जो जरूरत…विचार या मन्तव्य को अभिव्यक्त कर पाए वही भाषा है और निष्पक्ष होकर देखा जाए तो यही भाषा की पहली जरूरत और शर्त भी है। जैसे-जैसे इन्सान की जरूरतों का विस्तार हुआ उसकी अभिव्यक्ति का भी और इसके साथ-साथ ही एक सशक्त और उपयोगी भाषा का भी।
आदमी की जिज्ञासा ने जब यात्राएँ करना सिखाया तो उसने अपने घर कुनबों से निकल कर अपरिचित जगहों को घर बनाया जहाँ उसकी जरूरतें बदलीं तो भाषा भी बदलीं क्योंकि नए पर्यावरण में नए अनुभवों को व्यक्त करने के लिए नए शब्दों की जरूरत पड़ी। नए मानक बने, कभी समूह विशेष से छुपाने के लिए तो कभी आपस में ही समझाने-सिखाने के लिए । इसी तरह से तो शायद पुरानी बोली बदल कर हर बीस कोस पर एक नई बोली बन पाई और नई-नई भाषाय़ें जन्मी। आज उन्ही भाषाओं को लेकर आपस में लड़ना, कहना कि हमारी ही उत्कृष्ट है , कहाँ तक उचित और विवेकपूर्ण है! इतना समझ में अवश्य आता है कि संभवतः यह भी आहत अहं द्वारा खुद को महिमा मंडित करने का ही एक उपक्रम है, या फिर सीमा विस्तार और जातिविशेष द्वारा आधिपत्य जमाने का ही एक हथियार और उपक्रम है।
कथन की पूरी ईमानदारी के साथ बारबार याद आ रही हैं मैथलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ-
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
राष्ट्रभाषा के नाम पर चाहे कहीं भी बहस हो प्रायः दो ही परिस्थियाँ दिखती हैं या तो उन्मादित आवेग या फिर भय और विभ्रम। जबकि जरूरत है देश के हित में एक ठोस कदम की। क्या हम अभी भी वक्त रहते संभल पाएंगे, देश की प्रगति के लिए निस्वार्थ होकर अपनी लघु मानसिकता से ऊपर उठ पाएंगे? देश को आज राष्ट्रभाषा की सख्त जरूरत है। गान्धी, विवेकानन्द , तिलक , बिनोबा भावे जैसे देश के सभी विचारकों की एक ही राय थी कि आजादी के बाद हिन्दी ही वह भाषा है जो इस दायित्व को बखूबी निभा सकती है और देश को एकता के सूत्र में बांध सकती है। फिर क्या वजह है कि आज भी हिन्दी को भारतीय संविधान में अपना उचित स्थान नहीं मिल पाया है!
भाषा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। पलपल हमें इसकी जरूरत पड़ती है। जरूरतों की पूर्ति हो या विचारों का आदान प्रदान , भाषा ही संवाहक है, भले ही वह मूक या आदिम रूप में संकेतिक ही क्यों न रही हो, बिना वार्तालाप के जीवन जड़ है । न दूसरे हमें समझेंगे और ना ही हम दूसरों को समझ पाएँगे। पशु-पक्षियों तक की आपसी भाषा होती है जिसके द्वारा वे एक दूसरे को प्रेम विह्वल या भयभीत होकर पुकारते हैं ,आगत खतरों और तूफान आदि की सूचना देते हैं। ध्यान देने वाला शब्द आपसी या निजी है अगर हम आज भी उसके चयन पर ही झगड़ते रहेगे तो विकसित और समृद्ध कब होंगे?
मानव समाज के विकास में भाषा का सदा से ही बहुमुखी और महती योगदान रहा है। किसी भी देश की प्रणाली और राजतंत्र सुचारु रूप से चल सके इसके लिए उसकी एक सर्व सम्मति या बहुमत से चयनित राष्ट्रभाषा का होना जरूरी है, जो कि उस देश के हर नागरिक को बोलनी, लिखनी-पढ़नी व अच्छी तरह से समझ में आनी चाहिए। भारत के संदर्भ में यह जिम्मेदारी हिन्दी ही सर्वाधिक आसानी से निभा सकती है। क्योंकि अधिकांश भारतीय आज भी अंग्रेजी के गहन वर्चस्व के बावजूद भी इसे ही सबसे अच्छी तरह से समझते और बोलते हैं। रही बात दक्षिणी प्रांतों की तो वहाँ भी स्थानीय मातृभाषाऔं का पूरा गौरव रखते हुए हमें हिन्दी को ही देश की पारस्परिक संपर्क भाषा और राज भाषा की तरह अपनाना होगा। शायद पूरे विश्व में भारत अकेला एक ऐसा देश होगा जहाँ अभी तक राष्ट्र भाषा का चयन विवादित है, आजादी के 70 साल बाद भी।
आज हमें जिस वैश्वीकरण की सीख दी जा रही है वह केवल दुनिया में वस्तुओं के आदान-प्रदान तक ही सीमित नहीं रहने वाली, बल्कि इस ग्लोबाइजेशन के नाम पर दुनिया के अन्य देशों की पहचान को भी खत्म करने की साजिश-सी दिखती है। बड़ी शक्तियां इस प्रचार में लगी हुई है कि छोटी भाषाओं के स्थान पर बड़ी भाषाओं का उपयोग हो। यानी जनसंख्या के आधाऱ पर जो भाषा अधिक बोली जाती है जिसका दखल विज्ञान, तकनीक, संचार, यातायात और व्यापार में है- उसी का उपयोग आसान है। फलतः पोछे के दरवाजे से ये बड़ी ताकतें अंग्रेजी को फिर से संपूर्ण विश्व की भाषा बनाने के लिए कृतसंकल्प दिखती जान पड़ती हैं। पर क्या हम यूँ अपने गौरवमय अतीत और स्वर्णिम भविष्य को मिटाने को तैयार हैं? विश्व में अंग्रेजी के आधिपत्य को नहीं नकारा जा सकता। पर अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए भी उसीपर जोर देना मानसिक दासता का ही द्योतक माना जाएगा। त्रिभाषाई और बहुभाषाई सूत्र अच्छे हैं, ज्ञान के लिए। जिन्हें भाषा में रुचि है उनके लिए। हाँ , नर्सरी से बस दो ही भाषाओं में पढ़ाई होनी चाहिए -मातृभाषा और राज्यभाषा। अब देखना यह होगा कि कितने प्रांत ऐसे हैं जो यदि वाकई में ऐसा नियम बना तो अंग्रेजी छोड़कर अपनी स्थानीय प्रांतीय भाषा को मातृभाषा के रूप में अपनाते हैं या नहीं। त्रिभाषीय सूत्र रखा जा सकता है यदि विद्यार्थी चाहें तो…इसके भी फायदे हैं -प्रान्तीय भाषाओं की लीपि जीवित रह पाएगी। आपके क्या विचार हैं। क्या भाषा के आधार पर देश को और खंडित करना उचित है ? क्या हम भारतीयों में वाकई में विवेक नहीं कि हम एकमत होकर अपनी राष्ट्रभाषा तक का चयन कर सकें जो देश में ही नहीं विश्व के आगे भी हमारी प्रतिनिधि और परिचायक हो!
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पुनश्चः लेखनी का आगामी नवंबर-दिसंबर वर्षांत अंक हमने ‘ विदेश में देश ‘ पर रखने का मन बनाया है। क्या आप इस विषय पर कुछ कहना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो फिर देर किस बात की ….आपकी रचनाओं का पत्रिका में स्वागत है। भेजने की अंतिम तिथि 20 अक्तूबर है। भाषा केन्द्रित यह अंक कैसा लगा, बताएँगे तो अच्छा लगेगा । सितंबर-अक्तूबर माह के सभी आगामी बड़े त्योहार दशहरा ,दिवाली आदि की हार्दिक शुभकामनाओँ के साथ,
-शैल अग्रवाल