आगामी दीप-पर्व की आभा हर जीवन में सुख, शांति व समृद्धि लेकर आए। जीवन और घर आंगन इन दियों-सा ही जगमग रहे और अंतस की उर्जा नेह की आखिरी बूंद तक आसपास के अंधेरे और विकारों को दूर करने में समर्थ हो, इसी शुभकामना के साथ प्रस्तुत है दुनिया की आधी आबादी पर लेखनी का यह नारी-अस्मिता विशेषांक।
देवी दुर्गा के नवरूपों के अवतरण का महीना शुरु हो चुका है। एकबार फिरसे वही अंतस उजास का तम पर जीत का महीना। कम से कम कामना तो यही रहती है कि हम नारी के खोए गौरव की पुनःस्थापना करें, उसे पहचानें और महिमामंडित करें। जैसे केन्द्र बिन्दु के बिना कोई वृत्त नहीं रचा जा सकता बिना नारी के परिवार की कल्पना ही असंभव है और बिना एक निश्चित परिधि के वह खुद पूर्ण नहीं। नारी को समझने के लिए उसके अंतस् और उसकी संरचना से परिचित होना तो जरूरी है ही, साथ में उसके पूरक पुरुष और उनके द्वारा रचे परिवार और परिवेश को समझना भी उतना ही आवश्यक है। कौन है यह आधुनिक नारी जो पुरुषों की होड़ में खुद को भी भूल, बस आगे ही बढ़ती जा रही है…क्या वाकई में यह उसकी प्रगति है या फिर महत्वाकांक्षा के मकड़जाल में फंसी आत्महत्या की कगार पर है वह?
‘इस लोक में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के निकटतम और घनिष्ठतम हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हीं दोनों की दैहिक संरचना में मानवीय परिवार का अस्तित्व गुंफित है। और इन्हीं दोनों की शारीरिक-आत्मिक जुगलबंदी में इंसानी संतति के वंशजों का भविष्य सुरक्षित है। स्त्री की जनन-शक्ति इस ब्रह्मांड की वह तरल ऊर्जा है, जो पुरुष से ग्रहण कर मानवीय आकारों को जन्म देकर उन्हें इस धरती पर खड़ा करती है। ‘
– कृष्णा सोबती, वरिष्ठ लेखिका
लेखनी का यह सितंबर-अक्तूबर अंक इसी नारी शक्ति के आंसू और मुस्कानों की गाथा है। पर नारी की दशा और दिशा पर कुछ भी सोचने या लिखने से पहले चन्द खबरें, कविताएँ और विचार बांटना चाहूगी, जिन्होंने विषय पर थमने के लिए प्रेरित, विचलित और मजबूर किया है।
नारी पर अत्याचार और व्यभिचार की खबरें इतनी अधिक सुनने को मिलती हैं कि अब हिलाती तो हैं पर सन्न नहीं कर पातीं, शायद इन अपराधों की बहुलता और उनसे उत्पन्न आक्रोश संवेदनाओं को और भी कुंठित और पाषाणवत् करते जा रहे है। परन्तु जब भी ममतामयी ही दानवी रूप लेकर अबोध व असहाय और उसी पर पूरी तरह से आश्रित बच्चों से मुंह फेरती है, अत्याचार और आघात ही नहीं हत्या तक कर देती है, तो स्थिति असह्य हो जाती है। कुमाता शब्द पहले कल्पनातीत था, परन्तु आज विभिन्न दबाबों और स्पर्धाओं के रहते समाज और नारी के मानसिक रूप से वीभत्स और रुग्ण रूप बारबार खबरों में आ रहे हैं। कहीं वह बेटी को घूरे पर फेंक रही है तो कहीं अपने ही घर के अंदर पूर्ण उपेक्षा के साथ अबोधों को मार रही है।
ब्रिटेन की हाल की दो खबरें-
1.
साल भर के जुड़वा बच्चों में से एक को तीन साल तक मां ने घर के सेलर में बन्द रखा। मां अनब्याही थी और अकेली ही रहती थी। आम-सी बात है यहाँ यह। पड़ोसियों ने अक्सर अकेले रोते उदास बच्चे को खिड़की से झांकते भी देखा था। फिर सब बन्द हो गया। हाल ही में पड़ोसियों द्वारा असह्य बदबू की शिकायत पर पुलिस ने क्षत्-विक्षत् बच्चे के अवशेष बरामद किए। मां मृत्यु के तीन साल बाद भी उसके हिस्से के भत्ते के पैसे लगातार वसूल रही थी।
2.
रोती-चिल्लाती चार साल की बच्ची को मां ने झुंझलाकर इतनी बेरहमी से पीटा कि वह मूर्छित हो गई। डरी घबराई मां ने मदद के लिए एम्बुलेंस को फोन किया तो आने पर डॉ. ने बच्ची को संज्ञाशून्य नहीं, मृत पाया।
दोनों ही घटनाएँ मैनचेस्टर और आसपास यानी कि नौर्थ की हैं जहाँ आज गरीबी और बेकारी , साथ-साथ ही अशिक्षा भी सबसे ज्यादा है और मुफ्त की सोशल सीक्योरिटी पर जीना एक आदत-सी बनती जा रही है। कोई कई बीबियां रख रहा है तो कोई कई बच्चे। मातृ संवेदनाओं में इतना क्षरण और निष्ठुरता आजकी मां के बदलते स्वरूप पर कई-कई सवाल उठा रही है। जब जीते जागते , आंख के आगे घूमते बच्चों के साथ माँएं इतनी निष्ठुर हो सकती हैं तो भ्रूण-हत्या जैसे मुद्दों पर आक्रोश का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यूँ तो नजदीकी रिश्तों में हर दुर्व्यवहार त्रासद होता है पर मां के पास बच्चा असुरक्षित, कल्पना तक अविश्वनीय वगा करती थी। रिश्तों के इस असह्य क्षरण में नारी और पुरुष बराबर के हिस्सेदार हैं। एक रात वाले रिश्तों में आज भी दुख, ताड़ना…तिरस्कार वजिम्मेदारी नारी के हिस्से में ही अधिक आती है और आए दिन विक्षिप्त मांओं द्वारा अपने ही बच्चों के साथ दुर्व्यवहार या क्रूर उपेक्षा की खबरें सुनने को मिल जाती हैं । सामाजिक व्यवस्था और नियम कानून आज भी पुरुष का ही अधिक साथ देते हैं और अपने स्वाभाविक मानवीय गुण दया, ममता और करुणा जैसी संवेदनाओं से दूर होती नारी भी आज उतनी ही क्रूर होती जा रही है।
हो सकता है इसमें सदियों से चले आ रहे नारी के साथ होते दुर्व्यवहार और सामाजिक भय का बड़ा हाथ हो। दहेजप्रथा और बहुपत्नी जैसी कुप्रथाओं का बड़ा हाथ हो। पुरुष की नारी पर सामंती सत्ता वाली मानसिक प्रवृत्ति का बड़ा हाथ हो। ढोर की तरह उसे रखने और हांकने का… उसके प्रति आज भी समाज की पूर्ण उदासीनता का बड़ा हाथ हो,
बात को और स्पष्ट करने के लिए चन्द कविताएं- ये चारो भिन्न तेवर और भिन्न दृष्टिकोण से लिखी गई हैं पर चारो ही स्पष्ट रूप से कुछ कहना चाहती हैं,
1.
“देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा –
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा
-जयशंकर प्रसाद
2.
बेजगह
अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून” –
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर!
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ
अपनी जगह पर!
जगह? जगह क्या होती है?
यह, वैसे, जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही!
याद था हमें एक-एक अक्षर
आरंभिक पाठों का-
“राम, पाठशाला जा!
राधा, खाना पका!
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाडू लगा!
भैया अब सोएगा,
जा कर बिस्तर बिछा!
अहा, नया घर है!
राम, देख यह तेरा कमरा है!
‘और मेरा?’
‘ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता!”
जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग,
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन कभी तो नेलकटर या कंघियों में
फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है-
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बीए के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ –
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग!
सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ,
ऐसे ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अभंग!
-अनामिका
3.
मात देना नहीं जानती
घर की फुटन में पड़ी औरतें
ज़िन्दगी काटती हैं
मर्द की मौह्ब्बत में मिला
काल का काला नमक चाटती हैं
जीती ज़रूर हैं
जीना नहीं जानतीं;
मात खातीं-
मात देना नहीं जानतीं
-केदार नाथ अग्रवाल
4.
नारी
प्रिये मैं तुम्हें कविता कहूँ
उन्माद या प्रेरणा
या फिर सोती आँखों का
सपना समझकर
छलनामयी, भूल जाऊँ?
नारी उसकी बात सुनकर
समझकर बस मुस्कुरायी-
पुकारते रहो, जिस नाम से
जी चाहे तुम्हारा…
हर संबोधन को मैं तो जी लूंगी
पर क्या तुम मुझे झेल पाओगे?
– शैल अग्रवाल
नारी के प्रति व्यवहार की नहीं, रवैये की बात हैं, जिसे बदलने और सुधारने की बेहद जरूरत है। सारी सहनशीलता और धैर्य के साथ आज भी नारी वहीं की वहीं खड़ी दिखलाई देती है, जहाँ सदियों पहले थी, दोयम दर्जे के पायदान पर। नारी को कठपुतली या मनोरंजन की वस्तु समझने से आगे बढ़ना होगा। कुंठाओं से बचना और बचाना है तो गंभीरता से लेना होगा। पुरुष वर्ग और समाज दोनों को ही इसे। आपसी रिश्तों में प्यार, श्रद्धा और विश्वास जैसे भाव और शब्द वापस आने ही चाहिएँ।
पिछले वर्ष के अक्तूबर अंक के अपने ही संपादकीय के साथ इस विमर्श को समेटती हूँ।
प्रश्न मत पूछ, उत्तर मत ढूँढ
यूँ ही चलती है दुनिया, यूँ ही चलेगी
जानते जो , सोचते जो, करते नहीं कुछ
सो गये हैं सभी मुंह को ढककर
पर कब तक..
विचार जब पद्धति बन जाएँ तो खतरनाक स्थिति है और नारी के साथ तो जाने कब से यही होता आया है….समाज के रवैये में भी और खुद उसकी अपनी नजर में भी । उगते सपनों की घास और झुकते चांद की परछांई बेहद नशीली होती है और पुरुष ने तो ऐसा रोपा है उसे अपनी सुविधानुसार दोनों के बीच कि आजतक धान-सी फल-फूल रही है, और खुश भी है वह इसमें।
वास्तव में पर वह क्या चाहती है जीवन और समाज से, समझना होगा खुद नारी को भी इसे।
लेखनी के अगले अंक का विषय सरहदें है। क्या ये सुरक्षा देती हैं या सिर्फ फूट डालती हैं? ये सरहदें जो सुरक्षा के लिए बनाई जाती हैं , जो आधिपत्य जताती हैं, क्या इनकी वजह से ही बटवारे हो जाते हैं, न सिर्फ जमीन के, अपितु मन के भी? चाहे देश हो या परिवार क्या ये भाई को भाई का दुश्मन नहीं बना देतीं? क्या इनको हटा देना चाहिेए, पर कहीं इसमें चौर-लुटेरों की मौज तो नहीं! इससे अराजकता और लूटपाट तो नहीं बढ़ेगी?
रचनाओं और विचारों का इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि 15 नवंबर।
पुनः पुनः आगामी ज्योति पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ,
शैल अग्रवाल