आकर तुम्हारे पिता सुनेंगे तो मुझ पर बहुत नाराज़ होंगे।”
“वो आएँगे तो ये चली जाएगी…..।”
“नहीं बेटे हमारा यह कल्चर नहीं है। यहाँ तुम्हारी बहन के सात आठ वर्ष के बच्चे आते हैं वो क्या समझ पाएँगे इस रिश्ते को उनको क्या बताया जाएगा। ”
“माँ दिस इज़ नॉट माई प्रॉब्लम …! ”
अलसिमर्स की बीमारी अकेलेपन और मानसिक अवसाद से उत्पन्न है। और ब्रिटेम में बुजुर्ग ही नहीं, युवा भी इससे पीडित हैं।
शैल अग्रवाल
कहानी-आधे-अधूरे
जानते हो रोहन, बगल के कमरे में जो शर्मा जी हैं न, वह अपनी पत्नी को भी नहीं पहचान पाते। कल जब उनकी पत्नी मिलने आई तो नर्स से पूछने लगे, यह औरत कौन है, कब जाएगी? इसे बाहर करो, तभी तो मैं कपड़े बदल पाऊंगा, खाना खा पाऊँगा। नर्स ने जब कहा कि यह आपकी पत्नी हैं और यही आपके लिए ये छोले-भटूरे बनाकर लाई है, जो आपको बेहद पसंद हैं, तो मेज पर हाथ पटक-पटककर चिल्लाने लगे, रोने लगे। बोले-ऐसा कैसे हो सकता है, मेरी पत्नी की तो मृत्यु हो चुकी है।
रोहन कहीं मैं भी तो इनकी तरह पागल नहीं हो जाऊंगी। सबकुछ भूल जाऊंगी। मेरी मदद करो रोहन। मैं तुम्हें नहीं भूलना चाहती , हमारा रिश्ता तो जन्म-जन्मांतर का है।
‘ हाँ छवि। ‘
हमारी आंखों की नदियाँ गलबहियाँ डाले अब धारा बनी, चेहरे, गले कपड़े सब भिगोती, अपनी ही मनमानी किए जा रही थीं और मैं बेबस, हाथ पकड़े निष्पलक उसे देख रहा था ।
सामने टी.वी पर गाना चल रहा था-मैं तो इक माटी की गुड़िया , बीच आंगन धर दीन्ही…शब्द तीर की तरह मन बींध गए।
छवि अब गोदी में सिर छुपाए मन की जाने किन गहन कन्दराओं में जा छुपी थी। लगा सो गई थी पर बीच-बीच में दबी सुबकियाँ और हिलती पीठ के साथ आँसुओं की नमी साफ-साफ बता रही थी कि इस हालत में भी समझती थी वह इन्सानी मजबूरी और कमजोरियों को..बेबस हम इन्सानों की इस आधी-अधूरी जिन्दगी को।…
एक समंदर अब हमारी आंखों के अंदर था , जो वहीं थम सा गया था और फिलहाल बेहद शांत था।…
शैल अग्रवाल
विषय, भ्रान्ति और भाव व तदजन्य पीड़ा-सभी को यूँ शब्दों में समेट पाना कभी आसान नहीं , परन्तु यही तो हैं सृजन की असली चुनौतियाँ… महिला हों या पुरुष हों, देश में हों या विदेश में हों। कठिन था चन्द उद्धरण लेना मेरे लिए भी, फिर भी कुछ न कुछ तो अवश्य ही आपतक पहुँचा ही होगा..कुछ .मन में रिसा भी होगा।
यह तो है साहित्य साधना में रत महिला रचनाकारों का दृष्टिकरण। आम जीवन में देखों तो नई जिन्दगी से सामंजस्य और हिन्दी की रोटी रोजी के विदेशी माहौल में अनुपयोगिता आदि बाह्य दबाव तो हैं ही, हिन्दी की अपनी समस्या यह भी है कि वह भारतीयता की पहचान बन कर नहीं उभर पाई है। शायद यही कारण रहा होगा कि पंजाबी, गुजराती, बंगाली अपने क्षेत्रीय स्वाद को बचाए रख पाई हैं जबकि हिन्दी सब की होने के कारण किसी की भी नहीं हो पाई है, न विदेश में न तो देश में ही। यहाँ ब्रिटेन में बसे प्रवासियों के लेखकीय छिटपुट प्रयास पर्याप्त नहीं इसके गौरवमय स्वरूप के लिए। हर भारतीय को अपने देश , भाषा , और संस्कृति में गौरव लेने की जरूरत है। रोटी रोजी से जोड़ने की जरूरत है इसे।
आज इंग्लैण्ड में टेलिविजन पर भारत से स्टार जी सोनी बी ४ यू आदि चैनल आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन वो भी भारत के ही चैनल अधिक हैं। स्थानीय स्वाद की कमी है हिन्दी के प्रोग्राम और खबरों में। और जो दो एक प्रयास हुए भी हैं वो विशेष प्रचलित नहीं हो पाए। हिन्दी की स्थानीय मीडिया में नामौजूदगी भी दूसरी पीढ़ी तक हिन्दी के न पहुँच पाने का एक मुख्य कारण है। कविता कहानी और साहित्य की सेवा करती भारत से आई पीढ़ी के 15 बीस सदस्य और तीन चार संस्थाएँ जैसे यूके हिन्दी समिति, कथा यूके, गीतांजलि, काव्यरंग कविसम्मेलन और भांति-भांति के आयोजनों में संलग्न हैं। कुछ मंदिर आदि में भी हिन्दी सिखाने के प्रयास किए जाते हैं। कैम्ब्रिज विश्विद्यालय और लंदन में साङथ एशियन स्टडीज के अंतर्गत भी हिन्दी में काम हो रहा है। हिन्दी समिति पिछले पंद्रह-बीस साल से हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता चला रही है, जिसमें कुछ बच्चे भाग भी लेते हैं और दो चार को भारत जाने और घूमने का भी मौका मिलता है। भारतीय विद्या मंदिर और एकाध जगह संस्कृत में भी रुचि जागृत करने की कोशिश की जा रही है। परन्तु जबतक राष्ट्रीय चेतना और आत्म गौरव नहीं आएगा हिन्दी की जरूरत यूँ ही न्यूनतम और सरस्वती नदी सी ही दिखती है।
शैल अग्रवाल
संपर्कःshailagrawal@hotmail.com