बाल कहानीः रंग बरसे, बाल कविता-शैल अग्रवाल


रंग बरसे

बगल का वह बंगला सुन्दर था; बेहद करीने से सजा-संवरा । बाहर हरी-हरी घास में रंग बिरंगे फूल और बीचोबीच संगमरर का सफेद फव्वारा जिसपर तरह-तरह की चिड़ियां अठखेलियां करती रहतीं, परन्तु आता जाता एक व्यक्ति न दिखाई देता। आते-जाते बच्चों का बड़ा मन करता कि अन्दर जाकर ठीक-से देखें,  वहाँ जाकर खेलें। पर बाहर वाले दरवाजे पर हमेशा अन्दर की तरफ एक बड़ा-सा ताला लटका दिखता जो उन्हें मुंह चिढ़ाता और उनके सारे मनसूबों पर पानी फेर देता। बच्चे मन मसोस कर रह जाते। जितना ही वे उस घर को देखते, उतना ही उनका कौतूहल बढ़ता जाता- ‘जरूर कोई बेहद खडूस और बुढ्ढा अंकल रहता होगा इसके अंदर अपनी बेहद बीमार और चिड़चिड़ी बुढ़िया के साथ।’  वे आए दिन ही कुछ ऐसा सोचते और फिर  कभी  कन्धे उचकाकर तो कभी हंसकर वापस अपने क्रिकेट के खेल में रम जाते। बच्चों ने तो अब उस कोठी को  भूत-बंगला भी कहना शुरू कर दिया था। भूत बंगला इसलिए कि वहां कभी कोई आता जाता या रहता दिखता ही नहीं था। हां, एक बूढ़ा माली जरूर कभी-कभार बाहर बगीचे में काम करता, साफ-सफाई करता दिख जाया करता था जो बच्चों की अंदर गई गेंदों को बाहर निकालकर, करीने से उसी बंद दरवाजे के साथ एक कोने में रख देता था।

वह होली का दिन था और बच्चों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि भूत बंगले का वह हमेशा ही बन्द रहनेवाला  दरवाजा खुला हुआ था, वह भी शाम के चार बजे…ऐन उनके खेलने के वक्त पर !

बच्चों ने बड़े कौतूहल से अंदर की ओर झांका और फिर टोली की टोली सम्मोहित-सी एक साथ चल पड़ी। अंदर रंग-बिरंगे फूलों और तितलियों के साथ-साथ कई तरह की चिड़िया भी दिखीं, जो शायद पालतू रही हों। सामने, बाहर बरामदे में पीतल की चमकती बाल्टियों में कुछ फल, कपड़े और मिठाइयां आदि भी रखे दिखे। साथ में तरह-तरह की अनूठी पिचकारियां और कागज के कुछ पैकेट भी रखे हुए थे। इनमें जरूर रंग और गुलाल वगैरह होगा- बच्चों ने सोचा। वाकई में वहां वे सब चीजें थीं , जिन्हें खरीदने की आज उन्होंने अपने-अपने मां बाप से जिद की थी या उनके साथ जाकर  वे खरीदकर ले भी आए थे। किसके लिए हैं ये सब और कौन है वह खुशकिस्मत बच्चा? – सबके मुंह आश्चर्य से खुले हुए थे, क्योंकि उन्हें कोई बच्चा इन सब चीजों से खेलने वाला कहीं नजर नहीं आ रहा था। अभी वे आपस में कुछ अनुमान लगा भी पाएँ कि अन्दर से एक आवाज आई, ‘ हां, हां, ले लो सब चीजें तुम लोग और आपस में बांट लो। यह सब तुम्हारे लिए ही हैं।‘

‘ हमारे लिए? पर आप तो हमें जानते भी नहीं !‘ बच्चों को अब आश्चर्य के साथ-साथ कुछ-कुछ डर भी लगने लगा था और अजनबियों से बातचीत मत करो, कुछ न लो‘-वाली मां-बाप की सीख भी याद आने लगी थी। पर वह इस सबके बावजूद भी अपना कमरे के अन्दर झांकने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे। तभी कमरे के बाहर पीछे के वरांडे  में एक जानी पहचानी-सी आंटी आराम चेयर पर अधलेटी धूप खाती दिखीं और पास ही में उनकी सात-आठ साल की बेटी भी जो अकेली ही अपनी गुड़िया से बातें भी कर रही थी और उसके साथ खेल भी रही थी। बच्चों को देखते ही उस नन्ही-सी लड़की की आँखों में एक बड़ी-सी चमक आ गई, मानो वह उनसे पूछ रही हो- ‘ क्या तुम सब सच में मेरे साथ खेलने आए हो. ?  ..मुझ पर हंसोगे तो नहीं ! ‘ बच्चे कुछ पूछें या जबाव दें, इसके पहले ही वह आंटी उठकर उनके पास आ गईं और बोलीं-यह मेरी बेटी निशिता है। आज इसका बहुत मन कर रहा था कि कोई इसके साथ भी होली खेले। हमें यहां कनाडा से आए पूरे चार साल होने को आए। पर अभी तक इसने कभी नहीं कहा था कि इसे किसी के साथ खेलना है। आज पहली बार इसने बाहर की दुनिया से जुड़ना चाहा है। वरना जबसे वह कार दुर्घटना हुई थी जिसमें इसने अपनी कई कई चोटों के साथ मन पर भी एक जबर्दस्त चोट खाई थी और अपने पिता और बड़े भाई दोनों को ही खो दिया था, यह कहीं जाना या किसी से बात तक नहीं करना चाहती। बाहर भी जाने में डरती है। बिल्कुळ इसी कमरे में बन्द होकर रह गई है।‘ 

अब तो बच्चों के अंदर भी एक नया जोश आ गया।  भय और आशंका रफूचक्कर हो गए। एक-एक ने आगे बढ़-बढ़कर अपने –अपने नाम बताये । मैं सुधांशु हूँ और मैं प्रियाँश और मैं विकास …। अचानक ही निशिता को इतने सारे दोस्त मिल गए। और आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने भी थोड़ा शरमाते-सकुचाते उनसे हाथ मिला ही लिया। उसकी मां की खुशी का ठिकाना नहीं था। सबसे बड़े जोर शोर से मुस्कुराते हुए उन्होंने भी हाथ मिलाया और सबको चाकलेट भी लाकर दीं। वे आन्टी की अनुमति लेकर निशिता को बाहर मुहल्ले की जलती होली भी दिखाने ले गए। उस दिन निशिता ही नहीं, उसकी गुड़िया भी कई साल बाद, पहली बार घर से बाहर निकली थी। बच्चों ने देखा आन्टी मारे खुशी के बारबार साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछे जा रही थीं।

अगली सुबह सभी बच्चे अपने-अपने मम्मी-पापा के साथ आए और सबने जी भरकर एक दूसरे के साथ खूब होली खेली। चारो तरफ खुशियों के रंग बरस रहे थे। वे आपस में गले मिले और मिठाई भी खाई व खिलाई एक दूसरे को। अब उस दरवाजे पर कभी ताला नहीं दिखता और बगीचे में अक्सर ही निशिता व अन्य बच्चों की किलकारियाँ गूंजती रहती हैं। अब उस घर को कोई बच्चा ‘ भूत बंगला‘ भी  नहीं कहता और बच्चों यही तो इस त्योहार का असली अर्थ है- अजनबियों से भी मिलना-जुलना…सबमें प्यार और खुशियां बांटना। 

बच्चों को लगा कि इस साल उन्होंने सबसे अच्छी और यादगार होली खेली थी, क्योंकि इस होली ने उन्हें कमजोरों की मजबूरी और अकेलेपन पर हंसना नहीं, उन्हें अपना दोस्त कैसे बनाया जाए, यह  सिखला दिया था।…

लेखनी के सभी नन्हे पाठकों को होली के शुभ अवसर पर एक चुटकी गुलाल के साथ,

आओ साथी मिलजुल बोलें
हम प्रेम प्यार की बोली
हिलमिल खेलें फाग संग संग
कपट द्वेष की जलावें होली।
-शैल अग्रवाल

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