यदि किसी सर्वसाधारण या आम व्यक्ति से यह प्रश्न पूछा जाए कि “होलिकोत्सव” क्या होता है ? तो उसे जवाब देने में विंलम्ब नहीं लगेगा और वह तत्काल उत्तर भी दे देगा. वह कह उठेगा-“ भाई मेरे ! यह भी कोई प्रश्न पूछने जैसी बात है. होलिकोत्सव का माने हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, मौज-मस्ती ही तो है. यहाँ उसकी मौज-मस्ती के माने कुछ और ही है. मतलब जमकर नशापत्ती की जाएगी. अश्लीलता का पिशाच इस दिन नंगा होकर नाचेगा. रही हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद की बात, तो आजकल वह कहीं पर भी परिलक्षित नहीं होता. अब एक प्रश्न फ़िर उपस्थित होता है कि वास्तव में होलिकोत्सव है क्या? इसे समझने के लिए हमें वैदिक काल में झांकना होगा.
हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, मौज-मस्ती और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक “होलिकोत्सव” वास्तव में एक यज्ञ है, जिसका मूलस्वरुप आज लगभग विस्मृत हो चुका है. इस आयोजन में प्रचलित हँसी-ठिठोली, गायन-वादन, हुडदंग और कबीर इत्यादि के उद्भव और विकास को समझने के लिए हमें उस वैदिक सोमयज्ञ के मूलस्वरुप को समझना पडॆगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व के मूल में निहित है.
वैदिक काल में ”सोमलता” प्रचुरता से उपलब्ध हो जाती थी. इसका रस निचोडकर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे गए. यह सोमलता कालान्तर में लुप्त हो गयी और इस तरह यह प्रविधि बंद हो गयी. ब्राह्मणग्रन्थों में इसके अनेक विकल्प दिये गये हैं, जिसमें “पूतीक” और अर्जुनवृक्ष मुख्य है. अर्जुनवृक्ष को हृदय के लिए अत्यन्त शक्तिप्रद माना गया है. आयुर्वेद में इसके छाल की हृदयरोगों के निवारण के संदर्भ में विशेष प्रशंसा की गयी है.इनका रस “ सोमरस” इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारक होता था कि उसका पानकर वैदिक ऋषियों को अमरता-जैसी आनन्द की अनुभूति होती थी इन सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे-एकाह-अहीन-और सत्रयाग..अन्तिम दिन में किए जाने वाले व्रत को “महाव्रत”के नाम से जाना जाता था. महाव्रत के अनुष्ठान के दिन वर्ष भर यज्ञानुष्ठान में ऋषिगण अपना मनोविनोद करते थे. ऎसे आमोद-प्रमोदपूर्ण कृत्य जिसका प्रयोजन आनन्द और उल्लास का वातावरण निर्मित करना होता था, होलीकोत्सव इसी महाव्रत की परम्परा का संवाहक है. होली में जलायी जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का प्रतीक है..यज्ञवेदी में गूलर की टहनी गाडी जाती थी,क्योंकि गूलर का फ़ल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है. यह फ़ल इतना मीठा होता है कि फ़ल पकते ही इसमें कीडॆ पडने लगते हैं. गूलर का एक नाम और है- उदुम्बरवृक्ष. इसकी टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती थी. इसके नीचे बैठकर वेदपाठी अपनी-अपनी शाखा के मन्त्रों का पाठ करते थे. सामवेद गायकों की चार श्रेणियाँ थी- उग्दाता-प्रस्तोता-प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य. यज्ञवेदी के चारों तरफ़ उदुम्बर काष्ठ से बानी वेदी पर बैठकर गान किया जाता था और जल से भरे घडॆ लिए हुए स्त्रियाँ “इदम्मधु…इदम्मधु( यह मधु है…मधुर है) कहती हुईं यज्ञवेदी के चारों ओर नृत्य किया करती थीं.
इस नृत्य के समानान्तर अन्य स्त्रियाँ और पुरुष वीणावादन करते थे. उस समय वीणाओं के अनेक प्रकार मिलते थे. इनमें अपघाटिला, काण्डमयी, पिच्छोदरा, बाण इत्यादि मुख्य वीणाएँ थीं. “शततंत्री” नाम से विदित होता है कि कुछ वीणाएँ सौ-सौ तारों वाली भी थीं. इन्हीं शततन्त्रीका –जैसे वीणाओं से सन्तूर का विकास हुआ. कल्पसूत्रों में महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी मिलते हैं. ये हैं-अलाबु, वक्रा( समतन्त्रीका-वेत्रवीणा),कापिशीष्र्णी, पिशीलवीणा (शुर्पा) इत्यादि. शारदीय वीणा भी होती थी,जिससे आगे चलकर आज के सरोद का विकास हुआ. होली में हँसीँ-ठिठोली का मूल “अभिगर-अपगर-संवाद”नामक ग्रंथ में मिलता है. भाषकारों के अनुसार “अभिगर” ब्राह्मण का वाचक है और “अपगर” शूद्रों का. ये दोनो एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करते थे और विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलते थे.
महाव्रत के दिन घर-घर में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते थे. राष्ट्ररक्षा के लिए जनमानस को सजग बने रहने की शिक्षा देने के लिए इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रधारी-कवचधारी राजपुरुष तथा सैनिक परिक्रमा भी करते थे.
उत्सवों और पर्वों का आरम्भ अत्यन्त लघुरुप में होता है, फ़िर उसमें निरन्तर विकास होता जाता है. सामाजिक अवश्यकताएँ इनके विकास में विशेष भूमिका का निर्वहन करती हैं. यही कारण है कि होली जो मूलतः एक वैदिक सोमयज्ञ के अनुष्ठान से प्रारम्भ हुआ, आगे चलकर भक्त प्रल्हाद और उसकी बुआ होलिका के आख्यान से जुड गया. मदनोत्सव तथा वसन्तोत्सव का समावेश भी इसी क्रम में आया.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एक पुरुषार्थ के रुप में प्रतिष्ठित है और इसे वेदों ने भी स्वीकार किया है. नृत्य- संगीत, हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद ,आनन्द-उल्लास इसी तृतीय पुरुषार्थ के नानाविध अंग हैं. होलिकोत्सव के रुप में हिन्दू-समाज ने मनोरंजन को स्थान देने के लिए तृतीय पुरुषार्थ के स्वरुप और लोकोपयोगी स्वरुप को धर्म के आधार पर मान्यता प्रदान की है.