शेक्सपियर ने ऐसे ही तो नहीं लिखा होगा कि यदि संगीत ही आत्मा का आहार है तो धुन बजती ही रहनी चाहिए।
सत्तरवें दशक का अंतिम दौर था वह और चौके में फुल वौल्यूम पर मोहक संगीत तैर रहा था, भुनते मसाले और पकती सब्जियों की गमक को लपेटे-समेटे हुए। मेरे लिए यह एकांत कभी भी किसी स्वर्ग से कम नहीं… सदा से ही हर्ष-विषाद, रोचक या उबाऊ, हर परिस्थिति में बेहद रचनात्मक और उर्जामय वातावरण पैदा करने वाला रहा है यह।…
.’चलो दिलदार चलो , चाद के पार चलो/ हम हैं तैयार चलो ‘ । अचानक ही संगीत लहरियों को भंग करते हुए देवरजी जो कि बेहद जिन्दादिल इन्सान हैं, हाथ का कौर हाथ में ही रोककर, आंखें मटकाते बोले-हाँ तुम क्यों नहीं कहोगी तैयार हैं हम, यह भी सोचा है पर कि किराया कौन देगा? सुनते ही हंसी का फव्वारा फूट पड़ा चारो ओर से।
पाकीजा फिल्म का यह गाना आज भी पसंद है पर जब भी सुनती हूँ ओठों पर बरबस एक करुण मुस्कान ही आ पाती है।
मानव सपनों की यह अव्यवहारिक उड़ान और अर्थहीन रूमानियत…जिस पृथ्वी पर रहते है उसकी तो परवाह नहीं, न जी भरकर देखा और न सराहा, परन्तु सुदूर बसे चांद के सपने अवश्य भरमाएंगे। कब खतम होगा हमारा यह अपरिचित और अबूझ का रोमांच ! इसी दीवानगी में ही तो छुपी हुई है सारी उलझनें। पर यदि वाकई में गुलाब की ही चाहत है तो कांटों की चुभन की आदत भी डालनी ही होगी ।
जब जब रूमानियत यथार्थ से टकराती है किरच किरच सपनों से आहत होना स्वाभाविक है परन्तु सामंजस्य बिठाना , सह पाना सबके बस की बात नहीं। पर कितना जरूरी है यह भी एक खुशहाल और सफल जिन्दगी के लिए। उन्माद में विध्वंस मिनटों का काम है पर सृजन सिर्फ कड़ी मेहनत, मंथन, और विवेक ही मांगता है। कला हो चाहे जीवन का कोई अन्य व्यवहारिक क्षेत्र, नियम, परिणाम और क्रम वही एक हैं…खिलना और महकना। पर यह खिलना और महकना ऐसे ही तो नहीं हो जाता। महीनों धरती इन्तजार करती है तब जाकर बीज पनपता है। इसमें भी संयम की दरकार है। हताश निराशा नहीं, एक लम्बी प्रतीक्षा का फल है।
सौंदर्यबोध के साथ-साथ यथार्थ के प्रति जागरूकता का बोध उत्पन्न करना साहित्य का एक प्रमुख उद्देश्य है। पंखों की क्षमता तौलकर ही उड़ान लेनी चाहिए, ऐसा कहना और सोचना जितना आसान है व्यवहार में लाना शायद उतना ही मुश्किल। किधर जा रहे हैं मानव सभ्यता के बढ़ते कदम…क्या तालमेल है उसके सपनों और सच में…क्या इक्कीसवीं सदी के नाम पर आज भी वही जंगल राज है जहाँ कमजोर शक्तिवान का आहार है? यही जानने की या सचेत और जागरूक होने की एक छोटी-सी कोशिश है यह ग्यारहवें वर्ष का प्रवेशांक- खिलने और महकने की ऋतु में। वैसे यहाँ भी मौसम अब उतना ही खुशनुमा हो चला है जितनी कि जानी अनजानी बाधाओं से जूझती आपकी ‘लेखनी’। नव कोपल यानी नव संभावनाओं से गुजरना, उन्हें तलाशना, चाहे वह समाज में हो या साहित्य में सदा ही एक संतोषजनक, निजी और प्रेरक अनुभव है जब भाव,भाव और विचार, विचार शब्द व कर्म बनकर उभरते हैं तो अभूतपूर्व उर्जा देते हैं। तन मन को भिगोते ही नहीं अपने साथ बहाने की सामर्थ्य रखते हैं…दिशा बदल सकते हैं। समाज और स्वभाव में जो भी शाश्वत और सुंदर है वही है सृजन। फिर बसंत तो मौसम ही है सृजन का…उल्लास और राग रंग का। खेतों में बिछी पीली सरसों की चादर हो या डालों पर गुटरगूं करते नव विहग…नरम धूप में कुलाचें मारते नव शावक सब वही प्यार और सृजन का संदेश देते ही तो दिखते हैं। हमारे त्योहार होली हो या बैसाखी, कूची हो या कलम शब्द शब्द और रंग रंग एक नई उल्लास और मेलजोल की तस्बीर उकेरता मौसम है यह और यह अंक समर्पित इसी नवसृजन की पीड़ा और इस संघर्ष के अप्रतिम उल्लास को।
पानी सी बिखर गई हूँ मैं
सूखे दरकते इन खेतों पर
नव अंकुरों के इन्तजार में
सांझ का अर्थ अंधेरा तो,पर उदासी नहीं
उग आएगा चाँद जब सूरज डूब जाएगा।
शैल अग्रवाल
पुनश्चः आप सभी पाठक व रचनाधर्मियों के निरंतर प्रोत्साहन और सहयोग की तहेदिल से आभारी हूँ और अंक के किंचित विलंब के लिए क्षमा प्रार्थी भी। तकनीकी समस्याएं आती हैं और आती रहेंगी परन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं कि हार मान ली जाए विशेषतः तब जब हम और आप आकंठ दूबे हों इसके प्यार में। प्यार भी तो एक उर्जा है जो जीने मरने तक की प्रेरणा देता है और यही विषय है लेखनी के मई जून अंक का- प्रेम और युद्ध। आप सोच रहे होंगे प्रेम और युद्ध का क्या संबन्ध… सोचें या फिर किसी प्रेमी या क्रान्तिकारी से पूछें… विषय पर आपके विचार और रचनाएँ आमंत्रित हैं । भेजने की अंतिम तिथि 20 अप्रैल है @ shailagrawal@hotmail.com