माह के कविः अशोक आन्द्रे/लेखनी-सितंबर-अक्तूबर 17


शब्द
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खोज करते शब्द
फिसल जाते हैं अक्सर चादर ओढ़
तैरने की नाटकीय कोशिश करते
समय की लहरों पर
लहराते परों की लय पर
संघर्षों का इतिहास बाँचने लगते हैं तब
फिर कैसे डूबने लगते हैं शब्द
साहिल की दहलीज पर
उड़ेलते हुये भावों को
पास आती लहरों को
छूने की खातिर
जब खोजने लगता है अंतर्मन
तह लगी वीरानियों में
विक्षत शवों की
पहचान करते हुये
मौन के आवर्त तभी
खडखडाने लगते हैं जहाँ
साँसों के कोलाहल को
धकेलते हुये पाशर्व में
खोजता है तभी नये धरातल
चादर खींच शब्दों की
करता है जागृत
शायद शब्दों को अनंत स्वरूप देने के लिए
ताकि भूत होने से पहले
वर्तमान को भविष्य की ओर जाते हुये
नई दिशा मिल सके
शब्दों को
इसी क्रम में


उनका मानना है कि वे
धरती को संवार रहे हैं
इसी क्रम में उन्होंने
सबसे पहले जंगलों को उजाड़ना शुरू किया
फिर लहलहाती नदियों को बांधना शुरू किया
बंदनवार तो सज गये
लेकिन नदियाँ कहाँ चली गईं
उसका पता
किसी के पास नहीं है
गिद्ध दृष्टि तो उनकी चारों ओर
अपनी पकड़ बना रही थी
उन्हें तो धरती को सजाना था
चारों तरफ निगाह डाली
जा सकती थी जहां तक
जीव जंतु तो भाग गये 
उनके पीछे डर को तैनात कर दिया
इससे भी उनका मन शांत नहीं हो रहा था
तभी पहाड़ों की तरफ देखा
फिर जड़ों की ओर देखा
पहाड़ सहम गये
सिर झुकाने को तैयार हो गये अचानक
जमीं धसे पत्थर उसको आहत कर रहे थे
आखिर धरती को संवारने का मुद्दा महत्वपूर्ण था
वे भूल गये कि अगर
शरीर में से हड्डी को निकाल दोगे तो
शरीर का क्या होगा
ये पत्थर ही तो हैं उन हड्डियों की तरह हैं जो
धरती को संभाल रहे हैं सदियों से
मनुष्य तो स्वार्थी है न
दौड़ पड़ा आकाश कि ओर
धरती तो धरती
क्या होगा अब आकाश का

वह मेरे सपनें में
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रोज मेरे सपनों में आती है वह
किसी उदासीन दृश्य की तरह
खनखनाती हुई अपने सुहाग चिन्हों को
दर-ओ दीवार को छूने की बजाय
टेबल पर पड़े मेरे पेन को छूकर
मुस्कुराने लगती है वह
उसकी लटें
बाहर से आती हवा में
लहरा कर
किसी अनंत और उद्दाम कथा को
रूपायित करते हुये
मेरे चेहरे को
ढांपने की कोशिश करती है
उसकी आँखें
बहुत कुछ बयाँ करने के लिये
अपनी स्मित हंसी को
कब्र में से निकालती हुई
प्रतीत होती हैं
मेरा समग्र उसको सुनने के लिए
ठिठका रह जाता हैं
मेरे सपनों की फंतासी को
उद्ग्विन करने की कोशिश में
वह अपने उन्नत अंगों से
थाप देती है मुझे शनै शनै
तभी आकाश के स्याह बादलों की अमर्यादित बूँदें
भिगो जाती हैं उसके चेहरे को
उसको पाने की भरपूर कोशिश करता हूँ
मेरे अन्दर के जागृत शैतान की मौजूदगी में
यकायक उसके हाथ मेरे गालों को छूकर
कुछ सन्देश देते हैं मनो
और मैं स्वप्न नरक से उबर कर
जीवन के आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता हूँ

खोज जारी है
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घूरता हूँ दीवारों को
चहलकदमी करते कुछ चित्र
अबूझ पहेलियों की तरह खड़े
करने लगते हैं सवाल

अजीब सी प्रस्तुतियां
फैल जाती हैं
जंगली घास की तरह
अकेलेपन की दहलीज पर
जहाँ स्वयं को रूपांतरित हुआ पाता
खोजता हूँ सवालों के उत्तर
अबूझ पहेलियों की प्रस्तुतियों का
नदारत हैं आज तक
अचंभित हैं पुरातत्वशास्त्री
खंडहरों की जंगली घास
अबूझ पहेलियों में परिवर्तित हो
कैसे अकेलेपन की
दहलीज पर फैल जाती है
खोज जारी है

अँधेरा
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अद्भुत है अँधेरा
रोशनियों के लिए
स्वागत के लिए जो
नन्हें बच्चें का
करता है आह्वान
अजन्मे शिशुओं को
माँओं ने
अपने आँचल में
कर रखा है सुरक्षित
युगों युगों से
भविष्य को
इसी तरह सहेज कर
रखती हैं माँये


जियारे गीत पलाश के
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जूठी पत्तलों पर
समीकरणों के नये गणित की
खेती करते हुये
आंकड़े तैयार किये जा रहे हैं
अंतर्मन के किसी कटखने कोने में
कुंडली मार सांप अपनी
समाधि संरचना का कर देता है विस्तार
आँखों धसी गहरी गुफाओं के भीतर और बाहर
आवर्त वाले सन्नाटों में

डूबा हुआ आदमी
सिसकने लगता है क्रमशः रूदन तक
पूरा आकाश
खोने लगता है अन्धकार
धरती उदास हो जाती है यकायक
हवा सूखे पत्तों में उलझ कर
सहम जाती है

 
ओ मेरे समय आओ निकल चलें
भविष्य में प्रस्तावित विस्तार लेते
करूणा और स्नेह के
लहलहाते खेतों की ओर

पलाश के उजियारे गीत
मुखरित हो जाएँ सचमुच उसकी प्रथम पंक्ति
जूठी पत्तलों के
वर्तमान गणित को झूठला सकें
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