माह विशेषः भाषाएँ प्रतिस्पर्धा नहीं करतीं-डॉ. शकील अहमद खान/ अगस्त-सितंबर 2015

भाषाएँ प्रतिस्पर्धा नहीं करतीं

डॉ. शकील अहमद खान ( पूर्व गृह राज्य मंत्री, भारत सरकार)

(डॉ. शकील अहमद खान के व्यक्त बिचार के अंश)

 

प्रस्तुतिः शमशेर अहमद खान

hindiमैं अक्सर भाषाओं के बारे में कहता हूँ कि भाषाएँ एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करतीं, भाषाएँ एक-दूसरे की प्रेरक होती हैं। एक भाषा के शब्द दूसरी भाषा में आने से उस भाषा की खूबसूरती बढती है। शायद बहुत लोगों को जानकारी नहीं होगी कि एक ही व्यक्ति हिंदी और उर्दू भाषाओं का सृजन करने वाला था। यहीं उनकी कब्र है, दिल्ली में। वे महान व्यक्ति थे अमीर खुसरो।

अमीर खुसरो ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली से हिंदी और उर्दू भाषा को इजाद किया। जिस भाषा पर संस्कृत का थोड़ा ज्यादा असर हो गया वह हिंदी कहलाई और जिस भाषा पर फारसी का थोड़ा ज्यादा असर हुआ वह उर्दू कहलाई। अमीर खुसरो फारसी के बहुत बड़े शायर थे। शेख शादी हाफज और फ़िरदौसी जैसे विश्व के महान फारसी शायरों में उनकी गिनती होती है। वे फारसी में लिखते हैं , “ परी पैकर निगारे सर्वकदे लाला रुख्सारे, सरापा आफ़ते दिल सूद, सब जाएकि मनबूदम “ ( यानी उनकी प्रेयसी का जिस्म परी के मानिंद है जिसका क़द सर्व (लंबे दरख्त) की तरह सीधा है और जिसका चेहरा फूल की तरह दमकता है। उसका यह रूप सिर से पांव तक दिल के लिए एक आफ़त है, यह चीज देखी मैंने उस रात जहां मैं बैठा था) और उसी अमीर खुसरो ने लिखा है “ छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिला के।“

निज़ामुद्दीन औलिया के वे बड़े भक्त थे। निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु के बाद उन्होंने कहा “ गौरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस, चल खुसरो घर आपने साँझ भई चहुँ देश।“ अँग्रेजी और फारसी दोनों बहुत अलग-अलग भाषाएँ हैं। इनके बोलने वाले भी भौगोलिक तौर पर बहुत अलग-अलग रहते हैं। अँग्रेजी इंग्लैंड से शुरु हुई और पूरी दुनिया में बोली जाती है। फारसी बोलने वाले ईरान में हैं। दोनों मुल्क एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। लेकिन अँग्रेजी में भाई को ’ ब्रदर ’ कहते हैं और फारसी में भाई को ’ बिरादर’ कहते हैं। अँग्रेजी में माँ को ’मदर ’ कहते हैं और फ़ारसी में माँ को ’मादर ’ कहते हैं। अंग्रेजी में बेटी को ’ डॉटर’ कहते हैं और फारसी में बेटी को ’ दुख्तर’ कहते हैं। इसलिए फ़लाँ भाषा मेरी है या फ़लाँ भाषा उसकी है, ऐसा कहने से भाषा और समाज का नुकसान होता है।

अक्सर मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी देश की राजभाषा क्यों? उसका सीधा सा जबाब है, इसका व्यवहार करने वालों की बड़ी संख्या। भारत का कोई भी राज्य क्यों न हो वहाँ किसी न किसी रूप में हिंदी बोली और समझी जाती है इसलिए हिंदी राजभाषा बनाई गई। एक बात यह भी है कि किसी भाषा को दबाब से लागू नहीं किया जा सकता। इस विभाग का चाहे वह संसदीय राजभाषा समिति हो या राजभाषा विभाग जिसके सचिव और संयुक्त सचिव यहाँ बैठे हैं, प्रोत्साहन से, स्नेह से, प्रेम से, हिंदी का प्रयोग बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से अगर हम अपने गाँव में रहते हैं तो गाँव में जो भाषा बोली जाती है उसे बोलकर हम अपना वक्त गुज़ार सकते हैं लेकिन अगर गाँव से बढ़कर ज़िला स्तर पर आते हैं तो ज़िले में बोली जाने वाली जो भाषा है उसका हम इस्तेमाल करते हैं। इसका सहारा लेकर जीवन बसर कर सकते हैं। किंतु जब हम राज्य अथवा राष्ट्र के स्तर पर आते हैं तो उसी स्तर की भाषा का प्रयोग करते हैं। यहाँ हम गाँव या कसबे से निकलकर बृहत् स्तर पर आ जाते हैं जहाँ हमारा समूचे देश से संपर्क बनता है।

देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है यदि हम राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं, नौकरी करना चाहते हैं तो हिंदी की हमें आवश्यकता महसूस होती है। उदाहरण के लिए यदि कोई केरल वासी केरल से बाहर रोज़गार अथवा किसी अन्य काम से उत्तर भारत अथवा कहीं जाता है तो शायद मलयालम से उसका काम नहीं चलेगा, उसे वह भाषा सीखनी ही होगी जो उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करे और उसके जीवन-यापन का आधार बने। इससे भी बढ़कर भारत के किसी भी राज्य का निवासी या कोई भी भारतवासी जब राष्ट्रीय स्तर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाता है तो चाहे वह पसंद करे या न करे, अँग्रेज़ी भाषा से उसे दोचार होना ही पड़ेगा। क्योंकि अंग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और इस स्तर पर पहचान बनाने के लिए यह सीखनी ही होगी।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह किसी दायरे विशेष में बँध नहीं सकता। जैसे-जैसे किसी व्यक्ति का कार्य-क्षेत्र बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसका भाषा-ज्ञान भी बढ़ता जाता है और वह भाषायी पूर्वाग्रहों से मुक्त होता जाता है।

संक्षेप में इतना ही कहूँगा कि आज सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, उनसे हमारा जीवन बहुत दूर तक प्रभावित हुआ है। यदि देश को विकास करना है तो हमें नए अविष्कारों और विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलना होगा। सूचना प्रौद्योगिकी और विज्ञान से जुड़े अधिकाधिक विषयों में हिंदी को बढ़ावा देना होगा।

हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि हिंदी का प्रयोग तभी बढ़ेगा जब वह आम फ़हम होगी। संस्कृत और फ़ारसी दोनों प्राचीन भाषाएं हैं। फ़ारसी अलग भाषा है, उर्दू अलग भाषा है, उर्दू को फ़ारसी नहीं बनाया जा सकता, ठीक उसी तरह जैसे हिंदी को संस्कृत नहीं बनाया जा सकता। यदि हम ऐसा करते हैं तो भाषाओं का अहित ही होता है। हाँ, यहाँ यह कहना चाहूँगा कि भाषाएँ कभी भी आपस में स्पर्धा नहीं करती हैं। हर भाषा का अपना मिज़ाज और मयार होता है। भाषा की क्लिष्टता उसके विकास में बाधक होती है। हिंदी में कितनी ही अन्य भाषाओं के शब्द हैं जो उसकी अभिव्यक्ति क्षमता को बढ़ाते हैं। मैं एक बात और कहना चाहूँगा कि अँग्रेजी से हिंदी में जो अनुवाद हो रहा है क्लिष्ट है। अनुवाद की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो आसानी से समझ आए और उसमें कही बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाए। सरकार और राजभाषा समितियों के माध्यम से जो काम हो रहा है उसका यही मकसद है कि हिंदी का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा बढ़े। हम राजभाषा के प्रचार प्रसार का जो मकसद लेकर चले हैं, वह पूरा होना चाहिए।

अंत में यही कहना चाहूँगा कि हिंदी का विकास भारत के विकास का एक हिस्सा है और हमें अपनी इस भाषा के उथान के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखनी है।

1 Comment on माह विशेषः भाषाएँ प्रतिस्पर्धा नहीं करतीं-डॉ. शकील अहमद खान/ अगस्त-सितंबर 2015

  1. बहुत अच्छा लेख ह हिन्दी और उर्दू को अलग अलग नमानकर एक सुगठित भाषा के रुप में देखें तो हमारी हिन्दी और समृद्ध होगी बहुत बधाई

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