वह नीलाभ जल, वह असीम विस्तार- अनिता रश्मि

वनों, झरनों-नदियों, पठारों, पहाड़ियों, घाटियों से आच्छादित बिहार के लगभग 100 वर्ष पुराने छोटानागपुर (अब झारखंड) के घने जंगल, नदी, झील और शांत माहौल अपार मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करते हैं। झारखंड में जगह-जगह बने बाँध आकर्षण के बहुत बड़े केंद्र हैं। छात्र जीवन में तिलैया डैम, मैथन डैम के साथ पतरातू बाँध भी देखने का अवसर मुझे मिल चुका था। उन सबकी खूबसूरती ने मन को बाँध सा लिया था। फिर बहुत दिनों तक पतरातू आना नहीं हुआ। अपनी राँची के धुर्वा बाँध, काँके बाँध, रूक्का बाँध आदि जैसे खूबसूरत बाँधों पर तो आना-जाना लगा ही रहता है।
इधर अक्सर पतरातू में परिजन श्याम-अनुपमा, आस्था के क्वार्टर सी – 12 में जाने का अवसर मिलता और हर बार हम सुबह-शाम पतरातू डैम पर जाने की कोशिश करते। एक दिन के लिए भी जाना हो, पतरातू डैम की खूबसूरती से मिले बिना लौटने का मन ही नहीं करता। लौटने के रास्ते में ही तो पड़ता था जल का अस्सीम विस्तार समेटे गलबहियाँ करने को आतुर डैम का एक किनारा।
सुबह-शाम हम पैदल डैम के साइडवाली जगह पर चलते जाते। कहीं कोई व्यक्ति नहाते हुए नजर आता, कहीं दौड़ लगाते हुए। ढलाऊँ पत्थरों पर बैठ जल के अस्सीम विस्तार को हसरत से ताकते हुए भी। युवा-वृद्ध-महिलाएँ सभी सुबह की हवाखोरी के आन्नद में निमग्न। जगह-जगह मछली पकड़ने के लिए बने प्लेटफाॅर्म और उन पर रंग-बिरंगे जाल, बड़ी टोकरियाँ, उनमें मीन। ठंड में आते साइबर पंछियों की उपस्थिति अलग आकर्षित करती।
झारखंड के सर्वाधिक खूबसूरत पर्यटन स्थलों में से एक पतरातू घाटी में जिधर भी घूमने निकल जाएँ, प्रकृति की अद्भुत सुंदरता का दर्शन होगा। पूरा शहर ही प्रकृति की गोद में जगता है, सोता है। पतरातू प्रखंड उच्चरिंगा पहाड़, कटिया पहाड़, जिंदल स्टील प्लांट, पलानी झरना सब दर्शनीय, मनोरम! इन सब में से अधिकांश जगह को देखकर हम बेहद खुश हो उठते थे कि यह है झारखंड। कभी बिहार के छोटानागपुर के लिए कहा जाता था –
हामर सोना कर नागपुर
हामर रूपा कर नागपुर…

अब वही तो है झारखंड! बिहार से अलग होकर छोटानागपुर बन गया झारखंड!
उन दिनों अनुपमा पतरातू के ओ. पी. जिंदल स्कूल में शिक्षिका थी। उसका आग्रह – ” दीदी! इस बार नए वर्ष पर यहीं आकर रहिए। ”
” सोचती हूँ। ”
” नहीं, नहीं! सोचिए मत, जरूर आइए। घर के और लोग भी आ रहे हैं। ”
हमने हामी भरी और एक दिन पूर्व ही चल पड़े। झारखंड की राजधानी राँची से पतरातू लगभग 40 कि. मी. ही तो दूर है। राँची से काँके होते हुए मनमोहक सर्पिल स्वच्छ रास्तों पर बढ़ते हुए प्रकृति के प्रति नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते। भर राह प्रकृति आपका हाथ थामे रहती है। पिठौरिया घाटी हो या पतरातू की वादी, हर तरफ एक से एक नग, पेड़ों के पंचायती झुटपुटे, रास्तों के किनारे खड़े वृक्षों के सैल्यूट इतने मनभावन कि आप बारंबार ठहरकर अपने आप को खो देने के लिए तत्पर हो उठते हैं। पहले सबसे खतरनाक घाटी के रूप में मशहूर पतरातू की घाटी अब इतनी खूबसूरती से नए रंग-रूप में ढाल दी गई है कि सैलानियों की भीड़ टूट पड़ती है। आज भी भर रास्ते देखने को मिली।…साथ में भीड़…ठसमठस…जाम।
घाटी के घुमावदार रास्ते पर एक मोड़ ऐसा भी है, जो ऊपर से देखने पर शिवलिंग की तरह नजर आता है। उसके ऊपरवाली मोड़ के पास रूककर लोग प्रायः उक्त शिवलिंगनुमा सड़क को देखे बिना आगे नहीं बढ़ते। हम भी कभी-कभी रूक जाते। आज भी हम गाड़ी से उतर पड़े। आज भीड़ टूटी पड़ रही थी…भीड़ उस सलेटी सड़क और बीच के हरे-भरे क्षेत्र के कारण शिवलिंग बन चुके दृश्य को अपने कैमरे, मोबाइल में कैद कर रही थी। यहाँ पर स्थित फुचके (गोलगप्पे) चाऊमीन और झाल-मूढ़ी के आन्नद में डूब रही थी।
गनीमत है, अभी तक इस राह में ढाबाओं का संसार सज नहीं पाया था। अन्यथा खूबसूरती को ग्रहण लग जाती।
नागिन सी बलखाती सड़कों से पतरातू शहर के करीब आते ही दूर से ही डैम का पानी, बीच के टापू, नए बने पार्क, किनारे से जोहार कहते पहाड़ आकर्षित करने लगे थे। नीलाभ जल को देख मन प्रफुल्लित। चारों ओर की सूखी, गँदली, आहें भरती स्वर्णरेखा, कोयल, शंख, दामोदर जैसी प्रमुख नदियों की दुर्दशा को देख मन उदास होता रहा था। यहाँ प्रचूर नीलाभ जल हमेशा आनंदित करता। अभी भी करने लगा। थोड़ी देर में हम क्वार्टर सी- 12 में थे। अन्य परिजन भी अलग-अलग स्थानों से एक जनवरी को आ पहुँचे।

रामगढ़ के पश्चिम में 30 कि. मी. पर स्थित यह पतरातू थर्मल पावर स्टेशन (पी. टी. पी. एस.) मनमोहक वातावरण, पहाड़ी सौंदर्य, बिजली संयंत्र और बांँध के लिए जाना जाता है। यह घाटी नगर समुद्र तल से 1300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पी. टी. पी. एस. को पानी की आपूर्ति करने के उद्देश्य से पतरातू बाँध का निर्माण किया गया था। नलकार्नी नदी और आस-पास की पहाड़ियों के झरने से इस बांँध में पानी जमा होता है। इस बांँध की कुल भंडारण क्षमता 81 वर्ग मील है। इसको नलकार्नी बाँध भी कहा जाता है। हेतला गाँव में बने होने के कारण हेतला बाँध भी कहते हैं।
बीच में यह बाँध एकदम जर्जर हो गया था। अब पुनर्जीवित किया गया है।
एक जनवरी को हम परिवार के अनेक सदस्यों संग तीन गाड़ियों में भरकर पतरातू डैम पहुँच गए। नवीनतम रिसोर्ट के विशाल गेट के पास टिकट के लिए बहुत लंबी लाईन लगी थी। हर तरफ नया बदलाव। विकसित क्षेत्र को देखकर सभी को रोमांच मिश्रित खुशी मिली। पर मुझे उतने पेड़ों का कटना, विशाल खुले परिसर का सिमट आना नहीं भाया।
” विकास की बलिवेदी पर चढ़ गए सब गाछ। ” – मैं अक्सर कहती थी। सड़कों के किनारे के अमलतास, गम्हार, पीपल, बरगद, नीम, अमलतास को कटते देखकर आह निकल जाती थी।
पर स्थानीय लोग खुश थे, संतुष्ट थे।
” हमीन को कमाई-खाई ले बाहर नय जाना पड़ेगा। ”
” हाँ! हिंया का लोग को भी तो डेभलपमेनट का फाईदा मिलना चाहिए ना। ” – लोगों की बातचीत में उनका मन खुलता।
” अइब तो फिलम सिटी भी बन रहा हय। हिंया केतना जियादा कलाकार हय। गाने-नाचनेवाला, मंदरिका (मांदरबजानेवाले) डरामावाला… सभे को काम मिलेगा। ”
” हामर झालीवुड भी चमकेगा। ”
झालीवुड…’झारखंड फिल्म इंडस्ट्री’ के कितने प्रतिभाशाली कलाकारों, गीतकारों, गायकों, नर्तकों को पतरातू में फिल्म सिटी बन जाने के बाद काम मिलेगा, यह आशा और विश्वास आम लोगों संग मेरे मन की जमीन को भी तर करती रहती है।
उपर्युक्त बातों के अलावा उनकी खुशी की अन्य वजहें भी थीं। खुश होने की बड़ी वजहें थीं- स्थानीय लोगों को वहीं रोजगार मिलना। मल्लाहों को खुलकर नौकायन करने की सुविधा, मछली पालन की नवीन व्यवस्था, जगह-जगह पर्यटन मित्रों की नियुक्ति के कारण पलायन तथा मानव तस्करी रूकने की आस और बेहतर जीवन शैली।
प्रवेश द्वार पर ही नगाड़ा बजाते वनवासी की विशाल प्रतिमा। एक ओर प्रेम में डूबीं दो मूर्तियाँ शाश्वत प्यार को परिभाषित करती हुईं। प्रवेश द्वार से घुसते ही चमकदार काली जीवंत मूर्तियाँ मन जीत लेती हैं। आगे थीं, ग्रामीण जीवन की झलक दिखलातीं कृषक परिवार की आदमकद प्रतिमाएँ, बिसरा दिए गए झारखंडी खेल गुल्ली-डंडा वाली मूर्तियाँ। साथ गए बच्चों के साथ हमें भी इन मूर्तियों ने ठिठकने पर मजबूर कर दिया।
बड़े से द्वार से अंदर जाकर बाएँ जाने पर पूरा जलागार सामने। उस तक जानेवाली जगह अब मैदाननुमा…ढलाऊँ पर एकदम सपाट। यहाँ बैलूनवाले, खोमचेवाले नौकावाले भरपूर बाजार सजाए बैठे थे। ग्रिल से घिरा था ऊपरी इलाका, जहाँ वे एक भी दुकान नहीं सजा सकते थे। बस, पार्क और पूरा डैम घूमने के लिए साफ-सुथरे पैदल पथ।
रंग-बिरंगी नौकाओं से सरकारी रेट के आधार पर जल की छाती पर घूमने की व्यवस्था की गई थी। नौका विहार करते वक्त हिदायत के बावजूद लोग छिपकर साइबेरियन पक्षियों के लिए दाने फेंकते और वे झुंड की शक्ल में आ जल पर छा जाते। अभी भी वे उड़ रहे थे। जल पर बैठते-तैरते, उड़ते अजब समां रच दे रहे थे। थोड़ी देर उन सबको देखने के बाद हम दाईं ओर के पैदल पथ पर बढ़ने लगे। सर्किट हाउस पहले से था। वहाँ अब बहुत व्यवस्थित ढंग से आम पर्यटकों की जरूरतों के लिए अनेक जरूरी व्यवस्था की गई थी। बच्चों के लिए खूबसूरत पार्क बन गया था। सर्किट हाउस से सटा रिसोर्ट भी। रात्रि विश्राम के लिए पच्चीस-तीस कमरों का रिसोर्ट बेहद कम मूल्य पर उपलब्ध है। अब छठ घाट भी बन गए हैं। बीच-बीच में प्लेटफाॅर्म बनाकर वोटिंग को सहज बनाने की कोशिश की गई थी। खूबसूरत ढंग से नए पेड़-पौधे लगाए गए थे। पूरा का पूरा परिसर विकसित।
बाँध के बीचोंबीच स्थित नेतुआ टापू में भी एक रिसोर्ट। इच्छा थी सबकी तरह नाव से वहाँ जाकर वहाँ का आन्नद लिया जाए। पर हजारीबाग से आए परिजनों को उसी दिन लौटना था। बाँध के पार हरिहरपुर गाँव… हरियरी से भरा…दूर से ही हृदय को भी हरा-भरा कर देता है। इस किनारे से उस किनारे की हरियरी को देर तक देखती रही। सब एकदम हवा के परों पर सवार। समय भी। हरिहरपुर, हेतला तथा आस-पास के अधिकांश गाँवों के लोग अभी अपनी सेवाएँ दे रहे थे। उनके चेहरों से प्रसन्नता एवं संतोष टपक रहा था। पर्यटकों की खुशी भी छलक-छलक जा रही थी।
पहले भी एक बार एक जनवरी को वहीं थी तो जलागार के किनारे एक पेड़ के नीचे पिकनिक मनाया था। फिर सामान्य सी नौका पर चढ़ हम सबने आधे डैम की सैर का आन्नद लिया था। मुझे वह पेड़ देखने की इच्छा हुई, जिसकी छाँव ने छत का काम किया था। यहीं कहीं थी आस-पास पुटुश की झाड़ी तथा अन्य जंगली झाड़-झंखाड़, जहाँ हम सबने उबड़-खाबड़ जगह पर बैठकर अनुपमा द्वारा बनाए गए धुसके, छिलके, घुघनी ( झारखंडी पकवान ) का आन्नद लिया था। कहाँ था अब वह सब, कहीं भी तो नहीं। सारी झाड़ियाँ गुम। वास्तविक वनभोज था वह पर आज…सोच बेलगाम हो उठी, विकास बहुत कुछ लील भी लेता है। विकास के अपने फायदे और नुकसान हैं।
तब गाछों की छाँव तले जगह-जगह पर बिछी दरियों पर पिकनिक मनाते लोग। खाना बनाते-खिलाते लोग। डीजे की धुन पर नाचते-गाते लोग। माँदर बजाकर झूमते लोग। गीतों की बहती रसधार –

मोर पिरितिया के
ऐई गुईंया तोड़ के ना जा
एकला छोड़ के ना जा…

वैसे भी झारखंड के बारे में प्रचलित है –

सेन गे सुसुन
काजी गे दुरुंग!

अर्थात यहाँ बोलना ही गीत और चलना ही नृत्य है। मांदर की थाप पर लरजते गीत कानों को बहुत भले लगते रहे हैं।
आज भी भीड़ से अँटा पड़ा था पूरा इलाका। गाड़ियों की लंबी कतारें। उन पर भी बजते मांदर, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी, डीजे और लाउडस्पीकर। संगीत की बहती नदी के बीच शोर का उफान भी।
क्वार्टर लौटते समय हम बाँध के निचले हिस्से में भी गए। वहाँ भी पर्यटकों की चहचहाहट। बाँध से बहकर आती हुई नदी में भी नौका विहार की व्यवस्था। दो-तीन सुंदर, रंगीन नौकाएँ खड़ी थीं। सैलानी उक्त नदी की गोद में जाने को मचल रहे थे। बांँध के नजदीक एक महत्वपूर्ण प्राचीन पंचवाहिनी मंदिर है। वहाँ लोग-बाग पूजा कर अलग से खुशी को समेट ले रहे थे।
आगे यत्र-तत्र, सर्वत्र पिकनिक मनाते लोग। पूरा हेतला इलाका गुंजरित। कहीं ईंटें जोड़कर बनाए गए चूल्हे, कहीं पत्थरों की जुगाड़ से। उन चूल्हों में झोंकी जातीं लकड़ियों की आँच। अधिकांश जगह गैस के चूल्हों पर खदबदाता खाद्य पदार्थ। याने वास्तव में जंगल में मंगल। आगे प्लांट वगैरह देख एक नए मार्ग से हम क्वार्टर की ओर जा रहे थे। बैलगाड़ी, पुआलों से लदे मचान, नाद में मुँह घुसाए बैल-गाय, कच्चे रास्ते, इमली के पेड़ और पगडंडी का बाँकपन आदि देख समझ गई… यह गाँव है।

शाम तक कुछ परिजन वापस लौट गए। बच्चों के क्लास या कोचिंग या टेस्ट थे। दूसरे दिन राँची वापस आते वक्त श्याम भी साथ हो लिया।
झारखंड का अधिकांश क्षेत्र घने जंगलों के साथ खनिजों से भी भरा हुआ है। विभिन्न प्रकार के खनिज यहां भूगर्भ से निकालकर अलग-अलग जगह पहुंँचाए जाते हैं। सर्वविदित है, कोयले की खदानों से कोयला उत्खनन कर भारत के विभिन्न स्थानों तक भेजा जाता है। उस सुबह लौटते हुए हमारी गाड़ी के साथ-साथ दूर तक अनेक मोटर साइकिलें चल रही थीं। उन मोटर साइकिलों के पीछे रस्सी से बँधी साइकिलें। साइकिलों पर लगभग बीस-बाइस छोटे-बड़े बोरों में कोयले। कोयला ढोने का यह दृश्य अनजाना नहीं था।

रामगढ़ के चुटू पालू घाटी में ऐसे साइकिल सवारों की चींटियों सी कतारें देखकर बड़ी हुई मैं उन पर उपन्यास का एक अंश लिख चुकी थी। एक कविता भी।
कविता थी –

‘ साइकिल पर कोयला ढोनेवालों के नाम ‘

रामगढ़ की कच्ची-पकी
सर्पिल सड़क पर जैसे ही
मुड़ती हैं निगाहें,
अनेक साइकिलों से
सामना हो जाता है
पंक्तिबद्ध चींटियों की भांति
सरकता जत्था आगे बढ़ता जाता
चींटियों के श्रम को
मात करता हुआ

स्वेदकणों की झिलमिलाहट से
चमकते हुए
एक-एक साइकिल पर
पंद्रह-बीस छोटे-बड़े बोरे,
बोरों में ढेरों-ढेरों कोयले
कोयलों में ढेरों आग
आग में ढेर सारी चिंगारी!

साइकिल पर लदे
बोरों के बीच बैठे
काले तपे रक्तहीन शरीर
ढलान में तेजी से फिसलते
चढ़ान में मेहनत से
खींचते, हाँफते, सरकते
छाती की एक-एक
पसली गिनाते ये
कभी हरे पेड़ों की
छाँव तले सुस्ताते
कभी पतझड़ी पत्तों के
बिस्तर पर बिछ जाते
कभी खरहना बिछौना
कभी पत्थर का
तो कभी कोयले से भरे
बोरे का तकिया

लेकिन
कभी नहीं एक भी चिंगारी
करती इनका जीवन रौशन।
और सिर्फ देखते हुए
बढ़ जाते
तुम भी
हम भी!

वे लोग साइकिल को खींचते हुए बेहद मुश्किल चढ़ाई पर चढ़ते। चींटियों सी कतार बांँधकर। ढलान मिलते ही सीट पर जा बैठते थे। भारी बोझ से लदी साइकिल तेज गति से नीचे की ओर अनुशासन की डोर काटकर भागते बच्चे-सी भाग खड़ी होती। पैडल मारने की आवश्यकता ही नहीं।
पर यहाँ उन मोटरसाइकिलों द्वारा साइकिलों को खींचने की व्यवस्था ने ध्यान खींचा। बेतरह ऊँची चढ़ाई साइकिल सवार आसानी से चढ़ पा रहे थे। वे अपनी सीटों पर जमे थे और बिना पैडल मारे बढ़े जा रहे थे। जीवन उन्हें संतुलन साधना सिखा चुकी थी।
पूछते ही श्याम ने बताया ” ये मोटरसाइकिल वाले पचास-पचास रुपये में कोयला ढोनेवालों को आधी राह तक पहुँचाते हैं। यह काम बारह बजे दिन तक चलता है। ”
” चोरी का ही है न? ”
” हाँ! चोरी-छिपे बंद कोयला खदानों में उतरकर ये कोयला चुराते हैं और… ”
” डर नहीं लगता इन्हें ? कितनी दुर्घटनाएँ होती रहतीं हैं। आए दिन बंद खदानों के धँसने, लोगों के मरने की खबरें सुनती ही रहती हूँ। मैंने तो सिर्फ गिरीडीह और रामगढ़ के रास्तों में ऐसे लोगों को देखा था। यहाँ भी…। पेट की भूख जो न कराए। ”
” ये लोग पतरातू के भी आगे भुरकुंडा से कोयला लादकर ला रहे हैं।…हाँ, पेट की भूख…। वैसे इन मोटरसाइकिल वालों की वजह से चढ़ाई चढ़ना आसान हो जाता है। ”
ढलाई पर यहाँ भी वे साइकिलें अनुशासन से छूटे बच्चे बन जा रही थीं। वे लोग अपने में मगन बढ़े जा रहे थे। सुबह के धुंधलके के पहले से ही व्यस्त लोग। पस्त होते हुए भी मस्त!
मुझे देखते देख कई चेहरों पर मुस्कान के फूल खिले। फिर वे अपने कठोर काम में वे व्यस्त।
” कहाँ ले जा रहे हैं? कहाँ-कैसे बेचते हैं? ”
” राँची। वहाँ के हलवईया के दोकान में या किसी का घरे में दे देते हँय।”
” केतना में बेचते हैं? ”
” बीस-तीस रुपइया एक बोरा का मिल जाता है। ”
” इतनी मेहनत का काम करते हैं, छाती में दर्द नहीं होता? ”
” छाती आउर गोटे सरीरे में दरद तो होता हय। फिन पेट इयाद आ जाता हय। उकर आगे सब दरद-पीरा भूल जाते हँय। ”
” तो दूसरा कम मेहनत का काम क्यों नहीं करते? ”
कभी ऐसे साइकिल सवार से पूछा था और जवाब ने सोचने पर विवश कर दिया था।
” बाप-दादा के समय से येही करते आ रहे हँय। अब आउर कउन काम…। ”
उसने दूसरी ओर मुँह फेर लिया था। जैसे प्रश्न से मुँह मोड़ लेना ही नियति। जैसे अब और कोई सवाल-जवाब नहीं सुनना।
कुछेक लोगों से सुन चुकी थी कि कोयले की इन बोरियों को वनों-झाड़ों के पीछे छिपे ट्रकों में भी खाली किया जाता है। पूरा परिवार अवैध खनन में लगा रहता है। राँची की गलियों में भी चाय गुमटी, मिठाई दुकानादि के पास बोरियाँ लादे हुए साइकिलवाले दिखलाई देते रहे थे।
फिर जीवन के अनबुझे सवालातों से जूझते हुए हमारी गाड़ी चुपचाप सर्पिल चढ़ाई चढ़ती रही। पतरातू और राँची के बीच के शहरों में इनमें से कुछेक साइकिल सवारों को अपने बोझ से मुक्ति पाते हुए भी देखा।
धूप निकल आई थी। साथ में बूँदाबाँदी भी शूरू। जनमानस में बैठा एक विचार याद आ गया। इधर धूप और वर्षा एक साथ हों तो सब कहते हैं – ” सियार का बिहा हो रहा है। ”
अब सच में सियार का विवाह होता है, यह तो संदिग्ध है। हाँ, जनमानस की इस धारणा को तोड़ना कठिन…बहुत कठिन है। हम काँके की खूबसूरत सड़क तक पहुँच चुके थे। पतरातू, पिठौरिया और अन्य पठारी हरीतिमा पीछे छूट चुकी थी। लेकिन पतरातू घाटी का पूरा सौंदर्य हमारे सर चढ़कर बोल रहा था।
सर्दियों में अक्टूबर से लेकर फरवरी के मध्य का मौसम पतरातू आने का आदर्श समय माना जाता है। यहाँ बेहतर सड़क मार्गों से जुड़े रहने के कारण राज्य के किसी भी इलाके से गाड़ियों से आ सकते हैं। रेल सेवा भी उपलब्ध है।

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