विजय दशमी पर एक पत्रः डॉ. विद्यानिवास मिश्र

प्रिय सम्पादक जी,

आपने आज्ञा दी कि विजयादशमी पर एक लेख लिखो और वह भी फौरन से पेशतर, अर्थात् एक दिन के भीतर! आपकी आज्ञा तो सिर आँखों, पर आप ही बताइये कि अब यह विषय तो हाईस्कूल के निबंध के पर्चों तक मतरूक हो गया, कहां से मैं सामग्री पाऊँ? उस पर भी समय इतना कम आपने दिया है, जैसे मुझे अद्यक्षीय भाषण ही तो लिखना है। पर आप ठहरे पुराने ख्यालों के आदमी। आपको जमाने के अन्दाज का पता ही कहाँ है? अब हम लोग प्रगतिशील राष्ट्र हैं; हमारी शालीनता अब यह गवारा नहीं कर सकती कि हम पुरानी विजय-तिथियों को मनायें। हम विजेता होने पर गर्व करना हिंसा मानने लगे हैं और इसी से अब हम रामायण की कहानी ही बदल देना चाहते हैं। आपको रावण को जलाए जाने पर हर्, होता हो; पर हमारे देवता की तो छाती फटती है। आपको अभी युग के बदलते हुए मूल्यों का, लगता है, कुछ क्याल ही नहीं है! अब रामलीला बहुत ही शक्तिशाली माध्यम है-लोगों को अपने मत से रिजाने के लिये। राम, सीता, लक्ष्मण अब किलौने हैं, हमारी सांस्कृतिक प्रदर्शनी को सजाने के लिये। शारदीय नवरात्र अब श्रीनगर बिहार के लिए सुन्दर सुअवसर है। आपको खबर ही नहीं, इधर जनवादिता के उदय और पुराने मूल्यों के विघटन के लिए बिलकुल कायापलट हो गयी। मैं क्या विजयदशमी पर लिखूँ? विजय में ही विश्वास घट गया, तो दशमी के समारोह का महत्व ही क्या रहा?

अगर यह लिखूँ कि यह विजय ऐतिहासिक तय नहीं थी, यह धरती की सांस्कृतिक विजय की रूपात्मक कहानी मात्र है, तो आप चौंकेंगे यह क्या? पर श्रीमान् संपादक महोदय, मिट्टी ने अंगड़ाई ली है, वह अपनी गोदी में अपनी बेटी को लेकर उठ खड़ी हुई है और वह राम से जवाब माँगती है-‘ अब बोलो, आते हो हमारी शरण में कि मैं तुम्हारे नारे बन्द कराऊँ? ‘ जो, सीता जन-संस्कृति की पुत्री थीं, अर्थात् वे खेतिहर की प्रभुता के जन्म की प्रतीक थीं! राम सामन्तीय संस्कृति द्वारा अर्थात् बुर्जुआ संस्कृति द्वारा किये गये आत्मविश्लेषण और विद्रोहात्मक चिंतन के प्रतीक मात्र थे। उन्होंने पूँजीवादी रावण के चंगुल से सर्वहारा संस्कृति की दुहिता का उद्धार किया! रामायण मानव इतिहास में आदिम साम्यवाद की स्थापना की कहानी है; पर उसको लिखने वाले दासता की मनोवृत्ति में पले ह्रासोन्मुख युग के राजक्रीत गायक थे। उन्होंने इस सीधी-सादी कथा को बाँकी, रंगीन और सरस बना डाला। इसमें पितृभक्ति, गुरुभक्ति, भ्रातृभक्ति, पतिभक्ति और स्वामिभक्ति जैसे निम्नोमुख आदर्शों का सन्निवेश करके इस ग्रन्थ को धार्मिक बना डाला। आप कहेंगे कि यह चिदानन्दी प्रलाप है। जी, क्या करूँ आपको कैसे समझाऊँ कि रामायण पर रूसी भूमिका लिखी जा चुकी है। तुलसीदास जनवादी विद्रोही करार दिये जा चुके हैं। भूखे-नंगे भिखमंगे महामानव की पदाक्रान्त आत्मा की आक्रोश भरी हुंकार की प्रतिध्वनि उनकी कविता से मिलाई जा चुकी है। तुलसी के राम वानर-भालुऔं के रूप में आदिमवासी संघ के अध्यक्ष की हैसियत से शोषित और उत्पीड़ित मानवता के ध्वजपात बने गली-गली घूम रहे हैं। आपको उन्हें चन्दन तिलक करने की पड़ी है! समय बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा है, और आप अभी अपनी धुन में हैं कि ‘श्री रामचन्द्र कृपालु भुज मन हरणभवभयदारुण! ‘ अब छोड़िए यह श्री, चन्द्र और कृपालु के व्यर्थ आडम्बर! अपने साथी को आप पहचानिये, वही जिन्होंने अपनी जटा आगे-पीछे छितरा दी है, पीठ पर काली तुणीर है, पर धनुष फेंक दिया है, हाथ में झंडा लिये आगे बढ़ते चले आ रहे हैं, मुँह लाल है, आँखें चढ़ी हुई हैं, पायजामा फटा हुआ है, दोनों बाहुमूलों पर और गले में हँसिया-हथौड़ा दगा हुआ है, कुर्ते का बटन खुला हुआ है। और वह देखिये, दसों मुँह बाये बड़े पेट वाला , बड़ी बाँह वाला रावण अकेला खड़ा हँस रहा है। नंगों-भूखों की अपार भीड़, इस पतनोन्मुख पूँजीवादी दानव को विचलित नहीं करती। वह सोने की लंका ऱाख होती देखकर भी परेशान नहीं है, क्योंकि उसके चंगुल में अभी सीता है। वह छटपटाती हुई जन-संस्कृति है, जो पूँजीवादी शोषण में व्याकुल पड़ी हुई है। अपने बाप का बैर भूलकर कितने अंगद, सिद्धांत के ऊपर भाई की कुरबानी करने वाले कितने सुग्रीव और मां-बाप दोनों को ठुकराने वाले कितने हनुमान वृक्ष सहित पर्वत उखाड़-उखाड़कर ढाह रहे हैं। कितने जाम्बवन्त दूर से ही मंत्र दे रहे हैं। कितने नल-नील पानी में पत्थर तैरा रहे हैं, पर रावण है कि अविचल है! किंतु आप विश्वास रखें किराम विजयी होकर रहेंगे! ये वे पुराने धनुर्धर राजकुमार नहीं है, जिनके दिन के चौबीस घंटों में से सोलह घंटे मधुर मुस्कान में ही बरबाद हो जाते थे, जिनकी शक्ति शील में ही समाप्त हो जाती थी और जिनमें अपने से कोई आग न थी, जिन्दगी का अट्टाहास नहीं था, जो-कुछ भी ठंडा-सा उत्साह था, वह एक कमजोर भले मानस का मजबूत लोगों में पड़ने के कारण जबर्दस्ती उमड़ा हुआ उत्साह था। अब बताइये सम्पादक जी, आप विजयदशमी पर ऐसा लेख पसन्द करेंगे?

खैर, आपको अगर यह नहीं रुचता, तो कहिए तो मैं आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत करूँ। प्रार्थना-सभा में आपको ले चलूँ और आपको अल्लोपनिषद् की पुण्यवाणी के पाठ के साथ-साथ ‘ सखा धरममय अस रथ जाके। रिपु रन जीति सकहिं नहिं ताके।‘ से शुरु करके राम के विजय की मर्म कथा सुनाऊँ। राम तो अपने ही मन के सत्य हैं, जो निरंतर असत्य से अहिंसात्मक युद्ध या सविनय असहयोग करते रहते हैं। रावण किसी लंका का निवासी या किसी जात का अगुआ नहीं था, वैसा कहना इतिहास के साथ हिंसा करना होगा। रावण निश्चय ही हिंसा का और असत्य का प्रतीक है। उसने क्षमा की संतति का पहरण किया था, राम उसे छुड़ाने गए थे। दूसरे शब्दों में राम भू-दान की पदयात्रा पर निकले थे। वे संचयशील, हिंसापरायण और असत्यपरायण सत्ताधारों से भू-दान मांगने निकले थे। वास्तव में बानर भालुओं की कोई सेना उनके साथ नहीं थी। लम्बी-लम्बी छड़ी लिए वह अत्यंत सात्विक आहार-विहार पर जीवन यापन करने वाले व्रतियों का समुदाय था, जो एक धावनशील सत्य के पीछे चल रहा था। राम-रावण युद्ध तो मानसिक संघर्ष का ही एक रूपक है, जिसे प्राचीन समय के युद्दपरायण युग के कवि ने लोगों को समझाने के लिए गढ़ा था। यह मानसिक संघर्ष प्रत्येक व्यक्ति के मन की लंका में छिड़ता है, सद् वृत्तियां असद् वृत्तियों पर विजय पाने के लिए विनय का सेतु बाँधती हैं; सम्पति की आकांक्षा को भस्म कर डालती है और असद्वृत्तियों के पाश में जकड़ी हुई शान्ति का उद्धार करती है। इस प्रकार राम की रावण-विजय तत्वतः हृदय परिवर्तन की ही काव्यात्मक परिभाषा है। दशरथ दसों इन्द्रियों के समूह हैं, कौशल्या कुशलमतिता है। वैदेही अकायिक साधना है। मारुति पंच-प्राणों के अधिष्ठाता हैं, सौमित्र विश्वमैत्री के स्वरूप हैं, भरत करुणा के आकार हैं, शत्रुघ्न हिंसात्मक लगते हुये भी उपेक्षा वृत्ति के ही प्रतिमान हैं, और राम मुदितावृत्ति के उत्कर्ष हैं। कुम्भकर्ण जड़ता है, रावण हिंसा है, विभीषण अनुक्रोश है, मन्दोदरी दया है और मेघनाथ क्रोध है। आप शायद घबराने लगे हों कि यह रूपक अभी कहीं और दूर तक खींचा जाएगा, पर आप धैर्य रखें, मुझे स्वयं इसके आगे जाने का धैर्य नहीं है। बहुत ही तितिक्षापूर्वक मैने यह व्याख्या अपने घर से दस कदम पर रहने वाले एक श्रीरामपार्षद सुजन के सुग्रीव अर्थात सुकंठ से सुनी है।

लीजिए आप तो जिद करते हैं कि मुझे वह सब नहीं चाहिये, जैसा मूर्ख-से-मूर्ख और गंवार-से-गंवार आदमी भी विजयदशमी त्योहार मनाता है, वैसा ही लिखो! उस मूर्ख और गंवार का अस्तित्व ही कहां है? बंगाल में गांव-गांव आप जो जगद्धात्री का जुलूस देखा करते थे, अब वहां नये-नये स्वाँग रचे जाने लगे हैं,“ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कमलिनी। दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वधा स्वाहा नमोस्तुते। सर्वमंगलामांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यम्बिके गौरि नारायणि नमोस्तुते।।“ इन वन्दना के श्लोकों से जिस देवी का ध्यान किया जाता है, वह अब चंडी हो गयी है, उसे प्रसादित करने वाला कोई शिव नहीं। शक्ति जब अपरूप हो जाती है, तब वह काबू में नहीं रहती, वह साधक को ही खाने दौड़ती है। तब केवल राम-नाम का ही भरोसा बच रहता है, परन्तु राम-नाम का कीर्तन तो अष्टायाम तक होता है, शिव क्यों नहीं जगते, शक्ति क्यों नहीं उनके बस में आकर प्रसन्न होती? कारण आप जाकर उन बौड़मों से पूछिये, जो कहते हैं, नाम बिना रूप के अर्थशून्य है। राम-नाम कीर्तन करते हो, पर राम को भूल गये, राम के स्वरूप को भूल गये, शिव कहां से उदय होंगे? आप फिर कहेंगे, गाँव-गाँव दशहरा के दिन बागों में बगीचों से उड़ा-उड़ाकर नीलकंठ दिखाए जाते हैं, वे ही तो शिव के प्रतिनिधि हैं। गाँव-गाँव नये नवांकुर विजयचिन्ह के रूप में शिखा से बांधे जाते हैं, वही तो राम की विजय का अनुध्यान है और रामलीला की और सब कारवाई पूरी हो न हो; पर पुआल का और रद्दी कागज का रावण तो फूँका ही जाता है। इससे अधिक क्या हो सकता है? दस-पांच चेहरे लगाकर हुंकारते हुए कुछ जवान भी बानर और दैत्य बनकर उछल-कूद करते हैं, इससे अधिक राम के स्वरूप का कौन-सा चिंतन होगा ? इतने पर भी आपको प्रतीति नहीं होती, तो जब राम, सीता और लक्ष्मण चढ़ाए हुए बतासों का भोग लगाकर मेले में घूमने लगते हैं, तब तो आपकी दिलजमाई हो ही जानी चाहिये।

पर सम्पादक जी, गँवार आदमी तो हक्का-बक्का होकर देख रहा है कि कहीं-कहीं राम के चित्र जलाये जा रहे हैं क्योंकि वे द्रविड संस्कृति पर धावा बोलने वाली आर्य संस्कृति के प्रतिनिघि हैं। कहीं-कहीं राम दशरथ को तरेर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने एक नहीं, दो नहीं, तीन विवाह किये हैं। ये राम सीता को मना रहे हैं कि तुम अयोद्धा लौट चलो, क्योकि नारी का मूल्य चढ़ गया है। ये राम निषादराज के चरण पखार रहे हैं, क्योंकि आदिवासियों की उपेक्षा का उन्हें प्रतिकार करना है। ये राम मेघनाद के आगे रो रहे हैं, क्योंकि तुमने लक्ष्मण को मारा तो अब मुझे भी मारो, क्योंकि ‘ मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः‘ का अर्थ-विपर्यय हो गया है। ये राम वशिष्ठ को राजनीति समझा रहे हैं कि रामराज्य में वर्गहीन समाज की व्यवस्था होनी चाहिये और ये राम धोबी के द्वार पर अनशन कर रहे हैं कि वह सीता के प्रति कहे गये आक्षेप-वचन वापस ले ले। उस हतबुद्धि गँवार की तो कल्पना ही उजड़ने लगती है। वह कैसे अपने मन के छोटे से रामलीला मैदान में इन विरोधी प्रदर्शनों को अपने मनोधिष्ठित लीला-रूपों के साथ बिठलाये? यह उसके जीवन-मरण का प्रश्न है, वह जिसे साध्य समझता है, उसे साधन मानने को वह कैसे अपने को विवश करे? वह जिसे जाति, देश और समय से परे मानता है, उसे जातीय, प्रादेशिक और समयापेक्षी आंदोलनों में कैसे घसीटे?

मैं तो किसी भी प्रकार इस सनातन गँवार भारतवासी को सुराह पर नहीं ला सकता, क्योंकि बहुत कुछ पढ़ने-लिखने के बावजूद आपको बहुत विश्रब्ध जानकर आपसे यह स्वीकार करता हूँ कि मेरा मन भी कुछ-कुछ गँवार है। कृपा करके इसे अपने तक ही रखें। मैं स्वयं नये मूल्यों के पैमाने पर हर एक पुरानी वस्तु की पैमाइश करने में असमर्थ हूँ। वर्षा की तरह बावना रसोद्रेक का परिमापन करना मेरे वश की बात नहीं हो पायी। इसी से स सुवस्तीर्ण महान देश के असंख्य जनों में युगों से जिस भावना ने राम का कार ग्रहण किया, उसे बहाना मेरे बूते की बात नहीं और उस भावना को अपनी बौद्धिक इंजिनियरी के प्रताप से बाँधकर नया मोड़ देना, समें से नयी प्रणालियाँ निकालना या उसमें से नयी शक्ति निकालना और उनसे नये कारखाने बनाने की योजना बनाना तो मेरी कल्पना के भी परे है। मैं तो केवल यही अनुभव कर सकता हूँ कि राम की विजय अभी कल ही हुयी है, सीता हमारे देखते-देखते हरी गयी है, रावम हमारे देखते-देखते धाराशायी हुआ है, चौदह वर्षों के वनवास के अनन्तर अपनी नगरी में लौटे हुये राम के स्वागत समारोह में मैं स्वयं सम्मिलित रहा हूं। मेरे ही मन में रघुबीर को रतहीन देखकर पीर उपजी है और मुझी को एक धनुर्धर ने शान्तवाणी में मृदुल कंठ से समझाया है कि बय न करो, मेरा रथ धर्ममय है, इस धर्मरथ पर ही मुझे चढाओ। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि यह सारा जग ही सियाराममय है, इसलिये राम की विजय-यात्रा में मैं चलता हूँ। राम के तिलक में मेरे हाथ का अँगूठा चंदनयुक्त हो उठता है। सीता की अग्नि-परीक्षा में मेरी सुचिता ही परीक्षित होती है। लक्ष्मण के ओज में अपना ही सात्विक आक्रोश बोलता है। भरत की आद्रता में मैं स्वयं ही पिगलता हूँ और गुह के नुरोद में मैं ही मचलता हूँ!

तो सम्पादकजी, क्या यह सब असत्य है? मेरे जैसे असंख्य अबोध जन जिस सत्य के आलोक पर ही जाड़े की रात काट रहे हों, क्या वह सत्य कृत्रिम है? क्या यह प्रकाश तिमिर है? आप ही बताइये! और आप चाहते हैं कि मैं विजयादशमी पर लेख लिखूँ।

विजयानन्द दूबे और चिदानन्द चौबे का युग रहता, तो मैं आपसे कुछ और खरी-खरी बातें करता, पर मैं तो ग्रंथिल अभिव्यक्ति के युग में पल रहा हूँ। आपको धन्यवाद मात्र दे सकता हूँ कि आपने मुझे इस लेख के योग्य समझने की दया की; पर मैं विवश हूँ, मुझसे लेख नहीं बन नहीं पड़ेगा। जब मसाला ही नहीं है, तब विजया का अवतरण कैसे कराऊँ! शकर्राखंड पात्र में नीबू निचोड़कर कैसा लगेगा? क्या आपतक प्रस्तुत करूँ? वह क्या आपको रुचेगा। अतः क्षमा करें। सादर प्रणाम लें!

भवदीय ,

भ्रमरानन्द (विजयादशमी1954)


विद्यानिवास मिश्र
(14-1-1925-14-2-2003)

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