कविता आज और अभीः लेखनी सितंबर-अक्तूबर 16

सोनचिड़ी आंगन …में बोल गई है

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शगुन शुभ हुआ है कि आयेंगे कंत
पीड़ा प्रतीक्षा की पायेगी अंत
नीम में मधुर मिसरी घोल गई है

कौंध गये सुखद सब बीते दिन-रैन
सुख की पलक में ही भर आए नैन
स्मृतियों की परत-परत खोल गई है

छोड़ उड़ी कचनार शेवंती फूल
प्रिया के प्रदेश की गंधायित धूल
ओस-बिंदु पाटल पर रोल गई है

घायल-सी सांसें और उलझे केश
देने को नयन में आंसू ही शेष
निर्धन के कोष सब टटोल गई है
सोनचिड़ी आंगन में बोल गई है।
– अज्ञात

 

 

 

 
अपनी गंगा में

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अपनी गंगा में जीती हूँ
तुम्‍हारी यमुना
जैसे—
अपने कृष्‍ण में
तुम मेरी राधा

तुम्‍हारे शब्‍दों में
छूती हूँ मैं
तुम्‍हारे ग्‍लेशियर खंड
तुम्‍हारी शब्‍द-प्‍यास में
बुझाती हूँ अपनी मन-प्‍यास
और सौंपती हूँ अक्षय तृष्‍णा
तुम्‍हारे शब्‍दों की नाव से
मैं पहुंचती हूँ
तुम्‍हारे मन की यमुनोत्री तक
सेमल के फूल के रंग में
छिपे होते हैं रेशमी फाहे
और फूली हुई सरसों का
पीताम्‍बरी शगुन
बसंत ऋतु से पहले
बसंत के लिए।
 

 

 

 

वीकएंड में
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वीकएंड में
हो जाती है
वॉशिंग-मशीन ऑन
और
सारे कपड़े
प्रेस करके
टाँक दिए जाते हैं
अलमारी के हैंगरों में
बदल दिए जाते हैं
सोफ़े के कवर
और
लगा दिया जाता है
वैक्यूम क्लीनर

सिर में
मेंहदी लगाए
वो कर रही होती है
घर की डस्टिंग

शाम को
गीले बाल पोंछ्ते हुए
चढ़ा देती है
गैस पर चाय
रात के खाने की फरमाइशें
सुनते हुए वीकएंड में

इसबार भी
‘हैप्पी रेनी सीज़न’
‘गुडनाइट’ का मैसेज़ पढ़कर
वो
कर लेती है स्विच-ऑफ़
बिस्तर में
पाँव पसारते हुए।
 

 

 

 

आई लव यू
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उन दिनों
कितनी बार
कहता था वो मुझसे
‘आई लव यू’
जब डांटते थे पिता
तो चुपचाप मेरे पास आकर
कंधे पर सिर रखकर
बैठे रहता था घंटो
भिगो देते थे
उसके आँसू
मेरे गालों को

जब अच्छे मूड में
होता था वो
सुनाता था
अजीबोगरीब किस्से…

बड़े दिनों तक
नहीं हो पाती थीं बातें
तो
मैसेज में
लिखकर भेजता था
‘आई लव यू’
उन दिनों
धरती, आकाश, नदी,
बादल, जंगल और आईना
सब मुझसे
‘आई लव यू’ कहने लगे थे

फिर बस
एक भीड़ में
खो गई मैं
और खो गया सब कुछ
हथेलियों पर बचा रहा
तो उसका वह
रेशमी स्पर्श

उंगलियों से
लिख देता था
जहाँ वो
‘आई लव यू’…
-विनीता जोशी

विनीता जोशी
 

 

 

 

औरत
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चिंताओं को गुट्टक की तरह फेंक
बिटिया के साथ
इक्खट-दुक्खट खेलती है
अपनी इच्छाओं को
रोटियों में बेल
घर मे परोसती है स्वाद
पति, बेटे के बीच
मतभेदों को
कभी आँचल मे बाँधती
कभी धागे-धागे सुलझाती है
अपने मान को बुझा
गिलाफ मे कढ़ा फूल बन
सेज महकाती है
रिश्ते की ओढ़नी
पर, टाँकती है त्याग का गोटा
रात जब बुनती है
सभी की आँखों में सपने
उसके अंदर की
मासूम गुड़िया जागती है
उसको, उसके होने का
अहसास दिलाती है
औरत को मिलजाती है ऊर्जा
वो शुरू करती है
नया दिन
और
फिर होती है तैयार
अपने अलावा सभी के लिए जीने को।
-रचना श्रीवास्तव
 

 

 

 

एक औरत
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एक औरत
जब अपने अन्दर खंगालती है
तो पाती है
टूटी फूटी
इच्छाओं की सड़क ,,
भावनाओं का
उजड़ा बगीचा ,

और
लम्हा लम्हा मरती उसकी
कोशिकाओं की लाशें
लेकिन
इन सब के बीच भी
एक गुडिया
बदरंग कपड़ों मे मुस्काती है

ये औरत
टूटती है ,बिखरती है
काँटों से अपने जख्म सीती है
पर इस गुडिया को
खोने नहीं देती
शायद इसीलिए
तूफान की गर्जना को
गुनगुनाहट में बदल देती है
औरत
रचना श्रीवास्तव

 

 

 

 

जलती बुझती
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जलती-बुझती राख की चिंगारी हूँ जलाने की अपार शक्ति रखती हूँ.
विद्रोह के स्वरों की चिंगारियाँ बुझी नहीं,अभी-कभी भड़क सकती हूँ.
समुन्दर की रेत नहीं जो तुम्हारी बंद मुट्ठी से फिसल कर बिखर जाऊँ
नारी-जाति-प्रतिनिधि बन, समष्टि-दानव-संहार की सनक रखती हूँ.

बलात्कार-व्यभिचार-अत्याचार, मार की शिकार बन लाचार नहीं हूँ.
दर्द-वेदना की मारी लुटी-पिटी,बेबस, बेजुबां आँसुओं की धार नहीं हूँ.
आँखों से अंगारे बरसाने का रुतबा रखती हूँ, अनाम रिश्ता न समझो,
तुम क्या जानो मेरी अदम्य शक्ति? क्या चण्डी का अवतार नहीं हूँ?

सबला से अबला बन जाती जब विक्षिप्तों का मुझ पर होता वार ,
काम-वेदना के मारों की खरीद-फ़रोख़्त की बन जाती हूँ शिकार,
हे मालिक! तूने क्यों मुझ कमज़ोर किया मानव-पशुओं के समक्ष?
कोमल काया बनती शत्रु,जब होता इन पर काम-पिपासा-प्रहार.

शील निगम
 

 

 

 
मंगलसूत्र
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तमाम रसमों-रिवाज़ निभा,
एक बड़ा जमघट बना
शोर-शराबे के माहौल में
सबकी मौजूदग़ी में
पहना दिया उसने मेरे गले में
चंद काले मोतियों का मंगलसूत्र,
जो सदैव याद दिलाता
सारी उम्र की उम्रकैद एक
अजनबी संग।
चाहते मिटाना मेरा सम्पूर्ण
अस्तित्व,
ढल जाऊँ, बन जाऊँ मैं
उनके घर की उस पुरानी
दहलीज़ सी,
जिसमें आई पुश्तों से कई
बहुएँ, गई कई दादियाँ।
मैं शायद बन भी गई
उस दहलीज़ का पायदान,
जिस पर सिर्फ पाँव ही पोंछे

छोटे से बड़े तक ने,
मेरा मंगलसूत्र घिस गया,
हलकी पड़ गई उसकी टिकड़ी,
मोती भी बदरंग हो गए,
पर कभी शिकायत न की,
क्योंकि ये कभी बदला नहीं जाता
।सिर्फ एक सोच,
मज़बूर करती मुझे
काश् कि उस दिन पहनाया होता
किसी ने बाहों का मंगलसूत्र
जो मुझे हर वक्त देता इक सकून
इस घर को अपना कहने के लिये।
-शबनम शर्मा
 

 

 

 

औरतों का सूरज
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औरतें नहीं करती प्राणायाम
न सूर्य नमस्कार, न देती हैं अर्घ्य
मुँह अँधेरे उठ कूटती-पछाड़ती
फींचती हैं मैले कपड़े
रात की मैल धो उजसा देती हैं
आँगन के बाहर रस्सियों पर
सूरज नहीं चमकता उनके माथे पर
पीठ पर पड़ती हैं किरणें
सूखे भीगे बालों को बाहती-काढ़ती हैं

निवृत्त हो रसोई से
दो घड़ी बाद आ उलटती – पलटती हैं
धूप को बटोरती हैं कपड़ों पर

उतरता है सूरज आँगन में
खिलखिलाती है धूप
वे नहीं बढ़ातीं हाथ
अधसूखे वस्त्रों को संभालती
बिला जाती हैं भीतर

रंग-बिरंगे सपने बिखरा
सूरज अब लेता है विदा
वे नहीं बुनतीं सपने
उतारती हैं रस्सियों से सूखे वस्त्र
बंद कर लेती हैं किवाड़
बंद दरवाज़ों के भीतर
उगता और मुरझा जाता है सूरज
वे रहती हैं निर्विकार।
– अज्ञात
 

 

 

 

तुम्हारे लिए
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जाने कैसी मिट्टी थी वह
किन सपनों से बनी
किस उम्मीद की बारिश में
जीवनताप से सिंची सवरी
जब औरत पहली बार
इस जीवन बगिया में
गेहूँ की बालों संग
सहचरी बनी उग आई होगी

धान-सी रोप दी गई होगी
तब तुरंत ही घरघर
माँ बहन पत्नी और सहचरी बनी
नए-नए रिश्तों में बांटकर
तब से आजतक
वैसे ही तो कटती-पिटती
आ रही है यह तृप्त-अतृप्त
उबलती उफनती
खुद को बांटती-छांटती

आंसुओं ने आटे सा गूंथा है इसे
रोटी-सी बिली है जीवन चकले पे
सुबह शाम जीवन भट्टी चढ़ी
चारो तरफ से झुलसी औ सिकी है

पर दुःखी मत होना तुम
परसी ही जाती रहेगी थाली में
सहज आदत है यह भी इसकी
जीवन ताप से डरती नहीं यह
दिन एक कड़ाही है इसके लिए
जहाँ गुलगुले सी फूलती हैं खुशियाँ
और रातें…बस, मोगरा हार सिंगार

फूलों की सेज लेटी कांटे बीनती चुनती
रच ही लेती है नित यह रूप अपार
खुशियों से भरा एक संसार
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए…
-शैल अग्रवाल

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