वतन से दूरः लेखनी संकलन


वतन की याद आती है

जुदाई से नयन है नम, वतन की याद आती है
बहे काजल न क्यों हरदम, वतन की याद आती है

समय बीता बहुत लंबा हमें परदेस में रहते
न उसको भूल पाए हम, वतन की याद आती है

तड़पते हैं, सिसकते हैं, जिगर के ज़ख़्म सीते हैं
ज़ियादा तो कभी कुछ कम, वतन की याद आती है

चढ़ा है इतना गहरा रंग कुछ उसकी मुहब्बत का
हुए गुलज़ार जैसे हम, वतन की याद आती है

यहाँ परदेस में भी फ़िक्र रहती है हमें उसकी
हुए हैं गम से हम बेदम, वतन की याद आती है

हमारा दिल तो होता है बहुत मिलने मिलाने का
रुलाते फ़ासले हमदम, वतन की याद आती है

वही है देश इक ‘देवी’ अहिंसा धर्म है जिसका
लुटाता प्यार की शबनम, वतन की याद आती है

-देवी नागरानी यू.एस.ए.

कोयल कूक पपीहा बानी…

कोयल कूक, पपीहा बानी, ना पीपल की छाँव
सात समन्दर पार बसाया हमने ऐसा गांव
हमरा ऐसा गांव
ऐसा हमरा गांव !

ऐसा गांव जिसमें ठंडी आग से तन जलता है
सांस सांस में पवन नहीं विष पुरवइया चलता है
फिर भी उस गांव की हद से बाहर न निकले पांव
हमरा ऐसा गांव
ऐसा हमरा गांव!

धूप खिले तो कलियों की सुगंध न उड़ने पाए
बरखा ऋतु की लहर बहर से हर मुखड़ा मुरझाए
कोहरे की बर्फीली चादर बिछी है चार दिशाओं
हमरा ऐसा गांव
ऐसा हमरा गांव!

रंग बिरंगे लोग यहां पर बोलें अपनी बोली
तन सोना माटी ही करके भरें पेट की खोली
खून पसीना एक करें तो पल दो पल बिसराएं
हमरा ऐसा गांव
ऐसा हमरा गांव!

-सोहन राही ( यू. के.)

पीड़ा प्रवासी मन की

बीते दिन बहुतेरे
चल अब लौट चलें

जहाँ आँचल में मातृत्व समेटे
बाट तक रहे
दो ज्योतिहीन नयन गीले
क्षीण होती जर्जर काया से बदन पिता का ढहे

उन जीवनदान देने वाले
माँ-पिता के चरणों में
बनना था जिसका तुम्हें
सम्बल बहुत पहले.

बीते दिन बहुतेरे
चल अब लौट चलें

जहाँ बुलाया हर राखी पर
बहन ने बाँधने
सूनी कलाई पर
प्यार के धागे
पर रख न पाया
कभी उसका मान

अपनी सीमाओं में बंधा
प्रवासी विवश मन
करता रहा उसे हरदम
त्योहार पर उदास
उसकी कातर आँखें
सजा हुआ अल्पना द्वार
हल्दी, कुमकुम, चावल का थाल
कर रहा अब तलक
तेरा इंतज़ार.

बीते दिन बहुतेरे चल अब लौट चलें

जहाँ पाया था कल प्यार
और आज भी प्यार मिलेगा
भर पेट होने पर भी कुछ और खा लो का
मनुहार मिलेगा

सावन की बौछारों पर
झूले की पींगों पर
त्योहारों की मधुरिम रागों पर ढोलक की थापों पर
एक सरल संसार मिलेगा.

बीते दिन बहुतेरे
चल अब लौट चलें

जहाँ दशरथ की तरह
सिधारे तात गगन पार
झेल न सके
विरह की काली रात
रोती रही माँ
यशोदा की तरह

न आए पलट कर श्याम
आँखों में लिए विवशता
हो गई चिता पर राख
माँ की ममता.

बीते दिन बहुतेरे
चल अब लौट चलें

जहाँ अब भी
घर के चौबारे से
हर झरोखे से
झर-झर झरती स्नेहिल स्मृतियों की छवि

ठंडी राख में भी रह-रह कौंधती
ममता की चिंगारी
भस्म कर देगी
पीड़ा प्रवासी मन की

और देगी
आलौकिक शांति

चल अब लौट चलें
उस धरती की मिट्टी
गले लगाने
सर माथे चढ़ाने.

बीते दिन बहुतेरे
चल अब लौट चलें
उस पावन पुनीत
अपनी धरती पर.
स्नेह ठाकुर, कैनेडा

फिर भी आती है वतन की याद बार-बार

रहते हैं हम कैनेडा के इस ख़ूबसूरत शहर टोरोंटो में
हैं जिसकी ढेर सारी विशेषताएँ
अर्धवृत्ताकार सिटी हाल और स्काई डोम
और न जाने कितने छोटे-बड़े नयनाभिराम
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

है यहाँ दुनिया की सबसे बड़ी इमारत सी.एन.टावर
और उसमें परिक्रमा करता भोजन और मदिरा भंडार
तुलना में बहुत-ही छोटी पड़ती है कुतुब मीनार फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

क्या ही शान का है ईटन सेन्टर
भाँति-भाँति की दुकानें हैं उसके अंदर
समा जाए जिसमें पूरा चौक बाज़ार
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

थी अपनी छोटी-सी एम्बेस्डर
हिचकोले खाती पहुँचाती ठिकानों पर
है यहाँ फर्राटे से चलने वाली आठ सिलिंडर
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

बिजली का चले जाना, और पानी का न आना
थी रोज़मर्रा की बात वहाँ
यहाँ इंसां क्या,
घास के लिए भी फव्वारे चलते हैं सदा

है तत्पर बिजली करने को सेवा दिन-रात
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

दूध में पानी और धनिया में बुरादा मिलाना
था बायें हाथ का काम पपीते के बीजों को काली मिर्च बताना
करते हैं बिन देखे ही लेबलों पर इतमिनान यहाँ
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.

रहते हैं महलों जैसे घर में पति-पत्नी और मुन्ना मुन्नी
पृथक-पृथक रूम क्या, है ढेर सारा स्थान खाली
थी कहाँ मेरे तेरे कमरों की बात वहाँ

थे ठसाठस भरे आँगन, छत और दालन सभी
फिर भी आती है वतन की याद बार-बार.
चचेरे ममेरे भाई बहन, कहलाने लगे कज़िन यहाँ
और उनके बच्चे once removed

भूल गए हम अपनी संस्कृति संस्कार
जहाँ ताया-चाचा के जाए, कहलाता एक परिवार
रहता बड़ों का आशीर्वाद सदा सब पर
समव्यस्कों का दुलार और छोटों का आदर-सत्कार;

थमा हमने बच्चों को माखन-रोटी और ऐशो-आराम
छीना नानी-दादी का ममता-भरा प्यार
समझ आया, सब कुछ पाकर भी, कुछ न पाने का सार

इसीलिए आती है वतन की याद बार-बार
इसीलिए आती है…….

स्नेह ठाकुर, कैनेडा

सेतुबंध

हम सेतुबंध,
वाम हस्त मिसीसिपी नदी का तट,
दांए हस्त गंगाजी का तट,
संगम पर अवस्थित,
एकाकार होने को कटिबद्ध,
हम सेतुबंध।

वाम हस्त है,
पानी नीला,
दिन में उजला,
रात में रँगीला।
चौड़ा है पाट,
पानी है उथला।

लहरों का यहाँ उठता ज्वार,
अशांत रहना है इसका स्वभाव।
हवचल है इसके उपवन में,
उथल-पुथल है इसके प्रांगड़ में।
पुष्प-लताओं से लदा सावन,
पतझड़ में भी गहराता यौवन।
हरियाली को यहाँ सदा निमंत्रण,

संगीत है इसका तार सप्तक,
श्वेतवर्णी तीव्रगामी उत्कट।
अंतःतल में मरघट-सा नीरव है य कूल,
हम सेतुबंध।

दाएँ हस्त है,
पानी उजला,
दिन में नीला,
रात में काला।
सँकरा है पाट,
पानी है गहरा।

लहरों का मनोभाव है संतुलित,
पड़ोसी हवा से होती रहती विचलित।
संघर्षों के यहाँ सदा घूमते भँवर,
कूल की धूल उड़ती यहाँ आठों पहर।
स्वेद-युक्त चेहरों पर रहती मुस्कान,
मानव-मन की यहाँ होती पहचान।

भीड़ में नहीं मानव खोता,
अपनों का साथ पकड़ चल लेता।
सावन, शीत, ग्रीष्म मानो ठहरे दिवस हैं,
जीवन की चाल संगीतमय मदमस्त है।
किनारे काटता-जोड़ता कर्मरत है यह कूल,
हम सेतुबंध।

हम सेतुबंध,
कर्मशील, बुद्धिशील,
संस्कारबद्ध।
कुछ जोड़ने को साध्य,
कुछ छोड़ने को बाध्य।
काली-पीली मिट्टी से,
बना रहे हैं बंध।

नीला-उजला पानी डाल,
जमा रहे हैं नीव।
कभी ढहते, कभी बह जाते,
गिर-गिरकर खड़े हो जाते।
हम सेतुबंध।

-रेणु राजवंशी गुप्ता ( यू.एस.ए.)

मेरे वतन के लोगो ….
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ
क्यों करते हो आज तुम उलटे तमाम काम
अपने दिलों की तख्तियों पे लिख लो ये कलाम
तुम बोओगे बबूल तो होंगे कहाँ से आम

कहलाओगे जहान में तब तक फकीर
तुम बन पाओगे कभी नहीं जग में अमीर
तुम जब तक करोगे साफ़ न अपना ज़मीर
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

ये प्रण करो कि खाओगे रिश्वत कभी नहीं
गिरवी रखोगे देश की किस्मत कभी नहीं
बेचोगे अपने देश की इज्ज़त कभी नहीं

जो कौमे एक देश की आपस में लडती हैं
कुछ स्वार्थों के वास्ते नित ही झगडती हैं
वे कौमी घास – फूस के जैसे ही सडती हैं
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

देखो , तुम्हारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो
मकसद तुम्हारा सिर्फ बुराई से जंग हो

उनसे बचो सदा कि जो भटकाते हैं तुम्हे
जो उल्टी – सीधी चाल से फुसलाते हैं तुम्हे
नागिन की तरह चुपके से दस जाते तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

चलने न पायें देश में नफरत की गोलियां
फिरकापरस्ती की बनें हरगिज़ न टोलियाँ
सब शख्स बोलें प्यार की आपस में बोलियाँ

जग में गँवार कौन बना सकता है तुम्हे
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है तुम्हे
तुम एक हो तो कौन मिटा सकता है तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

सोचो जरा, विचारो कि तुमसे ही देश है
हर गंदगी बुहारो कि तुमसे ही देश है
तुम देश को सँवारो कि तुमसे ही देश है

मिलकर बजे तुम्हारे यूँ हाथों की तालियाँ
जैसे कि झूमती हैं हवाओं में डालियाँ
जैसे कि लहलहाती हैं खेतों में बालियाँ
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

-प्राण शर्मा (यू. के.)

खुदा हाफिज़ कहती हूँ
तो चला देंगे मुझे हिन्दु
और राम राम पे
मार डालेंगे मुसलमान

चलो दोस्त यूँ ही
विदा ले लें हम
बिना गले लगे
या मुड़कर पीछे देखे

जाने किस हाथ में
आज फिर खंजर हो
होती हैं हत्याएँ अब तो
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारों में

और खड़े देखते रह जाते सब
अल्लाह, ईश्वर और भगवान।

-शैल अग्रवाल (यू.के.)

फिर आऊँगा…

फिर आऊंगा मैं भी घर
फिलहाल जहाँ भी हूँ जैसे भी
खुश हूँ, मत करना माँ तुम
आंसुओं से गीला अपना आंचल
जब भी मैंने वह तारा देखा
माना याद तेरी बहुत सताती है
पर मैंने भी तो माँ खुश रहने की
तेरी ही कसम अब खा ली है
पीर नहीं संबल हैं ये यादें
मेरे इस एकाकी पथ की
मत करना माँ तुम कभी
आंसुओं से गीला अपना आंचल
गर्व से रहे उन्नत तव मस्तक
अंतस के पट सदा खुले रखना
आस न छोड़ना , बाट जोहना
विहसूंगा, खेलूंगा सदा यहीं
तेरे ही दर पर होकर मैं मगन
कभी एक फूल कभी एक चिड़िया
बहलाऊंगा मैं तेरा ही मन
मत करना माँ तुम याद में मेरी
आंसुओं से गीला अपना आंचल

शैल अग्रवाल, यू. के.

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