लोक की कविताः गोवर्धन यादव

बीसवीं सदी की कविता का स्वर दुनियां की हलचलों, संघर्षों, विश्व युद्धों की विभीषिकाऒं और मनुष्य की विश्व उपलब्धियों की टकराहटों का अनुगूंज ही रहा है, जिसकी रोशनी चीन, जापान, वियतनाम से होती हुई यूरोप से दक्षिण अफ़्रीकी तक जाती है. पहले जिसे कविता माना जाता था, रेम्बों ने उसमें आमूल-चूल परिवर्तन कर दिखाया. रेम्बो से रूसी कवयित्री निका तुर्बीना तक जाने वाली बीसवीं सदी की विश्व कविता ने अपने समाजों के अन्तर्विरोधों, जनसंघर्षॊं और प्रतिरोध को स्वर दिया. यह सदी विश्व के महानतम कवियों की सदी भी रही है, जिसमें दुनियां की श्रेष्ठतम कविताएं रची गईं. विश्व कविता की समृद्ध धरोहर एजरा माउंड, टी.एस.इलियट, पैसोआ, बोर्खेज, रिल्के, कवाफ़ी, लुई, अरागों, पाब्ला नेरुदा, नाजिक हिकमत, बर्टोल्ट ब्रेख्त, शिम्बोर्स्का, लोर्का, फ़ेरेत्स यूहास, लू शुन, हो ची-मिन्ह, गिंसवर्ग, मयाकोव्स्की, तो हू, डेनिस ब्रूटंस, रोबेर्तो हवारोंस, आन्द्रे ब्रेतो अख्मातोवा, कार्ल सैण्डबर्ग, और उन जैसे दूसरे महान कवियों की सृजन परंपरा है, जो आज की विश्व कविता के व्यापक फ़लक की आधार भूमि है. अंग्रेजी, फ़्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, रूसी, यूनानी, पोलिश, हंगरी, बुल्गारी, जापानी, हिब्रू, वियेतनामी, पोर्चुगीज, अरबी आदि भाषाओं में रची गई महानतम कविताओं ने ही आधुनिक विश्व कविता के फ़लक को समृद्ध बनाया और कविता की गूंज को मानव अन्तर्मन के परिष्कार व बदलाव का माध्यम भी. इन तमाम भाषाओं के विद्वान अनुवादकों को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इनका समय-समय पर हिन्दी में अनुवाद कर, हमें विश्व कविता के फ़लक से परिचित कराया और हिन्दी के खजाने को समृद्ध बनाया.
जब हम लोक की बात करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी भूःलोक में वे सारे देश भी आते हैं जहाँ कविताएँ लिखी और पढ़ी जा रही है. इन कविताओं का सृजन फ़लक इतना व्यापक और जीवन दर्शन वाला विजन लिए हुए है, कि वह अनन्तकाल तक मनुष्य जीवन के बीहड़ को आलोकित करता रहेगा.
हंगरी कवि -अत्तिला योजेफ़ (1905-1937) ( अनुवादक-सुरेश सलिल)
लोग मुझे चाहेंगे. – अच्छे और बुरे को लेकर मैं मथापच्ची नहीं करता / काम करता हूं और खटता हूं, बस / बनाता हूं मैं पंखे से चलने वाली नावें, चीनी मिट्टी के प्याले-प्लेटें / बुरे वाक्तों में बुरी तरह, औसत वक्तों में अच्छी तरह / अनगिनत हैं मेरे कारखाने, सिर्फ़ मेरी प्यारी / उनकी फ़िक्रमंदी करती है, उनका हिसाब-किताब रखती है. / मेरी प्यारी ही उस सबका हिसाब-किताब करती है / उसमें विश्वास है, लेकिन पंथ और सौगंध के सम्मुख वह चुप रहती है./ मुझे दरख्त बनाओ, यकीनन कौआ, तभी मुझ पर घोंसला डालेगा / जब आसपास और कोई दरख्त न हो
फ़िनिश कवि -आउलिक्की ओकसानेन ( सईद शेख )
दूसरा पल –कहीं है दूसरा पल, / दूसरी तरह की जलवायु, / दूसरा समुद्र, दूसरा द्वीपसमूह / कुछ ऎसा, जिसे जीते हुए अनुभव किया जाता है / जब गहराइयों का पानी परावर्तित होता है / तरंगों में गोता लगा गए शुष्क मेघ / कहीं है दूसरा भ्रमण / अज्ञात पक्षियों की दुनियां / हल्का सा सरकंडे का पुल ग्रीष्मों और पक्षियों के घोंसलों के ऊपर से, / शांत आकाश, सुखद संध्या, / देश जहाँ गीत सो रहे हैं / नक्षत्रों के किनारों पर, अप्रत्याशित से भयभीत हुए बिना.
फ़िनिश कवि ( कवि-२ ) – किर्सी कुन्नास ( अनुवाद:सईद शेख)
पेड़ ढोते हैं प्रकाश— पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन मौन एक हल्का सा पक्षी / उड़ता है पानी के ऊपर से / पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन धूसर पंख उठता है पानी और आकाश से / मौन, हल्का सा पक्षी / बैठ जाता है पेड़ों पर और सुलगा देता है अपना घोंसला, / आग के रूप में प्रकाश उठता है आकाश की ओर / न ही ढो सकता है कोई भी अपने हृदय को हल्केपन से / क्योंकि प्रेम होता है पीड़ामय / ठीक जैसे पक्षी का एकमात्र गीत.
कोरिया कवि.–रा.हीदुक ( Ra Heeduk) (अनुवाद-दिविक रमेश)
एक और पत्ता.
अपना दर्द छिपाने को / तोड़ती रही हूं पत्ते / इसीलिए नंगे हैं वृक्ष / और इसीलिए इतना थोड़ा पक्षी-गीत / पर कैसे छिपा सकती हूं सूखे पत्ते से / सीमेंट के फ़र्श का भद्दापन ? / कैसे खत्म कर सकती हूं कोलाहल / पक्षी-गीत से भरी गली का ? तब भी नहीं थमेंगे मेरे होंठ हिलने से / सो करती हूं इकठ्ठा पत्ते और पक्षी गीत / एक और पत्ता गिरता है मेरे पैर पर / उड़ जाता है वह पक्षी जिसकी आवाज खो गई थी.
यूनान कवि.- कंस्तान्तिन कवाफ़ी (अनुवाद-अनिल जनविजय)
दिसम्बर 1903 ….. जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की / तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आंखों की, दिलदार की / तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी / तेरी आवाज गूंजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी / सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में / मेरी जुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है / रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में / कहना चाहूं जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है.
फ़्रांस कवि – लुई आरागों. ( अनुवाद हेमन्त जोशी )
पूर्वाग्रह…… मैं चमत्कारों के बीच नाचता हूं / हजारों सूर्य रंगते हैं आकाश / हजार दोस्त, हजार आंखें या एक चश्म / अपनी निगाहों से मुझे देते हैं आकार / राहों पर जैसे रोया हो तेल / सायबान के बाद से खोया है खून / ऎसे मैं कूदता हूं एक दिन से दूसरे तक / बहुरंगी गोल और खूबसूरत / जैसे धनुष का जाल हो या रंगों की आग / जब लौ का रंग है हवा-सा / जीवन ओ ! शांत स्वचलित वाहन / और आगे दौड़ने का आनन्दमयी संकट / मैं जलूंगा रोशनी की आग से.
फ़्रांस ( कवि-२ )- पाल एल्युआर. (अनुवाद-हेमन्त जोशी )
मेरे नयन / शांत कभी थे ही नहीं / सागर के उस विस्तार को देखते हुए / जिसमें मैं डूब रहा था / अंततः सफ़ेद झाग उठा / भागते कालेपन की ओर / सब मिट गया.
रुस कवि – युन्ना मोरित्स. (अनुवाद-शीतांशु भारती.)
वहाँ है- हवा, सूरज, तारे और चाँद / वहां है-हवा, पत्तियों की डालियाँ / तारों में आसमान / वहाँ है- हवा, ऊंचाइयाँ, लम्बाइयाँ / और गहराइयाँ. / वहाँ है प्रेम, वहाँ है-हवा, हवा, हवा / वहाँ है सब जो मैं आपको देना चाहती हूं. // बाकी आप सुन लीजिए / गाने वाली चिड़ियों से, फ़ुर्तीली छिपकलियों से / विवश हो जाएं कहने को / चीतल, हाथी, चमगादड़ / घोंघें संग तितलियां . / और बाबा आदम के जमाने की / समुद्री मछलियाँ // बात कीजिए / छुड़मुड़यों से, गुलबहारों से / सुनिए, इन्हें भोर से सांझ तक. / पर मैं न दूँगी आपको / किसी भी घोर यातना के डर से / किसी पुनरजन्म के वादों पे / किसी अनोखी खुशी के बदले / मैं नहीं दुँगी वो रोशनी / जो भाईचारे के इस बंधन को कस के बाँधती है / जो एक दूसरे से प्रेम करना सिखाती है.
ब्रिटिश कवि- हैराल्ड पिंटर ( अनुवाद व्योमेश शुक्ल)
लोकतंत्र ….कोई उम्मीद नहीं / बड़ी सावधानियाँ खत्म / ये दिख रही हर चीज की मार देंगे / अपने पिछवाड़े की निगरानी कीजिए. (२) बम- …और कहने के लिए शब्द बाकी नहीं है / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे सरों पर फ़ट जाते हैं / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे खून की आखिरी बूंद तक सोख लेते हैं. / जो कुछ छॊड़ा है सब बम है / जो मृतकों की खोपड़ियां चमकाया करते हैं.
क्यूबा कवि– निकोलस गियेने. (अनुवाद- श्रीकांत)
कविता पहेलियां.
दातों में, सुबह,/ और रात चमड़ी में / कौन है, कौन नही / नीग्रो / उसके एक सुन्दर स्त्री न होने पर भी / वही करोगे, जो उसका हुक्म होगा / कौन है, कौन नहीं / भूख / गुलामों का गुलाम / और मालिक के संग जुल्मी / कौन है, कौन नहीं ./ गन्ना / छुपा लो उसे एक हाथ से / ताकि दूसरा कभी जाने भी नहीं / कौन है, कौन नहीं / भीख / एक इंसान जो रो रहा है / एक हंसी के साथ जो उसने सीखी थी / कौन है, कौन नहीं.
ब्राजिल. – कवि- मार्था मेरिडोस
( कवियित्री की इसी कविता के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था)
नित जीवन के संघर्षों से/ जब टूट चुका हो अन्तर्मन,/ तब सुख के मिले समन्दर का/रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।जब फसल सूख कर जल के बिन / तिनका -तिनका बन गिर जाये, / फिर होने वाली वर्षा का /रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।//सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन / यदि दुःख में साथ न दें अपना,/फिर सुख में उन सम्बन्धों का रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।//छोटी-छोटी खुशियों के क्षण / निकले जाते हैं रोज़ जहां, / फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।// मन कटुवाणी से आहत हो /भीतर तक छलनी हो जाये, / फिर बाद कहे प्रिय वचनों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।/ सुख-साधन चाहे जितने हों/पर काया रोगों का घर हो, /फिर उन अगनित सुविधाओं का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। …!!

चीन कवि- छाओ-छाओ – ईसवी सन 155-20 (अनुवाद- त्रिनेत्र जोशी)
कब्रिस्तान का गीत.-
दर्रे के पूरब में शूरवीर / सशत्र तैयार गद्दारों को दंडित करने के लिए / पहले मंगचिन में एकत्र होते हैं / लक्ष्य है श्येनयांग / पर सहयोगी टुकड़ियों मे आपस में ठनी है / अनिर्णय की स्थिति-मुर्गावियों जैसी अपनी तू-तू-मैं-मैं / ताकत और जीत को बेताब, होते हैं परास्त / और एक दूसरे के खून के प्यासे / हवाइ के दक्षिण में एक नौजवान हथिया लेता है राजसी पद्वी / उत्तर में एक राजा बना लेता है अपनी अलग मोहर / शस्त्रों से लेस लोग चलते हैं भड़भड़िये / मौते बेहिसाब / चारों तरफ़ फ़ैलती हैं बेरंग पड़ रही हड्डियां छितर-बितर / हजारों ली तक भी नहीं सुनाई पड़ती कुक्कुट की बांग / प्रति सैकड़ा बच पा रहे हैं एकाध / सोचने भर से दरक उठते है दिल.
लैटिन कवि – पाब्लो नेरुदा (अनुवाद-वंदना देवेन्द्र.)
मैं कुछ चीज समझता हूँ./ तुम पूछोगे: वे नीले फ़ूल कहां गए ? और / अहिपुष्प पंखुरियों का तत्व विज्ञान और / अपनी शब्दावली दुहराती रन्ध्रों, / चिड़ियों को सबक सिखाती बरसात ? / मैं तुम्हें सभी सूचनाएं दुँगा, / मैं एक उपनगर में रहा, मेड्रिड के एक घण्टियों, / घड़ियों और पेड़ों के उपनगर में, / वहाँ से आप मध्य स्पेन का खुश्क चेहरा देख सकते हैं: एक चमड़ा समुद्र जैसा कुछ / मेरा घर फ़ूलों का घर कहा जाता था / क्योंकि इसके हर एक कोने-आंतरों में जेरेनियम फ़ूलते थे: / यह बच्चों और कुत्तों से बसा एक बढ़िया आवास था / कुछ याद है राउल / / तुम्हें रफ़ेल ? / फ़ेड्रेको, क्या तुम्हें याद है / मेरे छज्जों पर जून की रोशनी / फ़ूलों को तुम्हारे कंठ में उतार देती थी?
( ii ) आज की रात लिख सकता हूँ- ( अनुवाद- मधु शर्मा )
लिख सकता हूं आज की रात / सबसे उदास पंक्तियाँ / लिखूँ, जैसे-“ रात है तारों भरी, / तारे हैं नीले, टिमटिमाटे कहीं दूर / रात को हवा चक्कर काटती है, आकाश में और गाती है / आज की रात लिख सकता हूँ , सबसे उदास कविताएँ. / मैंने प्यार किया उसे, कभी-कभी उसने भी किया मुझे प्यार / आज की रात जैसी उन रातों में, बाँहों में थामे होता था उसे मैं / कितनी ही बार चूमा उसे मैंने, इस अन्तहीन आकाश तले / उसने मुझे प्यार किया कभी-कभी मैंने भी किया उसे प्यार / कोई कैसे न करता उसकी बड़ी-बड़ी शांत आँखों से प्यार / आज की रात लिख सकता हूँ सबसे उदास कविताएँ / सोचते हुए कि नहीं है वह मेरे पास
इस्ताम्बुल कवि–नाजिम हिकमत (अनुवाद- चन्द्रबली सिंह)
पाल रोबसन से …….
वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते है, रोबसन / ओ गायकों के पक्षिराज नीग्रो बन्धु, / वे चाहते हैं कि हम अपने गीत न गा सकें / डरते हैं, रोबसन / वे पौ के फ़टने से डरते हैं / देखने / सुनने / छूने से / डरते हैं./ वैसा प्रेम करने से डरते हैं / जैसा हमारे फ़रहाद ने प्रेम किया (निश्चय ही तुम्हारे यहां भी तो कोई फ़रहाद हुआ, रोबसन, नाम तो उसका बताना जरा?) / उन्हें डर है / बीज से / पृथ्वी से / पानी से / और वे / दोस्त के हाथ की याद से डरते हैं / जो हाथ कोई डिसकाउंट, कमीशन या सूद नहीं मांगता / जो हाथ उनके हाथों से किसी चिड़िया-सा फ़ंसा नहीं / डरते है, नीग्रो बन्धु / वे हमारे गीतों से डरते हैं, रोबसन.
कजाकिस्तान कवि–ऎवे कुनानावेव ( अनुवाद-महाश्वेता देवी.)
मनुष्य मल से भरा बोरा है- / जब तुम मरते हो, मल से भी अधिक दुर्गन्ध तुम से आती है / तुम्हें गर्व है कि तुम मुझसे ऊपर हो / किन्तु यह तुम्हारे अन्धकार का चिन्ह है / कल तुम बालक थे / किन्तु अब तुम्हारे ढलते दिन हैं / तुम्हें विश्वास हो गया कि तुम समान स्थिति में नहीं रह सकते / जीवों से प्यार करो / और ईश्वरीय रहस्य को समझो / इस जीवन में इससे अधिक विस्मय / और क्या हो सकता है.
(२) मैंने तुम्हें पिल्ले से कुत्ता बना दिया / और जब वह मेरे पैर में काटता है / मैंने किसी को लक्ष्य-भेद करना सिखाया / और उसने चतुराई से मुझे ही निशाना बनाया.
पोलिश कवि- विस्वावा शेम्बोर्स्का. (अनुवाद-अब्दुल बिस्मिल्लाह)
वियतनाम-
तुम्हारा नाम क्या है औरत? मैं नहीं जानती / तुम कब पैदा हुई, कहाँ घर है तुम्हारा ?- / मैं नहीं जानती / तुमने धरती पर गढ्ढा क्यों खोदा? – मैं नहीं जानती / तुम कब से यहाँ छिपी हुई हो ? मैं नहीं जानती / तुमने दोस्ती की डोर क्यों तोड़ दी ? मैं नहीं जानती / क्या तुम नहीं जानती, कि हम तुम्हें, कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे ? मैं नहीं जानती / तुम किसके पक्ष में हो ? मैं नहीं जानती / यहाँ तो युद्ध हो रहा है, तुम्हें चुन लेना चाहिए अपना पक्ष !- मैं नहीं जानती / क्या तुम्हारा गाँव अब भी बचा है? मैं नहीं जानती / क्या ये बच्चे तुम्हारे है? / हाँ.
अफ़्रीका कवि– जोफ़्रे रोचा ( अनुवाद-राजा खुगशाल)
जेसा मेंडेज से अंतिम बातचीत (लंबी कविता के कुछ अंश) ….मैं जानता था जेसा / जानता था कि तुम पैदा हुए थे / कांति के साथ कदम बढ़ाने के लिए / सच्चे और गहरे अर्थों में वीर थे तुम / तुम सच्चे अर्थों में प्यार थे संघर्ष के / मैं अच्छी तरह जानता हूं जेसा / विप्लव और प्रेम की कौंध थे तुम / स्वतंत्र चेता और मुक्त हृदय /. पूरी तरह समर्पित थे अपने कर्म के प्रति / शांति से सोओ योद्धा, ओ योद्द्धा / जब खत्म करुँगा मैं इन अनाश्वयक बातों को / जो महज एक बाधा है / तुम्हारी वीरतापूर्ण नींद में / इस देश की मिट्टी में / जहाँ दुश्मन की बंदूकों से धराशायी हुए तुम / शांति से सोओ / अब कभी नहीं सनसनाओगे तुम / उन सतहों पर / जिन्हें उघाड़ने की कोशिशें की तुमने / निश्वय ही विजय की ओर बढ़ रहा है / क्रांति का परचम / जबकि मुझे दुख है सिर्फ़ अपना / मैं नतसिर हूं / उस महान की महानता के सन्मुख / अलविदा जेसा मेंडेज / हमेशा के लिए अलविदा.
जापान कवि–ओना नो कोमाची. ( अनुवाद-मधु शर्मा)
(एक) यदि वह एक सपना था / फ़िर से देखुंगी मैं तुम्हें / क्यों छॊड़ दिया जाए अधूरा ही / जागा हुआ प्रेम (दो) कोई तरीका नहीं उसे देख पाने का / चाँद के बिना इस रात में / पड़ी हूं मैं जागती हुई इच्छा में जलती / दौड़ती है आग सीने में / दिल धड़कता है. (तीन) साँझ के धुंधले उजाले में / गाती है चिड़िया मेरे पहाड़ी गाँव की / कोई नहीं आएगा आज की रात / इस सुर को बचाने. (चार.) कितने अदृष्य तरीके से / बदला करते हैं रंग / इस दुनिया में / इंसानी दिल के फ़ूल.
श्रीलंका कवि– डब्ल्यू ए. अबेसिंधे ( अनुवाद- रमेश चन्द्र शाह )
जंगल में बुद्ध- बज्रकठोर पर्वत हुआ / मुलायम पंखुड़ी सा / विकराल चेहरा चट्टान का / जगमगा उठा है जीवित रक्त माँस से / रेशम से भी स्निग्ध जिस का स्पर्ष / शिलीभूत तमिस्रा / प्रपात बन फ़ट पड़ी प्रकाश का / बोधि का किरणॊं से नहलाते जग-जग को / कब से अधमुंदे नयन / बुलबुलों की तरह वर्षो-शताब्दियों को / मेटते महाकाल में / इस गहन कान्तार के निर्जन में / करुणामय…ध्यानलीन…हे महाबुद्ध / इस पुरातन वृक्ष तले जाने कब से बैठे हुए / अपनी मैत्री और विश्व-प्रेम के साथ / आओ हमारे इस मनुष्य-लोक के बीचोबीच / दुःखों से दग्ध इस धरा को नहलाओ हे महाभिषग / बोओ बीज मैत्री के / हमारे दिलों के / बंजर बियाबान में.
वियतनाम कवि- दियु न्हान- (अनुवाद-प्रेम कपूर / कुसुम जैन.)
जन्म-…..जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु / ऎसा ही होता आया है हमेशा से / इनसे जितना भी दूर जाने का प्रयास करो / कसती ही जाएगी इसकी गाँठ / इस प्रकार अज्ञान ले जाएगा तुम्हें बुद्ध की ओर / और कठिनाइयाँ ध्यान की ओर / न ही ध्यान की ओर / शांत रहो / शब्द तो कोरी बातें हैं
वियतनाम ( कवि-२)- न्युएन त्राइ, ( प्रेम कपूर/कुसुम जैन )
स्वपन भंग……..स्वर्णिम स्वप्न से जागने पर नहीं रहता शेष / लगता है सब कुछ हो जैसे रिक्त / अच्छा होगा पहाड़ पर बनाएं एक कुटी / उसमें रहें, पढ़ें, प्राचीन ग्रंथ और हों संतुष्ट / जंगल में खिलते फ़ूलों को सुनते हुए
वियतनाम- (कवि-३) -वान हान्ह…. ( प्रेम कपूर/ कुसुम जैन )
.मानव जीवन– क्षणभंगुर है मानव-जीवन विद्युत की तरह / आज जन्म है तो कल मृत्यु / वसन्त के हरियाले वृक्ष / हो जाते हैं पत्रहीन शरद में / अतः उत्थान या पतन की क्या चिंता / ओस की बूंद सी है उन्नति व अवनति / जो घास पर मोती जैसी लगती है.
वियतनाम— (कवि-४)- न्गुएन फ़ि रवान्ह ( प्रेमकपूर/कुसुम जैन)
यदि प्रेम है मुझसे तो भी / सोचो अपने देस के बारे में / न सहने दो अन्याय / अपनी पितृ-भूमि को
जापान कवि.-ककिनोमोतो हितोमारो ( अनुवाद-प्रमोद पाण्डॆ)
उलझे शैवाल से / एक गहन प्रेम में / मैं और मेरी प्रेम-परी / सोया करते थे साथ-साथ / लिपटे-सिकुड़े-सिमटे / लेकिन कितनी कम रातें थी हमें मिली / जब हम दोनों थे साथ-साथ / दूर-दूर तक गया अनवरत / मेरा काला अश्व मुझे ले गया / दिग-दिगंत छोड़ता पीछे / मुझको वह ले गया प्रिया तीर / आह ! / हे रक्तिम पर्ण वृक्ष में पल के / पतझर में झर रहे पहाड़ी पर / क्षण भर रोको झरता यह पत्तों का / ताकि / मैं देख सकूं / अपनी प्राण प्यारी का निवास.
जापान कवि-(२) -ओनो नो कोमाची. ( प्रमोद पाण्डॆ)
प्रिय मेरा मुझको नहीं मिला ! / मिलन की विह्वलता / यह अमानिशा / है बढ़ा रही / मेरे वक्षस्थल से होकर जाती है अग्नि-शिखा / करती है भस्मीभूत हृदय को / जब उसका चिन्तन करती हूं / जो शायद यह कल्पना करे / उसका चेहरा देख रही हूं. / अगर जानती / बस यह था इक स्वपन / मैं कभी न जागी होती…

क्यूबा कवि – जोस मार्ती. ( अनुवाद- प्रमोद पाण्डे )
ग्वाटेमाला की लड़की.—
आह ! कह लेने दो मुझको, वह मधुर कथा / उस छाया में, मैं खड़ा जहाँ इस समय / यह कथा उसी ग्वाटेमाला की लड़की की, / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की वेदी पर / उसके शव पर थे हार, / कुमुदिनी पुष्पों की / सब सुरभि रूप वे पुष्प / चमेली जिनके चारों ओर गुंथी / हमने था उसको दफ़नाया / रेशम के उस ताबूत में / उसने अपने प्रेमी को / दी थी छॊटी सी शीशी / थी जिसमें मधुर सुगंध भरी , पर / लौटा वह विवाह करके बस / तभी प्राण त्यागे थे उसने, / जिसकी हूँ मैं कथा कह रहा / वे कांधों पर ले गए उसे / सब पंडित और पुजारी थे / आए थे कितने युगल, उसे श्रद्धांजलि देने, / चढ़ा- चढ़ाकर पुष्प हार / धीरे-धीरे / जब सांझ ढली, / उस कब्र खोदने वाले ने / था मुझे बुलाया / और कहा. देख लो / यही अन्तिम अवसर / वह ग्वाटेमाला की लड़की / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की बेदी पर.

हंगरी कवि–फ़ेरेंत्स यूहास. ( अनुवाद- सुरेश सलिल )
सोना.—औरत अपने छीजते जाते बालों के जूड़े में / सधे हाथों सहेजती हुई / फ़िर एक चम्मच और पाव रोटी का एक एक गुम्मा / गिरा देते है उनके फ़ेले, मैले कुचैले हाथों में / हँसते हुए / उनकी सींकिया-सुर्ख घींचों का घेरा / भफ़ाती रकाबियों पर झुकता है / पवित्र जल पर गुलाब के फ़ूलों की भाँति / और सुर्ख गुलाब खिल उठते हैं / मसालेदार कुहासे में / चमक उठती है उनकी आँखों की पुतलियाँ. जैसे दस दुनियाएँ अपनी खुद की रोशनी में / अकबका गई हों / तिरने लग जाते हैं शोरबे में / आहिस्ता-आहिस्ता चक्कर लगाते / प्याज के सुनहरे छल्ले.
चेक कवि – मिरोस्लाव होबुल (अनुवाद-सुरेश सलिल)
हठधर्मिता का सिंड्रोम— हवा में खड़ा है एक दैत्याकार वायुयान / पूँछ झुकाए / शहर के ऊपर / इतना भारी कि भर न पाए उड़ान / किसी सगर्भा व्याध पतिंगा की भाँति / अपने रहस्यमय निकास-मार्ग से / छतों को तोड़ता हुआ अपने मुर्दे / ऊपर जो घटित है / देखकर भी हम उसकी अनदेखी करते हैं / पेशियों की ऎंठन में कैसी तो हठधर्मिता है / हम से ऊपर मूर्तिवत हो गए हैं हम / संभव नहीं है कि अपनी गर्दने / पाँच डिग्री दायें या बांयें भी मोड़ सकें / राजनेताओं के रवैये की तरह / शहर के ढंग-ढर्रे से / पोशीदातौर पर चकित हैं हम /’ कि, देखिए, किस तरह ढेर होती जा रही है / जागते रहने की शहर की कोशिशें
आईसलैण्ड कवि.- सिगुरदुर पालसन ( अनुवाद- कुसुम जैन)
(१) शीशे के भीतर दिखते हैं बड़े / वे आंसू, जिन्हें दिखना नहीं चाहिए / बाहर तनी पर टंगी चादरें / अब और नहीं बिछेगीं.
(२) जीवन और भी है / जो जिये जाते हैं / शुभकामनाएं और भी हैं / दी जाती हैं औरों को / याद नहीं अब / चाँद की वे किरणें / दिखाई देती थीं / जो बर्फ़ के आर-पार / सुबह की निस्तब्धता में बैठ / पी रहा हूं गर्म काफ़ी / कुछ अलग है यह चाँद / जिसे पहले कभी नहीं देखा / नया है इसका फ़ीकापन / जैसे दुकान से रोटी खरीदती औरत / मुझे नहीं जानती.
पुर्तगाल कवि – जार्ज डे लिमा ( 1893-1953) (अनुवाद-पियूष दईया)
दिन उतरा नहीं है / मैंने देखा जहाजों को जाते और आते / मैने देखा दुर्दशा को जाते और आते / मैंने देखा चर्बीले आदमी को आग में / मैंने देखा सर्पीलाकारों को अंधेरे में / कप्तान, कहां है कांगो ? / कहा है संत ब्रैडानक टापू? / कप्तान कितनी काली है रात ! ऊँची नस्लवाले कुत्ते भौंकते हैं अंधेरे में / ओ ! अछूतों, देश कौन सा है / कौन सा है देश जिसकी तुम इच्छा रखते हो ? / मैंने लिया वनस्पतियों से जंगली शहद / मैंने लिया नमक पानियों से, मैने रोशनी ली आकाश से / मेरे पास केवल काव्य है, तुम्हें देने को / बैठ जाऒ, मेरे भाइयों.
रुमानिया कवि– लूसीयन बलागा (1895-1961) (अनुवाद – पियूष दईया)
मैं नहीं पेरुंगा संसार की पिंजूलियां अजूबों को / और मैं नहीं मरुंगा / तर्कणा से / रहस्यों को जिन्हें मैं मिलता हूं अपने मार्ग के साथ साथ / फ़ूलों, आंखों, ओठॊं और कब्रों में / दूसरों की रोशनी / डुबोती है छिपे हुए गहरे जादू को / अथाह अंधेरे में / मैं बढ़ाता हूं संसार की पहेली / अपनी रोशनी के संग / जैसे चांद अपनी धवल शहतीरों संग / बुझाता नहीं बल्कि बढ़ाता है / रात के झिलमिलाते रहस्यों को. मैं समृद्ध करता हूं गहराते क्षितिज को / महान राज की कंपकपियों से / वह सब जिसे जानना कठिन है / बन जाता है एक अरूझा बुझौवल / ऎन मेरी आंखों तले / क्योंकि बराबर प्यार करता हूं मैं / फ़ूलों, ओठों, आंखों और कब्रों को.
इराक कवि (१) – टून्या मिखाइल ( अनुवाद-गीत चतुर्वेदी )
( I ) मैं हड़बड़ी में थी— कल मैंने एक देश खो दिया / मैं बहुत हड़बड़ी में थी / मुझे पता ही नहीं चला / कब मेरी बाहों से फ़िसल कर गिर गया वह / जैसे किसी भुल्लकड़ पेड़ से गिर जाती है / कोई टूटी हुई शाख ( लंबी कविता का अंश)
(२) भांत-भांत के पैरों के लिए / पैर जो चलते हैं / पैर जो मारते हैं ठोकर / पैर जो लगाते हैं छलांग / पैर जो करते हैं अनुसरण / पैर जो दौड़ते हैं / पैर जो शामिल होते है भगदड़ में / पैर जो भहरा जाते हैं / पैर जो उछलते हैं / पैर जो यात्रा करते हैं ./ पैर जो शांत पड़े रहते हैं./ पैर जो कांपते हैं / पैर जो नाचते हैं / पैर जो लौटते है / जीवन मोची के हाथ में पड़ी / कुछ कीलें ही तो हैं.
इराक कवि(२) सादी यूसुफ़ (अनुवाद- अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश)
हम बंधक नहीं है, अमेरिका / हम ईश्वर के सैनिक नहीं तुम्हारे सिपाही हैं / हम निर्धन लोग हैं, हमारी है धरती वह जिसके देवता डुबा दिये गए हैं / बैलों के देवता / आगों के देवता / दुःखों के देवता, जो मिट्टी / और रक्त को गीत में गूंथ देते हैं / हम निर्धन लोग हैं, हमारा देवता है निर्धन / जो उभरता है किसानों की पसलियों से भूखा और चमकीला और ऊँचा उठाता है अपना सिए / अमेरिका हम मृतक हैं ./ आने दो अपने सिपाहियों को / जो भी एक मनुष्य का वध करे, उसे करने दो उसका उद्धार / हम डूबे हुए हैं, प्यारी लेडी ! / हम डूबे हुए लोग हैं / आने दो पानी को.
ईरान- डेनमार्क मूल की कवि- शीमा काल्बासी ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
अफ़गान की स्त्रियों के लिए- मैं टहल रही हूं काबुल की गलियों में / रंगी हुई खिड़कियों के पीछे / टूटॆ हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियां हैं. / जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचा / रोटी के लिए याचना करतीं वे भूख से मर जाती हैं / एक जमाने की अध्यापिकाएं., चिकित्सिकाएं और प्रोफ़ेसर / आज बन चुकीं चलते-फ़िरते मकान भर / चन्द्रमा का स्वाद लिए बगैर / वे साथ लेकर चलती हैं, अपने शरीर, कफ़न सरीखे बुर्कों में ( लंबी कविता के अंश)
इजरायल कवि- (१) आमीर ओ”र ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
भाषा कहती है- भाषा कहती है : भाषा के पहले / एक भाषा होती है, वहीं के धिसे हुए निशान होती है भाषा / भाषा कहती है: सुनो, अभी / आप सुनते हैं / गूंजता है कुछ / खामोशी ले लो और खामोश हो रहने का जतन करो / शब्द ले लो और बोलने की कोशिश करो / भाषा के परे, भाषा का एक घाव है / जिसमें से बहता जाता है, बहता जाता है संसार / भाषा कहती है : है, नहीं है, हैं / नहीं है, भाषा कहती है: मैं / भाषा कहती है चलो तुम्हें बोला जाए,/ चलो तुम्हें छुआ जाय, आ के बोलो ना,/ तुम बोल चुके हो.
इजरायल कवि (२) -येहूदा आमीखाई ( अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश)
हिब्रू और अरबी भाषाएं लिखी जाती हैं पूर्व से पश्चिम की तरफ़ / लैटिन लिखी जाती है पश्चिम से पूर्व की तरफ़ / बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं / आपको चाहिए कि उन्हें गलत तरीके से न सहलाएं / बादल आते हैं समुद्र से / रेगिस्थान से गर्म हवा / पेड़ झुकते हैं हवा में / और चारों तरफ़ हवाओं में पत्थर उड़ते हैं / चारों हवाओं तलक वे पत्थर फ़ेंकते हैं / इस धरती को फ़ेंकते है एक दूसरे पर / लेकिन धरती वापस गिरती है धरती पर.
तुर्की कवि- आकग्यून आकोवा ( अनुवाद गीत चतुर्वेदी) ( लंबी कविता का अंश)
शांति क्या है मेरी जान—तुम जानती हो मेरी जान / शांति क्या होती है / क्या यह कोई पुल है जो एक परछाई पड़ते ही भहरा जाता है / कोई कंपनी है जो दिवालिया हो जाती है / इससे पहले कि उसके शेयर लोगों तक पहुंचे / क्या यह दो युद्धों के बीच का चायकालीन अवकाश है या / लोहार के सामने कहे गए उस बच्चे के आखिरी शब्द / जिसकी साइकिल खराब हो गई हो. / बताओ मेरी जान / शांति क्या वह खत है जो आईंस्टीन ने रूजवेल्ट को लिखा था / लाउसेन से मुस्तफ़ा कमाल के नाम आया टेलीफ़ोन है / या वह गली है जिसका कूड़ा / बुहार ले गया विज्ञान. ( लंबी कविता.)
तुर्की- कवि(२) -नाजिम हिकमत (गीत चतुर्वेदी)
इस तरह से— मैं खड़ा हूं बढ़ती रोशनी में, / मेरे हाथ भूखे, दुनिया सुन्दर / मेरी आंखे समेट नहीं पातीं पर्याप्त पेड़ों को / वे इतने उम्मीद भरे हैं, इतने हरे / एक धूप भरी राह गुजरती है शहतूतों से होकर, / मैं जेल-चिकित्सालय की खिड़की पर हूं / सुंधाई नहीं दे रही मुझे दवाओं की गंध / कहीं पास ही में खिल रहे होंगे कार्नेशन्स / यह इस बात की तरह है / गिरफ़्तार हो जाना अलग बात है / खास बात है आत्म समर्पण न करना.
चेकोस्लोवाकिया कवि — येरोस्लाव साइफ़र्त. ( अनुवाद- अशोक पांडॆ)
गीत. बिदा के समय / हम हिलाते हैं रुमाल ./ हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कोई सुन्दर चीज खत्म हो रही है / हवा को फ़ड़फ़ड़ाता है / लौटता हुआ हरकारा कबूतर / हम हमेशा लौट रहे होते हैं / उम्मीद के साथ या उसके बिना / जाओ, आँसू सुखा लो अपने / और मुस्कुराओ, अलबत्ता जल रही है अब भी तुम्हारी आँखें / हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कुछ सुन्दर चीज खत्म हो रही है.
स्वीडिश कवि- टामस ट्रांसट्रामर ( अनुवाद- किरण अग्रवाल)
सीमा के पीछे मित्रों को.— (१) मैंने तुम्हें इतनी होशियारी से लिखा / लेकिन जो मैं नहीं कह सका / भर गया और बड़ा हो गया गरम हवा के बैलून की तरह / और अन्ततः रत्रि आकाश से होकर दूर उड़ गया. (२) अब मेरा पत्र सेंसर के पास है / वह अपना दीपक बारता है / इसकी चमक में मेरे शब्द कूदते हैं / जैसे तार जाल में बंदर / इसको खड़खड़ाते हुए, अपने दांतों को अनावृत करने के लिए रुकते हुए.
सीरिया कवि – अली अहमद सईद. ( अनुवाद- सुरेश सलिल)
मैं भौंचक हूं, ऎ मेरे वतन / हर बार मुझे तुम एक मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो / अब मैं तुम्हें अपनी परेशानी पर ढो रहा हूं / अपने खून और अपनी मौत के दरमियान / तुम कब्रिस्तान हो या गुलाब ? / बच्चों जैसे नजर आते हो तुम मुझे, अपनी अंतड़ियां घसीटते / अपनी ही हथकड़ियों में गिरते-उठते / चाबुक की हर सटकार पर एक मुख्तलिफ़ चमढ़ी ओढ़ते / एक कब्रिस्तान या एक गुलाब ? / तुमने मेरा कत्ल किया, मेरे नग्मों का कत्ल किया / तुम कत्लेआम हो या इंकलाब ? / मैं भौंचक हूं मेरे वतन / हर बार तुम मुझे मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो..
पाकिस्तान कवि- अंजुम सलीमी (अनुवाद- प्रेम कपूर)
अधूरा आदमी हूँ मैं…/ पूरा चाँद मुझे समुंदर बना देता है / आँखें हजूम से सोहबत करती है , और मैं? / मुझे तनहाई ने बनाया है / रफ़ाकतें मुझे तोड़ देती है / मैं जमा हो रहा हूं / वक्त मुझे मिलने आयेगा / मैंने अपनी सरगोशियां दीवारों में रख दी है / खाली कमरा मुझ से भरा हुआ है / मुझे अभी दस्तक मत दो.

मारीशस- मारीशस के नौ हिन्दी कवि ( कविता संग्रह) (1988) – संपादक-अभिमन्यु अनत.
स्व,अभिमन्यु अनत- (नागफ़नी में उलझी सांसें)
सूर्यकिरणॊं को मुठ्ठी में बांधे/ मैं दुकान को दौड़ जाता हूँ / पर उन्हें बेच कभी नहीं पाया./क्योंकि मुठ्ठी खुलते-खुलते./किरणें बर्फ़ की नन्हीं गोलियों में/परिवर्तित हो जाती है/कौन किसी को रोटी देगा./बर्फ़ की गोलियों के बदले/इसीलिए मैं आज भी भूखा हूँ./सूर्य की ठण्डी किरनॊं को मुठ्ठी में बांधे
(२)(क) तुमने आदमी को खाली पेट दिया / ठीक किया / पर एक प्रश्न है रे नियति / खाली पेटवालों को/ तुमने घुटने क्यों दिये? / फ़ैलने वाले हाथ क्यों दिये.
(ख) जिस दिन सूरज को / मजदूरों की ओर से गवाही देनी थी / उस दिन सुबह नहीं हुई / सुना गया कि / मालिक के यहाँ की पार्टी में / सूरज ने ज्यादा पी ली थी.

मारीशस कवि- राज हीरामन
(1) चाचा रामगुलाम—- ..चाचा थे, अब तुम चाचा न रहे / देश के तुम अब दादा बन गए/ पिता तुम सिर्फ़ नवीन के थे/ देश के अब राष्ट्रपिता बन गए / देश तो जंजीरों में थी बंधी / तुम ने एक-एक कड़ी थी तोड़ी / तुमने सबको आजाद किया / देश को तुमने आबाद किया.
(२) किस हवा में दम है- किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके / अमावस्या में यह जन्मा है / आँधियों से यह खेला है / तूफ़ानों में यह पला है / दिवाली में यह जला है / किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके.
जर्मन कवि – मे.आयिम ( अनुवाद- अमृत मेहता.)
विदा.—- क्या हों अन्तिम शब्द / सुखी रहो फ़िर मिलेंगे / कभी न कभी कहीं न कहीं / क्या हो अंतिम कारज / एक अन्तिम पत्र एक अंतिम फ़ोन-वार्तालाप / एक गीत मंद स्वर में? / क्या हो अंतिम इच्छा / माफ़ करना / भूलना नहीं मुझे/ प्यार करता हूं तुझे ? / क्या हो अंतिम विचार? / धन्यवाद? / धन्यवाद.
जर्मन कवि- बर्तोल्त ब्रेख्त (अनुवाद-अनिल पेटवाल)
जनरल तुम्हारा टैंक बड़ा शक्तिशाली है / ये जंगलों को तबाह करता है / और सैकड़ों लोगों को रौंद सकता है / मगर इसमें एक कमी है, / ये बिना चालक के काम नहीं कर सकता / तुम्हारे पास बड़े शक्तिशाली बम बरसाने वाले जहाज हैं. / ये तूफ़ानों से ज्यादा तेज उड़ सकते हैं / कई हाथियों को अपने भीतर ले जा सकते हैं / मगर इनमें एक कमी है / ये बिना मैकेनिक किसी काम के नहीं / जनरल, आदमी बड़े काम की चीज है / वो उड़ सकता है, और बड़ी आसानी से मार भी सकता है / मगर उसमें एक कमी है / वो सोच सकता है.
भारतीय मूल के कवि-विदेश में सक्रीय
न्यु जर्सी-अमेरिका– देवी नागरानी–
ठहराव जिंदगी में दुबारा नहीं मिला /जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला /वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियां / तूफान आया जब भी इशारा नहीं मिला / हम ने तो खुद को आप संभाला है आज तक / अच्छा हुआ किसी का सहारा नहीं मिला /. बदनामियां घरों में दबे पांव आईं /शोहरत को घर कभी भी, हमारा नहीं मिला / खुशबू, हवा और धूप की परछाइयां मिलीं / रौशन करे जो शाम, सितारा नहीं मिला
२ .. (सिंधी भाषा से हिन्दी में अनुवाद.)
धीरे-धीरे शाम चली आई / भीनी-भीनी खुशबू छाई / इण्द्रधनुषी रंग मेरे मन का / मैं उसकी परछाइ.,छाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / बूँद पड़े बारिश की सौंधी / महक मिट्टी की भाई,भाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / भीगी मेरे मन की चादर / प्यास पर न बुझ पाई, पाई / धीरे धीरे शाम चली आई / कल तक जो बीज थे मैंने बोये / हरियाली अब छाई, छाई / आँगन में कुछ फ़ूल खिले हैं / रँगत मन को भाई, भाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सुर से सुर मिल राग यह मालकौंस रस बरसाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सातरँगों की सरगम कारी / कोयल ने है गाई, गाई / धीरे धीरे शाम चली आई / महकाए मन मेरा देवी / भोर न ऎसी आई.
युनाईटेड किंघडम(यू.के.)
शैल अग्रवाल-
(जंगल)
यह दुनिया एक जंगल है / इस जंगल में रहने वाला / हर शक्तिवान, असमर्थ को / मारता है, खाता है / और जब शिकार मारने / खाने लायक भी न रहे / तो ठोकर मारकर / बाहर फेंक आता है / कतार में पीछे खड़े रहने से / कुछ भी हासिल नहीं होता / अपने हक के लिये लड़ना सीखो / अपनी जरूरतों को आवाज दो / उसकी हर बात कानों से उतर / मस्तिष्क में गूँज रही थी / और मेरी झुकी हुयी / विस्मित–सी आँखें देख रही थीं
२ (कोहरा)
घर, खेत, सड़क, पहाड़ / किनारों तक सरककर / समुन्दर में / कूदने को तैयार / एक आजाद पक्षी / अपने ही पंखों के / विस्तार में भटका / पहचान ढूँढता /––जाने कब खोल पाए/ आकाश के ढक्कन से/ ढकी धरती की
बन्द यह डिबिया
अमेरिका
सुधा ओम ठिंगरा
कभी कभी/चाँदनी से नहाने लगी/तुम्हें क्या याद आया/तेरा मेरा साथ/प्रकृति से सीख/पूर्णता/बदलाव
बेबसी/भ्रम/मोम की गुड़िया/यह वादा करो
२-.माली से क्या पूछते हो ?/.फूल की पीड़ा/फूल से पूछो/जब/धूप तड़पाती है/बदली मंडराती है/और/उमड़-घुमड़ रोमांस रचा// बिन बरसे उड़ जाती है./धरती भी धोखा देती है/उसे मत धिक्कारो/वह तो ख़ुद ही प्यासी रह जाती है/उस दुल्हन की तरह/जो मण्डप में सजी संवरी/खड़ी रह जाती है
दुबई
पूर्णिमा वर्मन
(एक गीत और कहो-)
सरसों के रंग सा / महुए की गंध सा / एक गीत और कहो / मौसमी वसंत का / होठों पर आने दो रुके हुए बोल / रंगों में बसने दो याद के हिंदोल / अलकों में झरने दो गहराती शाम / झील में पिघलने दो प्यार के पैगाम
२ (खोया खोया मन)
जीवन की आपाधापी में/खोया खोया मन लगता है/बड़ा अकेलापन/लगता है/दौड़ बड़ी है समय बहुत कम/हार जीत के सारे मौसम/कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको/जिसमें/ -अपनापन लगता है
कनाड़ा स्नेह ठाकोर
मानव के आरोप पर/कि ईश्वर तो हमसे/बोलता नहीं/ईश्वर ने कहा/-आरोप न्यायोचित नहीं
मैं तो हर समय/ हर किसी से/बात करता हूं/प्रश्न यह नहीं/कि मैं किससे/और कब/बात करता हूं/ वरन्
कौन मुझे/सुनता है।
कविता की दुनियाँ में झांकते हुए हमें जहाँ एक ओर कविता के दिग्दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर दुनियां के तमाम कवियों की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे यहाँ और वहाँ की आम जिन्दगी में रोजमर्रा की कशमकश, उसमें बिंधी इच्छाएं, गीले-सूखे दुःख-दर्द, आशा-निराशा, छल-कपट, धुर्तताएँ, आकांक्षाएं, स्मृतियाँ, विस्मृतियाँ, विस्मय, विडम्बनाएँ तथा वकृताएँ आदि के पुट देखने को मिलते है..जिस दुख और संताप की आद्रता हम यहाँ महसूस करते हैं, ठीक उसी तरह समूची धरती पर एक सी दिखलायी पड़ती है. कविता की भाषा कोई भी हो सकती है लेकिन वास्तविकताएँ लगभग एक ही जैसी होती है. यह सब देखते हुए मुझे निदा फ़ाजली साहब की गजल याद हो आती है. वे लिखते हैं
इन्सान में हैवान, यहाँ भी हैं वहाँ भी, *अल्लाह निगहबान यहाँ भी है, वहाँ भी है खूँखार दरिंदों के फ़कत नाम अलग है *शहरों में बयाबान, यहाँ भी है, वहाँ भी है रहमान की कुदरत हो,या भगवान की मूरत,* हर खेल का मैदान, यहाँ भी है वहाँ भी हिंदू भी मजे में है, मुस्लमाँ भी मजे में है ,* इन्सान परेशान,यहाँ भी है, वहाँ भी है उठता है दिलोजाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही * ये मीर का दीवान,यहाँ भी है,वहाँ भी है.
और अंत में अपनी ओर से-
मुझे विश्वास है कि “कविता का लोक / लोक की कविता” की इन सतरंगी कविताओं के माध्यम से हमें देश और दुनियां के अलग-अलग समाजों की राजनीतिक व व्यक्ति समाज के जीवन को समझने की नयी दृष्टि मिलेगी. मैंने तो बस, गागर में सागर भरने की कोशिश भर की है.
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103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव. अध्यक्ष/संयोजक, म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
9424356400 //
goverdhanyadav44@gmail.com

संदर्भित ग्रंथ/पुस्तकें.
हिन्दी भवन भोपाल की पत्रिका –“संवाद और हस्तक्षेप” खण्ड 10- 11- 13-—14-21-22
-d0- “पावस –“एक यात्रा.
“-do- “अक्षरा -140”
किसी और ठिकाने (2002)- Andern Orts (somawhere Else – Jochen Kelter ) अनुवादक-स्व.विष्णु खरे
मड़ई-संपादक डा.श्री कालीचरण यादव- अंक- 5- 7-8-12-13-17
पंजाबी संस्कृति-अक्टूबर-दिसम्बर 2006
रामचरित मानसःएक विश्लेषण
लोक साहित्य की प्रासंगिकता- हिन्दी विभाग,शास.स्नातक महाविद्यालय, मुलताई
पत्रिका-हरसिंगार—3 (श्रीनाथद्वारा)
मधुमती ( राज.) विश्व हिन्दी अंक दिसंबर- 12
साहित्य वैभव-रायपुर की पत्रिका.जुलाई-सितंबर 2007
समकालीन हिन्दी कविता प्रकृति और स्वरूप-डा.उर्मिला खरपुसे.
आधारशिला-पत्रिका (हल्द्वानी) –विश्व कविता अंक 1-2
संस्कृति एवं पर्यावरण-हरिश्चंद्र व्यास.
मारीशस के नौ हिन्दी कवि-संपादक स्व. अभिमन्यु अनत-(1988)
कंप्युटर से भी मदद ली गई है.

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